Astavakra Geeta
अष्टावक्र महागीता 1
जनक उवाच
कथं ज्ञानमवाप्नोति, कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद, ब्रूहि मम प्रभो ॥
कैसे पाऊँ मुक्ति मैं, कैसे पाऊँ ज्ञान ।
कैसे वैरागी बनूँ, बतलाओ भगवान ॥1-1॥
अष्टावक्र उवाच
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्, विषयान विषवत्त्यज ।
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज ॥
चाह मुक्ति की हो अगर, विष विषयक ना चाह ।
दया, क्षमा, संतोष सत्, सरल ये अमृत राह ॥1-2॥
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न, वायुर्द्यौर्न वा भवान् ।
एषां साक्षिणमात्मानं, चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥
धरती जल ना आग है, पवन न तू आकाश ।
चेतन साक्षी आत्मा, तू है मुक्त प्रकाश ॥1-3॥
यदि देहं पृथक् कृत्य, चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शान्तो, बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥
अलग करे तू देह जो, चेतन को आराम ।
सुख और शांति झट मिले, मिले मुक्ति का धाम ॥1-4॥
न त्वं विप्रादिको वर्ण:,नाश्रमी नाक्षगोचर: ।
असङगोऽसि निराकारो, विश्वसाक्षी सुखी भव॥
वर्ण आश्रम तू नहीं, कोई सके न देख ।
निराकार संगी रहित, साक्षी भाव से देख ॥1-5॥
धर्माधर्मौ सुखं दुखं, मानसानि न ते विभो ।
न कर्तासि न भोक्तासि, मुक्त एवासि सर्वदा ॥
धर्म-अधर्म, सुख-दु:ख सदा, मन से जुड़े न जान ।
ना तू भोगे ना करे, मुक्त सदा तू मान ॥1-6॥
एको द्रष्टासि सर्वस्य, मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा ।
अयमेव हि ते बन्धो, द्रष्टारं पश्यसीतरम् ॥
सकल जगत के हो द्रष्टा, सदा मुक्त हो आप ।
किन्तु अन्य को देख के, बंधन समझे आप ॥1-7॥
अहं कर्तेत्यहंमान, महाकृष्णाहिदंशित: ।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं, पीत्वा सुखं भव ॥
जो ख्ाुद को कर्ता कहे, महासर्प फुफकार ।
नहीं जो कर्ता जानता, अमृत-सुख का द्वार ॥1-8॥
एको विशुद्धबोधोऽहं, इति निश्चयवह्निना ।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं, वीतशोक: सुखी भव ॥
मैं ही ज्ञान विशुद्ध हूँ, निश्चित जब ले जान ।
जलता वन अज्ञान का, शोकरहित सुख मान ॥1-9॥
यत्र विश्वमिदं भाति, कल्पितं रज्जुसर्पवत् ।
आनंदपरमानन्द: स, बोधस्त्वं सुखं चर ॥
रस्सी लगती सर्प सी, जग ये माया जान ।
अनुभव परमानन्द करे, उसको ही सुख मान ॥1-10॥
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि, बद्धो बद्धाभिमान्यपि ।
किवदन्तीह सत्येयं, या मति: सा गतिर्भवेत् ॥
अहं मुक्त ही मुक्त है, बद्ध सोच बंध जाय ।
यही कहावत सत्य है, मति जैसी गति पाय ॥1-11॥
आत्मा साक्षी विभु:, पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रिय: ।
असंगो नि:स्पृह: शान्तो, भ्रमात्संसारवानिव ॥
साक्षी आत्मा सब जगह, पूर्ण, सजीव, निष्काम ।
मुक्त, शांत, इच्छारहित, लौकिक भ्रमित तमाम ॥1-12॥
कूटस्थं बोधमद्वैत – मात्मानं परिभावय ।
आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा, भावं बाह्यमथान्तरम् ॥
तटस्थ, चेतन, एक है, आत्मिक चिंतन भाव ।
मैं के भ्रम से मुक्त रहे, बाह्य जगत स्वभाव ॥1-13॥
देहाभिमानपाशेन चिरं, बद्धोऽसि पुत्रक ।
बोधोऽहं ज्ञानखंगेन, तन्निष्कृत्य सुखी भव ॥
देह-दर्प चिरकाल से, पुत्र ये बंधन जान ।
काट ज्ञान की धार से, सुख है इसमें मान ॥1-14॥
नि:संगो निष्क्रियोऽसि, त्वं स्वप्रकाशो निरंजन: ।
अयमेव हि ते बन्ध:, समाधिमनुतिष्ठति ॥
निष्क्रिय और नि:संग तुम, स्थिर प्रकाश निर्दोष ।
करे ध्यान मन शांत ये, है बंधन का दोष ॥1-15॥
त्वया व्याप्तमिदं विश्वं, त्वयि प्रोतं यथार्थत: ।
शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा, गम: क्षुद्रचित्तताम् ॥
विश्व यह तुमने रचा, तुम ही इसके नाथ ।
ज्ञान-रूप तुम शुद्ध भी, हीन भाव ना साथ ॥1-16॥
निरपेक्षो निर्विकारो, निर्भर: शीतलाशय: ।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव, चिन्मात्रवासन: ॥
विचारहीन, इच्छारहित, ठोस व शीतल भाव ।
बुद्धिमान तुम हो बहुत, चेतन, शांत स्वभाव ॥1-17॥
साकारमनृतं विद्धि, निराकारं तु निश्चलं ।
एतत्तत्त्वोपदेशेन, न पुनर्भवसंभव: ॥
मिथ्या हर आकार है, निराकार को मान ।
तत्व यही तू जान ले, पुनर्जन्म नहीं जान ॥1-18॥
यथैवादर्शमध्यस्थे, रूपेऽन्त: परितस्तु स: ।
तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्त:, परित: परमेश्वर: ॥
बसे रूप दर्पण में ज्यूँ, बाहर रहे समान ।
वैसे अंतर ईश बसे, बाहर भी भगवान ॥1-19॥
एकं सर्वगतं व्योम, बहिरन्तर्यथा घटे ।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म, सर्वभूतगणे तथा ॥
घट के अंदर बाह्य भी, इक सा ही आकाश ।
वैसे ही परमात्मा, सब में करता वास ॥1-20॥
अष्टावक्र महागीता 2
जनक उवाच
अहो निरंजन: शान्तो, बोधोऽहं प्रकृते: पर: ।
एतावंतमहं कालं, मोहेनैव विडम्बित: ॥
ओह! निष्कलंक, शांत मैं, प्रकृति परे सुजान ।
भ्रम में मैं अब तक रहा, पड़े मोह में प्राण ॥2-1॥
यथा प्रकाशयाम्येको, देहमेनो तथा जगत् ।
अतो मम जगत्सर्वमथवा न च किंचन ॥
यूँ मैं रोशन तन करूँ, जग भी रोशन होय ।
पूर्ण जगत या मैं बसूँ, या फिर जग ना होय ॥2-2॥
सशरीरमहो विश्वं, परित्यज्य मयाऽधुना ।
कुतश्चित् कौशलादेव, परमात्मा विलोक्यते ॥
तनसहित मै त्याग दूँ, यह सारा संसार ।
कौशल कुछ ऐसा मिले, खुले प्रभु का द्वार ॥2-3॥
यथा न तोयतो भिन्नास्-तरंगा: फेन बुदबुदा: ।
आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम् ॥
अलग नहीं जल लहर से, बुल्ला फेन समान ।
अलग आत्मा भी नहीं, जगत एक ही मान ॥2-4॥
तंतुमात्रो भवेदेव, पटो यद्वद्विचारित: ।
आत्मतन्मात्रमेवेदं, तद्वद्विश्वं विचारितम् ॥
वस्त्र देखिये ग़ौर से, धागों का है जाल ।
आत्माओं का जाल ही, सकल जगत का हाल ॥2-5॥
यथैवेक्षुरसे क्लृप्ता, तेन व्याप्तैव शर्करा ।
तथा विश्वं मयि क्लृप्तं, मया व्याप्तं निरन्तरम् ॥
रस गन्ने का रूप हैं, चीनी भी रस-रूप ।
वैसे जग मुझसे बना, मैं ही जगत-स्वरूप ॥2-6॥
आत्माऽज्ञानाज्जगद्भाति, आत्मज्ञानान्न भासते ।
रज्जवज्ञानादहिर्भाति, तज्ज्ञानाद्भासते न हि ॥
आत्म लगे जग, ज्ञान बिन, रहे न जग, हो ज्ञान ।
रस्सी लगती सर्प सी, सर्प लुप्त, जब ध्यान ॥2-7॥
प्रकाशो मे निजं रूपं, नातिरिक्तोऽस्म्यहं तत: ।
यदा प्रकाशते विश्वं, तदाऽहंभास एव हि ॥
मेरा रूप प्रकाश है, नहीं परे पहचान ।
ज्यूँ प्रकाशित जग करे, मैं की भी पहचान ॥2-8॥
अहो विकल्पितं, विश्वंज्ञानान्मयि भासते ।
रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ, वारि सूर्यकरे यथा ॥
कल्पित जग मुझ में दिखे, कारण है अज्ञान ।
सर्प-सीप रस्सी रजत, सूर्य किरण जल भान ॥2-9॥
मत्तो विनिर्गतं विश्वं, मय्येव लयमेष्यति ।
मृदि कुम्भो जले वीचि:, कनके कटकं यथा ॥
मुझसे ही है जग बना, मुझमें होय विलीन ।
घट माटी, जल में लहर, कड़ा कनक में लीन ॥2-10॥
अहो अहं नमो मह्यं, विनाशो यस्य नास्ति मे ।
ब्रह्मादिस्तंबपर्यन्तं, जगन्नाशोऽपि तिष्ठत: ॥
अचरज है! ख़ुद को नमन, जीऊँ विश्व – विनाश ।
मिट जाये तृण ब्रह्म सब, मगर रहूँ आकाश ॥2-11॥
अहो अहं नमो मह्यं, एकोऽहं देहवानपि ।
क्वचिन्न गन्ता नागन्ता, व्याप्य विश्वमवस्थित: ॥
अचरज है! मुझको नमन, हूँ मैं ही सशरीर ।
आवे-जावे जो नहीं, फैला जग तस्वीर ॥2-12॥
अहो अहं नमो मह्यं, दक्षो नास्तीह मत्सम: ।
असंस्पृश्य शरीरेण, येन विश्वं चिरं धृतम् ॥
अति आश्चर्य! नमन मुझे, कुशल अनोखा जान ।
बिना स्पर्श इस देह के, जग धारण को मान ॥2-13॥
अहो अहं नमो मह्यं, यस्य मे नास्ति किंचन ।
अथवा यस्य मे सर्वं यद् वाङ्मनसगोचरम् ॥
अचरज है! मुझको नमन, जो कुछ रखे न पास ।
या मन-वाणी से समझ, उसका है आभास ॥2-14॥
ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञात्ता, त्रितयं नास्ति वास्तवं ।
अज्ञानाद् भाति यत्रेदं, सोऽहमस्मि निरंजन: ॥
ज्ञान, ज्ञेय ज्ञाता नहीं, सत्य न तीनों मान ।
यह केवल अज्ञानता, शुद्ध रूप मैं जान ॥2-15॥
द्वैतमूलमहो दु:खं नान्य-त्तस्याऽस्ति भेषजं ।
दृश्यमेतन् मृषा सर्वं, एकोऽहं चिद्रसोमल: ॥
द्वैत दुखों का मूल है, ना इसका उपचार ।
जो दिखता वो भ्ाूल है, चेतन निर्मल सार ।2-16॥
बोधमात्रोऽहमज्ञानाद्, उपाधि: कल्पितो मया ।
एवं विमृशतो नित्यं, निर्विकल्पे स्थितिर्मम ॥
इक में ज्ञान स्वरुप हूँ, गोचर हूँ अज्ञान ।
नित मेरा अस्तित्व है, कारणरहित सुजान ॥2-17॥
न मे बन्धोऽस्ति मोक्षो वा भ्रान्ति: शान्तो निराश्रया ।
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम् ॥
भ्रम ना बंधन-मुक्ति का, शांत निराश्रय जान ।
जगत नहीं मन में बसा, यही वास्तविक मान ॥2-18॥
सशरीरमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चितं ।
शुद्धचिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन् कल्पनाधुना ॥
साथ देह के जगत भी, अस्तित्वहीन पहचान ।
शुद्ध ये चेतन आत्मा, है सब शेष गुमान ॥2-19॥
शरीरं स्वर्गनरकौ बन्धमोक्षौ भयं तथा ।
कल्पनामात्रमेवैतत् किं मे कार्यं चिदात्मन: ॥
स्वर्ग-नर्क ये देह सब, बंध मोक्ष भय नाम ।
बात कल्पना की सभी, क्या चेतन का काम ॥2-20॥
अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम ।
अरण्यमिव संवृत्तं क्व रतिं करवाण्यहम् ॥
देखूँ जब मैं भीड़ को, अचरज दिखे न द्वैत ।
जैसे निर्जन सब लगे, मोह नहीं अद्वैत ॥2-21॥
नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित् ।
अयमेव हि मे बन्ध आसीद्या जीविते स्पृहा ॥
नहीं देह ना देह का, जीव न मगर सचेत ।
मन में इच्छा जीव की, बंधन यही संकेत ॥2-22॥
अहो भुवनकल्लोलै – विचित्रैर्द्राक् समुत्थितं ।
मय्यनंतमहांभोधौ चित्तवाते समुद्यते ॥
महा सिंध्ाु मन का जहाँ, उठती लहर हज़ार ।
पूर्ण जगत हिलडुल करे, मन विचलित हर बार ॥2-23॥
मय्यनंतमहांभोधौ चित्तवाते प्रशाम्यति ।
अभाग्याज्जीववणिजो जगत्पोतो विनश्वर: ॥
महा-सिंधु मन में उठे, जो थम जाय विचार ।
जीव स्वरूप जहाज़ का, बेड़ा होता पार ॥2-24॥
मय्यनन्तमहांभोधा – वाश्चर्यं जीववीचय: ।
उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावत: ॥
ओह महासागर अनन्त, मन मम् उठते भाव ।
अंतस में रमते मिले, जाकर बने स्वभाव ॥2-25॥
अष्टावक्र महागीता 3
अष्टावक्र उवाच
अविनाशिनमात्मानं एकं विज्ञाय तत्त्वत: ।
तवात्मज्ञानस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रति: ॥
इक अविनाशी आत्मा, जानो ऐसा ज्ञान ।
बुद्धिमान यह जान ले, धन अर्जन नहीं शान ॥3-1॥
आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषय भ्रमगोचरे ।
शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे ॥
सदा आत्म अज्ञान अरू, भ्रम से विषय लगाव ।
सीप कभी चाँदी लगे, लोभ जगावे भाव ॥3-2॥
विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे ।
सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि ॥
उद्भव होता है जगत, सागर लहर उफान ।
मैं ही हूँ यह जानकर, भाग न दीन समान ॥3-3॥
श्रुत्वापि शुद्धचैतन्य आत्मानमतिसुन्दरं ।
उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति ॥
शुद्ध है चेतन आत्मा, सुंदर है सब जान ।
फिर क्यों आसक्ति तले, दूषित करते प्राण ॥3-4॥
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
मुनेर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्तते ॥
जीव सभी मुझमें बसे, बसता मैं हर जीव ।
अचरज मुनि यह जानता, फिर भी मोह की नींव ॥3-5॥
आस्थित: परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थित: ।
आश्चर्यं कामवशगो विकल: केलिशिक्षया ॥
आश्रय चाहे ब्रह्म का, जिसे मोक्ष का ज्ञान ।
विषय वासना से गिरे, अचरज इसको मान ॥3-6॥
उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रम – वधार्यातिदुर्बल: ।
आश्चर्यं काममाकाङ्क्षेत् कालमन्तमनुश्रित: ॥
ज्ञान-शत्रु का हो उदय, अंत समय आघात ।
कामवासना मन रखे, यह अचरज की बात ॥3-7॥
इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिन: ।
आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षाद् एव विभीषिका ॥
भाव मुक्ति है जगत से, नित्य- अनित्य का ज्ञान ।
चाह मोक्ष की है प्रबल, अचरज डर का भान ॥3-8॥
धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा ।
आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति ॥
भोजन या पीड़ा मिले, बुद्धिमान सम भाव ।
ना ख़ुश हो ना हो दुखी, आत्म दरश का चाव ॥3-9॥
चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत् ।
संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशय: ॥
कार्यशील निज देह है, दूजी देह समान ।
निंदा हो आभार हो, विचलित करे न जान ॥3-10॥
मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन् विगतकौतुक: ।
अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधी: ॥
जिज्ञासाओं के बिना, जग मायावी जान ।
मौत खड़ी पर डर नहीं, स्थिर बुद्धि पहचान ॥3-11॥
नि:स्पृहं मानसं यस्य नैराश्येऽपि महात्मन: ।
तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते ॥
है निराश, इच्छा रहित, महा आत्मा जान ।
ज्ञान प्रकाशित तृप्त भी, तुलना नहीं सुजान ॥3-12॥
स्वभावाद् एव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन ।
इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधी: ॥
दृश्य जगत को जानिये, ऐसा रहे स्वभाव ।
ग्रहण करे या त्याग दे, क्या है धीर प्रभाव ॥3-13॥
अंतस्त्यक्तकषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिष: ।
यदृच्छयागतो भोगो न दु:खाय न तुष्टये ॥
आसक्ति का त्याग करें, शक-संदेह न काम ।
भोग भले आते रहें, ना दुख-सुख का नाम ॥3-14॥
अष्टावक्र महागीता 4
अष्टावक्र उवाच
हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया ।
न हि संसारवाहीकै – र्मूढै: सह समानत: ॥
आत्मज्ञानी खेलता, लीला भोग समान ।
सांसारिक जन से नहीं, तुलना का अभिमान ॥4-1॥
यत् पदं प्रेप्सवो दीना: शक्राद्या: सर्वदेवता: ।
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ॥
पद जो चाहे देवता, मिल जाये संसार ।
स्थिर योगी रहता सदा, हर पल हर्ष अपार ॥4-2॥
तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते ।
न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि सङ्गति: ॥
पुण्य-पाप का ब्रह्म से, नाता नहीं सुजान ।
जैसे गगन धुआँ दिखे, दृश्य मात्र पहचान ॥4-3॥
आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना ।
यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत क: ॥
जगत रुप जो जानता, महाआत्म का ज्ञान ।
कौन रोक उसकी सके, वर्तमान पहचान ॥4-4॥
आब्रह्मस्तंबपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे ।
विज्ञस्यैव हि सामर्थ्य – मिच्छानिच्छाविवर्जने ॥
तिनकों से हैं ब्रह्म तक, चार तरह के प्राण ।
आत्म – ज्ञान समरथ सदा, इच्छा ना बलवान ॥4-5॥
आत्मानमद्वयं कश्चिज् – जानाति जगदीश्वरं ।
यद् वेत्ति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित् ॥
इक आत्मा, बिरला कहे, आत्म जगत भगवान ।
जो है ऐसा जानता, वह निर्भय बलवान ॥4-6॥
अष्टावक्र महागीता 5
अष्टावक्र उवाच
न ते संगोऽस्ति केनापि किं शुद्धस्त्यक्तुमिच्छसि ।
संघातविलयं कुर्वन् – नेवमेव लयं व्रज ॥
साथ नहीं पर शुद्ध है, तजने का क्या काम ।
संघ सोच को त्याग कर, ब्रह्म लीन हो धाम ॥5-1॥
उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुद्बुद: ।
इति ज्ञात्वैकमात्मानं एवमेव लयं व्रज ॥
ज्यूँ सागर में बुलबुले, जग आत्मा से जान ।
योग मिले उस ब्रह्म से, लो इसका संज्ञान ॥5-2॥
प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वाद् विश्वं नास्त्यमले त्वयि ।
रज्जुसर्प इव व्यक्तं एवमेव लयं व्रज ॥
मिथ्या जग प्रत्यक्ष दिखे, रस्सी-सर्प का भान ।
योग मिले उस ब्रह्म से, ले लो ऐसा ज्ञान ॥5-3॥
समदु:खसुख: पूर्ण आशानैराश्ययो: सम: ।
समजीवितमृत्यु: सन् – नेवमेव लयं व्रज ॥
आस-निराश, सुख दुख सम, जीवन-मृत्यु समान ।
मिले योग उस ब्रह्म से, ले लो ऐसा ज्ञान ॥5-4॥
अष्टावक्र महागीता 6
अष्टावक्र उवाच
आकाशवदनन्तोऽहं घटवत् प्राकृतं जगत् ।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लय: ॥
मैं अनन्त आकाश हूँ, है जग घड़े समान ।
नहीं ग्रहण ना त्याग हो, एकरूप हो ज्ञान ॥6-1॥
महोदधिरिवाहं स प्रपंचो वीचिसऽन्निभ: ।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लय: ॥
महासिंधु सा मैं यहाँ, जग है लहर समान ।
नहीं ग्रहण ना त्याग हो, एकरूप हो ज्ञान ॥6-2॥
अहं स शुक्तिसङ्काशो रूप्यवद् विश्वकल्पना ।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लय: ॥
सीप रजत जैसी दिखे, मुझमें जग यह मान ।
नहीं ग्रहण ना त्याग हो, एकरूप हो ज्ञान ॥6-3॥
अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभूतान्यथो मयि ।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लय: ॥
सब जीवों में मैं बसा, सब में मेरे प्राण ।
नहीं ग्रहण ना त्याग हो, एकरूप हो ज्ञान ॥6-4॥
अष्टावक्र महागीता 7
जनक उवाच
मय्यनंतमहांभोधौ विश्वपोत इतस्तत: ।
भ्रमति स्वांतवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता ॥
महासिंधु सा मैं यहाँ, जैसे जगत जहाज़ ।
इधर-उधर वो डोलता, विघ्न पड़े ना काज ॥7-1॥
मय्यनंतमहांभोधौ जगद्वीचि: स्वभावत: ।
उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षति: ॥
महासिंधु सा मैं यहाँ, जग ज्यूँ लहर स्वभाव ।
अस्त-उदय माया सरिस, घटे-बढ़े ना भाव ॥7-2॥
मय्यनंतमहांभोधौ विश्वं नाम विकल्पना ।
अतिशांतो निराकार एतदेवाहमास्थित: ॥
महासिंधु सा मैं यहाँ, सपना जगत सुजान ।
निराकार मैं शांत हूँ, शाश्वत मेरी शान ॥7-3॥
नात्मा भावेषु नो भावस्-तत्रानन्ते निरंजने ।
इत्यसक्तोऽस्पृह: शान्त एतदेवाहमास्थित: ॥
मैं या दूजा भाव ना, नहीं सदोष, विशाल ।
शांत रुप ही मैं रहूँ, शाश्वत मेरा काल ॥7-4॥
अहो चिन्मात्रमेवाहं इन्द्रजालोपमं जगत् ।
अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ॥
इन्द्रजाल के ही सदा, मैं और जादू – जाल ।
क्यों कर ऐसी कल्पना, अच्छा-बुरा सवाल ॥7-5॥
अष्टावक्र महागीता 8
अष्टावक्र उवाच
तदा बन्धो यदा चित्तं किन्चिद् वांछति शोचति ।
किंचिन् मुंचति गृण्हाति किंचिद् हृष्यति कुप्यति ॥
शोक करे इच्छा करे, करे ग्रहण या त्याग ।
दुखी बने या सुख मिले, मन बन्धन का भाग ॥8-1॥
तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति ।
न मुंचति न गृण्हाति न हृष्यति न कुप्यति ॥
मन की मुक्ति मान तभी, ना इच्छा ना शोक ।
ग्रहण-त्याग करता नहीं, हर्ष-क्रोध नहीं लोक ॥8-2॥
तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं काश्वपि दृष्टिषु ।
तदा मोक्षो यदा चित्तम-सक्तं सर्वदृष्टिषु ॥
बंधन है जब मन फँसा, जो देखा हो प्यार ।
आसक्ति जब हो नहीं, समझ मोक्ष का द्वार ॥8-3॥
यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा ।
मत्वेति हेलया किंचिन्-मा गृहाण विमुंच मा ॥
मैं नहीं तो मोक्ष है, मैं में बंधन जान ।
ना त्यागो न ग्रहण करो, ले लो ऐसा ज्ञान ॥8-4॥
अष्टावक्र महागीता 9
अष्टावक्र उवाच
क्रिताकृ ते च द्वन्द्वानि कदा शान्तानि कस्य वा ।
एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद् भव त्यागपरोऽव्रती ॥
करूँ ना करूँ द्वन्द बड़ा, शांति मिले ना जान ।
त्याग सभी वैराग्य ले, ऐसे नियम न मान ॥9-1॥
कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात् ।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गता: ॥
व्यर्थ चेष्टा लोक की, धन्य पुरुष ही जान ।
चाहत जीवन की मिटे, भोज-भोग ना भान ॥9-2॥
अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रयदूषितं ।
असारं निन्दितं हेयमि-ति निश्चित्य शाम्यति ॥
कुछ भी है टिकता नहीं, सब दोषों का जाल ।
सारहीन, निंदा करें, शांति धर्म को पाल ॥9-3॥
कोऽसौ कालो वय: किं वा यत्र द्वन्द्वानि नो नृणां ।
तान्युपेक्ष्य यथाप्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात् ॥
उम्र, समय वह कौन सा, नहीं संशय का नाम ।
रखे उपेक्षित भाव जो, मिले सिद्ध का धाम ॥9-4॥
नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा ।
दृष्ट्वा निर्वेदमापन्न: को न शाम्यति मानव: ॥
ऋषि साधु योगी कई, मत है जहाँ अनेक ।
कैसे वैरागी न हो, शांत मनस्वी नेक ॥9-5॥
कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरु: ।
निर्वेदसमतायुक्त्या यस्तारयति संसृते: ॥
ज्ञान चित्त का हो जिसे, गुरु है ऐसा कौन ।
करे मुक्त बंधन से जो, समता युक्त है मौन ॥9-6॥
पश्य भूतविकारांस्त्वं भूतमात्रान् यथार्थत: ।
तत्क्षणाद् बन्धनिर्मुक्त: स्वरूपस्थो भविष्यसि ॥
बदले मात्रा तत्व की, पैदा होत विकार ।
मुक्त ज्ञान ऐसा करे, होवे बेड़ा पार ॥9-7॥
वासना एव संसार इति सर्वा विमुंच ता: ।
तत्त्यागो वासनात्यागा-तित्थितिरद्य यथा तथा ॥
इच्छा ही संसार है, कर लो उसका त्याग ।
सब त्यागो इच्छा तजे, स्थापित होकर जाग ॥9-8॥
अष्टावक्र महागीता 10
अष्टावक्र उवाच
विहाय वैरिणं कामम-के थं चानर्थसंकुलं ।
धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रानादरं कुरु ॥
त्याग कामना अर्थ भी, धन-अर्जन के नाग ।
धर्म त्याग से युक्त हो, हो विरक्ति अनुराग ॥10-1॥
स्वप्नेन्द्रजालवत् पश्य दिनानि त्रीणि पंच वा ।
मित्रक्षेत्रधनागार – दारदायादिसंपद: ॥
तीन पाँच दिन ही टिके, लगे स्वप्न का जाल ।
जर, ज़मीन या मित्र हो, या फिर दूजा माल ॥10-2॥
यत्र यत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै ।
प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्ण: सुखी भव ॥
आसक्ति होती जहाँ, समझ वही संसार ।
साथ जहाँ बैराग है, तृष्णा रहित विचार ॥10-3॥
तृष्णामात्रात्मको बन्धस्-तन्नाशो मोक्ष उच्यते ।
भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहु: ॥
बंधन केवल कामना, मोक्ष मिले हो नाश ।
मात्र विरक्ति से मिले, आनन्दित आभास ॥10-4॥
त्वमेकश्चेतन: शुद्धो जडं विश्वमसत्तथा ।
अविद्यापि न किंचित्सा का बुभुत्सा तथापि ते ॥
तुम ही चेतन शुद्ध हो, जड़ मिथ्या संसार ।
लेशमात्र अज्ञान नहीं, जानो नहीं विचार ॥10-5॥
राज्यं सुता: कलत्राणि शरीराणि सुखानि च ।
संसक्तस्यापि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि ॥
पुत्र, राज, स्त्री, तन-मन भी, सब मिलें कई बार ।
कितनी भी आसक्ति हो, मिट जाते हर बार ॥10-6॥
अलमर्थेन कामेन सुकृ तेनापि कर्मणा ।
एभ्य: संसारकान्तारे न विश्रान्तमभून् मन: ॥
धन अपार या कामना, या शुभ काम हज़ार ।
जग माया कोई रहे, हो ना शांत विचार ॥10-7॥
कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा ।
दु:खमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम् ॥
व्यर्थ अनेकों जन्म किये, काया मन का घात ।
भोग सब दुख कर्म के, हो विरक्ति अब बात ॥10-8॥
अष्टावक्र महागीता 11
अष्टावक्र उवाच
भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी ।
निर्विकारो गतक्लेश: सुखेनैवोपशाम्यति ॥
जनम-मरण विकार समझ, स्वाभाविक है जान ।
निर्विकार हो क्लेशरहित, सुख-शांति का भान ॥11-1॥
ईश्वर: सर्वनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी ।
अन्तर्गलितसर्वाश: शान्त: क्वापि न सज्जते ॥
निर्माता ईश्वर सदा, निश्चित ऐसा जान ।
अंत आंतरिक चाह का, शांति का हो भान ॥11-2॥
आपद: संपद: काले दैवादेवेति निश्चयी ।
तृप्त: स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वान्छति न शोचति ॥
सुख-दुख ऐसे काल है, पूर्व कर्म अनुसार ।
रहे संयमित इन्द्रियाँ, शोक न चाह न भार ॥11-3॥
सुखदु:खे जन्ममृत्यू दैवादेवेति निश्चयी ।
साध्यादर्शी निरायास: कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥
जन्म-मरण, सुख-दुख सदा, पूर्व कर्म अनुसार ।
कर्म करें फल चाह बिन, लिप्त न हो बेकार ॥11-4॥
चिन्तया जायते दु:खं नान्यथेहेति निश्चयी ।
तया हीन: सुखी शान्त: सर्वत्र गलितस्पृह: ॥
चिंता से ही दुख मिले, जो निश्चित ले जान ।
शांत सुखी हर पल रहे, इच्छारहित सुजान ॥11-5॥
नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी ।
कैवल्यं इव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम् ॥
तन मेरा ना देह मैं, रखता जो यह ज्ञान ।
उसको ही मुक्ति मिले, कर्म – अकर्म ना भान ॥11-6॥
आब्रह्मस्तंबपर्यन्तं अहमेवेति निश्चयी ।
निर्विकल्प: शुचि: शान्त: प्राप्ताप्राप्तविनिर्वृत: ॥
तृण-ब्रह्मा हूँ मैं सकल, जो ले निश्चित जान ।
शुद्ध-शांत इच्छा रहित, प्राप्ति-अप्राप्ति समान ॥11-7॥
नाश्चर्यमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी ।
निर्वासन: स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति ॥
जग अचरज पर है नही, जो जाने यह सार ।
जीवित पर इच्छा रहित, पाये शांति अपार ॥11-8॥
अष्टावक्र महागीता 12
जनक उवाच
कायकृत्यासह: पूर्वं ततो वाग्विस्तरासह: ।
अथ चिन्तासहस्तस्माद् एवमेवाहमास्थित: ॥
बैरागी हो कर्म से, वाणी भी निरपेक्ष ।
चिंता से निर्लिप्त रहे, ख़ुद में ही सापेक्ष ॥12-1॥
प्रीत्यभावेन शब्दादेर – दृश्यत्वेन चात्मन: ।
विक्षेपैकाग्रहृदय एवमेवाहमास्थित: ॥
शब्द, भाव से हो रहित, आत्म विषय न वास ।
उदासीन मन से हुआ, अब एकाग्र निवास ॥12-2॥
समाध्यासादिविक्षिप्तौ व्यवहार: समाधये ।
एवं विलोक्य नियमं एवमेवाहमास्थित: ॥
मिथ्या से विचलित नहीं, ध्यान भरा व्यवहार ।
सब कुछ नियमों से बँधा, स्थित में ही है सार ॥12-3॥
हेयोपादेयविरहाद् एवं हर्षविषादयो: ।
अभावादद्य हे ब्रह्मन् एवमेवाहमास्थित: ॥
छोड़े या संग्रह करे, हर्ष-विषाद अभाव ।
हे! ब्रह्मन् मैं जानता, स्थित रहे स्वभाव ॥12-4॥
आश्रमानाश्रमं ध्यानं चित्तस्वीकृत तवर्जनं ।
विकल्पं मम वीक्ष्यै – तैरेवमेवाहमास्थित: ॥
आश्रम हो या हो नहीं, वर्जित या स्वीकार ।
हो विकल्प मन में कई, स्थिर मेरा विचार ॥12-5॥
कर्मानुष्ठानमज्ञानाद् यथैवोपरमस्तथा ।
बुध्वा सम्यगिदं तत्त्वं एवमेवाहमास्थित: ॥
कर्म किये अज्ञानवश, निवृत होकर काज ।
ज्ञान तत्व सम्यक् सदा, समझा मैं स्थित आज ॥12-6॥
अचिंत्यं चिंत्यमानोऽपि चिन्तारूपं भजत्यसौ ।
त्यक्त्वा तद्भावनं तस्माद् एवमेवाहमास्थित: ॥
चिंतन करूँ अचिंत्य का, करता सोच विचार ।
चिंतन का भी त्याग करूँ, स्थिर मेरा आचार ॥12-7॥
एवमेव कृतं येन स कृ तार्थो भवेदसौ ।
एवमेव स्वभावो य: स कृतार्थो भवेदसौ ॥
हो ऐसा जब आचरण, मुक्ति मिले संसार ।
यह स्वभाव जिसका रहे, भवसागर से पार ॥12-8॥
अष्टावक्र महागीता 13
जनक उवाच
अकिंचनभवं स्वास्थ्यं कौपीनत्वेऽपि दुर्लभं ।
त्यागादाने विहायास्माद – हमासे यथासुखम् ॥
कहना मेरा सहज ना, धर साधू का वेश ।
त्याग-ग्रहण आदत तजे, सुखमय हो परिवेश ॥13-1॥
कुत्रापि खेद: कायस्य जिह्वा कुत्रापि खेद्यते ।
मन: कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थित: सुखम् ॥
तन-मन या वाणी रहे, खेद न कोई बात ।
त्याग प्रयासों को सभी, सदा सुखी मैं तात ॥13-2॥
कृतं किमपि नैव स्याद् इति संचिन्त्य तत्त्वत: ।
यदा यत्कर्तुमायाति तत् कृत्वासे यथासुखम् ॥
कर्मों का अस्तित्व नहीं, तात्विक सकल विचार ।
कर्म सभी करता रहूँ, सदा सुखी व्यवहार ।13-3॥
कर्मनैष्कर्म्यनिर्बन्ध – भावा देहस्थयोगिन: ।
संयोगायोगविरहादह – मासे यथासुखम् ॥
कर्म-अकर्म के भाव-बंध, योगी देह विराज ।
तज संयोग-वियोग सब, सदा सुखी हो राज ॥13-4॥
अर्थानर्थौ न मे स्थित्या गत्या न शयनेन वा ।
तिष्ठन् गच्छन् स्वपन् तस्मादहमासे यथासुखम् ॥
शयन सपन बैठूँ चलूँ, गति हो या विश्राम ।
अर्थ अनर्थ हूँ परे, अत: यही सुखधाम ॥13-5॥
स्वपतो नास्ति मे हानि: सिद्धिर्यत्नवतो न वा ।
नाशोल्लासौ विहायास् – मदहमासे यथासुखम् ॥
स्वप्नों में हानि नहीं, ना यत्नों में माल ।
शोक-हर्ष समता रहे, सदा सुखी है चाल ॥13-6॥
सुखादिरूपा नियमं भावेष्वालोक्य भूरिश: ।
शुभाशुभे विहायास्मादह – मासे यथासुखम् ॥
सुख-दुख नियमित क्रम रहे, समझा यह आचार ।
शुभ-अशुभ से चिंतित ना, सदा सुखी संसार ॥13-7॥
अष्टावक्र महागीता 14
जनक उवाच
प्रकृत्या शून्यचित्तो य: प्रमादाद् भावभावन: ।
निद्रितो बोधित इव क्षीण-संस्मरणो हि स: ॥
भावहीन इच्छारहित, जो भी होय स्वभाव ।
मुक्त पुरातन याद से, जाग सपन ना भाव ॥14-1॥
क्व धनानि क्व मित्राणि क्व मे विषयदस्यव: ।
क्व शास्त्रं क्व च विज्ञानं यदा मे गलिता स्पृहा ॥
विषय मित्र या धन रहे, यह ना मेरा काम ।
शास्त्र रहे विज्ञान रहे, मैं हरदम निष्काम ॥14-2॥
विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनि चेश्वरे ।
नैराश्ये बंधमोक्षे च न चिंता मुक्तये मम ॥
साक्षी पुरु परमात्मा, ईश्वर का है भान ।
मोक्ष से निरपेक्ष हुआ, मोक्ष सोच ना जान ॥14-3॥
अंतर्विकल्पशून्यस्य बहि: स्वच्छन्दचारिण: ।
भ्रान्तस्येव दशास्तास्तास्-तादृशा एव जानते ॥
विकल्पशून्य जो मैं रहूँ, हो स्वच्छन्द व्यवहार ।
मुक्त ही पहचान सके, मुक्तमना संसार ॥14-4॥
अष्टावक्र महागीता 15
अष्टावक्र उवाच
यथातथोपदेशेन कृतार्थ: सत्त्वबुद्धिमान् ।
आजीवमपि जिज्ञासु: परस्तत्र विमुह्यति ॥
सहज सीख भी तार दे, सात्विक बुद्धिमान ॥
आजीवन वंचित रहे, जिज्ञासु बिन ज्ञान ॥15-1॥
मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिको रस: ।
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु ॥
मिले मोक्ष, तज के विषय, बंधन रस हो जान ।
करिये वह जो ठीक हो, जब हो ऐसा ज्ञान ॥15-2॥
वाग्मिप्राज्ञामहोद्योगं जनं मूकजडालसं ।
करोति तत्त्वबोधोऽयम-तस्त्यक्तो बुभुक्षभि: ॥
मितभाषी सुब्ाुद्घि जन, तत्वज्ञान की चाह ।
जीवन वो ऐसे जिये, रहे मौन की राह ॥15-3॥
न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान् ।
चिद्रूपोऽसि सदा साक्षी निरपेक्ष: सुखं चर ॥
न तन तेरा ना देह तू, भोग न कर्ता मान ।
चेतन, साक्ष, इच्छा रहित, रहना सुख-सम्मान ॥15-4॥
रागद्वेषौ मनोधर्मौ न मनस्ते कदाचन ।
निर्विकल्पोऽसि बोधात्मा निर्विकार: सुखं चर ॥
राग-द्वेष मन के धरम, आप नहीं ‘मन’ जान ।
बिन विकार बिन कामना, ज्ञानरुप सुख मान ॥15-5॥
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव ॥
सकल जीव तुझमें बसे, तू बसता सब जीव ।
अहंकार आसक्ति तज, रख ले सुख की नींव ॥15-6॥
विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे ।
तत्त्वमेव न सन्देह – श्चिन्मूर्ते विज्वरो भव ॥
सागर से लहरें उठे, जग वैसे तू आय ।
नि:सन्देह चैतन्य तू, चिंता रहित उपाय ॥15-7॥
श्रद्धस्व तात श्रद्धस्व नात्र मोऽहं कुरुष्व भो: ।
ज्ञानस्वरूपो भगवा-नात्मा त्वं प्रकृते: पर: ॥
निष्ठा-श्रद्धा अनुभव पे, मत मोहित हो तात ।
ज्ञानरूप भगवान तू, है निसर्ग बिन बात ॥15-8॥
गुणै: संवेष्टितो देह-स्तिष्ठत्यायाति याति च ।
आत्मा न गंता नागंता किमेनमनुशोचसि ॥
देह गुणों से है बने, जन्म-मरण का राग ।
आई गई ना आत्मा, शोक न तेरा भाग ॥15-9॥
देहस्तिष्ठतु कल्पान्तं गच्छत्वद्यैव वा पुन: ।
क्व वृद्धि: क्व च वा हानिस्-तव चिन्मात्ररूपिण: ॥
रहे अंत तक देह यह, या फिर नष्ट हो आज ।
क्या हानि या लाभ हैं, चैतन का ना काज ॥15-10॥
त्वय्यनंतमहांभोधौ विश्ववीचि: स्वभावत: ।
उदेतु वास्तमायातु न ते वृद्धिर्न वा क्षति: ॥
ज्यूँ सागर लहरें उठें, उसका यही स्वभाव ।
उदय-अस्त जग तुझसे है, बढ़े-घटे ना भाव ॥15-11॥
तात चिन्मात्ररूपोऽसि न ते भिन्नमिदं जगत् ।
अत: कस्य कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ॥
तुम चैतन्य स्वरूप हो, अलग नहीं जग जान ।
ऊँच-नीच कोई नहीं, हो ना सोच सुजान ॥15-12॥
एकस्मिन्नव्यये शान्ते चिदाकाशेऽमले त्वयि ।
कुतो जन्म कुतो कर्म कुतोऽहंकार एव च ॥
शांत अनन्त आकाश में, तुम हो खड़े कुमार ।
क्या जन्म, कैसा करम, कैसा ये अहंकार ॥15-13॥
यत्त्वं पश्यसि तत्रैकस्-त्वमेव प्रतिभाससे ।
किं पृथक् भासते स्वर्णात् कटकांगदनूपुरम् ॥
तू है एक, अनेक दिखे, प्रतिबिंबित हो काँच ।
कंगना या पायल रहे, सोना ही है साँच ॥15-14॥
अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति संत्यज ।
सर्वमात्मेति निश्चित्य नि:सङ्कल्प: सुखी भव ॥
यह मैं हूँ यह मैं नहीं, करो द्वैत का त्याग ।
तुम ही आत्स्वरूप सकल, संकल्प बिना सुख जाग ॥15-15॥
तवैवाज्ञानतो विश्वं त्वमेक: परमार्थत: ।
त्वत्तोऽन्यो नास्ति संसारी नासंसारी च कश्चन ॥
तुम ही जगत, अज्ञान हैं, तुम हो एक सुजान ।
संसारी दूजा नहीं, तुम से अलग न जान ॥15-16॥
भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी ।
निर्वासन: स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति ॥
भ्रान्तिमात्र है यह जगत, ऐसा निश्चित जान ।
त्याग चाह-चेष्टा रहित, नहीं शांति का भान ॥15-17॥
एक एव भवांभोधा – वासीदस्ति भविष्यति ।
न ते बन्धोऽस्ति मोक्षो वा कृत्यकृत्य: सुखं चर ॥
भवसागर बस एक है, सदा रहेगा एक ।
मोक्ष-बंध तुममें नहीं, सुख विचरण कर नेक ॥15-18॥
मा सङ्कल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय ।
उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे ॥
संकल्प-विकल्प के फेर में, करो न चित्त अशांत ।
सुखपूर्वक आनंद में, कर लो मन को शांत ॥15-19॥
त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किंचिद् हृदि धारय ।
आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि ॥
तजो ध्यान सब ओर से, मन में शांति अपार ।
आत्मरूप तुम मुक्त हो, हो न कोई विचार ॥15-20॥
अष्टावक्र महागीता 16
अष्टावक्र उवाच
आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकश: ।
तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाद् ऋते ॥
सुनकर ज्ञानी से वचन, पढ़ कर शास्त्र अनेक ।
मिले रूप वैसा नहीं, उचित अचेत हरेक ॥16-1॥
भोगं कर्म समाधिं वा कुरु विज्ञ तथापि ते ।
चित्तं निरस्तसर्वाशाम – त्यर्थं रोचयिष्यति ॥
कर्म – ध्यान लीन हो, पर तुम हो विद्वान ।
शांत रखो मन कामना, आनन्दित हो भान ॥16-2॥
आयासात्सकलो दु:खी नैनं जानाति कश्चन ।
अनेनैवोपदेशेन धन्य: प्राप्नोति निर्वृतिम् ॥
दुखी प्रयत्नों से सदा, लोग न ऐसा मान ।
होय धन्य उपदेश से, वृत्तिरहित हो जान ॥16-3॥
व्यापारे खिद्यते यस्तु निमेषोन्मेषयोरपि ।
तस्यालस्य धुरीणस्य सुखं नन्यस्य कस्यचित् ॥
पलके खोलें बंद करें, वो भी लगता काज ।
सुखी रहे वो आलसी, और न जाने राज ॥16-4॥
इदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तं यदा मन: ।
धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षं तदा भवेत् ॥
करूँ न करूँ के द्वन्द से, मुक्त हो जब इंसान ।
काम, मोक्ष धर्मार्थ की, रहे चाह ना जान ॥16-5॥
विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलुप: ।
ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो न रागवान् ॥
विषय-द्वेष विरक्त नहीं, विषय न लोलुप राग ।
ग्रहण-त्याग के बिन बने, राग-द्वेष से जाग ॥16-6॥
हेयोपादेयता तावत् – संसारविटपांकुर: ।
स्पृहा जीवति यावद् वै निर्विचारदशास्पदम् ॥
लेन-देन हो भावना, जग अंकुर का वास ।
जीवन मुक्ति चाहिये, सोच हीन आवास ॥16-7॥
प्रवृत्तौ जायते रागो निर्वृत्तौ द्वेष एव हि ।
निर्द्वन्द्वो बालवद् धीमान् एवमेव व्यवस्थित: ॥
राग प्रवृत्ति से जगे, निवृत्त होकर द्वेष ।
हो विरक्त बालक सरिस, स्थापित हो परिवेश ॥16-8॥
हातुमिच्छति संसारं रागी दु:खजिहासया ।
वीतरागो हि निर्दु:खस्-तस्मिन्नपि न खिद्यति ॥
चाहे दुख से भागना, जग तजने तैयार ।
सुखी विरक्त हर हाल में, दुख व दर्द से पार ॥16-9॥
यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा ।
न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दु:खभागसौ ॥
मोक्ष की भी चाह है, रहे देह से प्यार ।
ना ज्ञानी, योगी नहीं, दुख ही मिले अपार ॥16-10॥
हरो यद्युपदेष्टा ते हरि: कमलजोऽपि वा ।
तथापि न तव स्वाथ्यं सर्वविस्मरणादृते ॥
ब्रह्मा विष्णु महेश भी, हो उपदेशक हाथ ।
मिले विस्मृति बिन नहीं, आत्मरुप का साथ ॥16-11॥
अष्टावक्र महागीता 17
अष्टावक्र उवाच
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा ।
तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो नित्यं एकाकी रमते तु य: ॥
उसने पाया ज्ञानफल, योग सफल अभ्यास ।
इन्द्रजीत ख़ुद में रहे, बची न कोई प्यास ॥17-1॥
न कदाचिज्जगत्यस्मिन् तत्त्वज्ञा हन्त खिद्यति ।
यत एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्माण्डमण्डलम् ॥
जान तत्व जिसने लिया, नहीं दुखी वह जान ।
एक ब्रह्म से है सकल, समझो विश्व विधान ॥17-2॥
न जातु विषया: केऽपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी ।
सल्लकीपल्लवप्रीत – मिवेभं निंबपल्लवा: ॥
जो रमता निज आत्म में, विषय न उसको भाय ।
पर्ण सलाई पात लगे, नीम न हस्ति चबाय ॥17-3॥
यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासिता ।
अभुक्तेषु निराकांक्षी तदृशो भवदुर्लभ: ॥
ना भोगा ना भोग्य है, आसक्ति नहीं भाव ।
ऐसे जन इच्छारहित, दुर्लभ है हर गाँव ॥17-4॥
बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते ।
भोगमोक्षनिराकांक्षी विरलो हि महाशय: ॥
भोग-मोक्ष जो चाहते, दोनों मिले अनेक ।
दोनों इच्छा से रहित, मिले न कोई एक ॥17-5॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु जीविते मरणे तथा ।
कस्याप्युदारचित्तस्य हेयोपादेयता न हि ॥
काम-मोक्ष या धर्म-अर्थ, जीना-मरना तात ।
अनुपयोग-उपयोग भी, सम महात्मा बात ॥17-6॥
वांछा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ ।
यथा जीविकया तस्माद् धन्य आस्ते यथा सुखम् ॥
विश्व लीनता चाह नहीं, ना है इससे द्वेष ।
धन्य रहे हर हाल में, सुखी रहे परिवेश ॥17-7॥
कृतार्थोऽनेन ज्ञानेने-त्येवं गलितधी: कृती ।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अश्नन्नस्ते यथा सुखम् ॥
ज्ञान का उपकार रहे, बुद्धि अन्तर्ध्यान ।
स्पर्श देख-सुन, सूंघ के, खाये सुख से जान ॥17-8॥
शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च ।
न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे ॥
दृष्टि शून्य और इन्द्रियाँ, चेष्टाओं का नाश ।
नहीं विरक्ति या आसक्ति, क्षीण जगत ना रास ॥17-9॥
न जगर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति ।
अहो परदशा क्वापि वर्तते मुक्तचेतस: ॥
ना जागे, सोयें नहीं, बंद न खोले आँख ।
परम मुक्त चैतन्यता, बिरला ऐसी शाख़ ॥17-10॥
सर्वत्र दृश्यते स्वस्थ: सर्वत्र विमलाशय: ।
समस्तवासना मुक्तो मुक्त: सर्वत्र राजते ॥
मन हर पल स्थापित दिखे, सदा साफ़ अभिप्राय ।
सकल वासना मुक्त रहे, मुक्त सदा ही पाय ॥17-11॥
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अश्नन् गृण्हन् वदन् व्रजन् ।
ईहितानीहितैर्मुक्तो मुक्त एव महाशय: ॥
देख, सुन, सूँघ, स्पर्श करे, खा, लेन, बोल-चाल ।
इच्छा रहे या न रहे, मुक्त महात्म्य कमाल ॥17-12॥
न निन्दति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति ।
न ददाति न गृण्हाति मुक्त: सर्वत्र नीरस: ॥
निंदा ना स्तुति करे, ख़ुशी न हो नाराज़ ।
लेता-देता ना कभी, मुक्त विरक्त है आज ॥17-13॥
सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वा मृत्युं वा समुपस्थितं ।
अविह्वलमना: स्वस्थो मुक्त एव महाशय: ॥
नेह सहित नारी रहे, या सम्मुख यमराज ।
उदासीन सबसे रहे, मुक्त महाशय आज ॥17-14॥
सुखे दु:खे नरे नार्यां संपत्सु विपत्सु च ।
विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिन: ॥
सुख-दुख, नर-नारी रहे, धनो विनाश समान ।
जन की धीर विशेषता, पड़े एक सा जान ॥17-15॥
न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता ।
नाश्चर्यं नैव च क्षोभ: क्षीणसंसरणे नरे ॥
हिंसा ना करुणा नहीं, गर्व, दीन नहीं भाव ।
क्षोभ न अचरज जगत से, जग से नहीं जुड़ाव ॥17-16॥
न मुक्तो विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुप: ।
असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्रृते ॥
मुक्त पुरुष रखता नहीं, विषय-द्वेष या राग ।
भले मिले या ना मिले, समता भरा विराग ॥17-17॥
समाधानसमाधान – हिताहितविकल्पना: ।
शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थित: ॥
समाधान-संदेह परे, हित ना अहित विचार ।
शून्य चित्त का भाव लिये, मोक्ष यही है सार ॥17-18॥
निर्ममो निरहंकारो न किंचिदिति निश्चित: ।
अन्तर्गलितसर्वाश: कुर्वन्नपि करोति न ॥
अहंकार न ममत्व ही, जग में मिथ्या भान ।
करता पर करता नहीं, इच्छा रहित सुजान ॥17-19॥
मन:प्रकाशसंमोह स्वप्नजाड्यविवर्जित: ।
दशां कामपि संप्राप्तो भवेद् गलितमानस: ॥
मन प्रकाशित मोह नहीं, जड़ता-स्वप्न समान ।
दशा लगे सब कुछ मिला, बिन इच्छा मन जान ॥17-20॥
अष्टावक्र महागीता 18
अष्टावक्र उवाच
यस्य बोधोदये तावत्-स्वप्नवद् भवति भ्रम: ।
तस्मै सुखैकरूपाय नम: शान्ताय तेजसे ॥
जब उदय हो ज्ञान का, यूँ सपने से जाग ।
कर ले उस सुख को नमन, शांति तेज़ का राग ॥18-1॥
अर्जयित्वाखिलान् अर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान् ।
न हि सर्वपरित्याजम-न्तरेण सुखी भवेत् ॥
साधन अर्जित सब करें, भोगे जगत प्रताप ।
त्याग बिना इस भोग का, सुखी न होवे आप ॥18-2॥
कर्तव्यदु:खमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मन: ।
कुत: प्रशमपीयूषधारा – सारमृते सुखम् ॥
कर्तव्य-दु:ख अति तेज अगन, अन्तर्मन जल जाय ।
कैसे अमृत-धार मिले, कर्म त्याग सुख भाय ॥18-3॥
भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित् परमर्थत: ।
नास्त्यभाव: स्वभावनां भावाभावविभाविनाम् ॥
परमारथ कुछ भी नहीं, भाव-अभाव स्वभाव ।
स्थित पदार्थ का भी नहीं, कोई कहीं अभाव ॥18-4॥
न दूरं न च संकोचाल्-लब्धमेवात्मन: पदं ।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम् ॥
मिली हुई है आत्मा, नहीं दूर ना पास ।
वास वहीं तेरा निर्मल, नहीं विकल्प प्रयास ॥18-5॥
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रत: ।
वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टय: ॥
अज्ञान से पर्दा उठे, ज्ञान साक्षात्कार ।
शोक रहित स्वराज करे, होते दूर विकार ॥18-6॥
समस्तं कल्पनामात्र-मात्मा मुक्त: सनातन: ।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत् ॥
सब कुछ कोरी कल्पना, मुक्त आत्मा जान ।
धीर पुरुष जाने सदा, क्यूँ कर बाल समान ॥18- 7॥
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ ।
निष्काम: किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम् ॥
आत्मा निश्चित ब्रह्म है, मिथ्या भाव-अभाव ।
फिर क्या जाने, क्या कहे, कर निष्काम स्वभाव ॥18-8॥
अष्टावक्र महागीता 19
जनक उवाच
तत्त्वविज्ञानसन्दंश – मादाय हृदयोदरात् ।
नानाविधपरामर्श – शल्योद्धार: कृतो मया ॥
तत्व ज्ञान की है चिमटी, मन में शूल हज़ार ।
अन्तरमन बस छाँट लो, कर दी भूल सुधार ॥19-1॥
क्व धर्म: क्व च वा काम: क्व चार्थ: क्व विवेकिता ।
क्व द्वैतं क्व च वाऽद्वैतं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥
क्या धर्म, क्या काम है, अर्थ विवेक न सार ।
द्वैत-अद्वैत है क्या यहाँ, स्थित स्वयश आकार ॥19-2॥
क्व भूतं क्व भविष्यद् वा वर्तमानमपि क्व वा ।
क्व देश: क्व च वा नित्यं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥
क्या भविष्य क्या भ्ाूत है, वर्तमान क्या भान ।
क्या देश क्या काल यहाँ, निज महिमा में जान ॥19-3॥
क्व चात्मा क्व च वानात्मा क्व शुभं क्वाशुभं तथा ।
क्व चिन्ता क्व च वाचिन्ता स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥
क्या आत्मा क्या अनात्मा, शुभ या अशुभ समान ।
क्या चिंता क्या है नहीं, निज महिमा में जान ॥19-4॥
क्व स्वप्न: क्व सुषुप्तिर्वा क्व च जागरणं तथा ।
क्व तुरियं भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥
क्या स्वप्न, क्या निद्रा है, जागे एक समान ।
भय है क्या, क्या श्ाून्य है, निज महिमा में जान ॥19-5॥
क्व दूरं क्व समीपं वा बाह्यं क्वाभ्यन्तरं क्व वा ।
क्व स्थूलं क्व च वा सूक्ष्मं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥
क्या दूर क्या पास है, भीतर बाह्य समान ।
क्या छोटा, क्या है बड़ा, निज महिमा में जान ॥19-6॥
क्व मृत्युर्जीवितं वा क्व लोका: क्वास्य क्व लौकिकं ।
क्व लय: क्व समाधिर्वा स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥
जन्म मृत्यु आखिर है क्या, लोक-अलोक समान ।
लय है क्या, समाधि क्या, निज महिमा में जान ॥19-7॥
अलं त्रिवर्गकथया योगस्य कथयाप्यलं ।
अलं विज्ञानकथया विश्रान्तस्य ममात्मनि ॥
तीन उद्देश्य निर्रथक है, योग कथा बेकार ।
अर्थहीन विज्ञान कथन, स्थित आत्म विचार ॥19-8॥
अष्टावक्र महागीता 20
जनक उवाच
क्व भूतानि क्व देहो वा क्वेन्द्रियाणि क्व वा मन: ।
क्व शून्यं क्व च नैराश्यं मत्स्वरूपे निरंजने ॥
पंचभूत या तन कहाँ, मन इन्द्रि नहीं भान ।
नहीं निराश शून्य कहाँ, मै निर्दोष सुजान ॥20-1॥
क्व शास्त्रं क्वात्मविज्ञानं क्व वा निर्विषयं मन: ।
क्व तृप्ति: क्व वितृष्णत्वं गतद्वन्द्वस्य मे सदा ॥
आत्मज्ञान क्या, शास्त्र क्या, विषयरहित ना भान ।
क्या तृष्णा, या तृप्ति क्या, सदा द्वन्द बिन मान ॥20-2॥
क्व विद्या क्व च वाविद्या क्वाहं क्वेदं मम क्व वा ।
क्व बन्ध क्व च वा मोक्ष: स्वरूपस्य क्व रूपिता ॥
क्या विद्या, अविद्या क्या, मेरा-तेरा भान ।
क्या बंधन, क्या मोक्ष भी, सदा एक रूप जान ॥20-3॥
क्व प्रारब्धानि कर्माणि जीवन्मुक्तिरपि क्व वा ।
क्व तद् विदेहकैवल्यं निर्विशेषस्य सर्वदा ॥
क्या है ये प्रारब्ध कर्म, क्या जीवन मुक्ति ज्ञान ।
सदा विशेषण तन रहित, क्या मोक्ष पहचान ॥20-4॥
क्व कर्ता क्व च वा भोक्ता निष्क्रियं स्फुरणं क्व वा ।
क्वापरोक्षं फलं वा क्व नि:स्वभावस्य मे सदा ॥
क्या है कर्ता भोक्ता, जड़-चेतन सम मान ।
क्रियाशीलता निष्क्रियता, है स्वभाव बिन जान ॥20-5॥
क्व लोकं क्व मुमुक्षुर्वा क्व योगी ज्ञानवान् क्व वा ।
क्व बद्ध: क्व च वा मुक्त: स्वस्वरूपेऽहमद्वये ॥
क्या जगत क्या मुक्तता, योगी कौन सुजान ।
बँधा कौन या मुक्त बता, अद्वय मुझको मान ॥20-6॥
क्व सृष्टि: क्व च संहार: क्व साध्यं क्व च साधनं ।
क्व साधक: क्व सिद्धिर्वा स्वस्वरूपेऽहमद्वये ॥
क्या सृष्टि, संहार क्या, साधन साध्य समान ।
कौन है साधक, सिद्धि क्या, अद्वय मुझको मान ॥20-7॥
क्व प्रमाता प्रमाणं वा क्व प्रमेयं क्व च प्रमा ।
क्व किंचित् क्व न किंचिद् वा सर्वदा विमलस्य मे ॥
क्या ज्ञाता, क्या साक्ष्य है, क्या ज्ञेय, क्या ज्ञान ।
क्या अल्पतम क्या सकल, सदा हूँ निर्मल जान ॥20-8॥
क्व विक्षेप: क्व चैकाग्र्यं क्व निर्बोध: क्व मूढता ।
क्व हर्ष: क्व विषादो वा सर्वदा निष्क्रियस्य मे ॥
ध्यान नहीं, चैतन्य रहूँ, ज्ञानी-मूर्ख समान ।
क्या ख़ुशी, दुख भी नहीं, सदा ही निष्क्रिय मान ॥20-9॥
क्व चैष व्यवहारो वा क्व च सा परमार्थता ।
क्व सुखं क्व च वा दुखं निर्विमर्शस्य मे सदा ॥
क्या जग यह मेरे लिये, परमारथ ना काम ।
क्या है सुख-दुख में रखा, बिना विचार मुकाम ॥20-10॥
क्व माया क्व च संसार: क्व प्रीतिर्विरति: क्व वा ।
क्व जीव: क्व च तद्ब्रह्म सर्वदा विमलस्य मे ॥
क्या माया, संसार क्या, राग-द्वेष समान ।
क्या जीव क्या ब्रह्म है, सदा शुद्ध मैं मान ॥20-11॥
क्व प्रवृत्तिर्निर्वृत्तिर्वा क्व मुक्ति: क्व च बन्धनं ।
कूटस्थनिर्विभागस्य स्वस्थस्य मम सर्वदा ॥
अनासक्ति-आसक्ति क्या, मुक्ति-बन्धन समान ।
स्थित रहूँ बँटता नहीं, स्वस्थ सदा हूँ मान ॥20-12॥
क्वोपदेश: क्व वा शास्त्रं क्व शिष्य: क्व च वा गुरु: ।
क्व चास्ति पुरुषार्थो वा निरुपाधे: शिवस्य मे ॥
शास्त्र क्या उपदेश क्या, शिष्य-गुरु है कौन ।
पुरुषार्थ योग्य कुछ नहीं, शिवरूप हूँ मौन ॥20-13॥
क्व चास्ति क्व च वा नास्ति के वास्ति चैकं क्व च द्वयं ।
बहुनात्र किमुक्तेन किंचिन्नोत्तिष्ठते मम ॥
क्या है और क्या नहीं, क्या है द्वैत-अद्वैत ।
और मैं अब क्या कहूँ, भाव नहीं है द्वैत ॥20-14॥