Sammar Suttam 4
प्रकरण 35 – द्रव्यसूत्र
धर्म अधर्म काल पुद्गल, जीव ज्ञप्त आकाश।
छह द्रव्यात्मक लोक यह, जिनशासन विश्वास ॥3.35.1.624॥
धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजन्तवो ।
एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ॥1॥
धर्मोऽधर्म आकाशं, कालः पुद्गला जन्तवः।
एष लोक इति प्रज्ञप्तः, जिनैर्वरदर्शिभिः ॥1॥
जिनवर ने लोक को धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव इस प्रकार छह द्रव्यात्मक कहा है। चलायमान इस विश्व के उस एकमेव गुरु अनेकान्तवाद को प्रणाम करता हूँ।
धर्म अधर्म काल पुद्गल, गुण आकाश न जीव ।
चेतन में गुण जीव हों, बाकी रहे अजीव ॥3.35.2.625॥
आगास-काल-पुग्गल-धम्मा-धम्मेसु णत्थि जीवगुणा ।
तेसिं अचेदणत्तं, भणिदं जीवस्स चेदणदा ॥2॥
आकाशकालजीवा, धर्माधमेषु न सन्ति जीवगुणाः ।
तेषामचेतनत्वं, भणितं जीवस्य चेतनता ॥2॥
धर्म अधर्म काल पुद्गल और आकाश द्रव्यों में जीव के गुण नही होते इसलिये उन्हें अजीव कहा गया है। जीव का गुण चेतनता है।
धर्म अधर्म जीव नभ, द्रव्य अमूर्तिक काल।
पुद्गल मूर्तिक द्रव्य है, चेतन जीव कमाल ॥3.35.3.626॥
आगास-काल-जीवा धम्मा-धम्मा य मुत्ति-परिहीणा ।
मुत्तं पुग्गल-दव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु ॥3॥
आकाशकालजीवा, धर्माधर्मों च मूर्तिपरिहीनाः ।
मूर्त्तं पुद्गलद्रव्यं, जीवः खलु चेतनस्तेष ॥3॥
आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य अमूर्तिक है। पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है। इन सबने केवल जीव द्रव्य ही चेतन है।
क्रियाशील जीव पुद्गल, शेष द्रव्य ना चाल ।
पुद्गल चलते जीव से, पुद्गल साधन काल ॥3.35.4.627॥
ण भवो भंगविहीणो, भंगो वा णत्थि संभव-विहीणो ।
उप्पादो वि य भंगो, ण विणा धोव्वेण अत्थेण ॥4॥
जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण ये सेसा ।
पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु ॥4॥
जीव और पुद्गलय ये दो द्रव्य सक्रिय है। शेष सब द्रव्य निष्क्रिय है। जीव के सक्रिय होने का बाह्य साधन कर्म नोकर्मरूप पुद्गल है और पुद्गल के सक्रिय होने का बाह्य साधन कालद्रव्य है।
धर्म अधर्म आकाश भी, इक-इक जगत विशाल।
अनंत काल जग में बसे, जीवन पुद्गल काल ॥3.35.5.628॥
धम्मो अहम्मो आगासं, दव्वं इक्किक्कमाहियं ।
अणंताणि य दव्वाणि, कालो पुग्गल जंतवो ॥5॥
धर्मोऽधर्म आकाशं, द्रव्यमेकैकमाख्यातम् ।
अनन्तानि च द्रव्याणि, कालः (समयाः) पुद्गल जन्तवः ॥5॥
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं। काल, पुद्गल और जीव अनंत-अनंत है।
धर्म अधर्म ही लोक में, नभ है लोक अलोक।
जीव लोक में काल बसे, काल रहे जन लोक॥3.35.6.629॥
धम्माधम्मे य दोऽवेए, लोगमित्ता वियाहिया ।
लोगालोगे च आगासे, समए समयखेत्तिए ॥6॥
धर्माऽधर्मो च द्वायेतौ, लोकमात्रौ व्याख्यातौ ।
लोकेऽलोके चाकाशः, समयः समयक्षेत्रिकः ॥6॥
धर्म और अधर्म ये दोनों ही द्रव्य लोक प्रमाण है। आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। काल केवल समयक्षेत्र और मनुष्यक्षेत्र में ही है।
द्रव्य सभी अवकाश दे, इक दूजे में जाय ।
रहे परस्पर नित्य ही, गुण छोड़ नहीं पाय ॥3.35.7.630॥
अण्णोण्णं पविसंता दिंता ओगास-मण्णमण्णस्स ।
मेलंता विय णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति ॥7॥
अन्योऽन्यं प्रविशन्तः, ददत्यवकाशमन्येऽन्यस्य ।
मिलन्तोऽपि च नित्यं, स्वकं स्वभावं न विजहति ॥7॥
ये सब द्रव्य परस्पर में प्रविष्ट है। एक द्रव्य दूसरे को अवकाश देते हुए स्थित है। ये इसी प्रकार अनादिकाल से मिले हुए हैं किन्तु अपना अपना स्वभाव नही छोड़ते।
स्पर्श रूप रस गंध नहीं, शब्द न धर्म स्वभाव।
असंख्यप्रदेशी लोक में, खण्ड न व्याप्त प्रभाव ॥3.35.8.631॥
धम्मत्थिाय-मरसं अवण्ण-गंधं असद्द-मप्फासं ।
लोगोगाढं पुट्ठं, पिहुल-मसंखादिय-पदेसं ॥8॥
धर्मास्त्किायोऽरसो-ऽवर्णगन्धोऽशब्दोऽस्पर्शः ।
लोकावगाढः स्पृष्टः, पृथुलरोऽसंख्यातिक प्रदेशः ॥8॥
धर्मास्तिकाय रस, रूप, स्पर्श, गन्ध और शब्दरहित है। समस्त लोकाकाश में व्याप्त है, अखण्ड विशाल और असंख्यातप्रदेशी है।
गमन करे मछली जहाँ, होती जल की बात ।
धर्म द्रव्य में तैरते, जीव पुद्गल दिन रात ॥3.35.9.632॥
उदयं जह मच्छाणं गमणा-णुग्गहयरं हवदि लोए।
तह जीव-पुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि ॥9॥
उदकं यथा मत्स्यानां, गमनानुग्रहकरां भवति लोके।
तथा जीवपुद्गलानां, धर्म द्रव्यं विजानीहि॥9॥
जैसे इस लोक में जल मछलियों के गमन में सहायक होता है वैसे ही धर्मद्रव्य जीवों तथा पुद्गल के गमन में सहायक सा निर्मित होता है।
धर्म होता स्थिर सदा, उदासीन हर हाल ।
जीव पुद्गल चले फिरे, नहीं धर्म की चाल ॥3.35.10.633॥
ण य गच्छादि धम्मत्थी, गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स।
हवदि गती स प्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च ॥10॥
न च गच्छति धर्मास्तिकायः, गमनं न करोत्यन्यद्रव्येस्य।
भवति गतेः स प्रसरो, जीवानां पुद्गलानां च ॥10॥
धर्मस्तिकाय न तो गमन करता है न अन्य द्रव्यों को गमन कराता है । वह तो जीवों और पुद्गल की गति में उदासीन कारण है। यही धर्मास्तिकाय का लक्षण है।
जैसे होता धर्म द्रव्य, द्रव्य अधर्म भी जान ।
क्रियावान की जो स्थिति, स्थित करें ज्यू स्थान ॥3.35.11.634॥
जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं।
ठिदि-किरिया-जुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥11॥
यथा भवति धर्मद्रव्यं, तथा तद् जानीहि द्रव्यमधर्माख्यम्।
स्थितिक्रियायुक्तानां, कारणभूतं तु पृथिवीव ॥11॥
धर्मद्रव्य की तरह ही अधर्मद्रव्य है। परन्तु यह है कि यह स्थितिरूप क्रिया से युक्त जीवों और पुद्गलों की स्थिति में पृथ्वी की तरह निमित्त बनता है।
अमूर्त व्यापक चित्त नहीं, द्रव्य गगन अवगाह ।
भेद लोक अलोक रहे, जिनदृष्टि नभ राह ॥3.35.12.635॥
चेयणरहियममुत्तं, अवगाहणलक्खणं च सव्वगयं।
लोयालोयविभेयं, तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं॥12॥
चेतनारहितममूर्तं, अवगाहनलक्षणं च सर्वगतम्।
लोकालोकद्विभेदं, तद् नभोद्रव्यं जिनोद्दिष्टम्।12॥
जिनेन्द्र देव ने आकाशद्रव्य को अचेतन, अमूर्त, व्यापक और अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है।
जीव अजीव बसे जहाँ, होता है वो लोक ।
नभ है मात्र अजीव यहाँ, कहते उसे अलोक ॥3.35.13.636॥
जीवा जीव चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए।
अजीव-देस-मागासे, अलोए से वियाहिए॥13॥
जीवाश्चैवाजीवाश्च, एष लोको व्याख्यातः।
अजीवेश आकाशः, अलोकः स व्याख्यातः ॥13॥
यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है। जहाँ अजीव का भाग केवल एक आकाश पाया जाता है उसे अलोक कहते हैं।
स्पर्शरूप रस गन्ध नहीं, अलघु गुण अगुरु स्वभाव ।
वर्तना लक्षण सदा, काल द्रव्य का भाव ॥3.35.14.637॥
पास-रस-गंध-वण्ण-व्वदिरित्तो अगुरुलहुग-संजुत्तो ।
वट्ट-लक्खण-कलियं, काल-सरवं इमं होदि ॥14॥
स्पर्शरसगन्धवर्णव्यतिरिक्तम् अगुरुलघुकसंयुक्तम् ।
वर्तनलक्षणकलितं कालस्वरूपम् इदं भवति ॥14॥
स्पर्श, गन्ध, रस और रूप से रहित, अगुरु-लघु गुण से युक्त तथा वर्तना लक्षणवाला काल द्रव्य कहा गया है।
सतत परिमणशील हो, जीव व पुद्गल द्रव्य ।
परिणमन का आधारभूत, निश्चय काल द्रव्य ॥3.35.15.638॥
जीवाण पुग्गलाणं हुवंति परियट्टणाइ विविहाइं।
एदाणं पज्जाया, वट्टंते, मुक्ख-काल-आधारे ॥15॥
जीवानां पुद्गलानां भवन्ति परिवर्तनानि विविधानि।
एतेषां पर्याया वर्तन्ते मुख्यकालआधारे ॥15॥
जीवों और पुद्गलो में नित्य होनेवाले अनेक प्रकार के परिवर्तन या पर्याय मुख्यतः कालद्रव्य के आधार से होते हैं। अर्थात उसके परिणमन में कालद्रव्य निमित्त होता है। इसी को आगम में निश्चयकाल कहा गया है।
समय आवलि प्राण कहो, साँस स्तोक है भेद ।
सभी काल व्यवहार यह, वीतराग का वेद ॥3.35.16.639॥
समयावलि-उस्सासा, पाणा थोवा य आदिया मेदा ।
ववहार-काल-णामा, णिद्दिट्टा वीयराएहिं ॥16॥
समयआवलिउच्छ्वासाः प्राणाः स्तोकाश्च आदिका भेदाः ।
व्यवहारकालनामानः निर्दिष्टा वीतरागैः ॥16॥
वीतराग ने बताया है कि व्यवहारकाल समय, आवलि, उच्छवास, प्राण स्तोक आदि रूपात्मक है।
अणु स्कन्ध है दो यही, पुद्गल के परकार ।
परमाणु के दो विकल्प, स्कन्ध षष्ठ आकार ॥3.35.17.640॥
अणुखंधवियप्पेण दु, पोग्गलवण्णं हवेइ दुवियप्पं।
खंधा हु छप्पयारा, परमाणु चेव दुवियप्पो ॥17॥
अणुस्कन्ध विकल्पेन तु, पुद्गलद्रव्यं भवति द्विविकल्पम्।
स्कन्धाः खलु षट्प्रकाराः, परमाणुश्चैव द्विविकल्पः ॥17॥
अणु और स्कन्ध के रूप में पुद्गल द्रव्य दो प्रकार का है। स्कन्ध छह प्रकार का है और परमाणु दो प्रकार का है। कारण परमाणु और कार्य परमाणु।
अति-सूक्ष्म, विशाल अति, सूक्ष्म-बड़ा प्रकार ।
सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म भी, स्कन्ध है छह विचार ॥3.35.18.641॥
अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं च सुहूमथूलं च।
सुहुमं अइसुहुमं इदि, धरादियं होदि छब्भेयं ॥18॥
अतिस्थूलस्थूलाः स्थूलाः, स्थलसूक्ष्माश्च सूक्ष्मस्थूलाश्च।
सूक्ष्मा अतिसूक्ष्मा इति, धरादयो भवन्ति षड्भेदाः ॥18॥
स्कन्ध पुद्गल के छह प्रकार-अतिस्थूल, स्थूल, स्थूल-सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म। पृथ्वी आदि इसके छह उदाहरण हैं ।
पृथ्वी, जल, छाया, इंद्रिय, परमाणु कर्म प्रकार ।
छह विकल्प जिनवर कहे, स्कन्ध द्रव्य विचार ॥3.35.19.642॥
पुढवी जलं च छाया, चउ-रिंदिय-विसय-कम्म-परमाणु।
छव्विह- भेयं भणिंयं, पोग्गल-दव्वं जिणवरेहिं ॥19॥
पृथिवी जलं च छाया, चतुरिन्द्रियविषय-कर्मपरमाणवः।
षड्विधभेदं भणितं, पुद्गलद्रव्यं जिनवरैः ॥19॥
पृथ्वी-अतिस्थूल, जल-स्थूल, छाया प्रकाश आदि नेत्र इन्द्रिय विषय-स्थूलसूक्ष्म, रस गंध स्पर्श आदि शेष इन्द्रिय विषय सूक्ष्मस्थूल, कार्मण स्कन्ध-सूक्ष्म तथा परमाणु-अतिसूक्ष्म का उदाहरण है।
आदि मध्य औ अन्त रहित, इक प्रदेश अविभाग ।
ग्रहण इन्द्रियाँ करें नहीं, ना परमाणु ॥3.35.20.643॥
अंतादि-मज्झ-हीणं, अपदेसं इंदिएहिं ण हु गेज्झ।
जं तव्व अविभत्तं, तं परमाणुं कहंति जिणा ॥20॥
अन्त्यादिमध्यहीनम् अप्रदेशम् इन्द्रियैर्न खलु ग्रह्यम्।
यद् द्रव्यम् अविभक्तम् तं परमाणु कथयन्ति जिनाः ॥20॥
जो आदि, मध्य और अन्त से रहित है, जो केवल एक प्रदेश है, जिसे इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नही किया जा सकता वह विभागविहीन द्रव्य परमाणु है।
रस स्पर्श गंध पूरण गलन, होते रहते काल ।
स्कंध सहित परमाणु भी, पुद्गल है हर हाल ॥3.35.21.644॥
वण्ण-रस-गंध-फासे, पूरण-गलणाइ सव्व-कालम्हि।
खंदं पि व कुणमाणा, परमाणु पुग्गला तम्हा ॥21॥
वर्णरसगन्धस्पर्शे पूरणगलनानि सर्वकाले।
स्कन्धा इव कुर्वन्तः परमाणवः पुद्गलाः तस्मात् ॥21॥
जिसमें पूरण गलन की क्रिया होती है अर्थात जो टूटता जुड़ता रहता है वह पुद्गल है। स्कन्ध की भाँति परमाणु के भी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणों में सदा पूरण-गलन क्रिया होती रहती है इसलिये परमाणु भी पुद्गल है।
जीयेगा, जीता, जिया, चार प्राण है पास।
बल, इन्द्रिय आयु रहे, जीव द्रव्य उच्छवास ॥3.35.22.645॥
पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हुए जीविदो पुव्वं ।
सो जीवो पाणा पुण बल-मिंदिय-माउ-उस्सासो ॥22॥
प्राणैश्चतुर्भिजीवति, जीविष्यति यः खलु जीवितः पूर्व।
स जीवः, प्राणाः, पुनर्बलमिन्द्रिमायु रुच्छ्वासः ॥22॥
जो चार प्राणों में वर्तमान में जीता है, भविष्य में जीयेगा और अतीत में जिया है वह जीवद्रव्य है। प्राण चार है। बल, इन्द्रिय, आयु और उच्छ्वास
देह सा आकार धरे, बड़ा व छोटा वेश ।
व्यवहार नय असम रखे, निश्चय असंख्य प्रदेश ॥3.35.23.646॥
अणुगुरुदेहपमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा।
असुगुहदो ववहारा, णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥23॥
अणुगुरुदेहप्रमाणः, उपसंहारप्रसर्प्पतः चेतयिता।
असमवहतः व्यवहारात्, निश्चयनयतः असंख्यदेशो वा ॥23॥
व्यवहारनय के हिसाब से जीव अपने शरीर के बराबर आकार का होता है लेकिन निश्चयनय अनुसार जीव असंख्यात प्रदेशी है।
पद्मरागमणि की प्रभा, प्रभासिव बात ।
बसे जीव बस देह में, बाहर नहीं बिसात॥3.35.24.647॥
जह पउम-राय-रयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं।
तह देही देहत्थो, सदेह-मत्तं पभासयदि ॥24॥
यथा पद्मरागरत्नं, क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरम् ।
तथा देही देहस्थः, स्वदेहमात्रं प्रभासयति ॥24॥
जैसे पद्मरागमणि दूध में डाल देने पर अपनी प्रभा से दूध को प्रभासित करती है- दुग्धपात्र के बाहर किसी को नही, वैसे ही जीव शरीर में रहकर अपने शरीरमात्र को प्रभासित करता है अन्य किसी बाह्य पदार्थ को नही।
आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण ।
ज्ञेय लोकालोक है, सर्वव्यापि यह ज्ञान ॥3.35.25.648॥
आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्पमाण-मुद्दिट्ठं।
णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥25॥
आत्मा ज्ञानप्रमाणः, ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम्।
ज्ञेयं लोकालोकं, तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम् ॥25॥
व्यवहारनय से जीव शरीरव्यापी है लेकिन वह ज्ञान-प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है तथा ज्ञेय लोक-अलोक है अतः ज्ञान सर्वव्यापी है। ज्ञान प्रमाण आत्मा होने से आत्मा भी सर्वव्यापी है।
जीव है संसारी विमुक्त, दोनों चेतन भाव ।
देह नहीं या देह हो, पर उपयोग स्वभाव ॥3.35.26.649॥
जीवा संसारत्था, णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा।
उवओग-लक्खणा वि य, देहादेह-प्पवीचारा ॥26॥
जीवाः संसारस्था, निर्वाताः, चेतनात्मका द्विविधाः ।
उपयोगलक्षणा अपि च, देहादेहप्रवीचाराः ॥26॥
जीव दो प्रकार के है- संसारी और मुक्त। दोनों ही चेतना स्वभाव वाले है और उपयोग लक्षणवाले है। संसारी जीव शरीरी होते हैं और मुक्तजीव अशरीरी।
जल अग्नि वायु वनस्पति भू, एक इन्द्रिय जीव ।
द्वि त्रि चतु पंचेन्द्रिय, त्रस शंखादि सजीव ॥3.35.27.650॥
पुढवि-जल-तेय-वाऊ-वणप्फदी विविह-थावरेइंदी।
बिगि-तिग-चदु-पंचक्खा, तसजीवा होंति संखादी ॥27॥
पृथिवीजलतेजोवायु-वनस्पतयः विविधस्थावरैकेन्द्रियाः।
द्विकत्रिकचतुपञ्चाक्षाः, त्रसजीवाः भवन्ति शड्खादयः ॥27॥
संसारी जीव भी त्रस और स्थावर दो प्रकार के है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये सब एकेन्द्रिय और स्थावर जीव है। शंख, पिपीलिका (चीटी), भ्रमर तथा मनुष्य-पशु आदि क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरन्द्रिय व पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं।
प्रकरण 36 – सृष्टिसूत्र
अकृत्रिम अनादिनिधन, स्वभाव निर्मित भाव ।
जीव अजीव व्याप्त रहे, नभ का एक प्रभाव ॥3.36.1.651॥
लोगो अकिट्टिमो खलु, अणाइ-णिहणो सहाव-णिव्वत्तो ।
जीवा-जीवहि फुडो, सव्वा-गासा-वयवो पीच्चो ॥1॥
लोकः अकृत्रिमः खलु, अनादिनिधनः स्वभावनिर्वृत्तः।
जीवाजीवैः स्पृष्टः, सर्वाकाशावयवः नित्यः ॥1॥
यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभाव से ही निर्मित है, जीव व अजीव द्रव्यों से व्याप्त है, सम्पूर्ण आकाश का ही एक भाग है तथा नित्य है।
एक प्रदेशी परम अणु, शब्द रूप ना भाव ।
स्निग्ध और गुण रुक्ष से, स्कन्ध रूप प्रभाव ॥3.36.2.652॥
अपदेसो परमाणु, पदेसमेत्तो य सय-मसद्दो जो ।
णिद्धो वा लुक्खो वा, दुपदेसादित्त-मणुहवदि ॥2॥
अप्रदेशः परमाणुः, प्रदेशमात्रश्च स्वयमशब्दो यः ।
स्निग्धो वा रूक्षो वा, द्विप्रदेशादित्वमनुभवति ॥2॥
पुद्गल परमाणु एक प्रदेशी है व शब्दरूप नही है। परमाणु में स्निग्ध व रुक्ष स्पर्श का ऐसा गुण है कि एक परमाणु दूसरे परमाणु से बँधने या जुड़ने पर दो प्रदेशों आदि स्कन्ध का रूप धारण कर लेता है।
द्विप्रदेशी सूक्ष्म सभीे, स्थूल स्कंध आकार ।
भूजल वायु अग्नि रूप, बदले कई प्रकार ॥3.36.3.653॥
दुपदेसादी खंधा, सुहुमा वा बादरा ससंठाणा ।
पढवि-जल-तेऊ-वाऊ, सगपरिणामेहिं जायंते ॥3॥
द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः, सूक्ष्मा वा बादराः ससंस्थानाः।
पृथिवीजलतेजोवायवः, स्वकपरिणामैजयिन्ते ॥3॥
द्विप्रदेशी आदि सारे सूक्ष्म और स्थूल स्कन्ध अपने परिणमन के द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के रूप में अनेक आकारवाले बन जाते है।
भरता प्रचुर प्रमाण में, पुद्गल से यह लोक ।
कुछ परिवर्तन योग्य कर्म, कुछ परिवर्तन रोक ॥3.36.4.654॥
ओणाढ-गाढ-णिचिदो, पुग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो ।
सुहुमेहिं बादरेहिं य अप्पाउग्गेहिं जोग्गेहिं ॥4॥
अवगाढगाढनिचितः, पुद्गलकायैः सर्वतो लोकः।
सूक्ष्मैबदिरैश्चा-प्रायोग्यैर्योग्यैः ॥4॥
यह लोक सब ओर से इन सूक्ष्म स्थूल पुद्गलों से ठसाठस भरा हुआ है। उनमें से कुछ पुद्गल कर्मरूप से परिणमन के योग्य होते है और कुछ अयोग्य होते है।
योग्य पुद्गल कर्म में, बदले पाकर जीव।
जीव न परिवर्तन करे, कर्म अधीन अजीव ॥2.36.5.655॥
कम्मत्तण-पाओग्गा, खंधा जीवस्स परिणई पप्पा ।
गच्छंति कम्मभावं, ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥5॥
कर्मत्वप्रायोग्याः, स्कन्धा जीवस्य परिणतिं प्राप्य ।
गच्छन्ति कर्मभावं, न हि ते जीवेन परिणमिताः ॥5॥
कर्मरूप से परिणमित होने के योग्य पुद्गल, जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर स्वयं ही करम को प्राप्त हो जाते हैं। जीव स्वयं उन्हें कर्म के रुप में परिणमित नही करता।
देखे जाने विषय को, जिस भाव से जीव।
रागद्वेष उनमें करें, बांध कर्म सदीव ॥3.36.6.656॥
भावेण जेण जीवो, पेच्छदि जाणादि आगदं विसये ।
रज्जदि तेणेव पुणो, बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो ॥6॥
भावेन येन जीवः, प्रेक्षते जानात्यागतं विषये ।
रज्यति तनैव पुन-र्बध्यते कर्मेत्युपदेशः ॥6॥
जीव अपने राग या द्वेषरूप जिस भाव से संपृक्त होकर इन्द्रियों के विषयों के रूप में ग्रहण किये गये पदार्थों को जानता-देखता है, उन्हीं से उपरक्त होता है और उसी उपरागवश नवीन कर्मों का बंधन करता है।
जीव संग्रहित कर्म सब, छहों दिशा में स्थान।
व्याप्त सभी प्रदेश में, जीव बद्ध है जान ॥3.36.7.657॥
सव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छद्दिसागयं ।
सव्वेसु वि पएसेसु, सव्वं सव्वेण बद्धगं ॥7॥
सर्वजीवानां कर्म तु, संग्रहे षड्दिशागतम् ।
सर्वेष्वपि प्रदेशेषु, सर्वं सर्वेण बद्धकम् ॥7॥
सभी जीवों के लिये संग्रह (बद्ध) करने के योग्य कर्म-पुद्गल छहों दिशाओं में सभी आकाशप्रदेशों में विद्यमान है। वे सभी कर्म-पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ बद्ध होते हैं।
जीव के जैसे कर्म हो, सुख दुख वैसे पाय।
कर्म संग ही भ्रमण करे, परभव वैसा जाय ॥3.36.8.658॥
तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं ।
कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छई उ परं भवं ॥8॥
तेनापि यत् कृतं कर्म, सुखं वा यदि वा दुःखम् ।
कर्मणा तेन संयुक्तः, गच्छति तु परं भवम् ॥8॥
व्यक्ति सुख-दुख रूप या भाशुभरुप जो भी कर्म करता है वह अपने उन कर्मो के साथ ही पराभव में जाता है।
कर्मों के अनुसार ही, जीव देह को पाय ।
नया देह बंधन नये, भ्रमण निरन्तर जाय ॥3.36.9.659॥
ते ते कम्मत्तगदा, पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स ।
संजायंते देहा, देहंतर-संकमं पप्पा ॥9॥
ते ते कर्मत्वगताः, पुद्गलकायाः पुनरपि जीवस्य।
संजायन्ते देहाः देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ॥9॥
इस प्रकार कर्मों के रुप में परिणत वे पुद्गल-पिण्ड देह से देहान्तर को प्राप्त होते रहते हैं। अर्थात पूर्वबद्ध कर्मानुसार नया शरीर बनता है और नया शरीर पाकर नवीन कर्म का बंध होता है। इस तरह जीव निरन्तर विविध योनियों में परिभ्रमण करता रहता है।
प्रकरण 37 – अनेकान्तसूत्र
जिसके बिना न चल सके, यहाँ लोक व्यवहार ।
नमन विश्व गुरु को करे, अनेकान्त विचार ॥4.37.1.660॥
जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा ण णिव्वउइ ।
तस्स भुवणेक्कागुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स॥1॥
येन विना लोकस्य अपि व्यवहारः सर्वथा न निर्वहति।
तस्मै भुवनैकगुरवे नमः अनेकान्तवादाय ॥1॥
जिसके बिना लोक का व्यवहार बिलकुल नही चल सकता विश्व के उस एकमेव गुरु अनेकान्तवाद को प्रणाम करता हूँ।
एक द्रव्य गुण आश्रय, द्रव्य ही गुण आधार ।
पर्यायी लक्षण समझ, द्रव्य गुणों का सार ॥4.37.2.661॥
गुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा ।
लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ॥2॥
गुणानामाश्रयो द्रव्यं, एकद्रव्यांश्रिता गुाणः ।
लक्षणं पर्यवाणां तु, उभयोराश्रिता भवन्ति ॥2॥
द्रव्य गुणों का आधार है। जो एक द्रव्य के आश्रय रहते हैं वे गुण हैं। पर्यायों का लक्षण द्रव्य या गुण दोनों के आश्रित रहना है।
द्रव्य नहीं पर्याय बिन, बिना द्रव्य पर्याय।
उत्पन्न स्थित नाश हो, द्रव्य है ये समझाय ॥4.37.3.662॥
दव्वं पज्जवविउयं, दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि ।
उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं ॥3॥
द्रव्यं पर्यवावियुतं, द्रव्यवियुक्ताश्च पर्यवाः न सन्ति ।
उत्पादस्थितिभङ्गाः, हन्त द्रव्यलक्षणमेतत् ॥3॥
पर्याय के बिना गुण नहीं और द्रव्य के बिना पर्याय नहीं। उत्पाद, स्थिति और व्यय द्रव्य का लक्षण है। अर्थात द्रव्य उसे कहते हैं जिसमें ये तीनों घटित होते रहते हैं।
व्यय बिना उत्पाद नहीं, उत्पाद बिन व्यय सार ।
व्यय हो या उत्पाद रहे, बिना स्थिति-आधार ॥4.37.4.663॥
ण भवो भंगविहीणो, भंगो वा णत्थि संभव-विहीणो ।
उप्पादो वि य भंगो, ण विणा धोव्वेण अत्थेण ॥4॥
जीवाः पुद्गलकायाः, सह सक्रिया भवन्ति न च शेषाः।
पुद्गलकरणाः जीवाः, स्कन्धाः खलु कालकरणास्तु ॥4॥
उत्पाद व्यय के बिना नही होता और व्यय उत्पाद के बिना नही होता। इसी प्रकार उत्पाद और व्यय दोनों स्थायी ध्रौव्यअर्थ के बिना नही होते।
पर्यायों में होता है उत्पाद व्यय घ्रौव्य।
पर्याय-समूह द्रव्य वहीं, उत्पाद-व्यय घ्रौव्य ॥4.37.5.664॥
उप्पाद-ट्ठिदि-भंगा, विज्जंते पज्जएसु पज्जाया ।
दव्वं हि संति णियंद, तमहा दव्वं हवदि सव्वं ॥5॥
उत्पादस्थितिभङ्गा, विद्यन्ते पर्यायेषु पर्यायाः ।
द्रव्यं हि सन्ति नियतं, तस्माद् द्रव्यं भवति सर्वम् ॥5॥
उत्पाद, व्यय और स्थिति ये तीनों द्रव्य में नहीं होते अपितु द्रव्य की नित्य परिवर्तनशील पर्यायों में होते है। परन्तु पर्यायों का समूह द्रव्य है। अतः सब द्रव्य ही है।
एक समय ही द्रव्य में, सभी रहे समवेत।
उत्पाद, व्यय और घ्रौव्य, द्रव्य सो तीन समेत॥4.37.6.665॥
समवेदं खलु दव्वं, संभव-ठिदि-णास-सण्णिदट्ठेहिं ।
एकम्मि चेव समये, तमहा दव्वं खु तत्तिदयं ॥6॥
समवेतं खलु द्रव्यं, सम्भवस्थितिनाशसंज्ञितार्थेः।
एकस्मिन् चैव समये, तस्माद्द्रव्यं खलु तत् त्रितयम् ॥6॥
द्रव्य एक ही समय में उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य नामक अर्थों के साथ समवेत एकमेक है। इसलिये तीनों वास्तव में द्रव्य है।
नव पर्याय उत्पन्न हो, पूर्व पर्याय नष्ट ।
द्रव्य फिर भी द्रव्य है, न उत्पन्न न नष्ट ॥4.37.7.666॥
पाडुब्भवदि य अण्णो, पज्जाआ पज्जआ वयदि अण्णो ।
दव्वस्सं तं पि दव्वं, णेवट्ठं णेव उपपण्णं ॥7॥
प्रादुर्भवति चान्यः, पर्यायः पर्यायो व्ययते अन्यः ।
द्रव्यस्य तदपि द्रव्यं, नैव प्रनष्टं नैव उत्पन्नम् ॥7॥
द्रव्य की अन्य पर्याय उत्पन्न होती है और कोई अन्य पर्याय नष्ट हो जाती है फिर भी द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। द्रव्य के रुप में सदा नित्य रहता है।
रहे जन्म से मरण तक, एक पुरुष पर्याय, ।
उसी में उपजे विनशे, शिशु आदिक पर्याय ॥4.37.8.667॥
पुरिसम्मि पुरसिसद्दो, जम्माई-मरणकाल-पज्जंतो ।
तस्स उ बालाईया, पज्जवयोगा बहुवियप्पा ॥8॥
पुरुषे पुरुषशब्दो, जन्मादि-मरणकालपर्यन्तः ।
तस्य तु बालादिकाः, पयायोग्या बहुविकल्पाः ॥8॥
पुरुष में पुरुष शब्द का व्यवहार जन्म से लेकर मरण तक होता हैपरन्तु इसी बीच बचपन बुढ़ापा आदि अनेक प्रकार की पर्याय उत्पन्न होकर नष्ट होती जाती हैं।
सदृश्य पर्याय समान है, वह सामान्य कहाय ।
विसदृश पर्याय विशेष, वस्तु से अभिन्न कहाय ॥4.37.9.668॥
तम्हा वत्थूणं चिय, जो सरिसो पज्जवो स सामन्नं।
जो विसरिसो विसेसो, स मओऽणत्थंतरं तत्तो ॥9॥
तस्मद् वस्तूनामेव, यः सदृशः पर्यवः स सामान्यम्।
यो विसदृशो विशेषः, स मतोऽनर्थान्तरं ततः ॥9॥
वस्तुओं की सदृश पर्याय है दीर्घकाल तक बनी रहने वाली समान पर्याय है वही सामान्य हैऔर उनकी जो विसदृश पर्याय है वह विशेष है। ये दोनों सामान्य तथा विशेष उस वस्तु से अभिन्न है।
सामान्य विशेष सदा, सहित द्रव्य का ज्ञान ।
सम्यकत्व साधक का, नहीं विरोधी ज्ञान ॥4.37.10.669॥
सामण्णं अह विसेसे, दव्वे णाणं हवेइ अविरोहो।
सहइ तं सम्मत्त, तं तस्स विवरीयं॥10॥
सामान्यमथ विशेषः, द्रव्ये ज्ञानं भवत्यविरोधः।
साधयति तत्सम्यक्त्वं, नहि पुनस्तत्तस्य विपरीतम् ॥10॥
सामान्य तथा विशेष इन दोनों धर्मों से युक्त द्रव्य में होने वाला विरोधरहित ज्ञान ही सम्यकत्व का साधक होता है। उसमें विपरीत अर्थात् विरोधयुक्त ज्ञान साधक नही होता।
पुत्र पौत्र भाई पिता, नाते पुरुष हजार ।
हो जब वह इक का पिता, सबका पिता न यार ॥4.37.11.670॥
पिउ-पुत्त-णत्तु-भव्वय-भाऊणं, एग-पुरिस-संबंधो।
ण य सो एगस्स पिय त्ति सेसयाणं पिया होइ ॥11॥
पितृ-पुत्र-नातृ-भव्यक-भ्रातॄणाम् एक पुरुषसम्बन्धः।
न च स एकस्य पिता इति शेषकाणां पिता भवति ॥11॥
एक ही पुरुष में पिता, पुत्र, भांजे, भाई आदि अनेक सम्बन्ध होते हैं। एक का पिता होने से सबका पिता नही होता। यही स्थिति सब वस्तुओं की है।
निर्विकल्प-सविकल्प में, है ना कोई भेद ।
इक जाने दूजा नहीं, मति स्थिर होत न वेद ॥4.37.12.671॥
सवियप्प-णिव्वियप्पं इय पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं।
सवियप्पमेव वाव णिच्छएणस णिच्छिओ समए ॥12॥
सविकल्प-निर्विकल्पम् इति पुरुषं यो भणेद् अविकल्पम्।
सविकल्पमेव वा निश्चयेन न स निश्चितः समये ।12॥
निर्विकल्प सविकल्प उभयरूप पुरुष को जो केवल निर्विकल्प अथवा सविकल्प (एक ही) कहता हैउसकी मति निश्चय ही शास्त्र में स्थित नही है।
द्रव्य में एकमेक हो रहे, परस्पर विरोधी धर्म ।
दूधपानी ज्यों मिले, विभक्त न होय धर्म ॥4.37.13.672॥
अन्नोन्नाणुगयाणं, ‘इमं व तंव’ त्ति विभयणमजुत्तं।
जह दुद्ध-पाणियाणं, जावंत विससपज्जाया॥13॥
अन्योन्यानुगतयोः ‘इदं वा तद् वा’ इति विभजनमयुक्तम्।
यथा दुग्ध-पानीययोः यावन्तः विशेषपर्यायाः ॥13॥
दूध और पानी की तरह अनेक विरोधी धर्मों द्वारा परस्पर घुलेमिले पदार्थ में यह धर्म और वह धर्म का विभाग करना उचित नही। जितनी विशेष पर्याय हो उतना ही अविभाग समझना चाहिये।
शंकित साधु या रहित, स्याद् वाद व्यवहार ।
समभाव ना भेद रहे, ज्ञान करे प्रचार॥4.37.14.673॥
संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू, विभज्जवायं च वियागरेज्जा ।
भासादुगं धम्म-समुट्टितेहिं, वियागरेज्जा समया सुपण्णे ॥14॥
शमितःचाऽशमितभावो भिक्षुः विभज्यवादं च व्यागुणीवान् ।
भाषाद्विकंं च सम्यक् समुत्थितैःव्यागृणीयात् समतया सुप्रज्ञः ॥14॥
सूत्र और अर्थ के विषय में शंकारहित साधु गर्वरहित होकर स्याद्वादमय वचन का व्यवहार करे। धर्माचरण में प्रवृत्त साधुओं के साथ विचरण करते हुए सत्यभाषा तथा अनुभय (जो न सत्य है और न असत्य) भाषा का व्यवहार करे। धनी या निर्धन का भेद न करके समभावपूर्वक धर्म कथा कहेे।
प्रकरण 38 – प्रमाणसूत्र
विमोह विभ्रम संशयरहित, स्व-पर रूप का ज्ञान ।
भेद अनेक विकल्प है, ग्रहण हो सम्यग्यान ॥4.38.1.674॥
संसय-विमोह-विब्भय-विविज्जियं, अप्प-पर-सरूवस्स ।
गहणं सम्मं णाणं, सायार-मणेय-भेयं तु ॥1॥
संशयविमोह-विभ्रमविवर्जितमात्म-परस्वरूपस्य।
ग्रहणं सम्यग्ज्ञानं, साकारमनेकभेदं ॥1॥
संशय, विमोह और विभ्रम इन तीन मिथ्याज्ञानों सें रहित अपने और पर के स्वरूप को ग्रहण करना सम्यगज्ञान है। यह वस्तुस्वरूप का यथार्थ निश्चय कराता है। इसलिये इसे साकार अर्थात् सावकल उपक (निश्चयात्मक) कहा गया है।
ज्ञान पाँच प्रकार है, मति और श्रुत का ज्ञान ।
ज्ञान अवधि व मनः पर्यय भी, उत्तम केवल ज्ञान ॥4.38.2.675॥
तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं ।
ओहीनाणं तइंय, मणनाणं च केवलं ॥2॥
तत्र पञ्चविधं ज्ञानं, श्रुतमाभिनिबोधिकम् ।
अवधिज्ञानं तु तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम् ॥2॥
वह ज्ञान पाँच प्रकार का है। आभिनिबोधिक या मतिज्ञश्रान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान।
केवल, अवधि, श्रुत मति, मनो ज्ञान प्रकार।
ज्ञान अपूरन चार रहे, “केवल” पूर्ण विचार ॥4.38.3.676॥
पंचेव होंति णाणा, मदि-सुद-ओही-मणं च केवलयं ।
खयउवसमिया चउरो, केवलणाणं हवे खइयं ॥3॥
नञ्चैव भवन्ति ज्ञानानि, मतिश्रुतावधिमनश्च केवलम् ।
क्षायोपशमिकानि चत्वारि, केवलज्ञानं भवेत् ॥3॥
एकदेश क्षय व उपशम से उत्पन्न होने के कारण प्रथम चार ज्ञान अपूर्ण (क्षायोपशमिक) है। समस्त कर्मों के क्षय होने के कारण पाचवाँ केवलज्ञान परिपूर्ण (क्षायिक) है।
सोच विचार, तर्क समझ, निर्णय और अनुमान ।
अभिनिबोधिक इसे कहे, या कहिये मतिज्ञान ॥4.38.4.677॥
ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा ।
सण्णा सत्ती मती पण्णा, सव्वं आभिणिबोहियं ॥4॥
ईहा अपोहः विमर्शः मार्गणा च गवेषणा।
संज्ञा स्मृतिः मतिः प्रज्ञा सर्वम् आभिनिबकम् ॥4॥
ईहा (सोच), अपोह (समझ), मीमांसा (विचार), गवेषणा (तर्क), संज्ञा, शक्ति, स्मृति और प्रज्ञा ये सब अभिनिबोधिक या मतिज्ञान है।
अर्थान्तर को ग्रहण करे, कहलाता श्रुतज्ञान।
मतिज्ञान पूर्वक रहे, शब्द मुख्य पहचान ॥87.5.678॥
अत्थादो अत्थंतर-मुवलंभो, तं भणंति सुदणाणं ।
आभिणिबोहिय-पुव्वं, णियमेणिह सद्दजं पमुहं ॥5॥
अर्थादिथन्तिर-मुपलम्भः तं भणन्ति श्रुतज्ञानम्।
आभिनिबोधिकपूर्व, नियमेन च शब्दजं मूलम् ॥5॥
शब्द जो जानकर उस पर से अर्थान्तर को ग्रहण करना श्रुतज्ञान है। यह ज्ञान नियमतः आभिनिबोधिक ज्ञानपूर्वक होता है। इसके दो भेद है। लिंगजन्य और शब्दजन्य । धुँआ देखकर होने वाला अग्नि का ज्ञान लिंगज है और वाचक शब्द सुन या पढ़ कर होने वाला ज्ञान शब्दज है। आगम में शब्दज श्रुतज्ञान का प्राधान्य है।
इन्द्रिय व मन से निमित्त, ज्ञान शब्द अनुसार ।
शब्द श्रुत कहना समर्थ, शेष है बुद्धि विचार ॥4.38.6.679॥
इंदियमणोनिमित्तं, जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं ।
निययतत्थुत्तिसमत्थं, तं भावसुयं मई सेसं ॥6॥
प्रादुर्भवति चान्यः, पर्यायः पर्यायो व्ययते अन्यः ।
द्रव्यस्य तदपि द्रव्यं, नैव प्रनष्टं नैव उत्पन्नम् ॥6॥
इन्द्रिय और मन के निमित्त से सुनकर पढ़कर होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। वह अपने विषयभूत अर्थ को दूसरे से कहने में समर्थ होता है। शेष इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने अश्रुतानुसारी अवग्रहादि ज्ञान मतिज्ञान है। इसको स्वयं तो जाना जा सकता है लेकिन दूसरे को नही समझाया जा सकता है।
मतिपूर्वक आगम कहे, होत सदा श्रुतज्ञान।
श्रुतपूर्वक मतिज्ञान ना, प्रमुख अन्तर जान ॥4.38.7.680॥
मइ-पुव्वं सुय-मुत्तं, न मई सुय-पुव्विया विसेसोऽयं ।
पुव्वं पूरण-पालण-भावाओ जं मई तस्त ॥7॥
मतिपूर्व श्रुतमुक्तं, न मतिःश्रुतपूर्विका विशेषोऽयम् ।
पूर्वं पूरणपालन-भाववाद्यद् मतिस्तस्य ॥7॥
आगम में कहा गया है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञानपूर्वक नहीं होता है। यही दोनों ज्ञानों में अन्तर है।
अवधिज्ञान सीमित रहे, भाव क्षेत्र द्रव्यकाल ।
भव गुणों का भेद कहे, सीमा है हर हाल ॥4.38.8.681॥
अवहीयदि त्ति ओही सीमाणाणे त्ति वण्णिदं समए ।
भव-गुण-पच्चय-विहियं, तमोहिणाणं त्ति णं बंति ॥8॥
अवधीयत इत्यवधिः, सीमाज्ञानमिति वर्णितं समये।
भवगुणप्रत्ययविधिकं, तदवधिज्ञानमिति ब्रुवन्ति ॥8॥
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादापूर्वक पदार्थों को एकदेश जाननेवाला ज्ञान अवधि ज्ञान कहते है। इसे आगम में सीमाज्ञान भी कहा गया है। इसके दो भेद है। भवप्रत्यय और गुण प्रत्यय।
अचिंत चिंतित, अर्धचिंतित, भेद अनेक प्रकार ।
मन प्रत्यक्ष ही जानता, मनुष्यलोक विचार ॥4.38.9.682॥
चिंतिय-मचिंतियंऽवा अद्धं चिंतिय-मणेय-भेय-गयं ।
मण-पज्जवत्ति णाणं, जंजाणइ तं तु णर-लोए ॥9॥
चिन्तितमचिन्तितं वा, अर्द्ध चिन्तितमनेकभेदगतम्।
मनःपर्यायः ति ज्ञानं, यज्जानाति तत्तु नरलोके ॥9॥
जो ज्ञान मनुष्यलोक में स्थित जीव के चिन्तित, अचिंतित,अर्धचिंतित आदि अनेक प्रकार के अर्थ से मन को प्रत्यक्ष जानता है वह मनः पर्याय ज्ञान है।
एकमात्र है शुद्ध सकल, अनंत अद्भुत ज्ञान ।
ज्ञान एक है शब्द कई, कोई न एक समान ॥4.38.10.683॥
केवल-मेगे सुद्धं, सगल-मसाहारणं अणंतं च।
पायं च नाण-सद्दो, नाम-समाणा-हिगरणोऽयं ॥10॥
सविकल्प-निर्विकल्पम् इति पुरुषं यो भणेद् अविकल्पम्।
सविकल्पमेव वा निश्चयेन न स निश्चितः समये ॥10॥
केवल शब्द के एक, शुद्ध, सकल, असाधारण और अनन्त आदि अर्थ हैं। केवल ज्ञान एक है क्योंकि उसके होने से अन्य ज्ञान निवृत्त हो जाते है इसलिये एकाकी है। मलकलंक से रहित होने से शुद्ध है। सम्पूर्ण ज्ञेयों का ग्राहक होने से सकल है। इसके समान और कोई ज्ञान नहीं इसलिये असाधारण है। इसका कभी अन्त नही होता इसलिये अनन्त है।
ज्ञान है केवल जानता, पूर्ण लोक अलोक ।
आज भूत भविष्य भी, छुपता नहीं त्रिलोक ॥4.38.11.684॥
संभिन्नं पासंतो, लोक-मलोगं च सव्वओ सव्वं ।
तं नत्थि जं ना पासइ, भूयं भव्वं भविस्सं च ॥11॥
संभिन्नं पश्यन् लोकमलोकं च सर्वतः सर्वम् ।
तन्नास्ति यत्र पश्यति, भूतं भव्यं भविष्यच्च ॥11॥
केवल ज्ञान और अलोक को सर्वतः परिपूर्ण रुप से जानता है। भूत भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नही है जिसे केवल ज्ञान नही जानता।
ज्ञात स्वभाव सम्यक् सदा, उसको ही सच मान ।
भेद है उसके दो कहे, प्रत्यक्ष परोक्षप्रमाण ॥4.38.12.685॥
गेहृइ वत्थुसहावं अविरुद्धं सम्मुरूवं जं णाणं।
भणियं खु तं पमाणं पच्चक्ख-परोक्ख-भेएहिं ॥12॥
गुह्णाति वस्तुस्वभावम्, अविरुद्धं सम्यग्रूपं यज्ज्ञानम्।
भणिते खलु तत् प्रमाणं, प्रत्यक्षपरे क्षभेदाभ्याम् ॥12॥
जो ज्ञान वस्तु स्वभाव को – यथार्थस्वरुप को-सम्यक् रुप से जानता है, उसे प्रमाण कहते हैं। इसके दो भेद है। प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण।
जीव ‘अक्ष’ भी हम कहे, भोगे तीनों लोक ।
मन-अवधि का अंतर बस, साक्षात हर लोक ॥4.38.13.686॥
जीवो अक्खो अत्थव्वण-भोयण-गुणन्निओ जेणं ।
तं पई वट्ट नाणं जे एच्चक्खं तय तिविहं॥13॥
तहवः अक्षः अर्थव्यापन-भोजनगणान्वितो येन ।
तं प्रति वर्तते ज्ञानं, यत् प्रत्यक्षं तत् त्रिविम् ॥13॥
जीव को अक्ष कहते हैं। जो ज्ञानरुप में समस्त पदार्थों में व्याप्त है वह अक्ष अर्थात जीव है। उस अक्ष से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके तीन भेद है। अवधि, मनःपर्यय व केवल ज्ञान।
भिन्न मन द्रव्येन्द्रियाँ, जीव अलग पहचान ।
कहे ज्ञान परोक्ष उसे, ‘पर’ करता अनुमान ॥4.38.14.687॥
अक्खस्स पोग्गलकया, जं दव्विन्दिय-मणा-परा तेणं।
तेहिं तो जं नाणं, परोक्खमिह तम-णुमाणं व ॥14॥
अक्षस्य पुद्गलकृतानि यत्, द्रव्येन्द्रियमनांसि पराणितेन ।
तैस्तस्माद् यज्ज्ञानं, परोक्षमिह तदनुमानमिव ॥14॥
पौद्गलिक होने के कारण द्रव्येन्द्रियों और मन जीव (अक्ष) से पर है। अतः उससे होने वाला ज्ञान परोक्ष है। जैसे अनुमान में धुएँ से अग्नि का ज्ञान होना।
मति व शब्द परोक्ष है, ‘पर’ निमित्त है ज्ञान ।
पूर्व है और याद से, पर निमित्त अनुमान ॥3.38.15.688॥
होंति परोक्खाइं मइ-सुयाइं जीवस्स पर-निमित्ताओ।
पुव्वो-वलद्ध-संबंध-सरणाओ, वाणुमाणं व ॥15॥
भवतः परोक्षे मति-श्रुते जीवस्य परनिमित्तात्।
पूर्वोपलब्धसम्बन्ध-स्मरणाद् वाऽनुमानमिव ॥15॥
जीव के मति और श्रुतज्ञान परनिमित्तक होने के कारण परोक्ष है। अथवा अनुमान की तरह पहले से उपलब्ध अर्थ के स्मरण द्वारा होने के कारण भी वे परनिमित्तक है।
अवधि मन बस सामने, परोक्ष लिंग से ज्ञान ।
इन्द्रिय इस मन ज्ञान को, लोक सत्य ही मान ॥4.38.16.689॥
एगंतेण परोक्खं, लिंगिय-मोहाइयं च पच्चक्खं।
इंदिय-मणो-भवंजं, तं संववहार-पच्चक्खं ॥16॥
एकान्तेन परोक्षं, लैङ्गिकमव्ध्यादिकं च प्रत्यक्षम्।
इन्द्रियमनोभवं यत्, तत् संव्यहारप्रत्यक्षम् ॥16॥
लिंग से होने वाला श्रुतज्ञान तो अकाम्तरूप से परोक्ष ही है। अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान एकान्तरूप से प्रत्यक्ष ही है। किन्तु इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान लोक व्यवहार में प्रत्यक्ष माना जाता है। इसलिये वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है।
प्रकरण 39 – नयसूत्र
श्रुतज्ञान अनुसार कई, वस्तु अंश यही ज्ञान ।
‘नय’ है नाम विकल्प का, ज्ञानी इसको जान ॥4.39.1.690॥
जं णाणीय वियप्पं, सुयमेयं वत्थु-अंस-संगहणं ।
तं इह णयं पउत्तं, णाणी पुण तेण णाणेण ॥1॥
यो ज्ञानिनां विकल्पः, श्रुतभेदो वस्त्वंशसंग्रहणम्।
स इह नयः प्रयुक्तः, ज्ञानी पुनस्तेन ज्ञानेन ॥1॥
श्रुतज्ञान के आश्रय से युक्त वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञानी के विकल्प को ‘नय’ कहते है। उस ज्ञान से जो युक्त है वही ज्ञानी है।
नय बिन नर जाने नही, स्याद्वाद का ज्ञान ।
आवश्यक नय बोध है, अंत एक मत जान ॥4.39.2.691॥
जम्हा ण णएण विणा, होइ णरस्स सिय-वाय-पडिवत्ती।
तम्हा सो बोहव्वो, एयंतं हंतुकामेण ॥2॥
यस्मान्न नयेनविना, भवति नरस्य स्याद्वादप्रतिपत्तिः ।
तस्मात्स बोद्धव्यः, एकान्तं हन्तुकामेन ॥2॥
नय के बिना मनुष्य को स्याद्वाद का बोध नही होता। अतः जो एकमत का या एकमत आग्रह का परिहार करना चाहता है उसे नय को अवश्य जानना चाहिये।
सुख ज्यूँ धर्मविहीन नहीं, जल बिन मुझे न प्यास ।
नय बिन ज्ञान है मूर्खता, द्रव्य स्वरूप न पास ॥4.39.3.692॥
धम्मविहीणो सोक्खं, तणहाछेयं जलेण जह रहिदो ।
तह इह वंछइ मूढो, णयरहिओ दव्वणिच्छिती ॥3॥
धर्म्महवहीनः सोख्यं, तृष्णाच्छेदं जलेन यथा रहितः।
तथेह वाञ्छति मूढो, नयरहितो द्रव्यनिश्चिती ॥3॥
जैसे धर्मविहीन मनुष्य सुख चाहता है या कोई जल के बिना अपनी प्यासस बुझाना चाहता है, वैसे ही मूढजन नय के बिना द्रव्य के स्वरूप का निश्चय करना चाहता है।
सामान्य-विशेष रहे तीर्थंकर दो वेद।
द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक, शेष है इनके भेद ॥4.39.4.693॥
तित्थयर-वयण-संगह-विसेस-पत्थार-मूल-वागरणी ।
दव्वट्ठिओ य पज्जवणओ, य वियप्पा सिं ॥4॥
तीर्थकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तार – मूलव्याकरणी।
द्रव्यार्थिकश्च पर्यवनयश्च, शेषाः विकल्पाः एतेषाम् ॥4॥
तीर्थंकरों के वचन दो प्रकार के हैं। सामान्य और विशेष । दोनों प्रकार के वचनों की राशियों के नय भी दो हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। शेष सब नय इन दोनों के ही अवान्तर भेद है।
पर्यायर्थिक भान नहीं, द्रव्यार्थिक नय ज्ञान ।
द्रव्यार्थिक का भान नहीं, पर्यार्थिक पहचान ॥4.39.5.694॥
दव्वट्ठिय-वत्तव्वं, अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स ।
तह पज्जववत्थु, अवत्थमेव दव्वट्टियणयस्स ॥5॥
द्रव्यार्थिकवक्तव्य-मवस्तु नियमेन पर्यवनयस्य ।
तथा पर्यवस्तु, अवस्तु एव द्रव्यार्थिकनयस्य ॥5॥
द्रव्यार्थिक नय का वक्तव्य पर्यायार्थिक नय के लिये नियमतः अवस्तु है और पर्यायार्थिक नय की विषयभूत वस्तु द्रव्यार्थिक नय के लिये अवस्तु है।
पर्याय दृष्टि से वे, होतीं उत्पन्न नष्ट ।
द्रव्यदृष्टि से द्रव्य सदा, अनुत्पन्न अविनष्ट ॥4.39.6.695॥
उप्पज्जंति वियंति य, भावा णियमेण पज्जवणयस्स ।
दव्वट्टियस्स सव्वं, सया अणुप्पण्णमविणट्ठं ॥6॥
उत्पद्यन्ते व्यन्ति च, भावा नियमेन पर्यवनयस्य ।
द्रव्यार्थिकस्य सर्व, सदानुत्पन्नमविनष्टम् ॥6॥
पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से पदार्थ नियमतः उत्पन्न होते हैंऔर नष्ट होते हैं। और द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से सकल पदार्थ सदैव अनुत्पन्न और अविनाशी होते हैं।
सब द्रव्य द्रव्यार्थिक से, देय भिन्न पर्याय ।
साथ समय के वस्तु दिखे, बनता रूप सहाय ॥4.39.7.696॥
दव्वट्ठिएण सव्वं, दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो ।
हवदि य अण्णमण्णं, तक्काले तम्मयत्तादो ॥7॥
द्रव्यार्थिकेन सर्वं, द्रव्यं तत्पर्यायार्थिकेन पुनः।
भवति चान्यद् अनन्यत्-तत्काले तन्मयत्वात् ॥7॥
द्रव्यार्थिक नय से सभी द्रव्य हैऔर पर्यायर्थिक नय से वह अन्य है क्योंकि जिस समय में जिस नय से वस्तु को देखते हैं उस समय वह वस्तु उसी रूप में दृष्टिगोचर होती है।
गौण जब पर्याय करे, द्रव्यार्थिक कहलाय ।
द्रव्य को जो गौण करे, पर्याय अर्थ समझाय ॥4.39.8.697।
पज्जय गउणं किच्चा, दव्वं पि य जो हुगिण्हइ लोए ।
सो दव्वत्थिय भणिओ विवरीओ पज्ज्यत्थिणओ ॥8॥
पर्ययं गौणं कृत्वा, र्दव्यामपि च यो हि गृह्णाति लोके।
स द्रव्यार्थिको भणितो, विपरीतः पर्ययार्थिनयः ॥8॥
जो ज्ञान पर्याय को गौण करके लोक में द्रव्य को ही ग्रहण करता है उसे द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। और जो द्रव्य को गौण करके पर्याय को ही ग्रहण करता है उसे पर्यायर्थिक नय कहा गया है।
नैगम, व्यवहार, संग्रह, नय ऋजुसूत्र विचार ।
भूत शब्द समभिरूढ, मूल सात प्रकार ॥4.39.9.698॥
नेगम-संगह-ववहार-उज्जुसुए चेव होइ बोधव्वो।
सद्देय समभिरूढे एवंभूए य मूलनया ॥9॥
नैगम-संग्रह-व्यवहार-ॠजुसूत्रश्च भवति बोद्धव्यः।
शब्दश्च समभिरूढः, एवंभूतश्च मूलनयाः ॥9॥
मूल नय सात प्रकार के हैं। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ॠजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवं भूत।
प्रथम तीन द्रव्यार्थिक नय, पर्यायार्थिक चार ।
प्रथम चार नय अर्थ है, तीन है शब्द विचार ॥4.39.10.699॥
पढमतिया दव्वत्थी, पज्ज्यगाही य इयर जे भणिया ।
ते चदु अत्थपहा, सद्दपहाणा हु तिण्णि णया ॥10॥
प्रथमपत्रिकाः द्रव्यार्थिकाः, पर्यायग्राहिणश्चतरे ये भणिताः ।
ते चत्वारोऽर्थप्रधानाः, शब्दप्रधानाः हि त्रयो नयाः ॥10॥
प्रथम तीन नय (नैगम, संग्रह, व्यवहार) द्रव्यार्थिक है शेष पर्यायार्थिक है। पहले चार नय अर्थ प्रधान है और अन्तिम तीन नय शब्दप्रधान है।
सामान्य, विशेष, उभय हो, नैगम नय का ज्ञान ।
विविध रुप जाने उसे, ‘नैकमान’ भी जान ॥4.39.11.700॥
णेगाइं माणाइं सामन्नो-भय-विसेस-नाणाइं।
जं तेहिं मिणइ तो णेगमो णओ णेगमाणो त्ति ॥11॥
नैकानि मानानि, सामान्योमय-विशेषज्ञानानि्।
यत्तैर्मिनोति ततो, नैगमो नयो नान इति ॥11॥
सामान्य ज्ञान, विशेष ज्ञान तथा उभयज्ञान रूप से जो नेक मान लोक में प्रचलित है उन्हें जिसके द्वारा जाना जाता है वह नैगम नय है। इसलिये उसे नैकमान अथवा विविधरूप से जानना कहा गया है।
सम्पन्न द्रव्य क्रिया का, आज पर आरोप ।
भूत वीर निर्वाण का, उस दिन पर आरोप ॥4.39.12.701॥
णिव्वित्त दव्वकिरिया, वट्टणकाले दु जं समाचरणं ।
तं भूयणइगमणयं, जह अज्जदिणं निव्वुओ वीरो ॥12॥
निर्वृत्ता द्रव्याक्रिया, वर्तने काले तु यत् समाचरणम् ।
स भूतर्नमनयो, यथा अद्य दिनंनिर्वृतो वीरः ॥12॥
(भूत, वर्तमान व भविष्य के भेद से नैगमनय तीन प्रकार का है)जो द्रव्य सा कार्य भूतकाल में समाप्त हो चुका हो उसका वर्तमानकाल में आरोपण करना भूत नैगमनय है। जैसे हज़ारों साल पहले भगवान महावीर के निर्वाण के लिये निर्वाण अवस्था के दिन कहना कि आज वीर भगवान का निर्वाण हुआ है।
पकना भोजन का शुरु, कहे बनाया भात ।
वर्तमान नैगम नय है, समझो अर्थ से बात ॥4.39.13.702॥
पारद्वा जा किरिया, पचणविहाणादि कहइ जो सिद्धा।
लोएसु पुच्छमाणो, भण्णइ तं वट्टमाण-णयं ॥13॥
प्रारब्धा या क्रिया, पचनविधानादि कथयकति यः सिद्धाम्।
लोकेच पृच्छयमाने, स भण्यते वर्तमाननयः ॥13॥
जिस कार्य को अभी प्रारम्भ ही किया है उसके बारे में लोगों के पूछने पर ‘पूरा हुआ’ कहना जैसे भोजन बनाना प्रारम्भ करने पर ही यह कहना कि आज भात बनाया है यह वर्तमान नैगमनय है।
भविष्य में जो करना है, बाक़ी सारा काम ।
गया ना, पर कहा गया, भावी नैगम नाम ॥4.39.14.703॥
णिप्पण्णमिव पनयंपदि भावि-पदत्थं खु जो अणिप्पण्णं ।
अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ सो भावि-णइगमुत्ति णओ ॥14॥
निष्पन्नमिव प्रजल्पति, भाविपदार्थं नरोऽनिष्पन्नम्।
अप्रस्थे यथा प्रस्थः, भण्यते स भाविनैगम इति नयः ॥14॥
जो कार्य भविष्य में हाने वाला है उसके निष्पन्न न होने पर भी निष्पन्न हुआ कहना भावी नैगमनय है। जैसे जो अभी गया नही है उसके लिये कहना की वह गया।
आपस में अविरुद्ध हो, संग्रह नय पहचान ।
ग्रहण आंशिक ही करे, अशुद्ध संग्रहनय जान ॥4.39.15.704॥
अवरो-प्पर-मविरोहि, सव्वं अत्थि त्ति सुद्ध संगहणे।
होइ तमेव असुद्धं, इगि-जाइ-विसेस-गहणेण ॥15॥
परस्परमविरोधे, सर्वमस्तीति शुद्धसङगट्टणम्।
भवति स एवाशुद्धः, एकजातिविशेषग्रहणेन ॥15॥
संग्रहनय के दो भेद हैं। शुद्ध और अशुद्ध। शुद्ध संग्रहनय में परस्पर का विरोध न करके सत् रूप से सबका ग्रहण होता है। उसमें से एक जातिविशेष को ग्रहण करने से वही अशुद्धसंग्रहनय होता है।
संग्रह नय से हो गृहीत, अर्थ में करे भेद।
शुद्ध अशुद्ध के भेदक से, नय व्यवहार दो भेद ॥4.39.16.705॥
जं संगहेण गहियं, भेयइ अत्थं असुद्ध सुद्धं वा।
सो वहारो दुविहो, असुद्धसुद्धत्थभेयकरोे ॥16॥
यः संग्रहेण गृहीतं, भिनत्ति अर्थं अशुद्धं शुद्धं वा।
स व्यवहारो द्विविधोऽशुद्धशुद्धार्थभेदकरः॥ 16॥
जो संग्रहनय के द्वारा गृहीत शुद्ध अथवा अशुद्ध अर्थ का भेद करता है वह व्यवहारनय है। यह भी दो प्रकार का है। अशुद्धार्थक भेदक और शुद्धार्थक भेदक।
वर्तमान ही ग्रहण करे, हर पल होता नाश ।
सूक्ष्मॠजुसूत्र नय यही, क्षण ही सबका वास ॥4.39.17.706॥
जो एयसमयवट्टी, गिह्णइ दव्वे धुवत्तपज्जायं।
सो रिउसुत्तो सुहुमो, सव्वं पि सद्दं जहा खणियं ॥17॥
यः एकसमयवर्तिनं, गुह्णाति द्रव्ये ध्रु वत्वपर्यायम्।
स ॠजुसूत्रः सूक्ष्मः, सर्वोऽपि शब्दः यथा क्षणिकः ॥17॥
जो द्रव्य में एकसमयवर्ती (वर्तमान) अधु्रव पर्याय को ग्रहण करता है उसे सूक्ष्मॠजुसूत्रनय कहते हैं। जैसे सब सत्क्षणिक है।
मनुष्यादि पर्याय समय, वर्तमान का भान ।
ग्रहण काल को ही करे, सूत्र स्थूलॠजु मान॥4.39.28.707॥
मणुवाइ-पज्जाओ, मणुसो त्ति सभाट्ठिदीसु वट्टंतो।
जो भणइ तावकालं, सो थूलो हाइ रिउसुत्तो ॥18॥
मनुजादिकपर्यायो, मनुष्य इति स्वकस्त्त्तिषफ वर्तमानः ।
यः भणति तावत्कालं, स स्थूलो भवति ॠजुसूत्रः ॥18॥
और जो अपनी स्थितिपर्यन्त रहने वाली मनुष्यादि पर्याय को उतने समय तक एक मनुष्यरूप से ग्रहण करता है वह स्थूल-ॠजुसूत्रनय है।
शब्दों से ही जब करे, आप वस्तु पहचान ।
शब्द अर्थ ही ग्रहण करे, शाब्दिक नय सम्मान ॥4.39.19.708॥
सवणं सपइ स तेणं व सप्पए वत्थु जं तओ सद्दो।
तस्सत्थ-परिग्गहओ नओ वि सद्दो त्ति हेउ व्व ॥19॥
शपनं शपति स तेन, वा शप्यते वस्तु यत् ततः शब्दः।
तस्यार्थपरिग्रहतो, नयोऽपि शब्द इति हेतुरिव ॥19॥
जिसके द्वारा वस्तु को कहा जाता है या पहचाना जाता है वह शब्दनय है।
भेद जो शब्दों से करे, करते ज्यूँ लिंग-भेद ।
पुष्य पुष्या अर्थ अलग, नय शब्द यही वेद ॥4.39.20.709॥
जो वट्टणं ण मण्णइ, एयत्थे भिण्ण-लिंग-आईण।
सो सद्दणओ-भणिओ, णेओ पुस्साइ आण जहा ॥20॥
यो वर्तनं च मन्यते, एकार्थे भिन्नलिङ्गादीनाम् ।
स शब्दनयो भणितः, ज्ञेयः पुष्यादीनां यथा ॥20॥
जो एकार्थवाची शब्दों में लिंग आदि के भेद से अर्थभेद मानता है उसे शब्दनय कहा गया है। जैसे पुष्य शब्द पुल्लिंग में नक्षत्र का वाचक है और पुष्या स्त्रीलिंग तारिका का बोध कराती है।
सिद्ध शब्द जो है करता, अर्थ ग्रहण व्यवहार ।
शब्ददेव से देव समझ, नय ये शब्द विचार ॥4.39.21.710॥
अहवा सिद्धे सद्दे, कीरइ जं किं पि अत्थववहारं।
तं खलु सद्दे विसयं देवो सद्देण जहा देवो ॥21॥
अथवा सिद्धः शब्दः, करोति यत् किमपि अर्थव्यवहरणम्।
तत् खलु शब्दस्य विषयः, ‘देवः’ शब्देन यथा देवः ॥21॥
अथवा व्याकरण से सिद्ध शब्द में अर्थ का जो व्यवहार किया जाता है, उसी अर्थ को उस शब्द के द्वारा ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे देव शब्द के द्वारा इसका सुग्रहीत अर्थ देव ही ग्रहण करना।
अर्थ जुड़ा है शब्द से, शब्द अर्थ पहचान ।
इन्द्र पुरन्दर हो शके, समभिरूढनय जान ॥4.39.22.711॥
सद्दारूढो अत्थो, अत्थारूढो तहेव पुण सद्दो।
भणइ इह समभिरूढो जह इंद पुरंदरो सक्को ॥22॥
शब्दारूढोऽर्थोऽर्थारूढस्तथैव पुनः –।
भणति इह समभिरूढो, यथा इन्द्रः पुरन्दरः — ॥22॥
जिस प्रकार प्रत्येक पदार्थ अपने वाचक अर्थ में आरूढ है वैसे ही प्रत्येक शब्द भी अपने-अपने अर्थ में आरूढ है। अर्थात शब्दभेद के साथ अर्थभेद होता ही है। शब्द भेदानुसार अर्थभेद करने वाला समभिरूढ है। जैसे इन्द्र, पुरन्दर और शके तीनों शब्द देवों के राजा बोधक है पर अलग अलग अर्थ का बोध कराते हैं।
रूप वही शब्दार्थ जो, भूत न अविद्यमान ।
एवंभूत-नय कहे उसे, शब्द-अर्थ पहचान ॥4.39.23.712॥
एवं जह सद्दत्थो संतो भूओ तह-न्नहा-भूओ।
तेणेवंभूय-नओ सद्दत्थपरो विसेसेणं ॥23॥
एवं यथा शब्दार्थः, सन् भूतस्तदन्य–।
तेनैवंभूतनयः, शब्दार्थपरो विशेषेण ॥23॥
एवं अर्थात जैसा शब्दार्थ हो उसी क्रिया द्वारा जो काम करता है उस प्रत्येक कर्म का बोधक अलग-अलग शब्द है और उसी का उस समय प्रयोग करने वाला एवं भूतनय है। जैसे मनुष्य को पूजा करते समय पुजारी और युद्ध करते समय योद्धा कहना।
जीव जो भी क्रिया करे, मन वचन और काय ।
वो ही शब्द प्रयोग करे, एवं भूत कहलाय ॥4.39.24.713॥
जंजं करेइ कम्मं, देही मण-वयण-काय-चेट्ठादो।
तं तं खु णामजुत्तो, एंवभूदो हवे स णओ ॥24॥
यद् यद् कुरुते कर्म, देही मनोवचनकायचेष्टातः।
तत् तत् खलु नामयुक्तः, एवंभूतो भवेत् सः नयः॥24॥
जीव अपने मन वचन काय के रुप में जो भूत या विद्यमान है और दो शब्दार्थ से अन्यथा है वह अभूत या अविद्ययमान है। जो ऐसा मानता है वह एवंभूतनय है। इसिलिये शब्दनय और समभिरूढनय की अपेक्षा एवंभूतनय विशेषरूप से शब्दार्थ तत्परनय है।
प्रकरण 40 – स्याद्वाद व सप्तभंगी-सूत्र
परस्पर सापेक्ष हो, नय या रहे प्रमाण ।
संबंधित सापेक्ष रहे, शेष निरपेक्ष जाण ॥4.40.1.714॥
अवरो-प्परसावेक्खं, णय-विसयं अह पमाणविस्यं वा ।
तं सावेक्खं भणियं, णिरवेक्खं ताण विवरीयं ॥1॥
परस्परसापेक्षो, नयविषयोऽथ प्रमाणविषयो वा।
तत् सापेक्षं भणितं, निरपेक्षं तयोर्विपरीतम् ॥1॥
नय का विषय हो या प्रमाण का, परस्पर सापेक्ष विषय को ही सापेक्ष कहा जाता है और इससे विपरीत को निरपेक्ष कहा जाता है।
सर्वथा का निषेध करे, स्यात् निपात से सिद्ध।
स्यात् अर्थ सापेक्ष, होती यही वस्तु ये सिद्ध ॥4.40.2.715॥
णियम-णिसेध-सीलो, णिपाद्णादो य जो हु खलु सिद्दो ।
सो सियसद्दो भणिओ, जो सावेक्खं पसाहेदि ॥2॥
नियमनिषेधनशीलो, निपातानाच्च यःखलु सिद्धः ।
स स्याच्छब्दो भणितः’ यः सापेक्षं प्रसाधयति ॥2॥
जो सदा नियम का निषेध करता है उस शब्द को स्यात् कहा गया है। यह वस्तु को सापेक्ष सिद्ध करती है।
सात अंग है स्यात् के, नय, दुर्नय, प्रमाण ।
नय, प्रमाण सापेक्ष है, विरुद्ध दुर्नय जान ॥4.40.3.716॥
सत्तेव हंति भंगा, पमाण-णय-दुणय-भेद-जुत्ता वि ।
सि सावेक्खं पमाणं, णएण णय दुणय णिरवेक्ख ॥3॥
सप्तैव भवन्ति भङ्गाः, प्रमाणनयदुर्नयभेदयुक्ताः अपि।
स्यात् सापेक्षं प्रमाणं, नयेन नया दुर्नया निरपेक्षाः ॥3॥
स्यात् लगाकर कथन करना स्याद्वाद का लक्षण है। इसके 7 भंग है। स्यात् सापेक्ष भंगों को प्रमाण कहते हैं। नय युक्त भंगों के नय कहते हैं और निरपेक्ष भंगों को दुर्नय।
दोनों है और है नहीं, स्यात् जुड़ता साथ।
अस्ति नास्ति, वक्तव्य नहीं, भंग प्रमाण है सात ॥4.40.4.717॥
अत्थि त्ति णत्थि दो विय, अव्वत्तव्वं सिएण संजुत्तं ।
अव्वत्तव्वा ते तह, पमाणभंगी सुणायव्वा ॥4॥
अस्तीति नास्ति द्वापपि, च अवक्तव्यं स्याता संयुक्तम् ।
अवक्तव्यास्ते तथा, प्रमाणभङ्गी सुज्ञातव्या ॥4॥
स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्तिनास्ति अवक्तव्य, इन्हें प्रमाण सप्तभंगी जानना चाहिये।
अस्तित्व स्वरुप द्रव्य रहे, क्षेत्र, काल गुण भाव।
द्रव्य, क्षेत्र पर काल हो, नास्ति रहे स्वभाव ॥4.40.5.718॥
अत्थि-सहावं दव्वं, सद्दव्वादीसु गाहियणएण ।
तं पि य णत्थि-सहावं, परदव्वादीहि गहिएण ॥5॥
अस्तिस्वभावं द्रव्यं, स्वद्रव्यादिषु ग्रहकनयन ।
तदपि च नास्तिस्वभावं, पदद्रव्यादिभिर्गृ हीतेन ॥5॥
स्व-द्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा द्रव्य अस्तित्व स्वरूप है। वही पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा नास्तिस्वरूप है।
‘स्व’ से है ‘पर’ से नहीं, इक ना शब्द बताय ।
दो धर्म इक साथ हो, वक्तव्य नहीं कहलाय ॥4.40.6.719॥
उहयं उहयणएण, अव्वत उत्तव्वं च तेण समुदाए ।
ते तिय अव्वत्तव्वा, णिय-णिय-णिय-णय-अत्थ-संजोए ॥6॥
उभयमुभयनयेना-वक्तव्यं च तेन समुदाये।
ते त्रिका अवक्तव्या, निजनिजनयार्थसंयोगे ॥6॥
स्व-द्रव्यादि चतुष्टय और पर-द्रव्यादि चतुष्टय दोनों की अपेक्षा लगाने पर एक ही वस्तु स्यात्-अस्ति और स्यात्-नास्ति स्वरूप होती है। दोनों धर्मों को एक साथ कहने की अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य है। इसी प्रकार अपने-अपने नय के साथ अर्थ की योजना करने पर अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य और अस्ति-नास्ति अवक्तव्य है।
है, नहीं, और उमय है, ज़ोर एक पर जाय।
स्यात पद निरपेक्ष-नय, दुर्नय भंग कहाय ॥4.40.7.720॥
अत्थि त्ति णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं तहेव पुण तिदयं ।
तह सिय णयणिरवेक्खं, जाणसु दव्वे दुणयभंगी ॥7॥
एकनिरुद्धे इतरः, प्रतिपक्षो अपरश्च स्वभावः।
सर्वेषां स स्वभावे, कर्तव्या भवन्तितथा भङ्गाः ॥7॥
स्यात् पद कथा नय-निरपेक्ष होने पर यही सातों भंग दुर्नय भंगी कहलाते है। जैसे वस्तु अस्ति ही है, नास्ति ही है, उभयरूप ही है, अवक्तव्य ही है, अस्ति अवक्तव्य ही है, नास्ति अवक्तव्य ही है या अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ही है। (किसी एक ही दृष्टिकोण पर ज़ोर देना तथा दूसरे की सर्वथा उपेक्षा करना दुर्नय है।)
धर्म ग्रहण कर एक का, प्रतिपक्षी संग आय ।
धर्म दोनों साथ चले, स्यात् भंग ही भाय ॥4.40.8.721॥
एक-णिरुद्धेइयरो, पडिवक्खो अवरे या सब्भाओ ।
सव्वेसिं स सहावे, कायव्वा होई तह भंगा ॥8॥
एकनिरुद्धे इतर, प्रतिपक्षो अपरश्च स्वभावः।
सर्वेषां स स्वभावे, कर्तव्या भवन्ति तथा भङ्गाः ॥8॥
वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करने पर उसके प्रतिपक्षी दूसरे धर्म का भी ग्रहण अपने आप हो जाता है क्योंकि दोनों ही धर्म वस्तु के स्वभाव है। अतः सभी वस्तु धर्मों में सप्तभंगी की योजना करनी चाहिये।
प्रकरण 41 – समन्वयसूत्र
परोक्षरूप दर्शन करे, अनेकान्त पहचान ।
संशय बाक़ी रहे नहीं, कहलाये श्रुतज्ञान ॥4.41.1.722॥
सव्वं पि अणेयंतं, परोक्ख-रूवेण जं पयासेदि ।
तं सुय-णाणं भण्णादि, संसय-पहुदीहि परिचत्तं ॥1॥
सर्वमपि अनेकान्तं, परोक्षरूपेण यत् प्रकाशयति।
तत् श्रुतज्ञानं भण्यते, संशयप्रभृतिभिः परित्यक्तम् ॥1॥
जो परोक्षरूप से समस्त वस्तुओं को अनेकान्तरूप दर्शाता है और संशय आदि रहित है, वह श्रुतज्ञान है।
लोकव्यवहार साधता, एक धर्म पहचान ।
श्रुतज्ञान का भेद ये, नय चिन्ह का ज्ञान ॥4.41.2.723॥
लोयाण ववहारं, धम्म-विवक्खाइ जो पसाहेदि।
सुय-णाणस्स वियप्पो सो वि णओ लिंग-संभूदो ॥2॥
लोकांना व्यवारं, धर्मविवक्षया यः प्रसाधयति।
श्रुतज्ञानस्य विकल्पः, सः अपि नयः लिङ्गसम्भूतः ॥2॥
जो वस्तु के किसी एक धर्म की विवक्षा या अपेक्षा से लोक व्यवहार को साधता है, वह नय है। नय श्रुतज्ञान का भेद है और लिंग से उत्पन्न होता है।
वस्तु संग कई धर्म है, नय लेता बस एक।
महत्त्व है उस धर्म का, शेष है धर्म अनेक ॥4.41.3.724॥
णाणा-धम्म-जुदं-पि-य, एयं धम्म पि वच्चदे अत्थं ।
तस्सेय-विवक्खादो, णत्थि विवक्खा हु सेसाणं ॥3॥
नानाधर्मयुतः अपि च, एकः धर्मः अपि उच्यते अर्थः।
तस्य एकविवक्षातः, नास्ति विवक्षा खलु शेषाणाम् ॥3॥
अनेक धर्मों से युक्त वस्तु के किसी एक धर्म के ग्रहण करना नय का लक्षण है। क्योंकि उस समय उसी धर्म की विवक्षा है, शेष धर्मों की विवक्षा नही है।
हो सापेक्ष कहे सुनय, निरपेक्ष दुर्नय मान ।
व्यवहार सारे सिद्ध हो, सुनय नियम पहचान ॥4.41.4.725॥
ते सावेक्खा सुणया, णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होंति ।
सयल-ववहार-सिद्धी, सु-णयादो होदि णियमेण ॥4॥
ते सापेक्षाः सुनयाः, निरपेक्षाः ते अपि दुर्नया भवन्ति।
सकलव्यवहारसिद्धिः, सुनयाद् भवति नियमेन ॥4॥
वे नय विरोधी होने पर भी सापेक्ष हो तो सुनय कहलाते हैं और निरपेक्ष हो तो दुर्नय है। सुनय से ही नियमपूर्वक समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है।
वचन जितने नय उतने, सब नय अर्थ प्रधान।
हठग्राही ये मिथक नय, स्यात् सम्यक् मान ॥4.41.5.726॥
जावंतो वयणपहा, तावंतो वा नया ‘वि’ सद्दाओ ।
ते चेव, य पर-समया, सम्मत्तं समुदिया सव्वे ॥5॥
यावन्तो वचनपथा-स्तावन्तो वा नयाः‘अपि’ शब्दात् ।
तव एव च परसमयाः, सम्यक्त्वं समुदिताः सर्वे ॥5॥
वास्तव में देख जाय तो लोकमें जितने वचन पन्थ है उतने ही नय है, क्योंकि सभी वचन वक्ता के किसी न किसी अभिप्राय या अर्थ को सूचित करते हैं और ऐसे वचनों में वस्तु के किसी एक धर्म की ही मुख्यतया होती है। अतः जितने नय सावधारण (हठग्राही) है, वे सब पर-समय है, मिथ्या है और अवधारणरहित (सापेक्षसत्यग्राही) तथा स्यात् शब्द से युक्त समुदित सभी नय सम्यक् होते हैं।
ज्ञान नय विधि का जिसे, मत प्रचलित परिहार।
करे निवारण दुर्बुद्धि, जिन सिद्धान्त विचार ॥4.41.7.727॥
पर-समएग-नय-मयं, तप्पडिवक्खनयओ निवत्तेज्जा ।
समए व परिग्गहियं, परेण जं दोस-बुद्धीए ॥6॥
परसमयैकनयमतं, तत्प्रतिपक्षनयतो निवर्तयेत् ।
समये वा परिगृहीतं, परेण यदा् दोषबुद्धया ॥6॥
नय-विधि के ज्ञाता को पर-समयरूप (एकान्त या आग्रहपूर्ण) अनित्यत्व आदि के प्रतिपादक ॠजुसूत्र आदि नयों के अनुसार लोक में प्रचलित मतों का निवर्तन या परिहार नित्यादि का कथन करनेवाले द्रव्यार्थिक नय से करना चाहिए। तथा समयस्वरूप जिन-सिद्धान्त में भी अज्ञान या द्वेष आदि दोषों से युक्त किसी व्यक्ति ने दोषबुद्धि से कोई निरपेक्ष पक्ष अपना लिया हो तो उसका भी निवर्तन (निवारण) करना चाहिए।
अपने-अपने नय सच्चे, पर नय का सम्मान ।
सत्य झूठ ना आकलन, अनेकान्त का ज्ञान ॥4.41.7.728॥
णियय-वयणिज्ज-सच्चा, सव्वणयापर-वियालणे मोहा ।
ते पुण ण दिट्टसमयो, विभयइ सच्चे व अलिए वा ॥7॥
निजकवचनीयसत्याः, सर्वनयाः परविचारणे मोघाः।
तान् पुनः न दृष्टसमयो, विभजति सत्यान् वा अलीकान् वा ॥7॥
सभी नय अपने-अपने वक्तव्य में सच्चे हैं, किन्तु यदि दूसरे नयों के वक्तव्य का निराकरण करते हैं तो मिथ्या है। अनेकान्त-दृष्टि का या शास्त्र का ज्ञाता उन नयों का ऐसा विभाजन नही करता कि ‘ये सच्चे हैं’ और ‘वे झूठे हैं’।
नय सम्यक् निरपेक्ष नहीं, हो चाहे समुदाय ।
पृथक विरोधि साथ नहीं, चाहे वो मिल जाय ॥4.41.8.729॥
न समेन्तिन य समेया सम्मत्तं नेव वत्थुणो गमगा ।
वत्थु-विद्यायाय नया, विरोहओ वेरिणो चेव॥8॥
निजकवचनीयसत्याः, सर्वनयाः परविचारणे मोघाः।
तान् पुनः न दृष्टसमयो, विभजति सत्यान् वा अलीकान् वा ॥8॥
निरपेक्ष नय न तो सामुदायिकता को प्राप्त होते है और न वे समुदायरूप कर देने पर सम्यक् होते है। क्योंकि प्रत्येक नय मिथ्या होने से उनका समुदाय तो महामिथ्यारूप होगा। समुदायरूप होने से भी वे वस्तु के गमक नही होते, क्योंकि पृथक-पृथक् अवस्था में भी वे गमक नही है। इसका कारण यह है कि निरपेक्ष होने के कारण बैरी की भाँति परस्पर विरोधी हैं।
स्यात् शरण सम्यक् मिले, चाहे दुश्मन आप।
व्यवहारी जन मित्र बने, राजन दास मिलाप ॥4.41.9.730॥
सव्वे समयंति सम्मं, चेग-वसाओ नया विरुद्धा वि ।
भिच्च-वहारिणो इव, राओ-दसाण-वसवत्ती ॥9॥
सर्वे समयन्ति सम्यक्त्वं, चैकवशाद् नया विरुद्धा अपि।
भृत्यव्यवहारिण इव, राजोदासीन-वशवर्तिः ॥9॥
जैसे नाना अभिप्रायवाले अनेक सेवक एक राजा, स्वामी या अधिकारी के वश में रहते हैं, या आपस में लड़ने-झगड़नेवाले व्यवहारी-जन किसी उदासीन (तटस्थ) व्यक्ति के वशवर्ती होकर मित्रता को प्राप्त हो जाते हैं, वैसे ही ये सभी परस्पर विरोधी नय स्याद्वाद की शरण में जाकर सम्यक्भाव को प्राप्त हो जाते हैं। अर्थात् स्याद्वाद की छत्रछाया में परस्पर विरोध का कारण सावधारणता दूर हो जाती है और वे सब सापेक्षतापूर्वक एकत्र हो जाते है।
अंश जान सब जान लिया, वस्तु धर्म अनेक ।
हाथी अंधा जानता, मिथ्या समझ विवेक ॥4.41.10.731॥
जगणेग-धम्मणो-वत्थुणो, तदंसे च सव्व-पडिवत्ती ।
अंध व्व गयावयवे तो, मिच्छाद्दिट्ठिणो वीसु ॥10॥
यदनेकधर्मणो वस्तुन-स्तदंशे च सर्वप्रतिपत्तिः।
अन्धा इव गजावयवे, ततो मिथ्यादृष्टयो विष्वक् ॥10॥
जैसे हाथी के पूँछ, पैर, सूंड आदि टटोलकर एक-एक अवयव को ही हाथी माननेवाले जन्मान्ध लोगों का अभिप्राय मिथ्या होता है, वैसे ही अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक-एक अंश को ग्रहण करके ‘हमने पूरी वस्तु जान ली है,’ ऐसी प्रतिपत्ति करनेवालों का उस वस्तुविषयक ज्ञान मिथ्या होता है॥
सकल समझ पर्याय ले, पूर्ण वस्तु गुणगान ।
जाने गज चहुँ ओर से, होता सम्यक् ज्ञान ॥4.41.11.732॥
जंपुण समत्त-पज्जाय-वत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं ।
सम्मत्तं चक्खुमओ, सव्वगया-वयव गहणे व्व ॥11॥
यत्पुनः समस्तपर्याय-वस्तुगमका इति समदितास्तेन।
सम्यक्त्वं चक्षुष्मन्तः, सर्वगजावयवग्रहण इव ॥11॥
तथा जैसे हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को हाथी जाननेवाले चक्षुष्मान् (दृष्टिसम्पन्न) का ज्ञान सम्यक् होता है, वैसे ही समस्त नयों के समुदाय द्वारा वस्तु की समस्त पर्यायों को या उसके धर्मों को जाननेवाले का ज्ञान सम्यक् होता है।
कई पदार्थ संसार में, वर्णन कर नही पाय।
वर्णनात्मक का अंश ही, शास्त्र मध्य समाय ॥4.41.12.733॥
पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं ।
पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो ॥12॥
प्रज्ञापनीयाःभावाः, अनन्तभागः तु अनभिलाप्यानाम्।
प्रज्ञापनीयानां पुनः, अनन्तभागः श्रुतनिबद्धः ॥12॥
संसार में ऐसे बहुत-से पदार्थ है जो अनभिलाप्य है। शब्दों द्वारा उनका वर्णन नही किया जा सकता। ऐसे पदार्थों का अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय (कहने योग्य) होता है। इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवाँ भाग ही शास्त्रों में निबद्ध है। (ऐसी स्थिति में कैसे कहा जा सकता है कि अमुक शास्त्र में लिखी बात या अमुक ज्ञानी की बात ही निरपेक्ष सत्य है।)
प्रशंसनीय स्व कथन हो, पर ना दिखता सार ।
जो पंडित ऐसा करे, जकड़ रहा संसार ॥4.41.13.734॥
सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं।
जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया ॥13॥
स्वकं स्वकं प्रशंसन्तः, गर्हयन्तः, परं वचः।
ये तु तत्र विद्वस्यन्ते, संसारं ते व्युच्छिता ॥13॥
इसलिए जो पुरुष केवल अपने मत की प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे के वचनों की निन्दा करते हैं और इस तरह अपना पांडित्य-प्रदर्शन करते हैं, वे संसार में मजबूती से जकड़े हुए है — दृढ़रूप में आबद्ध हैं।
सकल समझ पर्याय ले, पूर्ण वस्तु गुणगान ।
जाने गज चहुँओर से, होता सम्यक् ज्ञान ॥4.41.11.732॥
णाणा-जीवा णाणा-कम्मं, णाणा-विहं हवे लद्धी ।
तम्हा वयण-विवादं सग-पर-समएहिं वज्जिज्जो ॥14॥
नानाजीवा नानाकर्म्म, नानाविधा भवेल्लब्धिः।
तस्माद् वचनविवादं, स्वपरसयमयैर्वर्जयेत् ॥14॥
इस संसार में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धियाँ है, इसलिए कोई स्वधर्मी हो या परधर्मी, किसी के भी साथ वचन-विवाद करना उचित नही।
मिथ्या दर्शन संग भी, अमृत रस बरसाय।
जिन वाणी भगवान की, मंगल सब कर पाय ॥4.41.15.736॥
भद्दं मिच्छादंसण-समूहमहयस्य अमयसारस्स ।
जिणवयणस्स भगवओ सांविग्गसुहािहिगममस्स ॥15॥
भद्रं मिथ्यादर्शनसमूहमयस्य अमृतसारस्य्।
जिनवचनस्य भगवतः संविग्नसुखाधगम्यस्य ॥15॥
मिथ्यादर्शनों के समूहरूप, अमृतरस- प्रदायी और अनायास ही मुमुक्षुओं की समझ में आनेवाले वन्दनीय जिनवचन का कल्याण हो।
प्रकरण 42 – निक्षेप-सूत्र
युक्तिपूर्वक उपयुक्त कहा, स्थापना और भाव ।
नाम द्रव्य यह चार है, निक्षेप सूत्र प्रभाव ॥4.42.1.737॥
जुत्तीस-जुत्तमगे जं चउभेएण होइ खलु ठवणं ।
कज्जे सदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समए ॥1॥
युक्तिसुयुक्तमार्गे, यत् चतुर्भेदेन भवति खलु स्थापनम्।
कार्ये सति नामादिषु, स निक्षेपो भवेत् समये ॥1॥
युक्तिपूर्वक, उपयुक्तमार्ग में प्रयोजनवश नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव में पदार्थ की स्थापना को आगम में निक्षेप कहा गया है।
द्रव्य विविध स्वभाव का, जिससे भी हो ज्ञान ।
निमित्त उसके ही किये, चार अंग द्रव्य समान ॥4.42.2.738॥
दव्वं विविह-सहावं, जेण सहावेण होइ तं झेयं।
तस्स णिमित्तं कीरइ एक्कं पि य दव्व चउभेयं॥2॥
द्रव्यं विविधस्वभावं, येन स्वभावेन भवति तद्ध्येयम्।
तस्य निमित्त क्रियते, एकमपि च द्रव्यं चतुर्भेदम् ॥2॥
द्रव्य विविध स्वभाववाला है। उनमें से जिस स्वभाव के द्वारा वह ध्येय या ज्ञेय (ध्यान या ज्ञान) का विषय होता हैउस स्वभाव के निमित्त एक द्रव्य के ये चार भेद किये गये हैं॥
नाव, भाव, स्थापन द्रव्य निक्षेप चार प्रकार।
द्रव्य नाम संज्ञा सदा, इसके भी दो तार ॥4.42.3.739॥
णाम ट्ठाणा दव्वं, भावं तह जाण होइ णिक्खेवं ।
दव्वे सण्णा णामं दुविहं पि य तं पि विक्खायं ॥3॥
नाम स्थापनां द्रव्यं, भावं तथा जानीहि भवति निक्षेपः।
द्रव्ये संज्ञा नाम, द्विविधमपि च तदपि विख्यातम् ॥3॥
और (इसीलिए) निक्षेप चार प्रकार का माना गया है- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य की संज्ञा को नाम कहते है। उसके भी दो भेद प्रसिद्ध है।
स्थापना साकार करे, कृत्रिम बिम्ब बनाय ।
इधर उधर अर्हन्त दिखे, निराकार कहलाय ॥4.42.4.740॥
सायार इयर ठवणा, कित्तिम इयरा हु ‘बिंबजा पढमा।
इयरा खाइय भणिया, ठवणा अरिहो य णायव्वो॥4॥
साकारोत्तरा स्थापना, कृत्रिमेतरा हि विम्बजा प्रथमा।
इतरा इतरा भणिता, स्थापनाऽर्हश्चं ज्ञातव्य ॥4॥
जहाँ एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु में आरोप किया जाता है वहाँ स्थापना निक्षेप होता है। यह दो प्रकार का है- साकार और निराकार। कृत्रिम और अकृत्रिम अर्हन्त की प्रतिभा साकार स्थापना है तथा किसी अन्य पदार्थ में अर्हन्त की स्थापना करना निराकार स्थापना है।
नोआगम आगम कहे, द्रव्यनिक्षेप दू जात।
शास्त्र ज्ञान अर्हन्त का, कर उपयोग न पात ॥4.42.5.741॥
ज्ञायतन, भावी, करम, नोआगम के भाग।
च्युत, त्यक्त, च्यावित रहे ज्ञानी तन त्री राग ॥4.42.6.742॥
दव्वं खु होइ दुविहं, आगम-णोआगमेण जह भणियं ।
अरहंत-सत्थ-जाणो, णोजुत्तो दव्व-अरिहंतो ॥5॥
णोआगमं पि तिविहं, णाणिसरीरं भावि कम्मं च ।
णाणिसरीरं तिविहं, चुद चत्तं चाविदं चेति ॥6॥
द्रव्यं शखलु भवति द्विविधं, आगममनोआगमाभ्याम् यथा भणितम् ।
अर्हत् शास्त्रज्ञायकः अनुपयुक्तो द्रव्यार्हन् ॥5॥
नोआगमः अपि त्रिविधः, देहो ज्ञानिनो भावकिर्म च ।
ज्ञानिशरीरं त्रिविधं, च्युतं त्यक्तं च्यावितम् च इति ॥6॥
जब वस्तु की वर्तमान अवस्था का उल्लंंघन कर उसका भूतकालीन या भावी स्वरूपानुसार व्यवहार किया जाता है, तब उसे द्रव्यनिक्षेप कहते हैं। उसके दो भेद है- आगम और नोआगम। अर्हन्तकथित शास्त्र का जानकार जिस समय उस शास्त्र में अपना उपयोग नहीं लगाता उस समय वह आगम द्रव्यनिक्षेप े अर्हन्त है। नोआगम द्रव्यनिक्षेप के तीन भेद हैं- ज्ञायकशरीर, भावी और कर्म। जहाँ वस्तु के ज्ञाता के शरीर को उस वस्तुरूप माना जाय वहाँ ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे राजनीतिज्ञ के मृत शरीर को देखकर कहना कि राजनीति मर गयी। ज्ञायकशरीर भी भूत, वर्तमान और भविष्य की अपेक्षा तीन प्रकार का तथा भूतज्ञायक शरीर च्युत, त्यक्त और च्यावित रूप से पुनः तीन प्रकार का होता है। वस्तु को जो स्वरूप भविष्य में प्राप्त होगा उसे वर्तमान में ही वैसा मानना भावी नोआगम द्रव्यनिक्षेप है।जैसे युवराज को राजा मानना तथा किसी व्यक्ति का कर्म जैसा हो अथवा वस्तु के विषय में लौकिक मान्यता जैसी हो गयी हो उसके अनुसार ग्रहण करना कर्म या तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे जिस व्यक्ति में दर्शन विशुद्धि, विनय आदि तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करानेवाले लक्षण दिखाई दे उसे तीर्थकर ही कहना अथवा पूर्वकलश, दर्पण आदि पदार्थो को लोक-मान्यतानुसार मांगलिक कहना।
भाव-आगम निक्षेप है, नोआगम भी भाव ।
शास्त्र ज्ञायक आगम हो, अरिहंत आगमभाव ॥4.42.7.743॥
अरिहंत गुण को प्रकट, नोआगम के भाव ।
ज्ञानी केवल कहे उसे, नोआगम स्वभाव ॥4.42.8.744॥
आगम-णोआगमदो तहेव भावो वि होदि दव्वं वा ।
अरहंत-सत्थ-जाणो आगमभावो हु अरहंतो ॥7॥
तग्गुणराय-परिणदो णो-आगमभाव होइ अरहंतो।
तग्गुणराई झादा केवलणाणी हु परिणदो भणिओ ॥8॥
आगमनोआगमतस्तथैव भावोऽपि भवति द्रव्यमिव।
अर्हंत् शास्त्रायकः, आगमभावो हि अर्हन् ॥7॥
तद्गुणैश्च परिणतो, नोआगमभावो भवति अर्हन्।
तद्गुणैर्ध्याता, केवलज्ञानी हि परिणतो भणितः ॥8॥
तत्कालीन पर्याय के अनुसार ही वस्तु को सम्बोधित करना या मानना भावनिक्षेप है। इसके भी दो भेद है- आगम भावनिक्षेप और नोआगम भावनिक्षेप। जैसे अर्हन्त-शास्त्र का उसी समय अर्हन्त है; यह आगम भावनिक्षेप है। जिस समय उसमें अर्हन्त के समस्त गुण प्रकट हो गये हैं उस समय उसे अर्हन्त कहना तथा उन गुणों से युक्त होकर ध्यान करनेवाले को केवलज्ञानी कहना नोआगमभावनिक्षेप है।
प्रकरण 43 – समापन-सूत्र
अनुत्तरज्ञानी व दर्शी, ज्ञान देय भगवान ।
ज्ञातपुत्र महावीर ने, वैशाली व्याख्यान ॥4.43.1.745॥
एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाण दंसणधरे ।
अरहा नायपुत्ते भगवं, वेसालिए वियाहिए त्ति बेमि ॥1॥
एवं स उदाहृतवान्-अनुत्तरज्ञा-न्यनुत्तरदर्शी अनुत्तरज्ञानदर्शनधरंः।
अर्हन्ज्ञातपुत्रो भगवान, वैशालिको व्याख्यातवानिति ब्रवीमि ॥1॥
इस प्रकार यह हितोपदेश अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी तथा अनुत्तरज्ञानदर्शन के धारी ज्ञातपुत्र भगवान, महावीर ने विशाला नगरी में दिया था।
नही सुना ना ही गुना, महावीर का ज्ञान ।
सामायिक उपदेश थे, नहीं आचरण जान ॥4.43.2.746॥
ण हि णूण पुरा अणुस्सयं, अदुवा तं तह णो अणुट्ठियं।
मुणिणा सामाइ आहियं, णाएण जग-सव्व-दंसिणा॥2॥
नहि नूनं पुराऽ नुश्रुतम-थवा तत्तथा नो समुत्थितम्।
मुनिना सामायिकाद्याख्यातं, ज्ञातेन जगत्सर्वदर्शिना ॥2॥
सर्वदर्शी ज्ञातपुत्र भगवान, महावीर ने सामायिक आदि का उपदेश दिया था, किन्तु जीव ने उसे सुना नही अथवा सुनकर उसका सम्यक् आचरण नहीं किया।
आत्मा जाने लोक भी, आगति नागति ज्ञान।
जन्म मरण नित्यो-अनित्य, चयनादि अपि जान ॥4.43.3.747॥
जिसे सत्य का ज्ञान है, संवर आस्रव सार।
जाने दुख और निर्जरा, सम्यक् कथन अधिकार ॥4.43.4.748॥
अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं जो आगतिं जाणइऽणागतिं च ।
जो सासयं जाण असासचं च जातिं मरणं च चयणोववातं ॥3॥
अहो वि सत्ताण वि उड्ढणं च, जो आसवं जाणति संवरं च ।
दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च, सो भासिउ-मरिहति किरियवादं ॥4॥
आत्मानं यः जानाति यश्च लोकं यः आगतिं नागतिं च ।
यः शाश्वतं जानाति अशाश्वतं च जातिमरणं च च्यवनोपपातम्॥3॥
अधः अपि सत्त्वानाम् अपि र्ध्वं य आस्रवं जानाति संवरं च ।
दुःखं चं यः जानाति निर्जरां च सभाषितुम् अर्हति क्रियावादान् ॥4॥
जोे आत्मा को जानता है लोक को जानता है, आगति और अनागति को जानता है, शाश्वत-अशाश्वत, जन्म-मरण, चयन और उपवाद को जानता है, आस्रव और संवर को जानता है, दुःख और निर्जरा को जानता है वही क्रियावाद का अर्थात् सम्यक् आचार-विचार का कथन कर सकता है।
मिला कभी ना पूर्व में, जिन का अमृत सार।
सुगति मार्ग जो मिल गया, भय मरना बेकार ॥4.43.5.749॥
लद्धं अलद्ध-पुव्वं, जिण-वयण-सुभासिदं अमिद-भूदं ।
गहिदो सुग्गइ-मग्गो, णाहं मरणस्स बीहेमि ॥5॥
लब्धमलब्धपूर्वं, जिनवचन-सुभाषितं अमृतभूतम्।
गृहीतः सुगतिमार्गो नाहं मरणाद् बिभेमि ॥5॥
जो मुझे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ वह अमृतमय सुभाषित जिनवचन आज मुझे उपलब्ध हुआ है और तदनुसार सुगति का मार्ग मैंने स्वीकार किया है। अतः अब मुझे मरण का कोई भय नही है।
प्रकरण 44 – वीरस्तवन
ज्ञान दर्शन की शरण, चरित्र है मम धीर ।
तप संयम की शरण मैं, मैं शरण महावीर ॥4.44.1.750॥
णाणं सरणं में, दंसणं च सरणं च चरिय सरणं च ।
तव, संजमं च सरणं, भगवं सरणो महावीरो ॥1॥
ज्ञानं शरणं मम, दर्शनं च शरणं च चारित्र शरणं च।
तपः संयमश्च शरणं, भगवान् शरणो महावीरः ॥1॥
ज्ञान मेरा शरण है, दर्शन मेरा शरण है, चारित्र मेरा शरण है, तप और संयम मेरा शरण है तथा भगवान महावीर मेरे शरण है।
केवलज्ञानी सर्वदर्शी, मूल, स्थित, धीरवान ।
भयरहित अपरिग्रही, सर्वजगत विद्वान॥4.44.2.751॥
से सव्वदंसीअभिभूय णाणी, णिरामगंधे धिइयं ठियप्पा।
अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्जं, गंथा अतीते अभए अणाऊ ॥2॥
स सर्वदर्शीअभिभूज्ञानी, निरामगन्धो धृतिमान् स्थितात्मा।
अनुत्तरः सर्वजगति विद्वान्, ग्रन्थादतीतः अभयोऽनायुः ॥2॥
वे भगवान महावीर सर्वदर्शी, केवलज्ञानी, मूल और उत्तर-गुणों सहित विशुद्ध चारित्र का पालन करनेवाले, धैर्यवान और ग्रन्थातीत अर्थात् अपरिग्रही थे। अभय थे और आयुकर्म से रहित थे।
अनियताचारी, केवली, अनन्तदर्शी, भव पार।
अग्नि से ज्यूँ तम मिटे, ज्ञान से अंधकार ॥4.44.3.752॥
से भूइ-पण्णे अणिएय-चारी, ओहंतलरे धीरे अणंतचक्खू ।
अणुत्ते तवति सूरिए व, वइरोयणिंदे व तमं पगासे ॥3॥
स भूतिप्रज्ञोऽनिकेतचारी, ओघन्तरो धीरोऽनन्तचक्षुः।
अनुत्तरं तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र इव तमः प्रकाशयति॥3॥
वे वीरप्रभु अनन्तज्ञानी, अनियताचारी थे। संसार-सागर को पार करनेवाले थे। धीर और अनन्तदर्शी थे। सूर्य की भाँति अतिशय तेजस्वी थे। जैसे जाज्वल्यमान अग्नि अन्धकार को नष्ट कर प्रकाश फैलाती है, वैसे ही उन्होंने भी अज्ञानांधकार का निवारण करके पदार्थों के सत्यस्वरूप को प्रकाशित किया था।
ज्ञानी अनन्त अनिकेत है, अनन्त दर्शी धीर।
सूर्य सा है तेजस्वी, तम निवारण वीर ॥4.44.4.753॥
हत्थीसु एरावणमाहु णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा ।
पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, णिव्वाण वादी-णिह नायपुत्ते॥4॥
हस्तिष्वेरावणमाहुः ज्ञातं, सिंहो मुगाणां सलिलानां गङ्गा ।
पक्षिषु वा गरुडो वैनतेयः निर्वाणवादिनामिह ज्ञातपुत्रः ॥4॥
जैसे हाथियों में ऐरावत, मृगों में सिंह, नदियों में गंगा, पक्षियों में वेणुदेव (गरुड़) श्रेष्ठ हैं, उसी तरह निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र (महावीर) श्रेष्ठ थे।
अभय दान में श्रेष्ठ है, वचन न पीड़ा तीर।
तप में उत्तम ब्रह्मचर्य श्रमण श्रेष्ठ महावीर ॥4.44.5.754॥
दाणाण सेट्ठं अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवज्जं वयंति ।
तवेसु वा उत्तम बंभचेरं, लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ॥5॥
दानानां श्रेष्ठमभग्रप्रदानं, सत्येषु वा अनवद्यं वदन्ति।
तपस्सु वा उत्तमं ब्रह्मचर्यर्ं, लोकोत्तमः श्रमणो ज्ञातपुत्रः ॥5॥
जैसे दानों में अभयदान श्रेष्ठ है सत्यवचनों में अनवद्य वचन (पर-पीड़ाजनक नहीं) श्रेष्ठ है। जैसे सभी सत्यतपों में ब्रह्मचर्य उत्तम है, वैसे ही ज्ञातपुत्रं श्रमण लोक में उत्तम थे।
ज्ञात योनि जीव जगत, गुर जग आनन्द जान ।
नाथ जगत है बंधु जगत, महावीर भगवान ॥4.44.6.755॥
जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जगगुरु जगाणंदो ।
जगणाहो जगबंधू, जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥6॥
जयति जगज्जीवयोनि-विज्ञायकों जगद्गुरुर्जगदानन्दः ।
जगन्नाथो जगद्बन्धु-र्जयति जगन्पितामहो भगवान् ॥6॥
जगत् के जीवों की योनि अर्थात् उत्पत्तिस्थान को जाननेवाले, जगत् के गुरु, जगत् के आनन्ददाता, जगत् के नाथ, जगत् के बन्धु, जगत् के पितामह भगवान जयवन्त हों।
ज्ञाता हैं श्रुतज्ञान के, ये तीर्थंकर वीर।
लोक गुरु जयवन्त कहो, ये वीर महावीर ॥4.44.7.756॥
जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ ।
जयइ गुरु लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥7॥
जयति श्रुतानां प्रभवः, तीर्थ कराणामपश्चिमो जयति।
जयति गुरुर्लोकनां, जयति महात्मा महावीरः ॥7॥
द्वादशांगरूप श्रुतज्ञान के उत्पत्तिस्थान जयवन्त हों, तीर्थकरों में अन्तिम जयवन्त हों। लोकों के गुरु जयवन्त हों। महात्म महावीर जयवन्त हों।