७. ज्ञानविज्ञानयोग ॐ
- सप्तमोऽध्याय: ज्ञानविज्ञानयोग ॐ
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय:।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
मुझ पर हो आसक्त तुम, पार्थ योग अभ्यास।
जान सको निश्चित मुझको,सुनलो करो प्रयास॥7-1॥
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ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत:।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥
अब मैं तुमसे कह रहा,पूर्ण दिव्य विज्ञान।
अर्जुन जिसको जानकर,शेष रहेना ज्ञान॥7-2॥
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मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥
कई हज़ार में एक ही,करता सिद्ध–प्रयास।
सिद्धों में से एक मगर, मुझको जाने ख़ास॥7-3॥
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भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
भूजल अग्निवायु गगन, बुद्धिदर्प मन सार।
भिन्न मेरी ये प्रकृतियां, यही मूल यह सार॥7-4॥
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अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
जड़ शक्ति से है परे, परा – शक्ति के जीव।
शक्ति जगत साधन सदा, दोहन करे सजीव ॥7-5॥
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एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ॥
मैं ही जीव अजीव हूँ, सबका कारण जान ।
आदि रहे या अंत हो, मुझको कारण मान ॥7-6॥
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मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
श्रेष्ठ नहीं मुझसे कोई, देख धनंजय जान ।
मुझमें ही सब बँध गए, धागा माला मान ॥7-7॥
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रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु ॥
मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूरज चन्द्र प्रकाश ।
मैं वैदिक ओंकार हूँ, गर्जन ले आकाश ॥7-8॥
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पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥
मैं ही भूकी गंध हूँ,मैं ही अग्नि का तेज ।
मैं जीवों में जीव हूँ,तपस्वियों का तेज॥7-9॥
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बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥
सब जीवों का बीज मैं, पार्थ सनातन जान।
विद्वानों की बुद्धि मैं,मैं ही तेज महान॥7-10॥
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बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥
आसक्ति इच्छा रहीत,बलवानों का नाथ।
धर्म योग्य मैं काम हूं, सब जीवों के साथ॥7-11॥
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ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥
मुझसे ही गुण हैं सभी, रजो तमो सत मान।
हर गुण में मै ही सदा, मुझे गुण रहित जान॥7-12॥
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त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥
तीन गुणों के भाव से, यह सारा संसार ।
मोहित जग ना जानता, मेरा यह विस्तार॥7-13॥
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दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
कठिन पार करना रहे,दिव्य सगुण संसार।
जो मानव मुझ को भजे, वैतरणी वह पार॥7-14॥
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न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:॥
शरण मेरी आता नहीं,मूढ़ अधम जो होय।
दूर रहे ज्ञानी भ्रमित, असुर न जाने मोय॥7-15॥
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चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥
चार लोग भजते मुझे,अर्जुन अच्छे लोग।
ज्ञानी जिज्ञासू दुखी, लोभी जैसे लोग॥7-16॥
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तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥
उत्तम ज्ञानी चार में,खास भक्त तू मान।
मैं भी उसको प्रिय रहूँ, प्रिय मुझे वह जान॥7-17॥
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उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥
सब ये लोग उदार हैं,ज्ञानी उत्तम होय ।
मुझमें ही वे बस रहें, परम मिलेगा तोय ॥7-18॥
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बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ॥
कई जन्म के अंत में, ज्ञानी मुझको पाय।
वासुदेव मुझको समझ, भज दुर्लभ कहलाय ॥7-19॥
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कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्था य प्रकृत्या नियता: स्वया ॥
ज्ञान रहित कामी पुरुष, भजते नाना देव।
इधर उधर भटके उन्हें, मिले ना वासुदेव॥7-20॥
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यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥
जो भजता जो देवता,श्रद्धा रखता खास।
स्थिर वह श्रद्धा मैं करूँ, दैवी मिले उजास ॥7-21॥
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स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥
पूजे देव विशेष जो, करता मन से ध्यान ।
पूरी होवे कामना, मेरे द्वारा जान ॥7-22॥
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अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥
अल्पबुद्धि फल क्षणिक है, फल का होता नाश ।
देवलोक पूजन मिले, मैं भक्तों का वास ॥7-23॥
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अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥
मन्दबुद्धि समझे मुझे, प्रकट बिना आधार ।
परमरूप नहीं जानते, देते हैं आकार ॥7-24॥
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नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत: ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥
प्रगट नहीं सबके लिए, माया चारों ओर ।
मूढ़ मुझे समझे नहीं, मै अविनाशी मोर ॥7-25॥
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वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥
हे अर्जुन! मै जानता, भूत सहित हर काल ।
जानूँ भावी जीव को, लोग न जाने चाल ॥7-26॥
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इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
राग द्वेष का उदय ही, पार्थ मोहिनी चाल ।
जीव फँसे सम्मोहन में, मिलता माया जाल ॥7-27॥
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येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां द़ृढव्रता:॥
नष्ट पाप जिनके हुए, पावन जिनके काम ।
मुक्त मोह से वह रहे, भजते मेरा नाम ॥7-28॥
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जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥
रोग मरण से मुक्ति मिले, शरणागत जो होय ।
ब्रह्म रूप वो जानते, कर्म आध्यात्मिक होय ॥7-29॥
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साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु: ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस: ॥
देव, जगत या यज्ञ हो, मेरा ही परताप ।
जो जाने इस बात को, मृत्यु लगे ना पाप॥7-30॥
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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे ।
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय: ॥
॥ ॐ ॐ ॐ ॥