Sammar Suttam
प्रकरण 14 – शिक्षासूत्र
अविनय साथ विपत्तियाँ, विनय गुणों की खान ।
जो यह बातें जान ले, मिले ज्ञान परिधान ॥1.14.1.170॥
विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणीयस्स य ।
अस्सेयं दुहओ नाय, सिक्खं से अभिगच्छइ ॥1॥
विपत्तिरविनीतस्य, संपत्तिविनीतस्य च।
यस्यैतद् द्विधा ज्ञातं, शिक्षां सः अधिगच्छति॥1॥
जिसमें विनय/नम्रता नहीं है उसके ज्ञान आदि गुण नष्ट हो जाते हैं और विपत्तियाँ आती हैं। विनयशील व्यक्ति ही ज्ञान ले सकता हैं।
पाँच कारण जान लो, मिले न जिससे ज्ञान ।
रोग, क्रोध, प्रमाद हो, आलस या अभिमान ॥1.14.2.171॥
अह पंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्ख न लब्भई ।
थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽलस्सएण य ॥2॥
अथ पञ्चभिः स्थानैः, यैः शिक्षा न लभ्यते।
स्तम्भात् क्रोधात् प्रमादेन, रोगेणालस्यके च ॥2॥
निम्न पाँच कारणों से शिक्षा प्राप्त नही होती। अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य।
आठ बातें जान ले, शिक्षित बने समाज ।
मन रोके हँसना नहीं, रखे भेद को राज ॥1.14.3.172॥
शीलवान दूषित नहीें, अति रस नहीं सुहाय ।
सत्यवान क्रोधित नहीं, ज्ञानशील कहलाय ॥1.14.4.173॥
अह अट्ठहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चई।
अहस्सिरे सया दंते, न य मम्मुदाहरे ॥3॥
नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए।
अकोहणे सच्चरए, सिक्खसीले त्ति वुच्चई ॥4॥
अथाष्टभिः स्थानैः, शिक्षाशील इत्युच्यते।
अहसनशीलः सदा दान्तः, न च मर्म उदाहरेत् ॥3॥
नाशीलो न विशीलः, न स्यादतिलोलुपः।
अक्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते ॥4॥
निम्न आठ कारणों से मनुष्य शिक्षाशील कहा जाता है। 1. हँसी मज़ाक नही करना। 2. इन्द्रियों का दमन करना। 3. किसी का रहस्य नही खोलना। 4. शीलवान। 5. दोषरहित। 6. रसलोलुप न होना। 7. क्रोध नही करना। 8. सत्यवान रहना।
ललक ज्ञान की जो रखे, अटल परम हो स्थान ।
शिक्षा ग्रहण अनेक करें, पढ़ने में हो ध्यान॥1.14.5.174॥
नाण-मेग्ग-चित्ते य, ठिओ ठावयई परं ।
सुयाणि य अहिज्जित्ता, रओ सुय-समाहिए ॥5॥
ज्ञानमेकाग्रचित्तश्च, स्थितः च स्थापयति परम्।
श्रुतानि च अधीत्य, रतः श्रुतसमाधी ॥5॥
अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। वह स्वयं धर्म में स्थित होता है और दूसरों को भी करता है। अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर वह ज्ञान में लीन हो जाता है।
गुरुकुल में रहकर सतत, करता हो जो ध्यान ।
काम सुखद कह प्रिय वचन, पाता हर पल ज्ञान ॥1.14.6.175॥
वसे गुरुकुले निच्चं, जोगवं उवहाणवं ।
पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लद्धुमरिहई ॥6॥
वसेद् गुरुकुले नित्यं, योगवानुपधानवान् ।
प्रियंकरः प्रियवादी, स शिक्षां लब्धुमर्हति ॥6॥
जो सदा गुरुकुल में वास करता है वो समाधियुक्त होता है। जो ज्ञान ग्रहण करते समय तप करता है, प्रिय बोलता है वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
कई दीप इक दीप से, पाते खूब प्रकाश।
दीपक जैसे गुरु रहे, रौशन हो आकाश ॥1.14.7.176॥
जह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो।
दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति ॥7॥
यथा दीपात् दीपशतं, प्रदीप्यते स च दीप्यते दीपः ।
दीपसमा आचार्याः, दीप्यन्ते परं च दीपयन्ति ॥7॥
एक दीप से सैकड़ों दीप जल सकते हैं और स्वयं भी दीप्तमान रहता है। आचार्य दीपक के समान होते हैं। वे स्वयं भी प्रकाशमान रहते है और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।
प्रकरण 15 – आत्मसूत्र
उत्तम गुण का धाम हैं, द्रव्य में उत्तम जान ।
तत्वों में है तत्व परम, जीव ही निश्चय जान ॥1.15.1.177॥
उत्तम-गुणाण धामं, सव्व-दव्वाण उत्तमं दव्वं ।
तच्चाण परम तच्चं जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥1॥
उत्तमगुणानां धामं, सर्वद्रवयाणां उत्तमं द्रव्यम्।
तत्त्वानां परं तत्त्वं, जीवं जानीत निश्चयतः॥1॥
जीव उत्तम गुणों का आश्रय है, द्रव्यों में उत्तम द्रव्य और तत्वों में परम तत्व है। यह निश्चयपूर्वक जान लें।
अंतर या बहिरात्मा, होते तीन प्रकार ।
परमात्मा अरिहंत सिद्ध, दोय परम के तार ॥1.15.2.178॥
जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य ।
परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥2॥
जीवाः भवन्ति त्रिविधाः बहिरात्मा तथा च अन्तरात्मा च।
परमात्मानः अपि च द्विविधाः, अर्हन्तः तथा च सिद्धाः च ॥2॥
जीव (आत्मा) तीन प्रकार की है। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। परमात्मा के दो प्रकार हैं। अर्हत् और सिद्ध।
बहिरात्मा शरीर है, अन्तःजीव भी जान ।
कर्म कलंक विमुक्त भये, परम जीव पहचान ॥1.15.3.179॥
अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरप्पा हु अप्पसंकप्पो ।
कम्मकलंक-विमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ॥3॥
अक्षाणि बहिरात्मा, अन्तरात्मा खलु आत्मसंकल्पः।
कर्मकलमविमुक्तः, परमात्मा भण्यते देवः॥3॥
इन्द्रिय-समूह को आत्म के रूप में स्वीकार करनेवाला बहिरात्मा है। देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करने वाला अन्तरात्मा है। कर्मों से मुक्त आत्मा परमात्मा है।
सकल अर्थ को जान ले, अरिहंत केवल ज्ञान ।
ज्ञान शरीर ही सिद्ध है मिले मोक्ष सम्मान ॥1.15.4.180॥
स-सरीरा अरहंता केवल-णाणेण मुणिय-सयलत्था ।
णाण-सरीरा सिद्धा, सव्वुत्तम सुक्ख संपत्ता ॥4॥
सशरीराः अर्हन्तः अर्हन्तः, केवलज्ञानेन ज्ञातसकलार्थाः।
ज्ञानशरीराः सिद्धाः, सर्वोत्तमसौख्यसंप्राप्ताः ॥4॥
आरोहण कर आत्म का, बहिरात्मा का त्याग ।
परम आत्म का ध्यान हो, ये जिन-ईश्वर-राग ॥1.15.5.181॥
आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण ।
झाइज्जइ परमप्पा, उवइट्ठं जिण-वरिंदेहिं ॥5॥
आरुह्य अन्तरात्मानं, बहिरात्मानं त्यक्त्वा त्रिविधेन।
ध्यायते परमात्मा, उपादिष्टं जिनवरेन्द्रैः ॥5॥
जिनेश्वर का यह कहना है कि तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अन्तरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो।
चतुर्गति मेें भ्रमण नहीं, जन्म-मरण नहीं शोक ।
कुल योनि जीव पथ नहीं, शुद्ध जीव नहीं भोग ॥1.15.6.182॥
चउ-गइ-भव-संभमणं, जाइ-जरा-मरण-रोय सोका य ।
कुल जोणि-जीव मग्गण-ठाणा, जीवस्सव णो संति ॥6॥
चतुर्गतिभवसंभ्रमणं, जातिजरामरण-रोगशोकाश्च ।
कुल योनिजीवमार्गणा-स्थानानि जीवस्य नो सन्ति ॥6॥
शुद्ध आत्मा में चतुर्गतिरूप भव-भ्रमण, जन्म, रोग, बुढ़ापा, मरण, शोक तथा कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान नहीं होते।
वर्ण गंध रस स्पर्श नहीं, स्त्री पुरुष ना भेद।
संस्थान सहनन नहीं, शुद्ध जीव ना संवेद ॥1.15.7.183॥
वेण्ण-रस-गंध-फासा, थी-पुंस-णउंसयादि-पज्जया।
संठाणा संहणणा, सव्वे जीवस्स णो संति ॥7॥
वर्णरसगन्धस्पर्शाः, स्त्रीपुंनपुंसकादि-पर्यायाः।
संस्थानानि संहननानि, सर्वे जीवस्य नो सन्ति ॥7॥
शुद्ध आत्मा में वर्ण, रस, गंध, स्पर्श तथा स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्यायें तथा संस्थान और संहनन नहीं होता।
भाव सब ये कहे गये, जानो नय व्यवहार।
जगत जीव भी सिद्ध है, विशुद्ध नयानुसार ॥1.15.8.184॥
एदे सव्वे भावा, ववहार-णयं पडुच्च भणिदा हु।
सव्वे सिद्ध-सहावा, सुद्ध-णया संसिदी जीवा ॥8॥
एते सर्वे भावाः व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः खलु।
सर्वे सिद्धस्वभावाः, शुद्धनयात् संसृतौ जीवाः ॥8॥
ये सब भाव व्यवहारनय की अपेक्षा से कहे गये हैं। निश्चयनय की अपेक्षा से संसारी जीव भी सिद्धस्वरूप हैं।
रूप-गंध-रस व्यक्त नहीं, विषय नही अनुमान।
संस्थागत होता नहीं शुद्ध जीव ना स्थान॥1.15.9.185॥
अरस-मरूव-मगंधं, अव्वत्तं चेदणा-गुण-मसद्दं।
जाण अलिंग-ग्गहणं, जीव-मणिद्दिट्ठ-संठाणं ॥9॥
अरसमरूपमगन्धम् अव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्।
जानीह्यलिंगग्रहणं, जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ॥9॥
शुद्ध आत्मा अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चैतन्य, अशब्द, अलिगंग्राह्य (अनुमान का अविषय) और संस्थानरहित है।
दण्ड, द्वन्द्व, ममता नहीं, ना शरीर आधार।
राग-द्वेष व मोह नहीं, भय ना जीव विचार ॥1.15.10.186॥
णिद्दंडो णिद्दंद्दो, णिम्ममो-णिक्कलो णिरालंबो।
णीरगो णिद्दोसो, णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ॥10॥
निर्दण्डः निर्द्वन्द्वः, निर्ममः निष्कलः निरालम्बः।
नीरागः निर्द्वेषः, निर्मूढ़ः निर्भयः आत्मा ॥10॥
आत्मा मन, वचन और कायारूप त्रिदंड से रहित, निर्द्वंद्ध-अकेली, निर्मम-ममत्वरहित, निष्कल-शरीररहित, निरालम्ब-परद्रव्यालम्बन रहित, वीतराग, निर्दोष, मोहरहित तथा निर्भय है।
ग्रंथ, राग माया रहित, सकल मुक्त निर्दोष।
काम क्रोध व मान नहीं, जीव नहीं मदहोश॥1.15.11.187॥
णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयल-दोस-णिम्मुक्को।
णिक्कामो णिक्कोहो, णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ॥11॥
निर्ग्रन्थो नीरागो, निःशल्यः सकलदोनिर्मुक्तः ।
निष्कामो निष्क्रोधो, निर्मानो निर्मदः आत्मा ॥11॥
आत्मा निर्ग्रन्थ (अपरिग्रही जो अपने पास कुछ नहीं रखती), नीराग (जिसे किसी से राग नहीं), निःशल्य (माया से रहित), सब दोषों से मुक्त (निमुक्त),कामना रहित (निष्काम), निःक्रोध, निर्मान (जिसे कोई घमण्ड नही) तथा निर्मद (जिसे मद नहीं) है।
होश ना मदहोश नहीं, ज्ञायक जीव स्वभाव ।
ज्ञायक में ही ज्ञात है, शुद्ध जीव का भाव॥1.15.12.188॥
ण वि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धा णादा जो सो दु सो चेव ॥12॥
नापि भवत्यप्रमत्तो, न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः।
एवं भणन्ति शुद्धं, ज्ञातो यः स तु स चैव ॥12॥
आत्मा ज्ञायक है जानने वाली है। ज्ञायक प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं होता। जो प्रमत्त और अप्रत्त नहीं होता वो शुद्ध होता है। आत्मा ज्ञायकरूप में ही ज्ञात है।
मन वचन और तन नहीं, कारण उसे न मान।
करे व करवाये नहीं, अनुमोदन ना जान ॥1.15.13.189॥
णाहं देहो ण मणो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं।
कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीणं ॥13॥
नाहं देहो न मनो, न चैव वाणी न कारणं तेषाम्।
कर्त्ता न न कारयिता, अनुमन्ता नैव कर्तृणाम् ॥13॥
आत्मा न शरीर है न मन है न वाणी है और न उनका कारण है। मैं न करता हूँ न करवानेवाला हूँ और न करता अनुमोदक ही हूँ।
शुद्ध जीव जो जानता, जाने और स्वभाव।
‘यह मेरा’ कैसे कहे, ज्ञानी शुद्ध प्रभाव ॥1.15.14.190॥
को णाम भणिज्ज बुहो, णादुं सव्वे परोदये भावे।
मज्झ-मिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ॥14॥
को नाम भणेद् बुधः, ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान्।
ममेदमिति चं वचनं, जानन्नात्मकं शुद्धम् ॥14॥
आत्मा के शुद्धरूप को जानने वाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा जो यह कहेगा कि “यह मेरा है”।
बिन ममता इक शुद्ध मैं, ज्ञान व दर्शन सार।
स्थित रहता इस भाव में, क्षय हो सभी विचार ॥1.15.15.191॥
अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाण-दंसण-समग्गो ।
तम्हि ठिदो तच्चितो, सव्वे एदे खयं णेमि ॥15॥
अहमेकः खलु शुद्धः, निर्ममतः ज्ञानदर्शनसमग्रः।
तस्मिन् स्थितस्तच्चित्तः, सर्वानेतान् क्षयं नयामि ॥15॥
मै एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममतारहित हूँ, तथा ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूँ।
प्रकरण 16 – मोक्षमार्गसूत्र
‘फल’ व ‘मार्ग’ दो अलग हैं, जिनशासन बतलाय ।
सम्यक् पथ पर जो चले, मोक्ष फल वो पाय ॥2.16.1.192॥
मग्गो मग्गफलं ति य, दुविहं जिणसासणे समक्खादं ।
मग्गो खलु सम्मत्तं, मग्गफलं होइ णिव्वाणं ॥1॥
मार्गः मार्गफलम् इति च द्विविध जिनशासने समाख्यातम्।
मार्गः खलु सम्यक्त्वं मार्गफलं भवतिनिवार्वणम् ॥1॥
जिनशासन में ‘मार्ग’ व ‘मोक्ष’ का उपाय है। सम्यक् मार्ग का फल मोक्ष है।
दर्शन, ज्ञान, चरित्र सब, मोक्ष मार्ग स्वभाव ।
बंधन समझो मोक्ष के, शुभ व अशुभ के भाव ॥2.16.2.193॥
दंसण-णाण-चरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्तिसेविदव्वाणि ।
साधूहि इदं भणिदं, तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा ॥2॥
दर्शनज्ञानचारित्राणि, मोक्षमार्ग इति सेवितव्यानि।
साधुभिरिदं भणितं, तैस्तु बन्धो वा मोक्षो वा ॥2॥
सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप को जिनदेव ने मोक्ष का मार्ग कहा है। वह निश्चय व व्यवहार दो प्रकार का है। शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं है। इन भावों से तो कर्म बंधन होता है।
शुभ भावों से मान ले, ज्ञानी भी यदि मोक्ष।
समझ यही अज्ञान है, दूर अभी है मोक्ष ॥2.16.3.194॥
अण्णाणादो णाणी, जदि मण्णदि सुद्ध- संपओगादो ।
हवदि त्ति-दुक्खमोक्खं, परसमयरदो हवदि जीवो ॥3॥
अज्ञानात् ज्ञानी, यदि मन्यते शुद्धसम्प्रयोगात्।
भवतीति दुःखमोक्षः, परसमयरतो भवति जीवः ॥3॥
अज्ञानवश अगर ज्ञानी भी ऐसा मान ले कि शुभ कर्म व भक्ति आदि शुभ भाव से दुखमुक्ति होती है तो यह राग का अंश है और त्रुटिपूर्ण ज्ञान है।
समिति, शील, व्रत, गुप्ति सभी, तप जिनवर प्रज्ञप्त ।
अनपढ़ बन इस पथ चले, द्रष्टा मिथक समस्त ॥2.16.4.195॥
वद-समिदी-गुत्तीओ, सीलतवं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
कुव्वंतो वि अभव्वोअणाणी मिच्छदिट्ठीओ ॥4॥
व्रतसमितिगुप्तीः शीलतपः जिनवरैः प्रज्ञाप्तम्।
कुर्वन् अपि अभव्यः अज्ञानी मिथ्यादृष्टिस्तु ॥4॥
व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप का पालन करते हुए भी अभव्य (अज्ञानी) जीव मिथ्या द्रष्टा है।
निश्चय ही व्यवहार रूप, तीनरत्न नहीं ज्ञान ।
मिथ्या सब कुछ मानिये, जिनवर कहते जान ॥2.16.5.196॥
णिच्छय-ववहार-सरूवं, जो रयणत्तयं ण जाणइ सो ।
ज कीरइ तं मिच्छा-रूवं, सव्वं जिणुद्दिट्ठं ॥5॥
निश्चयव्यवहारस्वरूपं, यो रत्नत्रयं न जानाति सः ।
यत् करोति तन्मिथ्या-रूपं सर्वजिनोद्दिष्टम् ॥5॥
जिनदेव का उपदेश है कि निश्चय और व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) को नही जानता उसका सबकुछ मिथ्यारुप है।
श्रद्धा-निष्ठा भी रखे, पले धार्मिक चाह ।
भोग धर्म समझो निमित्त, कर्म नहीं क्षय राह ॥2.16.6.197॥
सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो वि फासेदिय ।
धम्मं भोग-णिमित्तं, ण दु सो कम्म-क्खय-णिमित्तं ॥6॥
श्रद्दधाति च प्रत्येति च, रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति ।
धर्म भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षनिमित्तम् ॥6॥
अभव्य जीव धर्म में श्रद्धा रखता है, पालन करता है किन्तु वह धर्म को भोग का निमित्त समझ कर करता है कर्मक्षय का कारण समझ कर नहीं करता।
पुण्य शुभ परिणाम कहे, अशुभ जानिये पाप।
आत्मलीन जो मगन हो, दुख क्षय कारण आप ॥2.16.7.198॥
सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पाव त्ति भणियन्नेसु।
परिणामो णन्नगदो, दुक्खक्खयकारणं समये ॥7॥
शुभपरिणामः पुण्यं अशुभः पापमिति भणितमन्येषु।
परिणामो नान्यगतो, दुःखक्षयकारणं समये ॥7॥
वह नहीं जानता कि परद्रव्य में प्रवृत्त शुभ-परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। धर्म स्वद्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है जो यथासमय दुखों के क्षय का कारण होता है।
पुण्य की यदि इच्छा रहे, चाहे तबसंसार ।
पुण्य है सुगति के लिए, पुण्य क्षरण जग पार ॥2.16.8.199॥
पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि।
पुण्णं सुगई-हेदुं, पुण्ण-खएणेव णिव्वाणं ॥8॥
पुण्यमति यः समिच्छति, संसारः तेन ईहितः भवति।
पुण्यं सुगतिहेतुः, पुण्यक्षयेण एव निर्वाणम् ॥8॥
जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु है किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है।
करम अशुभ सुशील नहीं, सात्विक सुशील विचार।
शुभ सुशील पर क्या कहूँ, पुनः प्रवेश संसार ॥2.16.9.200॥
कम्म-मसुहं कुसीलं, सुह-कम्मं चावि जाणह सुसीलं।
किह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि ॥9॥
कर्म अशुभं कुशीलं,शुभकर्म चापि जानीहि वा सुशीलम् ,
कथं तद् भवति सुशीलं, यत् संसार प्रवेशयति। ॥9॥
अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सुशील जानो। किन्तु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में फिर से प्रविष्ट कराता है।
कनक लोह में फ़र्क नहीं बेड़ी बाँधे जीव।
शुभ अशुभ में, पक्की जीव की नींव ॥2.16.10.201॥
सोवण्णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं।
बंधति एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥10॥
सौवर्णिकमपि निगलं, बध्नाति कालायसमपि यथा पुरुषम्।
बध्नात्येवं जीवं, शुभमशुभं वा कृतं कर्म ॥10॥
बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, दोनों ही बेड़ियाँ बाँधती है। इसी प्रकार जीव को शुभ-अशुभ दोनों ही कर्म बाँधते है।
कुशील जानकर कर्म को, नहीं संग और राग।
करता राग सुशील से, स्वतन्त्रता वीतराग॥2.16.11.202॥
तम्हा दु कुसीलेहि य, रायं मा कुणह मा व संसग्गं ।
साधीणो हि विणासो, कुसील-संसग्ग-रायेण ॥11॥
तस्मात्तु कुशीलैश्च, रागं मा कुरुत मा वा संसर्गम् ।
स्वाधीनो हि विनाशः कुशीलसंसर्गरागेण ॥11॥
अतः शुभ-अशुभ दोनों कर्मों को कुशील जानकर न उनके साथ राग करना चाहिये और न उनका संसर्ग। क्योंकि कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है।
तप व्रत से ही स्वर्ग है, नर्क से उत्तम जान ।
खड़ा धूप में क्यों रहे, छाया उत्तम मान॥2.16.12.203॥
वरं वय-तवेहि सग्गो दुक्खं होउ निरइ इयरेहिं।
छाया-तव-ट्ठिणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ॥12॥
वरं व्रततपोभिः स्वर्गः, मा दुःखं भवतु निरये इतरैः।
छाया़ऽऽतपस्थितानां, प्रतिपालयतां गुरुभेदः ॥12॥
तथापि नर्क के दुख भोगने से तो उत्तम है कि व्रत व तप आदि कर स्वर्ग पाया जाय। धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं अच्छा है।
देव सम्मुख प्रज्ञ, जन, हाथ जोड़ कर जान।
विपुल चक्रधर धन मिले, मिले न केवल ज्ञान ॥2.16.13.204॥
खयरा-मर-मणुय-करंजलि-मालाहिं च संथुया विउला।
चक्क-हरराय-लच्छी, लब्भइ बोही सुभावेण ॥13॥
खचरामरमनुज-कराञ्जलि-मलाभिश्च संस्तुता विपुला।
चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधिः न भव्यनुता ॥13॥
इसमें संदेह नही की शुभभाव से विद्याधरों, देवों तथा मनुष्यों की स्तुति से चक्रवर्ती सम्राट की विपुल लक्ष्मी तो प्राप्त हो सकती है लेकिन केवल ज्ञान नहीं।
देवलोक में भी रहे, आयु क्षय का रोग।
मनुष्य योनि फिर मिले, दशांग द्रव्य का भोग ॥2.16.14.205॥
तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया।
उवेन्ति माणुसं जोणिं, से दसंगेऽभिजायई ॥14॥
तत्र स्थित्वा यथास्थानंं, यक्षा आयुःक्षशे च्युताः।
उपयान्ति मानुषींयोनिम् स दशाङ्गोऽभिजायते ॥14॥
देवलोक में भी आयु समाप्त होने पर जीव मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं। वहाँ वे दशांग भोग सामग्री से युक्त होते हैं।
मनुष्य भोगता भोग को, जीवन नहीं विरोध।
कर्म पुरातन हो विशुद्ध, होवे निर्मल बोध ॥2.16.15.206॥
वीर्य श्रुति श्रद्धा मनुज दुर्लभ चार स्वीकार।
तप कर संयम धर्म सेे, शाश्वत सिद्ध आकार ॥2.16.16.207॥
भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं ।
पुव्वं विःशुद्ध सद्धम्मे, केवलं बोहि बुज्झिया ॥15॥
चउरंगं दुल्लहं मत्ता, संजमं पडिवज्जिया ।
तवसा धुयकम्मंसे, सिद्धे हवइ सासए ॥16॥
भुक्त्वा मानुष्कान् भोगान्, अप्रतिरूपान् यथायुष्कम्।
पूर्वविशुद्धसद्धर्मा, केवलां बोधिं बुद्ध्वा ॥15॥
चतुरङ्गं दुर्लभं ज्ञात्वा, संयमं प्रतिपद्य।
तपसा घूतकर्मांशः, सिद्धो भवति शाश्वतः ॥16॥
जीवनपर्यन्त अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर पूर्वजन्मों में धर्म आराधना के कारण निर्मल बोधि का अनुभव करते है और चार अंगों (मनुष्य, श्रुति, श्रद्धा तथा वीर्य) को दुर्लभ जानकर वे संयम-धर्म स्वीकार करते है और फिर तपश्चर्या से कर्मों का नाश कर के शाश्वत सिद्धपद को प्राप्त करते हैं।
प्रकरण 17 – रत्नत्रयसूत्र
सम्यक दर्शन श्रद्धा-धरम , अगों-पूर्व विचार ।
तप चेष्टा सम्यक्चरित्र, मोक्ष मार्ग व्यव्हार ॥2.17.1.208॥
धम्मादी-सद्दहणं, सम्मंत णाण-मंग-पुव्व-गदं ।
चिट्ठा तवं हि चरिया, ववहारो मोक्ख-मग्गो त्ति ॥1॥
धर्मादिश्रद्धानं, सम्यक्त्वं ज्ञानमङ्गपूर्वगतम्।
चेष्टा तपसि चर्या, व्यवहारो मोक्षमार्ग इति ॥1॥
धर्म आदि (छह द्रव्य तथा तत्त्वार्थ) का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। तप में प्रयत्नशीलता सम्यक्चारित्र है। यह व्यवहार मोक्ष मार्ग है।
ज्ञान बताये भाव को, दर्शन से विश्वास ।
निरोध करें चारित्र से, तप से निर्मल आस ॥2.17.2.209॥
नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे ।
चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसज्झई ॥2॥
ज्ञानेन जानाति भावान्, दर्शनेन च श्रद्धत्ते।
चारित्रेण निगृह्णाति, तपसा परिशुध्यति ॥2॥
मनुष्य ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है, दर्शन से उनको मानता है, चारित्र से निरोध करता है और तप से विशुद्ध होता है।
दर्शन बिन मुनि पद ग्रहण, बिनु चरित्र का ज्ञान ।
संयम बिन तप भी सदा, अर्थहीन पहचान ॥2.17.3.210॥
णाणं चरित्त-हीणं,लिंगग्गहणं च दंसण विहूणं ।
स्ंजम-हीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थंय सव्व ॥3॥
ज्ञान चरित्रहीनं, लिङ्गग्रहणंच दर्शनविहीनम्।
संयमविहीनं च तपः, यः चरति निरर्थकं तस्य ॥1॥
तीनों एक दुसरे के पूरक हैं इसलिये कहा है कि चारित्र के बिना ज्ञान व सम्यग्दर्शन के बिना मुनिलिंग का ग्रहण और संयमविहीन तप का आचरण करना निरर्थक है।
बिन दर्शन के ज्ञान नहीं, चरित्र नहीं बिन ज्ञान ।
बिन चरित्र के मोक्ष नहीं, मोक्ष बिना निर्वाण ॥2.17.4.211॥
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो,नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥4॥
नादर्शनिनो ज्ञानं, ज्ञानेन विना न भवन्ति चरणगुणाः।
अगुणिनो नास्ति मोक्षः, नास्त्यमोक्षस्य निर्वाणम ॥4॥
दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता। चारित्र के बिना मोक्ष नहीं होता। मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता।
ज्ञान व्यर्थ है बिन क्रिया, क्रिया व्यर्थ बिन ज्ञान ।
वन-अग्नि में पंगु बन, अंधा छोड़ प्राण ॥2.17.5.212॥
हयं नाणं किया-हीणं, हया अन्नाणओ किया ।
पसंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ ॥5॥
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हताऽज्ञानतः क्रिया ।
पश्यन् पङ्गुलः दग्धो, धावमानश्च अन्धकः ॥5॥
क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है बिना ज्ञान के क्रिया व्यर्थ है। जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने के कारण जल कर मर जाता है और अंधा व्यक्ति भागने में समर्थ होते हुए भी देख न पाने के कारण जल मर जाता है।
संयोग सिद्धि से फल मिले, रथ इकं चक्र न सार ।
अंधे – पंगु को ही मिलन, चले नगर के द्वार ॥2.17.6.213॥
संजोग-सिद्धीय फलं वयंति, न हु एग-चक्केण रहो पयाइ ।
अंधो या पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥6॥
संयोंसिद्धौ फलं वदन्ति, न खल्वेकचक्रेण रथः प्रयाति।
अन्धश्च पङ्गुश्च वने समेत्य, तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ॥6॥
ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है। जैसे पंगु और अंधा साथ हो जाय तो वन से निकल कर नगर में आ सकते है। एक पहिये से रथ नही चलता।
सम्यक् दर्शन-ज्ञान का, होता रहे प्रचार ।
सब य पक्ष रहित रहे, यही समय का सार ॥2.17.7.214॥
सम्म-द्दंसण-णाणं, एदं लहदि त्ति णवरि ववदेसं।
सव्व-णय-पक्ख-रहिदो, भणिदो जे सो समयसारो ॥7॥
सम्यग्दर्शनज्ञानमेष लभते इति केवलं व्यपदेशम्।
सर्वनयपक्षरहितो, भणितो यः स समयसार ॥7॥
जो सब नय-पक्षों से रहित है वही समयसार है, उसी को सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान की संज्ञा प्राप्त होती है।
दर्शन ज्ञान चरित्र को, साधु सदा स्वीकार ।
तीनों आत्मा रूप है, निश्चय नय का सार ॥2.17.8.215॥
दंसण-णाण-चरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥8॥
दर्शनज्ञानचारित्राणि, सेवितव्यानि साधुना नित्यम्।
तानि पुनर्जानीहि, त्रीण्यप्यात्मानं जानीहि निश्चयतः ॥8॥
साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चारित्र का पालन करना चाहिये। निश्चयनय से इन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिये।
आत्म समाहित तीन में, निश्चयनय का ज्ञान।
कुछ न करे, छोड़े नहीं, मोक्षमार्ग पहचान ॥2.17.9.216॥
णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा।
ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति ॥9॥
निश्चययेन भणित-स्त्रिभिस्तैः, समाहितः खलु यः आत्मा
न करोति किंचिदप्यन्यं, न मुञ्चति स मोक्षमार्ग इति ॥9॥
जो आत्मा इन तीनों में समाहित हो जाता है और अन्य कुछ नहीं करता और न कुछ छोड़ता है उसी को निश्चयनय से मोक्षमार्ग कहा गया है।
आत्मलीन आत्मा रहे, सम्यगदृष्टि जीव।
आत्मज्ञान ही ज्ञान है, चारित मार्ग ही नींव ॥2.17.10.217॥
अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।
जाणइ तं सण्णाणं चरदिह चारित्त-मग्गो त्ति ॥10॥
आत्मा आत्मनि रतः, सम्यग्दृष्टिः भवति स्फूब्टं जीवः ।
जानाति तत् संज्ञानं, चरतीह चारित्रमार्ग ॥10॥
आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यग्दृष्टि होता है। जो आत्मा को यथार्थ रूप में जानता है वही सम्यग्ज्ञान है और उसमें स्थित रहना ही सम्यग चारित्र है।
आत्मा मेरा ज्ञान है, चरित्र दर्शन जान।
संयम योग भी आत्मा, आत्मा प्रत्याखान॥2.17.11.218॥
आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरित्तेय ।
आया पच्चखाणे, आया मे संजमे जोगे ॥11॥
आत्मा खलु मम ज्ञानं, आत्मा मे दर्शन चरित्रं च ।
आत्मा प्रत्याख्यानं, आत्मामे संयमो योगः ॥11॥
आत्मा मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन और चारित्र है। आत्मा ही प्रत्यख्यान है और आत्म ही संयम और योग है। अर्थात ये सब आत्मरूप है।
प्रकरण 18 – सम्यग्दर्शनसूत्र
मोक्षवृक्ष का मूल है, सुरत्न सम्यक सार ।
दर्शन के दो भेद हैं, निश्चय और व्यवहार ॥2.18.1.219॥
सम्मत्तरयणसारं मोक्ख-महारुक्ख-मूलमिदि भणियं ।
तं जाणिज्जइ, णिच्छय-ववहार-सरूवदोभेयं ॥1॥
सम्यक्त्वरत्नसारं, मोक्षमहावृक्षमूलमिति भणितम्।
तज्ज्ञायते निश्चय-व्यवहारस्वरूपद्विभेदम् ॥1॥
सम्यग्दर्शन को मोक्षरूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है। यह निश्चय और व्यवहार के रूप में दो प्रकार का है।
तत्वज्ञान है सम्यक्त्व, जिनवर कह व्यवहार ।
आत्मा निश्चय रहे, सम्यक् यही विचार ॥2.18.2.220॥
जीवादी सद्दहणं, सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
ववहारा णिच्छयदो, अप्पा ण हवइ सम्मत्तं ॥2॥
जीवादीनां श्रद्धानं, सम्यक्त्वं जिनवरैः प्रज्ञप्तम्।
व्यवहारात् निश्चयतः, आत्मा णं भवति सम्यक्त्वहेतुरपि ॥2॥
व्यवहारनय से जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को जिनदेव ने सम्यक्त्व दर्शन कहा है। निश्चयनय से तो आत्मा ही सम्यग्दर्शन है।
सम्यक् दर्शन मौन है, निश्चयनय ही मौन ।
निश्चय सम्यग्दर्शन से, हेतु सम्यक कौन ॥2.18.3.221॥
जं मोणं तं सम्मं, जं सम्मं तमिह होइ मोणं ति ।
निच्छयओ इयरस्स उ, सम्मं सम्मत्त्हेऊ वि ॥3॥
यन् मौन तत् सम्यक् , यत् सम्यक् तहिह भवति् मौनमिति।
निश्चयतः इतरस्य तु, सम्यक्त्वं सम्यक्त्वहेतुरपि ॥3॥
निश्चयनय से जो मौन (साधुत्व) है वही सम्यग्दर्शन है और जो सम्यग्दर्शन है वही मौन है। व्यवहारनय से जो निश्चय-सम्यग्दर्शन के हेतु हैं वे भी सम्यग्दर्शन हैं ।
सम्यक्त्व बिन लगा रहे, तप करता हर बार ।
लाभ बोध मिलता नहीं, चाहे जनम हज़ार ॥2.18.4.222॥
सम्मत्त-विरहिया णं सुट्ठु वि उग्गं तवं चरंता णं ।
ण लहंति बोहिलाहं अवि वास-सहस्स-कोडीहिं ॥4॥
सम्यक्त्वविरहिता णं, सुष्ठु अपिउग्रं तपः चरन्तः णं।
न लभन्ते बोधिलाभं, अपि वर्षसहस्रकोटिभिः ॥4॥
सम्यक्तविहीन व्यक्ति हज़ारों साल तक भलिभाँति तप करने पर भी बोधिलाभ प्राप्त नहीं कर सकता।
दर्शन भ्रष्ट ही भ्रष्ट है, मुक्ति नहीं वह ।
चरित्र भ्रष्ट को सिद्धि मिले, दर्शन भ्रष्ट न पाय ॥2.18.5.223॥
दंसण-भट्ठा भट्ठा, दसणं- भट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं ।
सिज्झंति चरिय-भट्ठा, दंसण-भट्ठा ण सिज्झंति ॥5॥
दर्शनभ्रष्टाः भ्रष्टाः,दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् ।
सिध्यन्ति चरितभ्रष्टाः, दर्शनभ्रष्टाः न सिध्यन्ति ॥5॥
जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है वही भ्रष्ट है। उसे कभी निर्वाण प्राप्ति नही हो सकती। चारित्र विहीन सम्यग्दृष्टि रखने वाले चारित्र धारण कर सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।
दर्शन शुद्ध ही शुद्ध है, ले मुक्ति का लाभ ।
दर्शनविहीन पुरुष को, मिले न इसका लाभ ॥2.18.6.224॥
दंसण-सुद्धो सुद्धो दंसण-सुद्धो लहेइ णिव्वाणं।
दंसण-विहीण-पुरिसो, ण लहइ तं इच्छियं लाहं ॥6॥
दर्शनशुद्धः शुद्धः, दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम्
दर्शनविहीनः पुरुषः, न लभते तम् इष्टं लाभम् ॥6॥
सम्यग्दर्शन से शुद्ध ही निर्वाण प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शन-विहीन पुरुष इष्टलाभ नही कर पाता।
लाभ है सम्यक् एक तरफ़, तीन-लोक उस ओर ।
लाभ नहीं त्रिलोक में, सम्यक् उत्तम छोर ॥2.18.7.225॥
सम्मत्तस्स य लंभे तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो।
सम्मद्दंसणलंभो वरं खु तेलोक्कलंभादो ॥7॥
सम्यक्त्वस्य च लाभ-स्त्रैलोकस्य च भवेत् यो लाभः।
सेत्स्यन्ति येऽपि भव्याः, तद् जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम् ॥7॥
एक ओर सम्यक्त्व का लाभ और दूसरी ओर त्रैलोक्य का लाभ हो तो सम्यग्दर्शन का लाभ श्रेष्ठ है।
और अधिक अब क्या कहे, सिद्ध विगत ये काल ।
होंगे सिद्ध भविष्य में, सम्यक्त्व महिमा विशाल ॥2.18.8.226॥
किं बहुणा भणिएणं, जे सिषद्धा णरवरा गए काले ।
सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्म-माहप्पं ॥8॥
किं बहुना भणितेन, ये सिद्धाः नरवराः गते काले।
सेत्स्यन्ति येऽपि भव्याः, तद् जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम् ॥8॥
और अधिक क्या कहें? अतीतकाल में जो श्रेष्ठ सिद्ध हुए और जो आगे सिद्ध होंगे वह सम्यक्त्व का ही प्रताप है
जैसे जल से लिप्त नहीं, कमल पत्र स्वभाव।
विषय-कषायन लिप्तता, सम्यक यदा प्रभाव ॥2.18.9.227॥
जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणि-पत्तं सहाव-पयडीए
तह भावेण ण लिप्पइ कसाय-विसएहिं सप्पुरिसो ॥9॥
यथा सलिलेन न लिप्यते, कमलिनीपत्रं स्वभावप्रकृत्या ।
तथा भावेन न लिप्यते, कषायविषयैः सत्पुरुषः ॥9॥
जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से लिप्त नही होता।
चेतन-अवचेतन करे, द्रव्यों का जन भोग।
करे निर्जरा में सदा, सम्यक दृष्टि प्रयोग ॥2.18.10.228॥
उवभीज्ज-मिंदियेहिं दव्वाण-मंचेदणाण-मिदराणं।
ज्ं कुणदि सम्मदिट्ठी तं णिज्जर-णिमित्त ॥10॥
उपभोगमिन्द्रियैः, द्रव्याणामचेतनानामितरेषाम् ।
यत् करोति सम्ग्दृष्टिः तत् सर्वं निर्जरानिमित्तम् ॥10॥
सम्यक्दृष्टि जीव अपनी इन्द्रियों के द्वारा चेतन व अचेतन द्रव्यों का जो भी उपयोग करता है वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है
भोग करे पर भोग नहीं, ना भोगे पर भोग।
लगा काम में इस तरह, नहीं काम का रोग॥2.18.11.229॥
सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई ।
पगरण-चेट्ठा कस्स वि, ण य पायरणो त्तिसो होई ॥11॥
सेवमानोऽपि न सेवते, असेवमानोऽपिसेवकः कश्चित् ।
प्रकरणचेष्टा कस्यापि, न च प्राकरण इति स भवति ॥11॥
कोई विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता और कोई सेवन न करते हुए भी सेवन करता है। जैसे कोई जन विवाहादि कार्य में लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता।
सम-विषम गुण भाव नहीं, कामभोग के जान ।
राग द्वेष में लगा रहे, भोगी उसको मान॥2.18.12.230॥
न कामभोगा समयं उवेन्ति, न यावि भोगा विगइं उवेन्ति।
जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगइं उवेइ ॥12॥
न कामभोगाः समतामुपयन्ति, न चापि भोगा विकृतिमुपयन्ति।
यस्तत्प्रद्वेषी च परिग्री च, स तेषु मोहाद् विकृतिमुपैति ॥12॥
इसी तरह काम भोग न समभाव उत्पन्न करते हैं और न ही विषमता। जो उनके प्रति राग-द्वेष रखता है वह उनमें विकृति को प्राप्त होता है।
शंका आकांक्षा नहीं, अमूढ-दृष्टि, समभाव।
राज रखे न, धीर रहे, स्नेहिल, धर्म प्रभाव ॥2.18.13.231॥
निस्संकिय निक्कंखय निव्वितिगिच्छा अमूढ़दिट्ठी य।
उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥13॥
निःशंकितं निःकाङ्क्षितं, निर्विवचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च।
उपबृंहा स्थिरीकरणे, वात्सल्य प्रभावेनाऽष्टी ॥13॥
सम्यग्दर्शन के ये आठ अंग हैः निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थिरीकरण, वास्तल्य और प्रभावना।
सम्यक दृष्टि जीव निःशंक, हो निर्भय का भाव।
सातों भय से मुक्त रहे, निःशंक यही स्वभाव ॥2.18.14.232॥
सम्मा-दिट्ठी जीवा, णिस्संका होंति णिब्भया तेण।
सत्त-भय-विप्प-मुक्का, जम्हा तम्हा दु णिस्संका ॥14॥
सम्यग्दृष्टयो जीवा निश्शङ्का भवन्ति निर्भयास्तेन।
सप्तभयविप्रमुक्ता, यस्मात् तस्मात तु निश्शङ्का ॥14॥
सम्यग्दृष्टि जीव शंकारहित होते हैं इसलिये निर्भय होते हैं। वे सात प्रकार के भयों से रहित होते है। इस लोक का भय, परलोक भय, रक्षा का भय, वेदना भय और अकस्मात भय।
चाह जिसे कोई नहीं, धरम-करम फल भान।
चाहरहित समझे उसे, सम्यक दृष्टि वो मान ॥2.18.15.233॥
जो दु ण करेदि कंखं, कम्मफलेसु तह य सव्व-धम्मेसु ।
सो णिक्कंखो चेदा, सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥15॥
यस्तु न करोति का ङ्क्षाम्, कर्मफलेषु तथा सर्वधर्मेषु ।
स निष्काङ्क्षश्चेतयिता, सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य ॥15॥
जो समस्त कर्मफलों में और सम्पूर्ण वस्तु धर्मों में किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं रखता, इन को निरकांक्ष सम्यग्दृष्टि समझना चाहिये ।
मान, पूजा चाह नहीं, ना वंदन गुणगान।
संयत, सुव्रत, तपस्वी, साधु आत्म का ज्ञान ॥2.18.16.234॥
नोसक्यि-मिच्छई न पूयं, नो वि य वन्दणगं कुओ पसंसं?
से संजए सुव्वए तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू ॥16॥
न सत्कृतिमिच्छति न पूजां, नोऽपि च वन्दनकं कुतः प्रशंसाम् ।
स संयतः सुब्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः ॥16॥
जो सत्कार, पूजा और वंदना नही चाहता वह किसी से प्रशंसा की क्या अपेक्षा करेगा। जो संयत है, सुव्रती है, तपस्वी है और आत्मगवेषी है, वही भिक्ष ुहै।
ख्याति, पूजा, लाभ मिले, सम्मान सन्त ना चाह।
इच्छा जो परलोक की, नहीं कभी यह राह ॥2.18.17.235॥
खाई-पूया-लाहं सक्काराइं किमिच्छसे जोई।
इच्छसि जदि परलोयं, तेहिं किं तुज्झ परलोयं ॥17॥
ख्याति-पूजा-लाभं, सत्कारादि किमिच्छसि योगिन्!।
इच्छसि यदि परलोकं तैः किं तव परलोके? ॥17॥
हे योगी ! यदि तू परलोक चाहता है तो ख्याति, लाभ, पूजा और सत्कार आदि क्यों चाहता है?
ग्लानि जो करता नहीं, वस्तु धर्म पहचान।
निर्विचिकित्सा गुण कहें, सम्यक दृष्टि ज्ञान ॥2.18.18.236॥
जो ण करेदि जुगुप्पं, चेदा सव्वेसि मेव धम्माणं।
सो खलु णिव्विगिच्छो, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥18॥
यो न करोति जुगुप्सां, चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणाम्।
सः खलु निर्निचिकित्सः, सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य ॥18॥
जो समस्त वस्तुओं के धर्मों को पहचान कर उनसे ग्लानि नही करता है वो निर्विचिकित्सा धारक सम्यग्दृष्टि है।
व्यक्ति नहीं विमूढ जो, चेतन दृष्टि सुभाव।
अमूढ़ दृष्टि कहते उसे, सम्यक् दृष्टि स्वभाव ॥2.18.19.237॥
जो हवदि असम्मूढो, चेदा सव्वेसु कम्म-भावेसु ।
सो खलु अमूढ-दिट्ठी, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥19॥
यो भवति असंमूढः, चेतयिता सद्दृष्टिः सर्वभावेषु ।
स’लु अमूएदृष्टिः, सम्यदृष्टिर्ज्ञातव्यः॥19॥
जो समस्त वस्तुओं के धर्मों को पहचान कर उनसे ग्लानि नही करता है वो निर्विचिकित्सा धारक सम्यग्दृष्टि है।
ज्ञान और दर्शन मिले, तप चरित्र का साथ।
शान्ति और मुक्ति मिले, वर्धमान का हाथ ॥2.18.20.238॥
नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेण, तहेव य।
खन्तीए मुत्तीए, वड्ढमाणो भवाहि य ॥20॥
ज्ञानेन दर्शनेन च, चारित्रेण तथैव च ।
क्षान्त्या मुक्त्या, वर्धमानो भव च ॥20॥
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, शान्ति एवं मुक्ति के द्वारा जीवन को वर्धमान बनाना चाहिये।
ना ढ़के ना कहे ग़लत, चाहे नहीं प्रचार।
ज्ञानी की निंदा नहीं, ना वरदान विचार ॥2.18.21.239॥
णो छादय णोऽवि य लूसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज।
ण या वि पण्णे परिहास कुन्जा, ण याऽऽ सियावाद वियागरेज्झा ॥21॥
नो छादयेन्नापि च लूषयेद्, मानं न सेवेत प्रकाशनं च।
न चापि प्राज्ञः परिंहासं कुर्यात्, न चाप्याशीर्वादं व्यागृणीयात् ॥21॥
न शास्त्र के अर्थ को छिपाये और नही शास्त्र की असम्यक् व्याख्या करे। न मान करे अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करे। न किसी विद्वान का परिहार करे न किसी को आशीर्वाद दे।
दोष जहाँ खुद में दिखे, मन वचन और काय।
धीरज खींचे रास को, पथ में वापस आय ॥2.18.22.240॥
जत्थेव पासे कई दुप्पउत्तकाएण वायाअदु माणसेणं।
तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा, आइन्न ओ खिप्पमिवक्खलीणं ॥22॥
सत्रैव पश्येत् क्वचित् दुष्प्रयुक्तं, कायेन वाचा अथ मानसेन।
तत्रैव धीरः प्रतिसंहरेत्, आजानेयः (जात्यश्वः) क्षिप्रमिवखलीनम् ॥22॥
जब अपनें में दोष की प्रवृत्ति दिखायी दे, उसे तत्काल ही मन, वचन व काया से सम्यग्दृष्टि रखते हुए समेट ले जैसे बेक़ाबू घोड़ा रास के द्वारा सीधे रास्ते पर आ जाता है।
पार महा-सागर किया, क्यों तू अब तट छोर।
हे गौतम! अविलंब तू, बढ़ आगे की ओर ॥2.18.23.241॥
तिण्णो हु सि अण्णवं महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ ।
अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम! मा परमायए ॥23॥
तीर्णः खलु असि अर्णवं महान्तं, किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः ।
अभित्वरस्व पारं गन्तुं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥23॥
हे गौतम! तू महासागर को तो पार कर गया है अब तट पर क्यों खड़ा है? क्षण भर का भी आलस न कर, तुरन्त आगे बढ़ ।
धर्म का अनुसरण करे, श्रद्धा और अनुराग।
प्रिय वचन हरपल कहे, ममत्व सम्यक् राग ॥2.18.24.242॥
जा धाम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणदि परम-सद्धाए ।
पिय-वयणं जंपंतो, वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ॥24॥
यः धार्मिकेषु भक्तः, अनुचरणं करोति परमश्रद्धया ।
प्रियवचनं जल्पन् वात्सल्यं तस्य भव्यस्य ॥24॥
जो धार्मिक जनों में अनुराग रखता है, श्रद्धापूर्वक उनकी अनुशरण करता है तथा प्रिय वचन बोलता है वो वात्सल्य सम्यग्दृष्टि है।
धर्म कथा का कथन करें, बाह्य योग अभ्यास।
करना धर्म प्रभावना, जीव दया मन वास ॥2.18.25.243॥
धम्म-कहा-कहणेण य, बाहिर-जोगेहिं चावि णवज्जेहिं।
धम्मो पहाविदव्वो, जीवेसु दयाणुकंपाए ॥25॥
धर्मकथाकथनेनल च, बाह्ययोगैश्चाप्यनवद्यैः।
धर्मः प्रभावयित्तव्यो, जीवेषु दयानुकम्पया ॥25॥
बाह्य ऋतुओं को ध्यान में रखते हुए, धर्म कथा के कथन द्वारा जीवों पर दया करते हुए धर्म की प्रभावना करनी चाहिये।
प्रवचनी, वादी, तपकर्ता, ज्ञानी, धर्म का पाठ।
विद्जन, साधक और कवि, धर्म प्रभावक आठ ॥2.18.26.244॥
पावयणी धम्मकही, वाई नेमित्तओ तवस्सी य।
विज्जा सिद्धो य कवी, अट्ठेव पभावगा भणिया ॥26॥
प्रावचनी धर्मकथी, वादी नैमित्तिकः तपस्वी च।
विद्यावान् सिद्धःच कविः, अष्टौ प्रभावकाः कथिताः ॥26॥
प्रवचन कुशल, धर्मकथाएँ करने वाला, वादी, निमित्तज्ञानी, तपस्वी, विद्या सिद्ध, ऋद्धि सिद्धियों का स्वामी व कवि ये आठ मनुष्य धर्म प्रभावक कहे गये हैं।
प्रकरण 19 – सम्यग्ज्ञानसूत्र
सुनकर जाने हित कहाँ, सुनकर जाने पाप ।
सुनकर जाने हित-अहित, चुने उचित फिर आप ॥2.19.1.245॥
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जणइ पावगं ।
उभयं पि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥1॥
श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम्।
उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यत् छेकं तत् समाचरेत् ॥1॥
सुनकर ही हित और अहित का मार्ग जाना जा सकता है और उस पर आचरण करना चाहिये।
संयम में तप नियम हो, आज्ञा के अनुसार ।
स्थिरचित साधक रहे, जीवन शुद्ध विहार ॥2.19.2.246॥
णाणाऽणत्तीए पुणो, दंसणतवनियमसंजमे ठिच्चा ।
विहरइ विसुज्झमाणो जावज्जीवं पि निक्कंपो ॥2॥
ज्ञानाऽऽज्ञप्त्या पुनः, दर्शनतपोनियमसंये स्थित्वा।
विहरति विशुध्यमानः, यावज्जीवमपि निष्कम्पः ॥2॥
तप नियम, संयम में स्थित होकर ज्ञान के आदेशानुसार संयमी साधक कर्म-मल से विशुद्ध जीवनपर्यन्त विहार करता है।
ज्यूँ ज्यूँ मुनि करते श्रवण, अतिशयरस अनुराग ।
श्रद्धा नित नूतन बढ़े, मन जागे वैराग ॥2.19.3.247॥
जह जह सुद-भोगाहर, अदिसय-रस-पसर संजुयमपुव्वं ।
तह तह पल्हादिज्जदि, नव नव संवेग सड्ढाए ॥3॥
यथा यथा श्रुतमवगाहते, अतिशयरसप्रसरसंयुतमपूर्वम् ।
तथा तथा प्रह्लादते मुनिः, नवनवसंवेगश्रद्धाकः ॥3॥
जैसे जैसे मुनि रस के अतिरेक से युक्त होकर ज्ञान को सुनता है वैसे वैसे वैराग्य के प्रति श्रद्धा बढ़ती है ।
धागे संग रहती सुई, मिले अगर खो जाय ।
ज्ञान शास्त्री जीव भी, जग में ना खो पाय ॥2.19.4.248॥
सुई जहा ससुत्ता न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि ।
जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे ॥4॥
सूची यथा ससूत्रा, न नश्यति कचवरे पतिताऽपि।
जीवोऽपि तथा ससूत्रो, न नश्यति गतोऽपि संसारे ॥4॥
जैसे धागा पिरोयी हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही शास्त्रज्ञानयुक्त जीव संसार में नष्ट नहीं होता।
सम्यक्त्व रत्न हो नहीं, शास्त्रज्ञान अपार ।
श्रद्धा उसमें हो नहीं, भटके बारंबार ॥2.19.5.249॥
सम्मत्त-रयण-भट्ठा, जाणंता बहु-विहाइं सत्थाइं ।
आराहणा-विरहिया, भमंति तत्थेव तत्थेव ॥5॥
सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टा, जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि ।
आराधनाविरहिता, भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥5॥
शास्त्रों के ज्ञाता में अगर सम्यक्त्व का अभाव हो तो आराधना विहीन होने से अनेक गतियों में भ्रमण करता रहता है।
शेष परम-अणु मात्र भी, राग जीव के पास।
आत्मा को जाने नहीं, जाने आगम ज्ञान ॥2.19.6.250॥
आत्मा जब जाने नहीं, नहीं अनात्मा ज्ञान ।
वो दृष्टि सम्यक नहीं, जीव अजीव न भान ॥2.19.7.251॥
परमाणु-मित्तयं पि हु, य रायादीणं तु विज्जदे जस्स ।
ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागम-धरो वि ॥6॥
ये मिला नही है।
परमाणुमात्रमपि खलु, रागादीनां तु विद्यते यस्य ।
नापि स जानात्यात्मानं चापि सोऽजानन् ॥6॥
आत्मानमजानन्, अनात्मानं चापि सोऽजानन्।
कथं भवति सम्यग्दृष्टि-जींवाजीवान् अजानन् ॥7॥
जिस व्यक्ति में परमाणुभर भी राग शेष हो, वो समस्त आगम का ज्ञाता होकर भी आत्मा को नही जानता। आत्मा को न जानने से अनात्मा को भी नहीं जानता। जो जीव-अजीव को नही जानता वो सम्यक्दृष्टि कैसे हो सकता है?
जहाँ तत्व का ज्ञान हो, रहता चित्त निरोध ।
आत्मा जिसकी शुद्ध हो, जिनशासन का बोध ॥2.19.8.252॥
जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि ।
जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ॥8॥
येन तत्त्वं विबुध्यते, येन चित्तं निरुध्यते ।
येन आत्मा विशुध्यते, तज् ज्ञानं जिनशासने ॥8॥
जिसमें तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है व आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है।
जीव राग जिससे विमुख, बढ़ती श्रेय कमान।
बढ़े मित्रता भाव जहाँ, जिन शासन का ज्ञान ॥2.19.9.253।
जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि।
जेण मितीपभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ॥9॥।
येन रागाद्विरज्यते, येन श्रेयस्सु रज्यते।
येन मैत्री प्रभाव्येत, तज् ज्ञानं जिनशासने ॥9॥
जिससे जीव राग से विमुख होता है, श्रेय व मैत्रीभाव बढ़ता है वही जिनशासन के अनुसार सम्यग्ज्ञान है।
कर्मरहित जो आत्मा, गुण ना अन्य विशेष।
अंत मध्य आदि नहीं, जिन-शासन परिवेश ॥2.19.10.254॥
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध-पुट्ठं अण्ण-मविसेसं।
अपदेस-सुत्त-मज्झं पस्सदि जिण-सासणं सव्वं ॥10॥
यः पश्यति, आत्मान-मबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम् ।
अपदेशसूत्रमध्यं, पश्यति जिनशासनं सर्वम् ॥10॥
जो आत्मा को कर्मरहित, अन्य से रहित, विशेष से रहित तथा आदि-मध्य औरअंतविहीन देखता है वही समग्र जिनशासन को देखता है।
आत्मा को जो जानता, भिन्न है तन पहचान।
जाने तत्त्व स्वरूप को, सकल शास्त्र का ज्ञान॥2.19.11.255॥
जो अप्पाणं जाणदि असुइ सरीरादु तच्चदो भिण्ण ।
जाणग-रूव-सरूवं सो सत्थं जाणदे सव्वं ॥11॥
य आत्मानं जानाति, अशुचिशरीरात् तत्त्वतः भिन्नम् ।
ज्ञायकरूपस्वरूपं, स शास्त्रं जानाति सर्वम् ॥11॥
जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वतः अलग तथा ज्ञायक-भावरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है।
शुद्ध आत्मा जो मानता, शुद्ध आत्मा पाय ।
अशुद्ध माने आत्मा, आत्म शुद्ध नहीं जाय ॥2.19.12.256॥
सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो।
जाणंतो दु असुद्धं, असुद्ध-मेवप्पयं लहइ ॥12॥
शुद्धं तु विजानन्, शुद्धं चैवात्मानं लभते जीवः।
जानंस्त्वशुद्ध-मशुद्धमेवात्मानं लभते ॥12॥
जो जीव आत्मा को शुद्ध जानता है वही शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है। जो आत्मा को देहयुक्त जानता है वह अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है।
जो जाने अध्यात्म को, भौतिकको भी जान ।
बाहर भी जो जानता, अंदर का भी ज्ञान ॥2.19.13.257॥
जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ ।
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ ॥13॥
योऽध्यात्मं जानाति, स बहिर्जानाति।
यो बहिर्जानाति, सोऽध्यात्मं जानाति ॥13॥
जो अध्यात्म को जानता है वह बाह्य (भौतिक) को जानता है। जो भौतिक को जानता है वह अध्यात्म को जानता है।
जाने जो जन एक को, जाने सकल जहान।
जो जन सबको जानता है, उसे एक का ज्ञान ॥2.19.14.258॥
जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ ।
जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥14॥
यः एकं जानाति, स सर्वं जानाति।
यः सर्वं जानाति, स एकं जानाति ॥14॥
जो एकको जानता है वह सबको जानता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है।
लीन रहो इस ज्ञान में, संतुष्टि का भान।
जो तृप्त इस में रहे, करे परम सुख पान ॥2.19.15.259॥
एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि ।
एदेण होहि तित्तो तो होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥15॥
एतस्मिन् रतो नित्यं, सन्तुष्टो भव नित्यमेतस्मिन् ।
एतेन भव तृप्तो, भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम् ॥15॥
तू इस ज्ञान में लीन रह। इसी में सदा संतुष्ट रह। इसी से तृप्त हो। इसी से तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा ।
जो जाने अरिहंत को, द्रव्य तत्व गुण ज्ञान।
वही जानता आत्म को, मोह भंग हो मान ॥2.19.16.260॥
जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्त-गुणत्त-पज्जयत्तेहिं।
सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥16॥
यो जानात्यर्हन्तं, द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः।
स जानात्यात्मानं, मोहः खलु याति तस्य लयम् ॥16॥
जो अर्हन्त को पूर्ण रूपेण (द्रव्य-गुण-पर्याय) जानता हैवही आत्मा को जानता है। उसका मोह निश्चय ही विलीन हो जाता है।
निधि मिले जब जीव को, स्वजन संग उपभोग।
ज्ञान मिले जब जीव को, खुद करता उपयोग॥2.19.17.261॥
लद्धूणं णिहिं एक्को, तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते।
तह णाणी णाण-णिहिं भुंजेइ चइत्तु पर-तत्तिं ॥17॥
लब्ध्वा निधिमेकस्तस्य फलमनुभवति सुजनत्वेन ।
तथा ज्ञानी ज्ञाननिधिं, भुङ्क्ते त्यक्त्वा परतृप्तिम् ॥17॥
जैसे कोई व्यक्ति निधि प्राप्त होने पर उसका उपयोग स्वजनों के बीच करता है वैसे ही ज्ञानी ज्ञान-निधि का उपयोग पर-द्रव्यों से अलग होकर अपने में ही करता है।
प्रकरण 20 – सम्यक्चारित्रसूत्र
व्यवहारनय चारित्र में, तपश्चरण व्यवहार ।
निश्चयनय चारित्र्य में, निश्चय तप आचार ॥2.20.1.262॥
ववहार-णय-चरित्ते, ववहार-णयस्य होदि तवचरणं ।
णिच्छय-णय-चारित्ते, तवचरणं होदि णिच्छयदो ॥1॥
व्यवहारनयचरित्रे, व्यवहारनयस्य भवति तपश्चरणम्।
निश्चयनयचारित्रे, तपश्चरणं भवति निश्चयतः ॥1॥
व्यवहारनय के चारित्र में व्यवहारनय का तपश्चरण होता है। निश्चयनय के चारित्र में निश्चयनय का तपश्चरण होता है।
छोड़ अशुभ, शुभ में गमन, चरित्र हो व्यवहार।
व्रत, समिति, गुप्ति रूप हो, ये जिनदेव विचार ॥2.20.2.263॥
असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ।
वद-समिदि-गुत्ति-रूवं, ववहारणया दु जिणभणियं ॥2॥
अशंभाद्विनिवृत्तिः, शुभे प्रवृत्तिश्च जानीहि चारित्रम् ।
व्रतसमितिगुप्तिरूपं, व्यवहारनयात् तु ज्जिनभणितम् ॥2॥
अशुभ को छोड़ना व शुभ को अपनाना ही व्यवहारचारित्र है। जो पाँच व्रत, पाँच समिति व तीन गुप्ति के रूप में जिनदेव द्वारा बताई गई है।
मगन जीव श्रुतज्ञान में, नहीं मोक्ष हक़दार ।
तप संयम बिन योग के, खुले मुक्ति का द्वार ॥2.20.3.264॥
सुयनाणम्मि वि जीवो, वट्टंतो सो न पाउणति मोक्खं ।
जे तव संजम-मइए, जोगे न चएइ वोढं जे ॥3॥
श्रुतज्ञानेऽपि जीवो, वर्तमानःस स न प्राप्नोति मोक्षम् ।
यस्तपः संयममयान् योगान् न शक्नोति वोढुम् ॥3॥
श्रुतज्ञान जानने वाला जीव भी यदि तप-संयम को धारण करने में असमर्थ हो तो मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ।
बिना कर्म के लक्ष्य नहीं, कितना भी हो ज्ञान ।
यदि न हो अनुकूल हवा, लगे न तट जलयान ॥2.20.4.265॥
सक्किरिया-विरहादो, इच्छि-संपावयं ण नाणं ति ।
मग्गण्णू वाऽचेट्ठो, वातविहीणोऽधवा पोतो ॥4॥
सत्क्रियाविरहात् ईप्सित संप्रापकं न ज्ञानमिति।
मार्गज्ञो वाऽचेष्टो, वातविहीनोऽथवा पोतः ॥4॥
सत्क्रिया से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं करा सकता। जैसे मार्ग का जानकार व्यक्ति प्रयत्न न करे तो गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकता अथवा अनुकूल वायु के अभाव में जलयान इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता।
चरित्रहीन के हैं सभी, शास्त्र ज्ञान बेकार ।
ज्यूँ अंधे के सामने, जलते दीप हज़ार ॥2.20.5.266॥
सुबहुं पि सुय-महियं किं काहिइ चरण-विप्प-हीणस्स ।
अंधस्स जह पलित्ता, दीव-सय-सहस्स-कोडी वि ॥5॥
सुबह्वपि श्रुतमधीतं, किं करिष्यति चरणविप्रहीणस्य ।
अन्धस्य यथा प्रदीप्ता, दीपशतसहस्रकोटिरपि ॥5॥
चारित्र शून्य व्यक्ति का विपुल शास्त्र अध्ययन व्यर्थ है जैसे अन्धे के आगे करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है।
अल्प ज्ञान भी है बहुत, हो जो चरित्रवान ।
चरित्रहीन निष्फल रहे, भले अधिक हो ज्ञान ॥2.20.6.267॥
थोवह्मि सिक्खिंदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्त-संपुण्णो ।
जो पुण चरित्त-हीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण ॥6॥
स्तोके शिक्षिते जयति, बहुश्रुतं यश्चरित्रसम्पूर्णः ।
यः पुनश्चारित्रहीनः, किं तस्य श्रुतेन बहुकेन ॥6॥
चारित्र सम्पन्न का अल्प ज्ञान भी बहुत है और चारित्रविहीन का बहुत ज्ञान भी बेकार है।
आत्मा में तन्मय रहे, निश्चयनयानुसार ।
योगी चरित्रशील को, मिले मोक्ष का द्वार ॥2.20.7.268॥
णिच्छय-णयस्स एवं, अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो ।
से होदि हु सुरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥7॥
निश्चयनयस्य एवं, आत्मा आत्मनि आत्मने सुरतः ।
सः भवति खलु सुचरित्रः, योगी सः लभते निर्वाणम् ॥7॥
निश्चयनय के अनुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिये तन्मय होना ही सम्यक्चरित्र है। ऐसे चारित्रशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है।
जिसे जान योगी करे, पाप-पुण्य परिहार ।
वही चरित सम्पूर्ण है, कर्मरहित व्यवहार ॥2.20.8.269॥
जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणई पुण्ण-पावाणं ।
तं चाचरित्तं भणियं, अवियप्पं कम्म-रहिएण ॥8॥
यद् ज्ञात्वा योगी, परिहारं करोति पुण्यपापानाम् ।
तत् चारित्रं भणितम्, अविकल्पं कर्मरहितैः ॥8॥
जिसे जानकर योगी पाप व पुण्य दोनों का परिहार कर देता है, उसे ही कर्मरहित निर्विकल्प चारित्र कहा गया है।
शुभ-अशुभ परद्रव्य के, रहे राग का भाव।
भटक गया स्वचरित्र से परवश जीव स्वभाव ॥2.20.9.270॥
जो परदव्वम्मि सुहं, असुहं रागेण कुणादि जदि भावं ।
सो सग-चरिय-भट्ठो, पर-चरिय-चयो हवदि जीवो ॥9॥
यः परद्रव्येशुभमशुभं, रागेण करोति यदि भावम्।
स स्वकचरित्रभ्रष्टः, परचरितचरो भवति जीवः ॥9॥
जो राग के वशीभूत होकर पर-द्रव्यों में शुभ-अशुभ भाव रखता है वह जीव स्वकीय चारित्र से भ्रष्ट परचरिताचारी होता है।
मुक्त सभी से खुद में मस्त, आत्मा में ही भाव।
जाने देखे यह सदा, स्वकीय चरित स्वभाव ॥2.20.10.271॥
जो सव्व-संग मुक्को-णण्णमणो अप्पणं सहावेण।
जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो ॥10॥
यः सर्वसंगमुक्तः, अनन्यमनाः आत्मानं स्वभावेन ।
जानाति पश्यति नियतं, सः स्वकचरितं चरति जीवः ॥10॥
जो परिग्रह मुक्त तथा अनन्यमन होकर आत्मा को ज्ञानदर्शनमय स्वभावरूप जानता-देखता है, वह जीव स्वकीयचरिताचारी है।
परम अर्थ में थिर नहीं, तप-व्रत हो आचार।
बाल तप और बाल व्रत, यह सर्वज्ञ विचार॥2.20.11.272॥
परमट्ठम्मि दु अठिदो, जो कुणादि तवं वदं च धारयदि ।
तं सव्वं बाल-तवं बाल-वंद विंति सव्वण्हू ॥11॥
परमार्थे त्वस्थितः, यः करोति तपो व्रतं च धारयति ।
तत् सर्व बालतपो, बालव्रतंब्रुवन्ति सर्वज्ञाः ॥11॥
जो परम अर्थ में स्थित नहीं है उसके तपश्चरण या व्रताचरण को जिनदेव ने बालतप या बालव्रत कहा है।
मास मास के व्रत करे, परम शून्य अज्ञान ।
कला सोलहवीं धर्म की, कभी न सकता न जान ॥2.20.12.273॥
मोस मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु भुंजए ।
न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं ॥12॥
मासे मासे तु यो बलः, कुशाग्रेण तु भुङ्क्ते।
नस स्वाख्यातधर्मस्य, कलामर्घति षोडशीम् ॥12॥
परमअर्थ शून्य अज्ञानी मास मास के तप करके भी सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता।
सच्चा धरम चरित्र ही, समता रूप समान ।
मोह-क्षोभ से हीन यह, सम आत्मा पहचान ॥2.20.13.274॥
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जों सो समोत्ति णिद्दिट्ठो ।
मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥13॥
चारित्रं खलु धर्मो, धर्मो यः स समः इति निर्दिष्टः।
मोहक्षोभविहीनः, परिणाम आत्मनो हि समः ॥13॥
वास्तव में चारित्र ही धर्म है। इस धर्म को समतारूप कहा गया है। मोह व क्षोभ से रहित आत्मा का निर्मल परिणाम ही समतारूप है।
माध्यस्थ या पथ-समता, शुद्ध भाव, वीतराग।
धरम, चरित्र, स्वभाव कहो, सब है एक ही राग ॥2.20.14.275॥
समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं ।
तह चारित्तं धम्मो, सहावआराहणा भणिया ॥14॥
समता तथा माध्यस्थ्यं, शुद्धो भावश्च वीतरागत्वम् ।
तथा चारित्र धर्मः, स्वभावाराधना भणिता ॥14॥
समता, माध्यस्थ भाव, शुद्ध भाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्व-भाव आराधना ये सब शब्द एकार्थक हैं।
संयम तप वीतराग है, सूत्र पदार्थ ज्ञान।
सुख-दुख में सम भाव है, शुद्धोपयोगी जान ॥2.20.15.276॥
सुविदिद-पदस्थ-सुत्तो, संजम-तव-संजुदो विगदरागो ।
समणो सम-सुह-दुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ॥15॥
सुविदितपदार्थसूत्रः, संयमतपःसंयुतो विगतरागः ।
श्रमणः समसुखदुःखो, भणितः शुद्धोपयोग इति ॥15॥
जिसने तत्त्वसूत्र को भलीभांति जान लिया है, संयम और तप से युक्त है, सुख-दुख में समभाव रखता है उसी श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा जाता है।
श्रामण्य उपयोग शुद्ध, वो हीदर्शन ज्ञान।
शुद्ध का ही निर्वाण सदा, नमन सिद्धपद जान ॥2.20.16.277॥
सुद्धस्स य सामण्णं, भणियं, सुद्धस्स दंसणं णाणं।
सुद्धस्स य णिव्वाणं, सो च्चियं सिद्धो णमो तस्स ॥16॥
शुद्धस्स च श्रामण्यं, भणितं शुद्धस्य दर्शनं ज्ञानम्।
शुद्धस्य च निर्वाणं, स एव सिद्धो नमस्तस्मै ॥16॥
ऐसे शुद्धोपयोग को ही श्रामण्य कहा गया है। उसी का दर्शन और ज्ञान कहा गया है। उसी के निर्वाण होता है। वही सिद्धपद प्राप्त करता है। उसे मैं नमन करता हूँ।
अति आत्मसुख विषयरहित, अनंत अनुपम योग।
अविनाशी सुख तब मिले, सिद्ध शुद्ध उपयोग॥2.20.17.278॥
अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं।
अव्क्युच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ॥17॥
अतिशयमात्मसमुत्थं, विषयातीतमनुपममनन्तम्।
अव्युच्छिन्नं च सुखं, शुद्धोपयोगप्रसिद्धानाम् ॥17॥
शुद्धोपयोग से सिद्ध होने वाली आत्माओं को अतिशय, आत्मेत्पन्न, अतीन्द्रिय, अनुपम, अनन्त और अविनाशी सुख है।
किसी द्रव्य से मोह नहीं, राग द्वेष ना भाव।
शुभ अशुभ से बँधे नहीं, सुख-दुःख एक स्वभाव ॥2.20.18.279॥
जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु।
णाऽऽसवदि सुहं असुहं, समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥18॥
यस्य न विद्यते रागो, द्वेषो मोहो ववा सर्वद्रव्येषु।
नाऽऽस्रवति शुभमशुभं, समसुखदुःखस्य भिक्षो ॥18॥
जिसका समस्त द्रव्यों के प्रति राग, द्वेष और मोह नहीं है तथा जो सुख-दुख में समभाव रहता है, उस भिक्षु के शुभ-अशुभ कर्मों का फल (आस्रव) नहीं होता।
निश्चय साध्य स्वरूप है, साधन है व्यवहार।
क्रम से धारण जो करे, जीव प्रबुद्ध विचार ॥2.20.19.280॥
णिच्छय सज्झसरूवं सराय तस्सेव साहणं चरणं ।
तम्हा दो वि य कमसो पडिज्ज(च्छ)माणं पवुज्झेह ॥19॥
निश्चयः साध्यस्वरूपः, सरागं तस्यैव साधनं चरणम् ।
तस्मात् द्वे अपि च क्रमशः, प्रतीष्यमाणं प्रबुध्यध्वम् ॥19॥
व्यवहारचारित्र साधन है और निश्चयचारित्र साध्य है। दोनों को क्रमपूर्वक धारण करने पर जीव प्रबोध को प्राप्त होता है
अंतर्मन जब शुद्ध रहे, बाह्य कर्म निर्दोष।
अंतर में जब दोष हो, करता बाहर दोष ॥2.20.20.281॥
अब्भंतर-सोधीण, बहिरसोधी वि होदि णियमेण।
अब्भंतर-दोसेण हु, कुणदि णरो बाहिरे दोसे ॥20॥
अभ्यन्तरशुद्ध्या, बाह्यशुद्धिरपि भवतिनियमेन ।
अभ्यन्तरदोषेण हि, करोति नरः बाह्यान् दोषान् ॥20॥
अन्तर शुद्धि होने पर बाह्य शुद्धि होती ही है। आभ्यन्तर दोष से ही जीव बाह्य दोष करता है।
मान व माया लोभ मद, मिटे शुद्ध हो जान ।
जीवों को उपदेश है, सर्वज्ञ देव का ज्ञान ॥2.20.21.282॥
मद-माण-माय-च लोह विवज्ज्यि-भावो दु भाव-सुद्धि त्ति।
परिकहियं भव्वाणं, लोया-लोय-प्पदरिसीहिं ॥21॥
मदमानमायालोभ-विवर्जितभावस्तु भावशुद्धिरिति।
परिकथितं भव्यानां लोकलोकप्रदर्शिभिः ॥21॥
जिनदेव का उपदेश है कि मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है।
पाप प्रवृत्ति त्यागकर, शुभ चरित्र को पाय।
मोहादि का त्याग नहीं, आत्मशुद्धि क्यों पाय?॥2.20.22.283॥
चत उता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्मि।
ण जहदि जदि मोहादि, ण लहदि सो अप्पणं सुद्धं ॥22॥
त्यक्त्वा पापारंम्भं, समुत्थितो वा शुभे चरिते।
न जहाति यदि मोहादीन् न लभते स आत्मकं शुद्धम् ॥22॥
पाप प्रवृत्ति को त्याग कर व्यवहार चारित्र में आरुढ़ रहने पर भी यदि जीव मोह भाव से मुक्त नहीं होता है तो शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।
शुभ कर्मों से अशुभ रुके, शुद्ध से शुभम निरोध।
शुभो-शुद्ध क्रमशः करे, निज आत्मा का बोध ॥2.20.23.284॥
जह व णिरुद्धं असुहं, सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण ।
तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णियआदं ॥23॥
यथैव निरुद्धम् अशुभं, शुभेन शुभमपि तथैव शुद्धेन ।
तस्मादनेन क्रमेण च, योगी ध्यायतु निजात्मानम् ॥23॥
शुभ चारित्र से अशुभ का निरोध किया जाता है व शुद्ध चारित्र से शुभ का निरोध किया जाता है। व्यवहार और निश्चय के पूरेवापर क्रम से योगी आत्मा का ध्यान करे। ।
निश्चयनय चरित्र हनन, ज्ञान-दर्शन का घात।
व्यवहारनय चरित्र हनन, ़जरूरी नहीं यह बात ॥2.20.24.285॥
निच्छयनयस्स चरणाय-विघाए नाणदंसणवहोऽवि ।
ववहारस्स उ चरणे, हयम्मि भयणा हु सेसाणं ॥24॥
निश्चयनयस्य चरणात्म-विघाते ज्ञानदर्शनवधोऽपि ।
व्यवहारस्यतु चरणे, हते भजना खलु शेषयोः ॥24॥
निश्चयनय के अनुसार चारित्र का घात होने पर ज्ञान-दर्शन का भी घात हो जाता है। व्यवहारनय के अनुसार चारित्र का घात होने पर ज्ञान-दर्शन का घात हो भी सकता है और नही भी।
श्रद्धा मानों है नगर, तप-संवर दो द्वार।
क्षमा, त्रिगुप्ति से बने, अजय ठोस आकार ॥2.20.25.286॥
वाणी तप की धनुष बन कर्म कवच संहार।
मुनि ऐसा संग्राम करे, मुक्त हो तब संसार ॥2.20.26.287॥
सद्धं नगरं किच्चचा, तव-संवर-मग्गलं।
खन्तिं निउण-पागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥25॥
तव-नाराय-जुत्तेण, भेत्तूणं कम्म-कंचुयं।
मुणी विगय-संगामो, भवाओ परिमुच्चए ॥26॥
श्रद्धां नपगरं कृत्वा, तपःसंवरमर्गलाम्।
क्षान्तिं निपुणप्रकारं, त्रिगुप्तं दुष्प्रधर्षकम् ॥25॥
तपोनाराचयुक्तेन, भित्वा कर्मकञ्चुकम्।
मुनिर्विगततसंग्रामः, भवात् परिमुच्यते ॥26॥
श्रद्धा को नगर समझें, तप और संवर को द्वार। क्षमा को खाई समझें व त्रिगुप्ति से सुरक्षित कथा अजेय सुदृढ़ प्राकार बनाकर तपरूप वाणी से युक्त धनुष से कर्म-कवच को भेद कर संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है।
प्रकरण 21 – साधनासूत्र
जिनवर का आदेश है, कर इन्द्रियां अधीन ।
गुरु से पाकर ज्ञान, फिर हो आत्मा में लीन ॥2.21.1.288॥
आहारसण-णिद्दा-जयं, च काऊण जिणवर-मएण ।
झायव्वो णियअप्पा, णाऊण गुरु-पसाएण ॥1॥
आहारासन-निद्राजयं, च कृत्वा जिनवरमतेन।
ध्यातव्यः निजात्मा, ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ॥1॥
जिनदेव के अनुसार आहार, आसन व निद्रा पर विजय प्राप्त कर, गुरु से ज्ञान प्राप्त कर, निज आत्मा का ध्यान करना चाहिये।
सर्व प्रकाशित ज्ञान से, अज्ञान मोह संहार।
क्षय हो राग-द्वेष का, खुले मोक्ष का द्वार ॥2.21.2.289॥
नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अण्णा-णमोहस्स विवज्जणाए ।
रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं-समुवेइ मोक्खं ॥2॥
ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया, अज्ञानमोहस्य विवर्जनया।
रागस्य द्वेषस्य च संक्षयेण, एकान्तसौख्यं समुपैति मोक्षम् ॥2॥
ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया, अज्ञानमोहस्य विवर्जनया।
रागस्य द्वेषस्य च संक्षयेण, एकान्तसौख्यं समुपैति मोक्षम् ॥2॥
सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार से तथा राग द्वेष के क्षय से जीव मोक्ष को प्राप्त करता है।
मारग है गुरु की सेवा, अज्ञानी से असंग ।
स्वाध्याय सूत्रसुचिंतन, धीरज और निस्संग ॥2.21.3.290॥
तस्सेस मग्गो गुरु-विद्ध-सेवा, विवजणा बालजणस्स दूरा ।
सज्झाय-एगन्तनिवेसणा च, सुत्तत्थ संचिंतणया धिई य ॥3॥
तस्यैष मार्गो गुरुवृद्धसेवा, विवर्जना बालजनस्य दूरात् ।
स्वाध्यायैकान्तनिवेशना च, सूत्रार्थसंचिन्तनता धृतिश्च॥3॥
गुरु तथा वृद्ध की सेवा, अज्ञानी से दूर, स्वाध्याय करना, एकान्तवास करना, सूत्र और अर्थ का सम्यक् चिंतन करना तथा धैर्य रखना, ये दुखों से मुक्ति के उपाय है। ।
सात्विक कम भोजन करे, करे समाधी ध्यान ।
तत्व अर्थ साथी निपुण, हो एकांत विधान ॥2.21.4.291॥
आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं, सहायमिच्छे निउणत्थ बुद्धिं ।
निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥4॥
आहारमिच्छेद् मितमेषणीयं, सखायमिच्छेद् निपुणार्थबुद्धिम्।
निकेतमिच्छेद् विवेकयोग्यं, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी ॥4॥
समाधि का अभिलाषी तपस्वी सीमित आहार, तत्त्वार्थ में निपुण साथी का साथ और एकान्त में वास करे।
जो नर अनुशासित रहे, मितहित अल्पाहार ।
वैद्य चिकित्सा लगे नहीं, अंतस शुद्ध विचार ॥2.21.5.292॥
हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा ।
न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणंते तिगिच्छगा ॥5॥
हिताहारा मिताहारा, अल्पाहाराः च ये नराः ।
न तान् वैद्याः चिकित्सन्ति आत्मानं ते चिकित्सकाः ॥5॥
जो मनुष्य मित व हितकारी आहार करते हैं उन्हें वैद्य की आवश्यकता नही पड़ती है। वे स्वयं चिकित्सक होते है और अन्तर्शुद्धि में लगे रहते हैं।
रस सेवन ज्यादा नहीं, रस करते उन्मत्त ।
काम पीड़ित करे ज्यूँ, पक्षी करे दरख्त ॥2.21.6.293॥
रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणां ।
दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥6॥
रसा प्रकामं न निषेवितव्याः, प्रायो रसा दीप्तिकरा नराणाम् ।
दीप्तं च कामाः समभिद्रवन्ति, द्रुमं यथा स्वादुफलमिव पक्षिणः ॥6॥
रसों का अधिक सेवन न करे। रस प्रायः उन्मादवर्धक होते है। विषय में लीन व्यक्ति को काम वैसे ही सताता है जैसे फलों से लदे वृक्ष को पक्षी।
शय्यासन या भोज रहेे, इंद्रिय दमन सम्भोग ।
राग द्वेष ना चित्त डसेे, दवा हरे ज्यूँ रोग ॥2.21.7.294॥
विवित्तसेज्जासणजन्तियाणं, ओसमासणाणं दमिइन्दियाणं ।
न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइ ओ वाहिरिवोसहेंहिं ॥7॥
विविक्तशय्याऽसनयन्त्रितानाम्, अवमोऽशनानां दमितेन्द्रियाणाम् ।
न रागशत्रुर्धर्षयति चित्तं, पराजितो व्याधिरिवौषधैः ॥7॥
जो ब्रह्मचारी है, अल्प आहारी है, इन्द्रियों का दमन किया है उसके चित्त को राग-द्वेष रूपी विकार नही सताते जैसे औषधि से पराजित रोग पुनः नही सताता।
उम्र जब तक हो नहीं, बढ़ा नहीं है रोग ।
तन है सक्षम हर तरह, करे धर्म से योग ॥2.21.8.295॥
जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्ढई।
जविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥8॥
जरा यावत् न पीडयति, व्याधिः यावत् न वर्द्धते ।
यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावत् धर्म समाचरेत् ॥8॥
जब तक बुढ़ापा और रोग नही सता रहे, धर्माचरण कर लेना चाहिये। अशक्त और असमर्थ इन्द्रियों से धर्माचरण नही हो सकेगा।
प्रकरण 22 – द्विविध धर्म सूत्र
देव जिनेन्द्र दो पथ कहे, जनम चक्र संहार ।
उत्तम दोनों पथ दिखे, साधु-श्रावक पार ॥2.22.1.296॥
दो चेव जिणवरेहिं, जाइजरामरणविप्पमुक्केहिं ।
लोगम्मि पहा भणिया, सुस्समण सुसावगो वा चि ॥1॥
द्वौ चैव जिनवरेन्द्रैः, जातिजरामरणविप्रमुक्तैः।
लोके पथौ भणितौ, सुश्रमणः सुश्रावकः चापि ॥1॥
जन्म-जरा-मरण से मुक्त जिनेन्द्रदेव ने इस लोक में दो ही मार्ग बताये हैं- एक है उत्तम श्रमणों का और दूसरा उत्तम श्रावकों का।
श्रावक पूजन दान-धरम, श्रावक ना बन पाय।
ध्यान अध्ययन धर्म प्रमुख, श्रमण यही उपाय ॥2.22.2.297॥
दाणं पूजा मुक्खं, सावय-धम्मे ण सावया तेण विणा ।
झाण-ज्झयणं मुक्खं, जइधम्मे तं विणा तहा सो वि ॥2॥
दानं पूजा मुख्यः, श्रावकधर्मे न श्रावकाः तेन विना।
ध्यानाध्ययनं मुख्यो, यतिधर्मे तं विना तथा सोऽपि ॥2॥
श्रावक धर्म में दान और पूजा मुख्य है। और श्रमण धर्म में ध्यान व अध्ययन मुख्य है।
भिक्षु श्रेष्ठ श्रावक से, संयम का आलाप ।
पर कुछ श्रावक है उत्तम, संयम का परताप ॥2.22.3.298॥
सन्ति गेहिं भिक्खूहिं, गारत्था संजमुत्तरा ।
गारत्थेंहिं य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ॥3॥
सन्त्येकेभ्यो भिक्षुभ्यः, अगारस्थाः संयमोत्तराः ।
अगारस्थेभ्यश्च सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः॥3॥
शुद्ध आचारी साधु श्रावक से श्रेष्ठ होते है पर शिथिलाचारी साधु से संयमी श्रावक श्रेष्ठ होते है। ।
मुण्डित साधु न बन सकँू, कठिन धर्म अनगार ।
उत्तम द्वादशविध करूँ, श्रावक धर्म स्वीकार ॥2.22.4.299॥
नो खलु अहं तहा, संजाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए।
अहं णं देवाणुप्पियाणं, अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइय।
दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामि ॥4॥
नो खल्वहं तथा संशक्नोमि मुण्डो यावत् प्रव्रजितुम्।
अहं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तिके पञ्चानुव्रतिकम् सप्तशिक्षा-
व्रतिकं द्वादशविधम् गृहिधर्म प्रतिपत्स्ये ॥4॥
जो व्यक्ति मुण्डित होकर अनगारधर्म स्वीकार करने में असमर्थ होता है वह जिनदेव अनुसार पाँच अणुव्रत व सात शिक्षाव्रत के साथ श्रावक धर्म स्वीकार कर ले।
अणुव्रत पालन पाँच कर, शिक्षाव्रत सह सात ।
कुछ या सब कुछ मान ले, श्रावक धर्म कहात ॥2.22.5.300॥
पंच य अणुव्वदाइं, सत्तयं-सिक्खाउ-देस-जदि-धम्मो ।
सव्वेण व देसेण व तेण जुदो होदि देसजदी ॥5॥
पञ्च च अणुव्रतानि, सप्त तु शिक्षा देशयतिधर्मः ।
सर्वेण वा देशेन वा, तेन युतो भवति देशयतिः ॥5॥
श्रावक आचार में पाँच व्रत व सात शिक्षाव्रत होते हैं। जो व्यक्ति इन सबका या इनमें से कुछ का पालन करता है वो श्रावक कहलाता है।
प्रकरण 23 – श्रावकधर्म सूत्र
सम्यक दृष्टि से प्रति दिन, संगत साधु काम ।
श्रवण करे उपदेश का, श्रावक उसका नाम ॥2.23.1.301॥
संपत्त-दंसणाई, पइदियहं जइजणा सुणेई य ।
सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं बिंति ॥1॥
संप्राप्तदर्शनादिः, प्रतिदिवसं यतिजनाच्छृणोति च।
सामाचारीं परमां यः, खलु तं श्रावकं ब्रुवते ॥1॥
जो सम्यकदृष्टि व्यक्ति प्रतिदिन मुनिजनों से आचार-विषयक उपदेश सुनता है उसे श्रावक कहते हैं।
पाँच उदुम्बर सात व्यसन करता है जो त्याग।
सम्यक-बुद्धि उसकी शुद्ध ‘दर्शन-श्रावक’ जाग ॥2.23.2.302॥
पंचुंबर-सहियाइं, सत्त वि विसणाइं जो विवज्जेइ ।
सम्मत्त-विसुद्ध-मई, सो दंसण-सावओ भणिओ ॥2॥
पञ्चोदुम्बरसहितानि सप्त अपि व्यसनानि यः विवर्जयति।
सम्यक्त्वविशुद्धमतिः स दर्शनश्रावकः भणितः ॥2॥
पाँच उदुम्बर फल (उमर, कठूमर, गूलर, पीपल तथा बड़) और सात व्यसनों का त्याग करने वाला व्यक्ति “दार्शनिक श्रावक” कहा जाता है जिसकी बुद्धि सम्यक् दर्शन से विशुद्ध हो गई है। धर्म में दान और पूजा मुख्य है। और श्रमण धर्म में ध्यान व अध्ययन मुख्य है।
परस्त्री, जुआ, मदिरालय, कटुवचन या शिकार ।
कड़ा दण्ड परधनहरण, व्यसन सात विचार ॥2.23.3.303॥
इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य ।
दंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाइं ॥3॥
स्त्री द्यूतं मद्यं, मृगया वचे तथा परुषता च।
दण्डपरुषत्वम् अर्थस्य दूषणं सप्त व्यसनानि॥3॥
परस्त्री सहवास, जुआ, मदिरापान, शिकार करना, कटुवचन बोलना, कड़ा दण्ड देना और अर्थ दूषण (चोरी) करना ये सात व्यसन है। ।
दर्प मांसाहार से, चाहे दर्प शराब ।
जुए की जो लत लगती, मानव बने ख़राब ॥2.23.4.304॥
मांसा-सणेण वड्ढइ, दप्पो दप्पेण मज्ज-महिलसइ।
जूयं पि रमइ तो तं, पि वण्णिए पाउण्ह दोसे ॥4॥
मांसाशनेन वर्धते दर्पः दर्पेण मद्यम् अभिलषति।
द्यूतम अपि रमते ततः तद् अपि वणिर्र्तात् प्राप्नोति दोषान् ॥4॥
मांसाहार से अहंकार बढ़ता है, अहंकार से मद्यपान की अभिलाषा जागती है। और तब वह जुआ भी खेलती है इस प्रकार मनुष्य सब दोषों का घर बन जाता है।
कहता लौकिक शास्त्र यही, पांडित्य का नाश ।
पतित मांस सेवन करे, खाएं ना हम काश ॥2.23.5.305॥
लोय-सत्थम्मि वि, वण्णियं जहा गयण-गामिणो विप्पा ।
भुवि मंसा-सणेण पडिया, तमहा ण पउंजए मंसं ॥5॥
लौकिकशास्त्रे अपि वर्णितम् यथा गगनगामिनः विप्राः ।
भुवि मांसाशनेन पतिताः तस्माद् न प्रयोजयेद् मांसम् ॥5॥
लौकिक शास्त्र में भी यह उल्लेख मिलता है कि माँसाहारी पंडित जो कि आकाश में विचरण करता था वो गिर कर पतित हो गया। अतएव माँस का सेवन नही करना चाहिये।
मद्यपान जो जन करे, करता खोटे काम ।
लोक और परलोक में, सकल दुखों का धाम॥2.23.6.306॥
मज्जेण णरो अवसो, कुणेइ कम्माणि णिंद-णिज्जाइं ।
इहलोए-परलोए, अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ॥6॥
मद्येन नरः अवशः करोति कर्माणि निन्दनीयानि ।
इहलोके परलोके अनुभवति अनन्तकं दुःखम् ॥6॥
मदिरापान से मदहोश होकर मनुष्य निन्दनीय कर्म करता है और फलस्वरूप इस लोक तथा परलोक में अनन्त दुखों का अनुभव करता है।
जग त्याग मन भाव रहे, हो मज़बूत विचार ।
दृढ़ जिनभक्ति मन बसे, हो भय बिनु संसार ॥2.23.7.307॥
संवेग-जणिय-करणा, णिस्सल्ला मंदरुव्व णिक्कंपा ।
जस्स दढा जिणभत्ती तस्स भयं णत्थि संसारे ॥7॥
संवेगजनितकरणा, निःशल्या मन्दर इव निष्कम्पा ।
यस्य दृढा जिनभक्तिः, तस्य भयं नास्ति संसारे ॥7॥
जिसके मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने वाली मेरुपर्वत की तरह दृढ़ जिनभक्ति है उसे संसार में किसी तरह का भय नही।
विनयशील जब व्यक्ति हो, शत्रु मित्र बन जाय ।
अणुव्रत श्रावक विनय रहे, मन वचन और काय ॥2.23.8.308॥
सत्तू वि मित्तभावं, जम्हा उवयाइ विणय-सोलस्स।
विणओ तिविहेण तओ, कायव्वो देस-विरएण ॥8॥
शत्रुः अपि मित्रभावम् यस्माद् उपयाति विनशीलस्य ।
विनयः त्रिविधेन ततः कर्तव्यः देशविरतेन ॥8॥
विनयशील व्यक्ति का शत्रु भी मित्र बन जाता है। इसलिये अणुव्रती श्रावक को मन-वचन-काय से सम्यक्तवादी गुणों की तथा गुणीजनों की विनय करना चाहिये।
हिंसा चोरी झूठ हो, या पर-स्त्री से काम।
विरक्त परिग्रह से रहे, अणुव्रत श्रावक नाम ॥2.23.9.309॥
पाणिवहमुसावाए, अदत्तपरदारनियमणेहिं च।
अपरिमिच्छाओऽवि, अणुव्वयाइं विरमणाइं ॥9॥
प्राणिवधमृषावादा-दत्तपरदारनियमनैश्च।
अपरिमितेच्छातोऽपि च, अणुव्रतानि विरमणानि ॥9॥
हिंसा, असत्य वचन, चोरी, परस्त्री गमन तथा असीमित कामना (परिग्रह) इन पाँचो पापों से विरति अणुव्रत है।
आश्रित चाकरपशु का, बंधन वद्य, अंगभंग॥
अतिभार अन्न निषेध ये, कलुषित मन का संग ॥2.23.10.310॥
बंध-वह-च्छवि-च्छेए, अइमारे भत्त-पाण-वुच्छेए।
कोहाइ-दूसिय-मणो, गो-मणुयाईण नो कुज्जा ॥10॥
बन्धवधछविच्छेदान् अतिभारान् भक्तपानव्युच्छेदान्।
क्रोधादिदूषितमनाः, गोमनुष्यादीनां न कुर्यात् ॥10॥
हिंसा से विरक्त श्रावक को क्रोध आदि कषाय से मन को दूषित करके पशु व मनुष्य आदि का बंधन, ताड़न, पीड़न, छेदन, अधिक भार लादना, खान-पान आदि रोकने का कर्म नही करना चाहिये क्योंकि यह हिंसा ही है। इनका त्याग स्थूल हिंसा विरति है।
दूजा व्रत असत्यविरति, पंचविध इसकी राह।
(न्यासहर) कन्या गौभू, विषयक झूठ गवाह॥2.23.11.311॥
थूल-मुसावायस्स उ विरई, दुच्चं स पंचहा होइ ।
क्न्न्-गो-भु-आलिय-नासहरण, कूडसक्खिज्जे ॥11॥
स्थूलमृषावादस्य तु, विरतिः द्वितीयं स पंचधा भवति ।
कन्यागोभूअलीक-न्यासहरण-कूटसाक्ष्याणि ॥11॥
असत्य से विरक्ति दूसरा अणुव्रत है। इसके भी पाँच भेद है। कन्या, पशु तथा भूमि के लिये झूठ बोलना, किसी की धरोहर को दबा लेना और झूठी गवाही देना। इनका त्याग स्थूल असत्य विरति है।
बात बिना सोचे नहीं, नहीं रहस्य बताय ।
मिथ्या प्रवचन करे नहीं, छद्म न लेख लिखाय ॥2.23.12.312॥
सहसा अब्भक्खाणं रहसा य सदारमंतभेय च ।
मोसोवएसयं कूडलेहकरणं च वज्जिज्जा ॥12॥
सहसाभ्याख्यानं, रहसा च स्वदारमन्त्रभेदं च।
मृषोपदेशं कूटलेखकरणं च वर्जयेत् ॥12॥
सत्य-अणुव्रती बिना सोचे समझे न कोई बात करता है न किसी का राज उगलता है। न अपनी पत्नी की बात मित्रों को बताता है और नही मिथ्या उपदेश देता है और नही जाली हस्ताक्षर करता है।
साथ न चोरों, का करे, गैर राज-आचार ।
कूट तोल, खोटा नहीं, जाली ना व्यवहार ॥2.23.13.313॥
वज्जिज्जा तेनाहड-तक्करजोगं विरुद्धरज्जं च ।
कूडतुल-कूडमाणं, तप्पडिरूवं च ववहारं ॥13॥
वर्जयेत् स्तेनाहृतं, तस्करयोगं विरुद्धराज्यं च।
कूट तुलाकूट माने तन्प्रतिरूपं च व्यवहारम् ॥13॥
अचौर्य अणुव्रती चोरी का माल न ख़रीदे और न ही प्रेरक बने। टैक्स आदि की चोरी न करे और मिलावट न करे। जाली करेंसी न चलाये।
पर-नारी से दूर रहे, अनंगक्रीडा त्याग।
पर विवाह में रुचि नहीं, नहीं काम से राग ॥2.23.14.314॥
इत्तरिय-परिग्गहिया-परिगहियागमण णंगकीडं च ।
परविवाहक्करणं कामे, तिव्वाभिलासं च ॥14॥
इत्वरपरिगृहीता-ऽपरिगृहीतागमना-नङ्गक्रीडा च ।
पर (द्वितीय) विवहकरणं, कामे तीव्राभिलाषःच ॥14॥
ब्रह्मचर्य अणुव्रती को परायी स्त्रियों से सदा दूर रहना चाहिये। अनंग क्रीड़ा नही करनी चाहिये। अपनी संतान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह कराने में रुचि नही लेनी चाहिये। काम की तीव्र लालसा का त्याग करना चाहये।
परिग्रह की सीमा करे, तृष्णा का यह बीज।
कारण भारी दोष का, देत नरक गति चीज़ ॥2.23.15.315॥
धातु खेत, घर, धन रहे, पशु वाहन भण्डार।
सम्यक श्रावक मन निर्मल, हद बाँधे व्यवहार ॥2.23.16.316॥
विरयापरिग्गहाओ, अपरिमिआओअ गंततण्हाओ ।
बहुदोससंकुलाओ, नरयगइगमणपंथाओ ॥15॥
खित्ताइ-हिरन्नइ-धणाइ-दुपयाइ-कुवियगस्स तहा ।
सम्मं विसुद्ध-चित्तो न परमाणाइक्कामं कुज्जा ॥16॥
विरताः परिग्रहात्-अपरिमिताद्-अनन्ततृष्णात्।
बहुदोषसंकुलात्, नरकगतिगमनपथात् ॥15॥
क्षेत्रादेः हिरण्यादेः धनादेः द्विपदादेः कुप्यकस्य तथा ।
सम्यग्विशुद्धचित्तो, न प्रमाणातिक्रमं कुर्यात् ॥16॥
असीमित परिग्रह अनन्त तृष्णा का कारण है। नरकगति का मार्ग है। अतः परिग्रह-परिमाणाणुव्रती श्रावक को क्षेत्र, मकान, सोना-चाँदी, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद आदि का एक सीमा से ़ज़्यादा परिग्रह नही करना चाहये।
सदा भाव संतोष रहे, सीमा में सामान।
पुनःग्रहण का भाव नहीं, अपरिग्रह का भान॥2.23.17.317॥
भाविज्ज य संतोसं, गहिय-मियाणिं अजाणमाणेणं ।
थोवं पुणो न एवं, गिह्ल्स्सिामो त्ति (न) चिंतज्जा ॥17॥
भावयेच्च सन्तोषं, गृहीतमिदानीमजानानेन।
स्तोकंपुनः न एवं, ग्रहीष्याम इति चिन्तयेत् ॥17॥
उसे संतोष रखना चाहिये। उसे ऐसा विचार नहीं करना चाहिये कि अभी तो सीमा में परिग्रह करता हूँ बाद में अधिक ग्रहण कर लूँगा।
दिशा गमन सीमित रहे, व्यर्थ-दंड का त्याग ।
सीमित गमन विदेश भी, त्रय गुणव्रत हो राग ॥2.23.18.318॥
जं च दिसावेरमणं, अणत्थदंडेंहिं जं च वेरमणं।
देसावगासियंपि य, गुणव्वयाइं भवे ताइं ॥18॥
यच्च दिग्विरमणं, अनर्थदण्डात् यच्च विरमणम् ।
देशावकाशिकमपि च, गुणव्रतानि भवेयुस्तानि ॥18॥
श्रावक के सात शील व्रतों में ये तीन गुणव्रत होते हैं। दिशाविरति, अनर्थदण्डविरति तथा देशावकाशिक।
दिशाओं का परिसीमन, पहली सीमा जान।
गुणव्रत ये है सर्व प्रथम, श्रावक धर्म निशान ॥2.23.19.319॥
उड्ढमहे तिरियं पि य दिससासु परिमाण-करण-मिह पढमं ।
भणियं गुणव्वयं खलु, सावगणम्मम्मि वीरेण ॥19॥
ऊर्ध्वमधस्तिर्यगपि च, दिक्षु परिमाणकरणमिह प्रथमम् ।
भणितं गुणव्रतं खलु, श्रावकधर्मे वीरेण ॥19॥
व्यापार आदि के क्षेत्र की सीमा करते हुए ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशाओं में गमनागमन की सीमा बाँधना प्रथम दिग्व्रत नामक गुणव्रत है।
कारण जो व्रत भंग बने, देश नहीं प्रस्थान।
देश अवकाश व्रत यही, दूजा गुणव्रत जान ॥2.23.20.320॥
वय-भंग-कारणं होइ, जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण।
क्ीरइ गमण-णियत्ती, तं जाण गुणव्वंय विदियं ॥20॥
व्रतभङ्गकारणं भवति, यस्मिन् देशे तत्र नियमेन।
क्रियते गमननिवृत्तिः, तद् जानीहि गुणव्रतं द्वितीयम् ॥20॥
जिस देश में जाने से किसी भी व्रत का भंग होता हो या उसमे दोष लगता हो, उस देश में जाने की नियमपूर्वक निवृत्ति देशावकाशिक नामक दूसरा गुणव्रत है।
कष्ट अकारण दे नहीं, अनर्थ दण्ड है चार।
सोच बुरी प्रमाद चर्या, शस्त्र ये पाप प्रचार ॥2.23.21.321॥
विरई अणत्थदंडे, तच्चं स चउव्विहो अवज्झाणो।
पमायायरिय हिंसप्पयाण, पावोवएसे य ॥21॥
विरतिरनर्थदण्डे, तृतीयं, स चतुर्विधः अपध्यानम् ।
प्रमादाचरितम् हिंसाप्रदानम् पापोपदेशश्च ॥21॥
बिना किसी उद्देश्य से कार्य करना व किसी को सताना अनर्थ दण्ड कहलाता है। इसके चार भेद है। अपध्यान, प्रमादपूर्ण चर्या, हिंसा के उपकरण देना और पाप का उपदेश। इन चारों का त्याग अनर्थदण्डविरति नामक तीसरा गुणव्रत है।
अर्थ कर्म हो बंधन कम, कर्म निरर्थक पाप।
काल आदि से लक्ष्य मिले, बिना प्रयोजन ताप ॥2.23.22.322॥
अट्ठेण तं न बंधइ, जमणट्ठेणं तु थेव-बुहभावा।
अट्ठे कालाईया नियागमा न उ अणट्ठाए ॥22॥
अर्थेन तत्नबध्वाति, यदनर्थेन स्तोकबहुभावात्।
अर्थे कालादिकाः, नियामकाः न त्वनर्थके ॥22॥
प्रयोजनवश कार्य में अल्प कर्म बंध होता है और बिना प्रयोजन कार्य में अधिक कर्म बंधन होता है।
अशिष्टवचन कुचेष्टा, शस्त्रग्रह ना राज्य।
भोगादि सीमन में अति,यहाँ सर्वथा त्याज्य ॥2.23.23.323॥
कंदप्पं कुक्कुइयं मोहरियं संजुयाहि गरणं च।
उवभोग-परीभोगा-इरेयगयं चित्थ वज्जइ ॥23॥
कान्दर्प्यम् कौत्कुच्यं, मौखर्यं संयुक्ताधिकरणं च ।
उपभोगपरिभोगा-तिरेकगतं चात्र वर्जयेत्॥23॥
अनर्थदण्डविरत श्रावक को अशिष्ट वचन, शारीरिक कुचेष्टा, व्यर्थ बकवास, हिंसा के अधिकरणों का संयोजन तथा उपभोग की मर्यादा का अतिरेक नही करना चाहिये।
भोग-सीमा,सामायिक अतिथि सेवा विचार।
प्रबोध का उपवास कर, शिक्षाव्रत ये चार ॥2.23.24.324॥
भोगणं परिसंखा, सामाइय-मतिहि संविभागो य ।
पेसहविहि य सव्वो चदुरो सिक्खाउ वुत्ताओ ॥24॥
भोगानां परिसंख्या, सामायिकम् अतिथिसंविभागश्च ।
पौषधविधिश्च सर्वः, चतस्रः शिक्षा उक्ताः ॥24॥
चार शिक्षाव्रत इस प्रकार है। भोगों का परिमाण, सामायिक, अतिथि संविभाग और प्रोषधोपवास।
माँस उदुम्बरू वनस्पति, परिमाण आहार।
हिंसा से अर्जन नहीं, परिमाण व्यापार ॥2.23.25.325॥
वज्जणमणंगुंबरि, अच्चंगाणं च भोगओ माणं।
कम्मयओ खरकम्मा-इयाण अवरं इमं भणियं ॥25॥
वर्जनमनन्तकमुदम्बरि-अत्यङ्गानां च भोगतो मानम्।
कर्मकतः खरकर्मादिानां अपरम् इदं भणितम् ॥25॥
भोगोपभोग परिमाण व्रत दो प्रकार का है। भोजनरूप और व्यापाररूप। वनस्पति, फल, मद्य, माँस आदि का त्याग भोजनरूप परिमाण व्रत है और आजीविका में हिंसा का त्याग व्यापाररूप परिमाण व्रत है।
पापों से रक्षा हेतु, सामायिक है प्रशस्त।
आत्महित हेतु यही सुधी गृही को रास्त॥2.23.26.326॥
सावज्जजोगं परिरक्खणट्ठा, सामाइयं केवलियं पसत्थं।
गिहत्थ-धम्मा परमं ति नच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्था ॥26॥
सावद्ययोगपरिरक्षणार्थं, सामायिकं केवलिकं प्रशस्तम् ।
गृहस्थधर्मात् परममिति ज्ञात्वा, कुर्याद्बुध आत्महितं परत्र ॥26॥
हिंसा आरम्भ से बचने के लिये सामायिक व्रत उत्तम है। विद्वान श्रावक को आत्महित तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये सामायिक करनी चाहिये।
सामायिक के समय मे, श्रमण संत आचार।
श्रावक सामायिक रहे, इसलिये हर बार॥2.23.27.327॥
सामाइयम्मि उ कए,द समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥27॥
सामायिके तु कृते, श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात् ।
एतेन कारणेन, बहुशः सामायिक कुर्यात् ॥27॥
सामायिक काल में श्रावक भी श्रमण की तरह हो जाता है इसलिये श्रावक को नियमपूर्वक सामायिक करनी चाहिये ।
परचिन्ता सामायिक में, श्रावक मनोविचार।
ध्यान बाहर में रहे, नहीं सामायिक तार ॥2.23.28.328॥
सामाइयं ति काउं, परचिंतं जो ए चिंतइ सड्ढो ।
अट्टवसट्टोवगओ, निरत्थयं तस्स सामाइयं ॥28॥
सामायिकमिति कृत्वा, परचिन्तां यस्तु चिन्तयति ।
आर्तवशार्तोपगतः, निरर्थक तस्य सामायिकम् ॥28॥
सामायिक करते समय जो श्रावक पर-चिन्ता करता है उसकी सामायिक निर्रथक है।
अन्न दैहिक ब्रह्म -नहीं, कर्म त्याग व्रत चार।
सामायिक हो नियम से, प्रोषध पूर्ण विचार ॥2.23.29.329॥
आहार देहसक्कार-बंभाऽवावारपोसहो य णं।
देसे सव्वे य इमं, चरमे सामइयं णियमा ॥29॥
आहारदेहसत्कार-ब्रह्मचर्यमव्यापारोषधः च।
देशेसर्वस्मिन्च इदं’ चरमे सामायिकं नियमात् ॥29॥
आहार, शरीर संस्कार, अब्रह्म तथा आरम्भ त्याग ये चार बातें प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत में आती है। जो सम्पूर्ण प्रोषध करता है उसे नियमितः सामायिक करनी चाहिये।
अन्न दान हो शुद्ध रूप से, देश काल अनुसार।
दान यही समझे उचित, गृहस्थ शिक्षा सार ॥2.23.30.330॥
अन्नइणं सुद्धाणं, कप्पणिज्जाण देसकालजुत्तं।
दाणं जईणमुचियं, गिहीण सिक्खावयं भणियं ॥30॥
अन्नादीनां शुद्धानां,कल्पनीयानां देशकालयुतम् ।
दानं यतिभ्यः उचितं, गृहिणां शिक्षाव्रतं भणितम् ॥30॥
उद्गम आदि दोषों से रहित, देश व काल के अनुकूल, शुद्ध अन्न आदि का उचित रीति से मुनि आदि संयमियों को दान देना गृहस्थ का अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है।
अन्न व औषध, शास्त्र, अभय, दान चार प्रकार।
देने योग्य दान ये, श्रावक के आचार॥2.23.31.331॥
आहारो-सह-सत्था-भय-भेओ जं चउव्विहं दाणं ।
तं वुच्चइ दयव्वं, णिद्दिट्ठ-मुवासय-ज्झयणे ॥31॥
अहारौषध-शास्त्रानुभयभेदात् यत् चतुर्विधम् दानम् ।
तद् उच्यते दातव्यं निर्दिष्टम् उपासक-अध्ययने ॥31॥
श्रावक के आचार में देने योग्य चार प्रकार के दान कहे गये है। आहार, औषध, शास्त्र व अभय ।
भोजन दान से धन्य हो, भव सागर हो पार।
पात्र उचित या हो नहीं, करना नहीं विचार ॥2.23.32.332॥
दाणंभोयणमेत्तं दिण्णइ धण्णो हवेइ सायारो।
पत्तापत्त-विसेसं संदंसणे किं वियारेण ॥32॥
दान भोजनमात्रं, दीयते धन्यो भवति सागारः।
पात्रापात्रविशेषसंदर्शने किं विचारेण ॥32॥
भोजनमात्र का दान करने से भी गृहस्थ धन्य होता है। इसमें पात्र और अपात्र का विचार करने से क्या लाभ।
साधु के अनुकूल जहाँ, ना थोड़ा भी दान।
धीर त्यागी श्रावक का, नहीं भोज का स्थान ॥2.23.33.333॥
साहूणं कप्पणिज्जं, जं न वि दिण्णं कहिं पि कंचि तहिं।
धीरा जहुत्तकारी, सुसावया तं न भुंजंति ॥33॥
साधूनां कल्पनीयं, यद् नापि दत्तं कुत्रापि किंचित् तत्र।
धीराः यथोक्तकारिणः, सुश्रावकाः तद् न भुञ्जते ॥33॥
जिस घर में साधुओं के अनुकूल दान नही दिया जाता, उस घर में शास्त्रोक्त आचरण करने वाले त्यागी श्रावक भोजन नही करते।
मुनि पश्चात भोजन करे, पाये सुख संसार।
जिनदेव कहे क्रमशः, हो भव सागर पार ॥2.23.34.334॥
जो मुनि-भुत्त-वसेसं, भुंजइ सो भुंजइ जिणुवदिट्ठ।
स्ंसार-सार-सोक्खं, कमसो णिव्वाण-वर-सोक्खं ॥34॥
यो मुनिभुक्तविशेषं, भुङ्क्ते स भुङ्क्ते जिनोपदिष्टम् ।
संसारसारसौख्यं, क्रमशो निर्वाणवरसौख्यम् ॥34॥
जो गृहस्थ मुनि को भोजन कराने के पश्चात भोजन करता है, वास्तव में उसी का भोजन करना सार्थक है। वह मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है।
भय से जीव की रक्षा, होय अभय का दान।
अभय दान श्रेष्ठ है, सब दान में महान॥2.23.35.335॥
जं कीरइ परि-रक्खा, णिच्चं मरण-भय-भीरु-जीवाणं ।
तं जाण अभय-दाणं, सिंहामणिं सव्व-दाणाणं ॥35॥
यत् क्रियते परिरक्षा, नित्यं मरणभयभरुजीवानाम् ।
तद् जानीहि अभयदानम्, शिखामणि सर्वदानानाम् ॥27॥
मृत्यु भय से जीवों की रक्षा करना अभय दान है। यह दान सब दानों का शिरोमणि है।