८.राग-परिहरसूत्र
रागो य दोसो वि य कम्मवीयं, कम्मंच मोहप्पभव वयन्तिं ।
कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयन्ति ॥1॥
रागश्च द्वेषो पि च कर्मबीजं, कर्म च मोहप्रभवं वदन्ति।
कर्मं च जातिमरणस्य मूलम्, दुःखं च जातिमरणं वदन्ति॥1॥
राग–द्वेष हैं बीज कर्म के, मोह कर्म का मूल ।
जनम–मरण सब करम से, भवसागर दुख शूल ॥1.8.1.71॥
राग और द्वेष कर्म के मूल कारण है। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म जनम-मरण का मूल है। जनम-मरण दुख का मूल है।
Attachment and aversions are the seeds of karmas. Karmas are the offshoots of Delusion (Moha). Delusion (Moha) is the root cause of transmigration. Transmigration is the root cause of all miseries. (71)
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न वि तं कुणइ, अमित्तों, सुट्ठ वि य विराहिओ समत्थो वि।
ज्ं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥2॥
नैव तत् करोति अमित्रं, सुष्ठ्वपि च विराद्धः समर्थोऽपि ।
यद् द्वावपि अनिगृहीतौ, कुरुतो रागश्च द्वेषश्च॥2॥
बैरी चाहे वीर हो, करे नहीं नुक़सान ।
राग–द्वेष सबसे बड़े, हानिकारक जान ॥1.8.2.72॥
कितना भी वीर दुश्मन उतनी हानि नही पहुँचाता जितनी हानि अतिग्रहीत राग और द्वेष पहुँचाते हैं।
Even the most offended and powerful enemy does not cause as much harm as uncontrolled attachment and aversion do. (72)
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न वि तं कुणइ, अमित्तों, सुट्ठ वि य विराहिओ समत्थो वि।
ज्ं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥2॥
नैव तत् करोति अमित्रं, सुष्ठ्वपि च विराद्धः समर्थोऽपि ।
यद् द्वावपि अनिगृहीतौ, कुरुतो रागश्च द्वेषश्च॥2॥
बैरी चाहे वीर हो, करे नहीं नुक़सान ।
राग–द्वेष सबसे बड़े, हानिकारक जान ॥1.8.2.72॥
इस संसार में जन्म, जरा और मरण के दुख से ग्रस्त जीव को कोई सुख नहीं है। जब जीव के ये मान हों, तब मोक्ष ही अपनाने योग्य है।
Since living beings caught in the grip of miseries of birth, old age and death, have no happiness in this mudane existence, liberation is, therefore, worthy of attainment. (73)
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तं ज इ इच्छसि, गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स ।
तो तवसंजमभंडं, सुविहिय! गिण्हादि तुरंतो ॥4॥
तद् यदीच्छसि गन्तुं, तीरं भवसागरस्य घोरस्य ।
तर्हि तपःसंयमभाण्डं, सुविहित! गृहाण त्वरमाणः ॥4॥
भवसागर यह घोर है, चाहे जाना पार ।
तप संयम की नाव ही, है तेरा उद्धार ॥1.8.4.74॥
यदि तू घोर भवसागर के पार जाना चाहता है तो तप-संयमरूपी नाव में बैठ जा। उसी से तेरा उद्धार होगा।
If you are desirous of crossing this terrible ocean of mundane existence, Oh: virtuous one, better catch quickly a boat of penance and self-control. (74)
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बहुभयंकरदोसाणं, सम्मत्तंगुणविणासाणं।
न हु वसमागंतव्वं, रागद्दोसाण पावाणं ॥5॥
बहुभयंकरदोषयोः, सम्यक्त्वचारित्रगुणविनाशयोः।
न खलु वशमागन्तव्यं, रागद्वेषयोः पापयोः ॥5॥
सम्यक चारित्रिक सदा, होय गुणों का नाश।
राग–द्वेष वश पाप के, संभव सदा विनाश ॥1.8.5.75॥
सम्यकत्व तथा चारित्रादि गुणों के विनाशक राग और द्वेष रुपी पापों के वश में नही होना चाहिये।
One should not be under the influence of attachment and aversion which destroy the attributes of right conduct and other virtues. (75)
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कामागुणिद्धि–प्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवस्स ।
जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो ॥6॥
कामानुगृद्धिप्रभवं खलु दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य ।
यत् कायिकं मानसिकं च किञ्चित्, तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः ॥6॥
विषय वासना से भरा मानव, देव–प्रभाग ।
काम दुखों का अंत कर, बंध मुक्त वीतराग ॥1.8.6.76॥
सब जीवों का और देवताओं का भी जो शरीर और मन का दुख है, वो काम भोग की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतरागी उस दुख का अंत कर बंधन मुक्त हो जाता है।
Bodily and mental misery of all human beings and of gods is to some extent born of their constant sensual desire; he who is free from desire can put an end to this misery. (76)
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जेण विरोगो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं ।
मुच्चइ हु ससंवेगी, अणंतवो होइ असंवेगी ॥7॥
येन विरागो जायते, तत्तत् सर्वादरेण करणीयम् ।
मुच्यते एव ससंवेगः, अनन्तकः भवति असंवेगा ॥7॥
जो विराग को जन्म दे, कर आचरण सत्कार ।
फँसा रहे आसक्त सदा, विरक्त जग से पार ॥1.8.7.77॥
जिन कारणों से विराग उत्पन्न हो उनका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिये। आसक्त सदा फँसा रहता है विरक्त जग से पार हो जाता है।
That which secures freedom from attachment must be followed with utmost respect; he who is free from attachments secures release from mundane existence; while, one who is not, continues to wander in it endlessly. (77)
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जेण विरोगो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं ।
मुच्चइ हु ससंवेगी, अणंतवो होइ असंवेगी ॥7॥
येन विरागो जायते, तत्तत् सर्वादरेण करणीयम् ।
मुच्यते एव ससंवेगः, अनन्तकः भवति असंवेगा ॥7॥
जो विराग को जन्म दे, कर आचरण सत्कार ।
फँसा रहे आसक्त सदा, विरक्त जग से पार ॥1.8.7.77॥
जो यह विकल्प करता है कि राग-द्वेष को छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नही है वो ही समता को पाता है। विषय अर्थहीन लगते हैं और कामों की तृष्णा क्षीण हो जाती है।
He, who endeavours to recognise that the cause of his misery lies in desires and not in the objects of senses, acquires the equanimity of mind. When he ceases to desire the objects (of the senses), his thirst for sensual pleasure will become extinct. (78)
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जेण विरोगो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं ।
मुच्चइ हु ससंवेगी, अणंतवो होइ असंवेगी ॥7॥
येन विरागो जायते, तत्तत् सर्वादरेण करणीयम् ।
मुच्यते एव ससंवेगः, अनन्तकः भवति असंवेगा ॥7॥
जो विराग को जन्म दे, कर आचरण सत्कार ।
फँसा रहे आसक्त सदा, विरक्त जग से पार ॥1.8.7.77॥
निश्चय दृष्टि के अनुसार शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न है। अतः शरीर के प्रति होने वाले दुखद व क्लेशकर ममत्व का छेदन करो।
From the absolute point of view (nischay naya) the body and the soul are distinct from each other,that is why shake off the attachment to the body because it is the cause of suffering andpain.(79)
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कम्मासवदाराइं, निरुंभियव्वाइं इंदियाइं च ।
हंतव्वा य कसाया, तिविं–तिविहेण मुक्खत्थं ॥10॥
कर्मास्रवद्धाराणि, निरोद्धव्यानीन्द्रियाणि च।
हन्तव्याश्च कषायास्त्रिविधत्रिविधेन मोक्षार्थम् ॥10॥
मन, वचन काया हरपल, कर्म आगमन द्वार ।
करे–करायेे, हाँ कहे, होवे बेड़ा पार ॥1.8.10.80॥
कर्म के आगमन द्वार(आस्रव) तीन हैं। मन, वचन व काया ये ही तीन योग है। इन तीनों का मोक्ष के लिए करना, कराना व अनुमोदन करना इन तीनों प्रकारों से निषेध करें। वे कषायों का नाश करें।
To attain liberation, one must block all the passages of karmic influx (aasram) and also curb the activities of one’s sense organs and must annihilate all passions; all this must be achieved through the three modes of activity, i.e., mind, speech and body and in a three-fold manner of doing, causing to be done and approving the action. (80)
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भावे विरत्तों मणुओ विसोगी, एएण दुक्खोह–परंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी पलासं ॥11॥
भावे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौघपरम्परया ।
न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ॥11॥
भावहीन हो शोकमुक्त, दुख चक्कर से पार।
रहकर जल में लिप्त नहीं, जैसे कमल बहार ॥1.8.11.81॥
भाव से विरक्त मनुष्य शोक मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नही होता, वैसे ही संसार में रहकर दुखों की परम्परा से लिप्त नही होता।
A person who is free from worldly attachments becomes free from sorrow. Just as the petals of lotus growing in the midst of a lake remain untouched by water, even so, a person who is detached from all passions will remain unaffected by sorrows in this world. (81)
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