६.आत्मसंयमयोग ॐ
- षष्ठोऽध्याय: आत्मसंयमयोग ॐ
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:॥
हो चिंता फल की नहीं, करें योग्य ही काम ।
सच्चे सन्यासी बनें, साधु महज है नाम ॥6-1॥
__________________________________________
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥
अर्जुन योगी कौन है,सन्यासी पहचान ।
त्यागे इच्छाएँ नहीं, योगी तू ना मान ॥6-2॥
__________________________________________
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते ॥
एक मार्ग है कर्म ही, पाना चाहे योग ।
जान लिया जब योग है, शांति कर्म संयोग ॥6-3॥
__________________________________________
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसंकल्पसन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥
भोगे ना जो इन्द्रियाँ, नहीं कर्मफल भान ।
छोड़े इच्छाएँ सभी, योगी उसको मान ॥6-4॥
__________________________________________
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ॥
बढ़ तूऊ पर ही सदा,नीचे मत रख चाल।
तू ही अपना मित्र है, तू ही शत्रु का जाल ॥6-5॥
__________________________________________
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
मन वश में जिसने किया, मित्र वो अपना आप ।
जो मन के वश में रहे, स्वत: शत्रु का श्राप ॥6-6॥
__________________________________________
जितात्मन: प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित: ।
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो: ॥
स्व जीत से चैन मिले, ईश्वर भी मिल जाय ।
सर्दी गर्मी सुख दुख हो, निन्दा यश न सताय॥6-7॥
__________________________________________
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय:।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन: ॥
विद्या से जो तृप्त हो, लिए इन्द्रियाँ जीत ।
माटी को सोना कहे, योगी की यह रीत ॥6-8॥
__________________________________________
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥
सदा रखे सम भाव जो, नहीं आंतरिक–भाव ।
मित्र – शत्रु हो ग़ैर – सगा, पापी संत समभाव ॥6-9॥
__________________________________________
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह: ॥
योगी खोजे हर समय, लगातार एकांत।
इच्छा रहित अपरिग्रही, मन को रखते शांत ॥6-10॥
__________________________________________
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चौलाजिनकुशोत्तरम् ॥
साफ जगह आसन बिछा, स्थिर मन रख हर हाल ।
ऊँचा ना, नीचा कहीं, तृणवस्त्रमृग छाल ॥6-11॥
__________________________________________
तत्रैकाग्रं मन: .त्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय: ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
वश में हों चित् इंद्रियाँ, मन का रख के ध्यान।
योगी योगाभ्यास में, आसन का सम्मान ॥6-12॥
__________________________________________
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥
काया मस्तक और गला, रख ले अचल समान ।
स्थिर द़ृष्टि पे नासिका, चारों दिशा न ध्यान ॥6-13॥
__________________________________________
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थित: ।
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर: ॥
मन निर्भय और शान्त हो, ब्रह्मचारी व्रत मान ।
संयत हो बैठा रहे , मुझ में रख के ध्यान ॥6-14॥
__________________________________________
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥
जिसका मन वश में रहे, सदा करे जो योग।
चैन मिले हर हाल में , मुझ से हो संयोग ॥6-15॥
__________________________________________
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत:।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
अर्जुन ऐसा योग है, खान पान ना होय ।
क्या सुप्त चैतन्य क्या, सिद्ध नहीं हो कोय ॥6-16॥
__________________________________________
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा ॥
यथा योग्य खाये फिरे,करके उचित प्रयास।
यथा योग्य सोये जगे, योग करे दुख नाश॥6-17॥
__________________________________________
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥
चित्त अगर वश में रहे, आत्मा में मिल जाय।
इच्छा रहेन काम की,वह योगी कहलाय ॥6-18॥
__________________________________________
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन:॥
दीप नही है काँपता,हो जो वायु अभाव ।
चित्त दीप है योगी का, अनुशासन का भाव॥6-19॥
__________________________________________
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
एकाग्रता अभ्यास से, शांत चित्त को पाय।
आत्मा से आत्मा दिखे,परमानंद सहाय॥6-20॥
__________________________________________
सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चौवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥
अतीन्द्रिय आनन्द मिले,सूक्ष्म बुद्धि से पाय।
विचलित वो होवे नहीं, योगी में रह जाय॥6-21॥
__________________________________________
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
पा लेजब परमात्म को, समझ उच्चतम बात।
विचलित वो होवे नही,चाहे हो आघात॥6-22॥
__________________________________________
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥
दुख दुनिया संयोग से, अलग वही जो योग ।
जोश वधीरज से करे, विचलित चित्त न रोग॥6-23॥
__________________________________________
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत: ॥
उपजे संकल्पित कामना, करते उनका त्याग ।
इन्द्रियाँ वश में करें,मनमें ना हो राग॥6-24॥
__________________________________________
शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
धीरे धीरे साधना, मेधा वश हो जाय।
करें न और विचार अब, चित्त पकड़ में आय॥6-25॥
__________________________________________
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥
मन चंचल है स्थिर नहीं, भागे इत उत ओर।
काबू उसको कीजिये, पकड़े मन की डोर ॥6-26॥
__________________________________________
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥
पाप रहित मन शांत जो, शांत रजोगुण होय।
एक हुआ परब्रम्ह से, आनंद अनुभव होय ॥6-27॥
__________________________________________
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष:।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
पाप रहित योगी हुआ, अंतरमन में योग ।
परमसत्य से जो जुड़ा, परमानंद का भोग ॥6-28॥
__________________________________________
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
दिखे सभीमें आत्मा, भूत आत्म समान।
ब्रम्हलीन योगी सदा,देखे एक ही जान॥6-29॥
__________________________________________
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
देखे जो सर्वत्र मुझे,मुझमे सबको पाय।
छुप ना वो मुझसे सके, छुपा न मुझसे जाय॥6-30॥
__________________________________________
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥
देख मुझेहर जीव में, भजता एक समान ।
विद्यमान मुझमे रहे,वह योगी विद्वान् ॥6-31॥
__________________________________________
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:||
अपनी भाँति सब जगह, देखे पार्थ समान ।
सम सुख या तो दुख रहे, योगी उत्तम जान॥6-32॥
__________________________________________
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥
बात करे पथ – योग की, मधुसूदन तू जान।
चंचल मनथिर ना रहे, मेरा ये अनुमान॥6-33॥
__________________________________________
चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्द़ृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
केशव मन चंचल रहे, हठ मेंहै बलवान।
ज्यों वायु वश है कठिन, दुष्कर ऐसा जान॥6-34॥
__________________________________________
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
हे वीर संदेह नहीं,मन वश भारी काम।
बैरागी अभ्यास से, अर्जुन मन को थाम॥6-35॥
__________________________________________
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:॥
असंयत मनयोग नहीं, ऐसी मेरी राय ।
मन को वश कर जो करे, आत्म योग वह पाय॥6-36॥
__________________________________________
अर्जुन उवाच
अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥
रख के श्रद्धा योग में, मन विचलित हो जाय।
नहीं योग केशव मिले, वो जन किस गति जाय॥6-37॥
__________________________________________
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि ॥
बादल बिछड़े नष्ट हो,योग मिले ना भोग।
योगी भटके मोह में,केशव कैसा रोग ॥6-38॥
__________________________________________
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत:।
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥
यह मेरा संदेह है,दूर करें प्रभु आप ।
नही आपसा और है,दूर करें संताप॥6-39॥
__________________________________________
कृष्णउवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥
अर्जुन होता नाश नहीं, लोक होय परलोक ।
जो रहते कल्याण पथ, कोई सके न रोक ॥6-40॥
__________________________________________
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा: ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥
जो योगी असफल रहे, पवित्र लोक पश्चात।
अच्छा कुल स्वागत करे,पार्थ नहीं कुछ बात॥6-41॥
__________________________________________
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीद़ृशम् ॥
या जन्मे उस कुल सदा, बुद्धिमान पहचान।
दुर्लभ ऐसे जन्म है,अर्जुन ऐसा जान॥6-42॥
__________________________________________
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥
पूर्व जन्म की चेतना,बारम्बार सुयोग।
अर्जुन पुन:प्रयास करे,जन्म करे उपयोग॥6-43॥
__________________________________________
पूर्वाभ्यासेन तेनैव हिृयते ह्यवशोऽपि स:।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥
पूर्व जन्म अभ्यास से,फिर आकर्षित होत।
जिज्ञासुबन योग के, जले नतपकी जोत॥6-44॥
__________________________________________
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष:।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥
देखा सतत प्रयास से,योगी मिटते पाप।
बाद अनेकों जन्म भी, मिलता परम् प्रताप॥6-45॥
__________________________________________
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥
हो ज्ञानी या तपस्वी,योगी बड़ा महान।
सत्य काम कर्मी बड़ा,योगी अर्जुन जान॥6-46॥
__________________________________________
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥
अन्तर में मुझको रखे,उत्तम योगी जान।
भक्ति से मुझको भजे, योगी परम महान ॥6-47॥
__________________________________________
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगोनामषष्ठोऽध्याय:॥
॥ ॐ ॐ ॐ ॥