९. धर्मसूत्र
धम्मो मंगल–मुक्किट्ठं, अहिंसा संजमो तवो ।
देवा वि तं नमंसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥1॥
धर्मः मङ्गलमुत्कृष्टं, अहिंसा संयमः तपः।
देवाः अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः॥1॥
उत्तम मंगल धर्म है, दया नियम तप भाव ।
नमन देवता भी करे, जिसपे धर्म प्रभाव ॥1.9.1.82॥
धर्म उत्तम मंगल है। अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण है। जिसका मन हमेशा धर्म में लगा रहता है उसे देवता भी नमन करते है।
Dharma is supremely auspicious; non-violence, self control and penance are its essentials. Even the gods bow down before him whose mind is ever eoccupied with Dharma. (82)
****************************************
धम्मो वत्थु–सहावो, खमादि–भावो य दस–विहो धम्मो।
रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥2॥
धर्मः वस्तुस्वभावः,क्षमादिभावःच दशविधः धर्मः ।
रत्नत्रयंच धर्मः, जीवानां रक्षणं धर्मः ॥2॥
वस्तु स्वभाव ही धर्म है, क्षमा सहित दश–भाव ।
तीन रतन भी धर्म ही, धर्म अहिंसा भाव ॥1.9.2.83॥
वस्तु का स्वभाव धर्म है । क्षमा आदि भावों से वह दस प्रकार का है। त्रिरत्न व जीवों की रक्षा करना धर्म है।
The essential nature of a thing is called dharma. The ten virtues, i.e. forgiveness etc., are the ten forms of dharma. The three jewels, i.e. right faith, right knowledge and right conduct, constitute the dharma (religion). To render protection to the is living being is o called dharma. (83)
****************************************
उत्तम–खम मद्दव–ज्जव सच्च सउच्चं च संजमं चेव ।
त्व चाग मकिंचण्हं, बह्म इदि दस–विहो धम्मोे ॥3॥
उत्तमक्षमामार्दवार्जव–सत्यशौचं च संयमं चैव ।
तपस्त्याग आकिञ्चन्यं, ब्रह्म इति दशविधः धर्मः ॥3॥
क्षमा, मद, कुटील नही, सत् शौच संयम भाव ।
तप, त्याग, अपरिग्रह भी, दसवां ब्रह्म स्वभाव ॥1.9.3.84॥
उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम अपरिग्रह तथा उत्तम ब्रह्मचर्य ये दस धर्म है।
Note – Akinchanya means not taking the non-self for ones own self. for ones own self. Supreme forgiveness, supreme humility, supreme straightforwardness; supreme truthfulness, supreme purity, supreme self-restraint, supreme penance, supreme renunciation, supreme non-possessiveness and supreme celibacy, these constitute the ten-fold Religion. (84)
****************************************
85 कोहोण जो ण तप्पदि, सुर–ण्र–तिरिएहि कोरमाणे वि ।
उवसग्गे वि रउद्दे तस्स खमा णिम्मला होदि ॥4॥
क्रोधेन यः न तप्यते, सुरनरतिर्यग्भिः क्रियामाणेऽपि ।
उपसर्गे अपि रौद्रे, तस्य क्षमा निर्मला भवति ॥4॥
सुर–नर–पशु न लगा सके, क्रोध भाव की आग ।
घोर भयंकर कर्म हो, सरल क्षमा का राग ॥1.9.4.85॥
देव, मनुष्य व पशुओं द्वारा घोर कष्ट पहुँचाने पर भी जो क्रोधित नहीं होता है उसी का क्षमा धर्म है।
he who does not become excited with anger even when terrible afflictions are caused to him by gods, human beings and beasts, his forbearance is perfect. (85)
****************************************
खम्मामि सव्वजीवाण, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्वभूदेसु, बेरं मज्झं ण केण वि ॥5॥
क्षमे सर्वजीवान्, सर्वे जीवाः क्षमन्ताँ मम।
मैत्री मे सर्वभूतेषु, वैरं मम न केनापि॥5॥
सब जीवों को माफ़ करूँ, जीव करेंगे माफ़।
मित्र भाव सब जीव से, वैर नहीं मन साफ़ ॥1.9.5.86॥
मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करे। मेरा सब जीवों के प्रति मैत्री भाव है। मेरा किसी से वैर नही है।अल्पमत प्रमादवश भी यदि मैने आपके प्रति उचित व्यवहार नही किया हो तो मै पापरहित होकर आपसे क्षमा याचना करता हूँ।
forgive all living beings and may all living beings forgive me; I cherish feelings of friendship towards all and I harbour enmity towards none. (86)
****************************************
जइ किंचि पमाएणं, न सुट्ठु मे वट्ठियं मए पुव्विं ।
तं मे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ ॥6॥
यदि किञ्चित् प्रमादेन, न सुष्ठुयुष्माभिः सह वर्तितं मया पूर्वम् ।
तद् युष्मान् क्षमयाम्यहं, निःशल्यो निष्कषायश्च ॥6॥
किंचित मात्र प्रमादवश, उचित नहीं व्यवहार ।
क्षमा याचना मैं करूँ, बिन कषाय दे प्यार ॥1.9.6.87॥
I sincerely beg your pardon with a pure heart, in case I have behaved towards you in an improper manner due to even slight inadvertence. (87)
****************************************
कुल–रुव–जादि–बुद्धिसु, तव–सुइ सीलेसु गारवं किंचि ।
जे णवि कुव्वदि समणो, मद्दव–धम्मं हवे तस्स ॥7॥
कुरूपजातिबुद्धिषु, तपःश्रुतशीलेषु गौरवं किञ्चित ।
यः नैव करोति श्रमणः, मार्दवधर्मो भवेत् तस्य ॥7॥
ज्ञान, जात, तप, रूप, कुल, शील न श्रुत सद्भाव ।
श्रमण जो ऐसा करे, मद नहीं धर्म स्वभाव ॥1.9.7.88॥
जो साधु कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुत और शील का तनिक भी गर्व नही करता, उसका मार्दव धर्म होता है।जो दूसरे को अपमानित करने के दोष को सदा सावधानीपूर्वक टालता है, वही यथार्थ में मानी है। गुणशून्य अभिमान करने से कोई मानी नहीं हो जाता।
A monk who does not boast even slightly of his family, handsomeness, caste, learning, penance, scriptural knowledge and character observes the religion of humility. (88)
****************************************
जो अवमाणण–करण दोसं परिहरइ णिच्च माउत्तो ।
सो णाम होदि माणी ण दु गुणचत्तेण माणेण ॥8॥
योऽपमानकरणं, दोषं परिहरति नित्यमायुक्तः ।
सो नाम भवति मानी, न गुणत्यक्तेन मानेन ॥8॥
करें न जन अपमान कभी, दोष सदा परिहार।
गुण नही अभिमान करे, मानी नही विचार ॥1.9.8.89॥
The really honoured (Mani/honourable) are those, who carefully avoid (committing) the error (Dosa) of insulting others. A person who merely boasts, has no virtues, cannot command respect (89)
****************************************
से असइं उच्चगाए अवइं णायागाए की होणे णो अइरित्तं।
णो पीहए इति संखाए, के गोयावादी? के माणावादी? ॥9॥
सः असकृदुच्चैर्गोत्रः असकृन्नीचैर्गोत्रः, नो हीनः नो अतिरिक्तः ॥
न स्पृह्येत् इति संख्याय,को गोत्रवादी को मानवादी? ॥9॥
ऊँच–नीच को भोग कर, नहीं हीन बेकार ।
ऐसा जाने कौन करे, जातपात से प्यार ॥1.9.9.90॥
ह जीव अनेक बार उच्च और नीच गोत्र भोग चुका है, यह जानकर कौन गोत्रवादी होगा। जो कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नही करता, कुटिल वचन नहीं बोलता और अपने दोषों को नहीं छुपाता, उसके आर्जव धर्म होता है।
Every one has born several times in high families as well as in low families; hence none is either high or low. After knowing this, who will feel proud of taking birth in respectable or high family? (90)
****************************************
जो चिंतइ ण वंक ण कुणदि वंकं ण जपंदं वकं ।
ण य गोवदि णिय–दोसं अज्जव धम्मो हवे तस्स ॥10॥
यः चिन्तयति न वक्रं, न करोति वक्रं न जल्पति वक्रम् ।
न च गोपयित निजदोषम्, आर्जवधर्मः भवेत् तस्य ॥10॥
मन, वचन व कर्म से, कुटिल नहीं व्यवहार ।
ढके नहीं निज दोष को, आर्जव धर्म विचार ॥1.9.10.91॥
He who does not think wickedly, does not act wickedly, does not speak wickedly and does not hide his own weaknesses, observes the dharma of straightforwardness. (91)
****************************************
पर–संतावय–कारण–वयणं, मोत्तूणं स–पर–हिद वयणं ।
जो वददि भिक्खु तुरियो, तस्स दु धम्मो हवे सच्चं ॥11॥
परसंतापककारण–वचनं, मुक्त्वा स्वपरहितवचनम् ।
यः वदन्ति भिक्षुः तुरीयशः, तस्य तु धर्मः भवेत् सत्यम् ॥11॥
कटु वचन का त्याग सदा, सबका हित उद्गार।
धर्म है चौथा भिक्षु का, सत्यधर्म व्यवहार ॥1.9.11.92॥
जो साधु दूसरों को दुख पहुँचाने वाले वचनों का त्याग करके स्व व पर हितकारी वचन बोलता है, उसके चौथा धर्म सत्य धर्म होता है।असत्य का प्रारम्भ, मध्य व अंत, हर अवस्था दुखदायी है। विषयों में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ आश्रयहीन हो जाता है।
A monk who avoids all speech that is likely to hurt others and speaks only what is good to himself and to others observes the fourth dharma of truthfulness. (92)
****************************************
मोसस्स पच्छा पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरन्ते ।
एवं अदत्ताणि समाययन्तो, रुवे अलित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥12॥
मृषावाक्यस्य पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकालेच दुःखी दुरन्तः ।
एवमदत्तानि समाददानः, रूपेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्न ॥12॥
आदि, मध्य और अंत सभी, झूठ दुखी हर हाल।
आश्रयहीन, अतृप्त, दुखी, खुद ही फँसता जाल॥1.9.12.93॥
असत्य का प्रारम्भ, मध्य व अंत, हर अवस्था दुखदायी है। विषयों में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ आश्रयहीन हो जाता है।
A person suffers misery after telling a lie, before telling a lie and while telling a lie; thus suffers endless misery, similarly a person who steels or a person who is lustful also suffers misery and finds himself without support. (93)
****************************************
पत्थं हिदयाणिट्ठं पि भण्णमाणस्स सगणवासिस्स।
कडुगं व ओसहं तं, महुर–विवायं हवइ तस्स ॥13॥
पथ्यं हृदयानिष्टमपि, भणमानस्य स्वगणवासिनः।
कटुकमिवौषधं तत् मधुरविपाकं भवति तस्य ॥13॥
बात मित्र की कटु लगे, पर हितकारी बात ।
औषधि सी कड़वी रहे, अंत मधुर हो तात ॥1.9.13.94॥
अपने मित्र द्वारा कही हुई हितकारी बात, भले ही मन को प्रिय न लगे, कड़वी औषध की तरह परिणाम में मधुर ही होती है। सत्यवादी मनुष्य माता की तरह विश्वनीय, गुरु की तरह पूज्य और स्वजन की तरह प्रिय होता है।
Every beneficial advice given by a group-fellow though bitter to the mind at first, proves beneficial in the end, like a medicine which is bitter in taste but fruitful in effect. (94)
****************************************
विस्ससणिज्जो माया व, होइ पुज्जो गुरु व्व लोअस्स ।
सयणु व्व सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स हाई पिओ ॥14॥
विश्वसनीयो मातेव, भवति पूज्यो गुरुरिव लोकस्य ।
स्वजन इव सत्यवादी, पुरुषः सर्वस्य भवति प्रियः ॥14॥
माता सा विश्वास भरा, पूज्य गुरु है लोक ।
सत्यवान अपना लगे, करता नेह त्रिलोक ॥1.9.14.95॥
A person who speaks the truth becomes creditable like a mother, honourable like a guru to his people and dear to all relatives. (95)
****************************************
सच्चम्मि वसदि तवो, सच्चम्मि संजमो तह वसे सेसा वि गुणा ।
सच्चं णिबंधणं हि य, गुणाणमुदधीव मच्छाणं ॥15॥
सत्ये वसति तपः, सत्ये संयमः तथा वसन्ति शेषा अपि गुणाः ।
सत्यं निबन्धनं हि च, गुणानामुदधिरिव म्त्स्यानाम् ॥15॥
तप–संयम सत में बसे, सत्य गुणों की खान।
मछली सागर में बसे, सत्य सकल गुण स्थान ॥1.9.15.96॥
सत्य में तप, संयम और शेष सब गुणों का वास है। जैसे समन्दर मछलियों का आश्रय स्थान है वैसे ही सत्य समस्त गुणों का आश्रय स्थान है।जैसे जैसे लाभ होता है वैसे वैसे लोभ बढ़ता है। दोमाशा सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से भी पूरा नही होता।
Truthfulness is the abode of penance, of selfcontrol and of all other virtues; truthfulness is the place of origination of all other noble qualities as the ocean is that of fishes. (96)
****************************************
जहा लाहो तहा लोही, लाहा लोहो पवड्ढई ।
दो मास कयं कज्ज, कोडीए वि न निट्ठियं ॥16॥
यथा लाभस्तथा लोभः, लाभाल्लोभः प्रवर्धते।
द्विमाषकृतं कार्य, कोट्याऽपि न निष्ठितम् ॥16॥
लाभ होता लोभ सदा, लाभ ही लोभबढ़ाय ।
दो माशा जो कर सके, स्वर्ण कोटि असहाय ॥1.9.16.97॥
जैसे जैसे लाभ होता है वैसे वैसे लोभ बढ़ता है। दोमाशा सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से भी पूरा नही होता।
As one gains, so does he become greedy. The Greediness (Lobha) increases with increase in gains (Labha/Profits). A work which could be done by two grams of gold, could not be done even by crores of grams.(97)
****************************************
सुवण्ण–रुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंख्या।
नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किं चि, इच्छा उ आगास समा अणन्तिया ॥17॥
सुवर्णरूप्यस्य च पर्वता भवेयुः स्यात् खलु कैलाससमा असंख्या ॥
नरस्य लुब्धस्य न तैः किञ्चित्, इच्छा खलु आकाशसमा अनन्तिका ॥17॥
स्वर्ण–रौप्य गिरि सम रहे, हो असंख्य कैलाश ।
लोभी मन भरता नहीं, इच्छाएँ आकाश ॥1.9.17.98॥
सोने चाँदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत हो जाय तो भी लोभी पुरुष संतुष्ट नही होता, क्योंकि इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त है। जैसे मादा बगुला अण्डे से व अण्डा मादा बगुला से उत्पन्न होता है उसी प्रकार लालच मोह से और मोह लालच से उत्पन्न होता है।
Even if a greedy person comes to accumulate a numberless Kailasa-like mountains of gold and silver they mean nothing to him, for desire is as endless as is the sky. (98)
****************************************
जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य ।
ऐमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥18॥
यथा च अण्डप्रभवा बलाका, अण्डं बलाकप्रभवं यथा च ।
एवमेव मोहायतनं खलु तृष्णां, मोहं च तृष्णायतनं वदन्ति ॥18॥
जैसे बगुला अण्ड से, अण्डा बगुला जाय।
लालच आता मोह से, लोभ मोह को भाय ॥1.9.18.99॥
The greed begets Dilusion and vice versa. They can be compared with eggs and Bataka. As egg produces Bataka and Bataka produces eggs. (99)
****************************************
सम–संतोस–जलेणं, जो धोवदि तिव्व लोह मल पुंजं ।
भोयण–गिद्धि–विहीणो, तस्स सउच्चं हवे विमलं ॥19॥
समस्तोषजलेन, यः धोवति तीव्रलोभमलपुञ्जम् ।
भोजनगृद्धिविहीनः, तस्य शौचं भवेत् विमलम् ॥19॥
साफ करे मल लोभ का, जल समता संतोष।
जिसे भोज लालच नहीं, शौच धरम परितोष ॥1.9.19.100॥
जो समता व संतोषरूपी जल से लोभरूपी मल को धोता है और जिसमें भोजन की लिप्सा नही है उसके विमल शौचधर्म होता है।व्रत व समिति का पालन, कषाय छोड़ना, मन-वचन-काया की प्रवृत्तिरूप दण्डों का त्याग, पंचेन्द्रिय जय, इन सबको संयम धर्म कहा जाता है।
One who washes away the dirty heap of greed with the water of equanimity and contentment and is free from lust for food, will attain perfect purity.(100)
****************************************
वय–यमिदि–कसायाणं, दंडाण तहिंदियाण–पंचण्हं ।
धारण–पालण–णिग्गह–चाग जओ सजमो भणिओ ॥20॥
व्रतसमितिकषायाणां, दण्डानां तथा इन्द्रियाणां पञ्चानाम् ।
धारण–पालन–निग्रह–त्यागजयः संयमोः भणितः ॥20॥
मान्य समिति, व्रत रखे, कषाय–दंड का त्याग।
इन्द्रियों पर विजय करे, संयम पाँच विभाग॥1.9.20.101॥
व्रत व समिति का पालन, कषाय छोड़ना, मन-वचन-काया की प्रवृत्तिरूप दण्डों का त्याग, पंचेन्द्रिय जय, इन सबको संयम धर्म कहा जाता है।
Self-restraint (sanyam) consists of the keeping of five vows, observance of five rules of carefulness (samiti) subjugation of passions, controlling all activities of mind, speech and body, and victory over the senses. (101)
****************************************
विसय कसाय–विणिग्गह भावं, काऊण झाण–सज्झाए ।
जो भावइ अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ॥21॥
विषयकषाय–विनिग्रहभावं, कृत्वा ध्यानस्वाध्यायान् ।
यः भावयति आत्मानं, तस्य तपः भवति नियमेन ॥21॥
मुक्ति विषय–कषाय रहे, ध्यान–ज्ञान का साथ ।
आत्मा को भावित करे, धरमो तप हो हाथ ॥1.9.21.102॥
इन्द्रिय विषयों व कषायों का त्याग कर जो ध्यान और स्वाध्याय में लीन रहता है, उसी के तप धर्म होता है।जितेन्द्र देव का कहना है कि सब द्रव्यों में होने वाले मोह को त्यागकर जो अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्याग धर्म होता है।
Penance (tapa dharma) consists in concentration on the self by meditation, study of the scripture and restraining the senses and passions. (102)
****************************************
णिव्वेद तियं भावइ, मोहं चइऊण सव्व दव्वेसु ।
जो तस्स हवे चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं ॥22॥
निर्वेदत्रिकं भावयति, मोहं त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु।
यः तस्य भवति त्यागः, इति भणितं जिनवरेन्द्रैः ॥22॥
भाव रहे वैराग्य के, द्रव्य मोह का त्याग ।
त्याग धरम का सार है, कथ्य यही वीतराग ॥1.9.22.103॥
Supreme Jina has said that true renunciation (tyaga dharma) consists in developing indifference towards the three, namely the world, the body and the enjoyment, through detachment for material objects. (103)
****************************************
जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठिकुव्वइ ।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चइं ॥23॥
यः च कान्तान् प्रियान् भोगान्,लब्धान् विपृष्ठीकरोति। ।
अम्बापितृसमानः, संघः शरणं तु सर्वेषाम् ॥23॥
चाहे मीठा भोग हो, पीठ रहे उस ओर ।
द्रव्य त्याग मन से करे, त्यागी धर्म विभोर ॥1.9.23.104॥
त्यागी वही कहलाता हैजो प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उसकी ओर पीठ फेर लेता है और स्वाधीनता पूर्वक भोगों का त्याग करता है।
He alone can be said to have truly renounced everything who has turned his back on all available, beloved and dear objects of enjoyment possessed by him. (104)
****************************************
होऊण य णिस्संगो, णियभावं णिग्गाहित्तु सुह–दुहदं ।
णिद्ददेण दु वट्टदि, अणयारो तस्स–किंचण्हं ॥24॥
भूत्वा च निस्संगः निजभावं निगृह्य सुखदुःखदम् ।
निर्द्वन्द्वेन तु वर्तते, अनगारः तस्याऽऽकिञ्चन्यम् ॥24॥
भाव रखे सुख–दुख नहीं, कोई संग न जान ।
बिना द्वंद्व विचरण करे, धरम अपरिग्रह मान ॥1.9.24.105॥
जो मुनि सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर, अपने सुख व दुख भावों का निग्रह कर निर्द्वद्व विचरता हो उसके आकिंचन्य/अपरिग्रह धर्म होता है।
That monk alone acquires the virtue of non possessiveness (Akinchanya-dharma), who renouncing the sense of ownership and attachment and who wanders absolutely care free (Nerdvanda) after controlling all their pleasant and unpleasant thought actions. (105)
****************************************
अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसण–णाण–मइओ सदा रूवी ।
णवि–अत्थि मज्ज किंचिवि अण्णं परमाणु–मित्तं पि ॥25॥
अहमेकः खलु शुद्धो, दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी ।
न्याप्यस्ति मम किञ्चिदप्यन्यत् परमाणुमात्रमपि ॥25॥
शुद्ध ज्ञानमय एक मैं, नित्य अरूप ही मान ।
परम अणु भी नहीं रखूँ, कुछ ना पाया जान ॥1.9.25.106॥
मै एक शुद्ध, दर्शन-ज्ञानमय, नित्य और अरूपी हूँ, इसके अतिरिक्त परमाणुमात्र भी वस्तु मेरी नही है, यही आकिंचन्यधर्म है।
I am alone, pure, eternal and formless and possessing the qualities of apprehension and comprehension except these is nothing, not even an particle, that is my own. (106)
****************************************
सुहं वसामो जीवामो, जेसिं णो नत्थि किंचण ।
मिहिलाए डज्झमाणीए, न मे डज्जइ किंचण ॥26॥
चत्त–पुत्त–कलत्तस्स, निव्वावारस्स भिक्खुणो ।
पियं न विज्जई किंचि, अप्पियं पि न विज्जए ॥27॥
सुखं वसामो जीवामः, येषाम् अस्माकंनास्ति किञ्चन ।
मिथिलायां दह्यमानायां, न मे दह्यते किञ्चन ॥26॥
त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, निर्व्यापारस्य भिक्षोः।
प्रियं न विद्यते किञ्चित्, अप्रियमपि न विद्यते ॥27॥
सुख से जीता मैं सदा, कुछ ना रखता पास ।
मिथिला भी जलती रहे, मेरा क्या है खास ॥1.9.26.107॥
स्त्री पुत्र तज भिक्षुक बन कर, त्याग दिया व्यापार ।
बुरा व अच्छा कुछ नहीं, सब की एक ही धार ॥1.9.27.108॥
मिथिला राज्य त्यागकर साधु हो जानेवाले राजर्षि नमि कहते है, हम जिनके पास अपना कुछ नही है सुख से जीते है। मिथिला जल रही है उसमें मेरा कुछ नही जल रहा है क्योकि पुत्र, स्त्रियों और व्यापार से मुक्त भिक्षु के लिये कोई वस्तु न प्रिय होती है और नही अप्रिय॥
We, who have nothing of our own, reside happily and live happily. As Nami who had renounced his kingdom and become a saint, said when Mithila was in flames nothing of mine is being burnt there.I have abandoned my children and my wife, I have no occupation; there is nothing dear or not dear to me. (107 & 108)
****************************************
जहा पोमं जलं जायं,नोवलिप्पइ वारिणा ।
एवं अलित्तो कामेहिं, तं वयं बूम माहणं ॥28॥
यथा पद्मं जले जातं, नोपलिप्यते वारिणा ।
एवमलिप्तं कामैः, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥28॥
जल में ज्यूँ उपजे कमल, जलमुक्त राखे काय ।
काम भोग से मुक्त रहे, वो ब्राह्मण कहलाय ॥1.9.28.109॥
जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नही होता, इसी प्रकार काम भोग के वातावरण में जन्मा मनुष्य उससे लिप्त नही होता, उसे हम ब्राह्मण कहते है।
We call him a Brahmin who remains unaffected by objects of sensual pleasures like a lotus which remains untouched by water though born in it. (109)
****************************************
दुक्खं हयं जसस न होइ मोहो, मोहो हओ जसस न होइ तण्हा ।
तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई ॥29॥
दुःखं हतं यस्य न भवति मोहः, मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा ।
तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः, लोभो हतो यस्य न किञ्चन ॥29॥
निर्मोही, दुख दूर हो, तृष्णा–मोह न पास।
लोभ मिटे, तृष्णा हटे, ‘कुछ ना’ लोभ विनाश ॥1.9.29.110॥
जिसको मोह नहीं उसने दुख का नाश कर दिया है और जिसको तृष्णा नही उसने मोह का नाश कर दिया है। जिसको लोभ नही उसने तृष्णा का नाश कर दिया है और जिसके पास कुछ नही उसने लोभ का ही नाश कर दिया है।
He who has got rid of delusion has his misery destroyed, he who has got desires has his delusion destroyed. He who has got rid of greed has his desires destroyed, he who owns nothing has his greed destroyed. (110)
****************************************
जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो ।
तं जाण बंभचरियं, विमुक्क–परदेह–तत्तिस्स ॥30॥
जीवो ब्रह्म जीवे, चैव चर्या भवेत्या यतेः ।
तद् जानीहि ब्रह्मचर्य, विमुक्त–परदेहतृप्तेः ॥30॥
जीव ही ब्रह्म का रूप है, चर्या उसकी जान।
देह मान से मुक्त रहे, ब्रह्मचर्य पहचान ॥1.9.30.111॥
जीवन ही ब्रह्म है। देह आसक्ति से मुक्ति की जो चर्या है वही ब्रह्मचर्य है।
The soul is Brahman, so the activity regarding the self of a monk-who refrains himself from seeking enjoyment through other’s body (i. e. sexual enjoyment), is called Brahmacarya (celibacy). (111)
****************************************
सव्वंगं पेच्छंतो, इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं ।
सो बम्हचेरभावं, सक्कदि खलु दुद्धरं धरिदुं ॥31॥
सर्वांङ्गप्रेक्षमाणः स्त्रीणां तासु मुञ्चति दुर्भावम्
स ब्रह्मचर्यभावं, सुकृती खलु दुर्धरं धरति ॥31॥
देखे नारी देह तो, उपजे ना दुर्भाव ।
ब्रह्मचारियों सा रहे, दुर्लभ समझ स्वभाव ॥1.9.31.112॥
स्त्रियो के मनोहर अंगों को देखते हुए भी जो इनमें दुर्भाव नही रखता वही वास्तव में ब्रह्मचर्य भाव को धारण करता है।
He whose mind remains undisturbed and in whom, no illintention develops in respect of women, even after looking at all the parts of woman, he observes the most difficult but pious virtue of celibacy. (112)
****************************************
जउ–कुम्भे, जोए उवगूढे, आसभितत्ते नासमुवयाइ ।
एवित्थियाहि अणगारा, संवासेण णास–मुवयंति ॥32॥
जतुकुम्भे ज्योतिरुपगूढः आश्वभितप्तो नाशमुपयाति ।
एवं स्त्रीभिरनगाराः, संवासेन नाशमुपयान्ति ॥32॥
घड़ा लाख का अगन संग, शीघ्र होत है नाश ।
साधु व्रत भी नष्ट हो, स्त्री से जब सहवास ॥1.9.32.113॥
जैसे लाख का घड़ा अग्नि के पास नष्ट हो जाता है वैसे ही स्त्री सहवास से मुनि व्रत नष्ट हो जाता है।
Just as a jar made of lac (sealing wax) when placed near fire soon gets melted and perished. Similarly a monk who moves in the company of women looses his character. (113)
****************************************
ए ए य संगे समइक्कामित्ता, सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा ।
जहा महासागर–मुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥33॥
एतांश्च संगान् समतिक्रम्य, मृदुस्तराश्चैव भवन्ति शेषाः ।
यथामहासागरमुत्तीर्य, नदी भवेदपि गङ्गासमान ॥33॥
औरत की लत छोड़ सके, बाक़ी लत ना भार ।
गंगा भी छोटी लगे, सागर कर ले पार ॥1.9.33.114॥
जो मनुष्य स्त्री से आसक्ति को पार पा जाता हैउसके लिये शेष आसक्तियाँ वैसी है जैसे सागर पार कर जाने वाले के लिये गंगा।
The man, who conquers the attachment with women, can more easily conquer all other attachments, as easily as who has crossed an ocean, can easily cross the river Ganges. (114)
****************************************
जह सीलरक्खयाणं पुरिसाणं णिंदिदाओ महिलाओ ।
तह सीलरक्खियाणं, महिलाणं णिंदिदा पुरिसो ॥34॥
यथा शीलरक्षकाणां, पुरुषाणां निन्दिता भवन्ति महिलाः ।
तथा शीलरक्षकाणां, महिलानाँ निन्दिता भवन्ति पुरुषाः ॥34॥
संग रहे जब नारियाँ, संत निन्दनीय नाम।
शील रक्षिका नारियाँ भी, संग पुरुष बदनाम ॥1.9.34.115॥
जैसे ब्रह्मचारी पुरुष के लिये स्त्रियाँ वर्जित है वैसे ही शीलरक्षिका स्त्रियों के लिये पुरुष वर्जित है।
Just as women become censurable by men observing celibacy, similarly men become censurable by women observing celibacy. (115)
****************************************
किं पुण गुण–सहिदाओ, इत्थीओ अत्थि वित्थड जसाओ ।
णरलोक–देवदाओ, देवेहिं दि वंदणिज्जाओ ॥35॥
किं पुनः? गुणसहिताः, स्त्रियः सन्ति विस्तृतयशसः
नरलोकदेवताः देवैरपि वन्दनीयाः ॥35॥
कई गुणवती नारियाँ, फैला कर यश गान ।
पृथ्वी लोक की देवियाँ, देव करे सम्मान ॥1.9.35.116॥
कई शीलगुण संपन्न स्त्रियाँ ऐसी भी है जिनका यश सर्वत्र व्याप्त है। वे मनुष्य लोक की देवियाँ है और देवों के द्वारा वंदनीय है।
But, there are illustrious women of good character and conduct, whose fame is wide spread, who are goddesses on this earth and are even adorned by gods. (116)
****************************************
तेल्लोक्काडवि डहाणो, कामग्गी विसय–रुक्ख–पज्जलिओ ।
जोव्वण–तणिल्लचारी, जं ण डहइ सो हवइ धण्णो ॥36॥
त्रैलोक्याटविदहनः, कामाग्निर्विषयवृक्षप्रज्वलितः ।
यौवनतृणसंचरणचतुरः यं न दहति स भवति धन्यः ॥36॥
विषय–वृक्ष से लोग जले, बहे काम की आग ।
है महान वो आत्मा, यौवन से ना राग ॥1.9.36.117॥
विषयरुपी वृक्षों से लगी कामाग्नि तीनों लोक को जला देती है लेकिन जो इस यौवन अग्नि से नही जलता वो साधु धन्य है।
The sensual fire fed by the trees of desires can burn the forest of the three world, one is blessed whose grass of youthful life remains unburnt by this fire. (117)
****************************************
या या वच्चई रयणी, न सा पडिनियत्तई ।
अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ ॥37॥
या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते।
यौवनतृणसंचरणचतुरः, यं न दहति स भवति धन्यः ॥37॥
गहरी होती रात ज्यूँ, नहीं लौट के आय।
चलता राह अधर्म वो, रजनी निष्फल जाय ॥1.9.37.118॥
जो जो रात बीत रही है वो लौटकर नही आती है। अधर्म करने वालों की रात्रियाँ निष्फल चली जाती है
The nights that pass away cannot return back. The night of a person engaged in sinful activities, go waste. (118)
****************************************
जहा य तिण्णि वणिया, मूलं घेत्तूण निग्गया ।
एगोऽत्थ लहई लाहं, एगो मूलेण आगओ ॥38॥
एगो मूलं पि हारित्ता, आगओ तत्थ वाणिओ ।
ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वियाणह ॥39॥
यथा च त्रयो वणिजः, मूलं गृहीत्वा निर्गताः ।
एकोऽत्र लभते लाभम्, एको मूलेन आगतः ॥38॥
एकः मूलम् अपि हारयित्वा, आगतस्तत्र वाणिजः ।
व्यवहारे उपमा एषा, एवं धर्मे विजानीत् ॥39॥
जैसे तीन वणिक चले, पूंजी लेकर साथ।
लाभ मिला बस एक को, मूल एक के हाथ ॥1.9.38.119॥
तीजा हारा मूल भी, व्यापारिक ये ज्ञान।
ऐसा ही व्यव्हार हो, यही धर्म है जान ॥1.9.39.120॥
जैसे तीन व्यापारी पूँजी लेकर निकले। एक लाभ उठाता है। एक मूल लेकर लौटता है। एक मूल भी गँवाकर वापस आता है। इस व्यावहरिक उपमा को धर्म में भी लगाना चाहिए।
Three Merchants started (on business) with their capital; one of them made profit in his business; the other returned back with his capital only; the third one returned after losing all the capital
that he had taken with him. Know that in practice, this example is also applicable in religious matter. (119 & 120)
****************************************
अप्पा जाणइ अप्पा जहट्टिओ अप्पसक्खिओ धम्मो ।
अप्पा करेंइ तं तह, जह अप्पसुहावओ होइ ॥40॥
आत्मनं जानाति आत्मा, यथास्थितो आत्मसाक्षिको धर्मः ।
आत्मा करोति तं तथा यथा आत्मसुखापको भवति ॥40॥
आत्म जाने आत्मा, आत्म–धर्म पहचान ।
धर्म मानती आत्मा, निजसुख आत्मा जान ॥1.9.40.121॥
आत्मा ही यथास्थित आत्मा को जानता है। अतएव स्वभावरूप धर्म भी आत्मसाक्षिक होता है। इस धर्म का पालन आत्मा उसी विधि से करता है जिससे कि वह अपने लिये सुखाकारी हो।
The soul alone knows the soul (self) established in soul (self). Hence the Dharma, which consists of the natural self is a self evident. The soul experiences this Dharma in a manner in which it is pleasing to it. (121)
****************************************