५.संसारचक्रसूत्र
अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि टुक्खपउराए ।
किं नाम होज्जन नं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइं न गच्छेज्जा ॥1॥
अध्रुवेऽशाश्वते, संसारे दुःखप्रचुरके।
किं नाम भवेत् तत् कर्मकं, येनाहं दुर्गतिं न गच्छेयम्॥1॥
थिर शाश्वत है जग नहीं, भारी दुख भण्डार ।
कर्म करूँ मैं कौन सा, दुर्गति मिले न द्वार ॥1.5.1.45॥
यह संसार स्थिर व नित्य नही है व अत्यंत दुखों से भरा हुआ है, मैं ऐसा कौन सा कर्म करु जिससे की मैं दुर्गति में न जाऊँ?
In this world which is unstable, impermanent and full of misery, is there any thing by the performance of which I can be saved from taking birth in lower grade of life? (45)
****************************************
खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्शा अणिगामसोक्खा।
संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ काम भोगा ॥2॥
क्षणमात्रसौख्या बहुकालदुःखाः, प्रकामदुःखाः अनिकामसौख्याः ।
संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः, खानिरनर्थानां तु कामभोगाः॥2॥
सुख क्षणिक पर दुख लंबवत, सुख कम दुख अति जान।
काम शत्रु है मुक्ति का, बिना अर्थ की खान ॥1.5.2.46॥
यह संसार काम भोग से क्षण भर सुख और अधिक दुख देने वाला है। संसार, मुक्ति का विरोधी और अनर्थो की खान है।
In this world which is unstable, impermanent and full of misery, is there any thing by the performance of which I can be saved from taking birth in lower grade of life? (45)
****************************************
सुट्ठवि मग्गिज्जंतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो ।
इंदियअविसएसु तहा, नत्थि सुहं सुट्ठ वि गविट्ठं ॥3॥
सुष्ठ्वपि मार्ग्यमाणः, कुत्रापि कदल्यां नास्ति यथा सारः ।
इन्द्रियविषयेषु तथा, नास्ति सुखं सुष्ठ्वपि गवेषितम् ॥3॥
केले के ज्यूँ पेड़ में, दिेखे न कोई सार।
विषय वासना भी लगे, दुख का ही व्यापार ॥1.5.3.47॥
बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नही देता, वैसे ही इन्द्रिय विषयों में भी कोई सुख दिखाई नही देता।
As there is no essence in a banana tree, there is no real happiness in sensual pleasures. (47)
****************************************
नरविबुहेशरसुक्खं, दुक्खं परमत्थओ तयं बिंति ।
परिणामदारुणमसासयं च जं ता अलं तेण ॥4॥
नरविबुधेश्वरसौख्यं, दुःखं परमार्थतस्तद् बु्रवते ।
परिणामदारुणमशाश्वतं, च यत् तस्मात् अलं तेन ॥4॥
सुख चाहे हो इन्द्र का, परम अर्थ दुख राग ।
फल दुखदायी है सदा, उचित दूर तू भाग ॥1.5.4.48॥
इन्द्र का सुख भी परम अर्थ में दुख ही है। वह सुख है थोड़ी देर का पर उसका परिणाम भयंकर है। अतः उससे दूर रहना ही उचित है।
The pleasures/enjoyments of great emperors, kings of gods (clestial-beings) are ultimately pains. Such pleasures are momentary; and their consequences are. Hence, it is appropriate to remain away from them . (48)
****************************************
जह कच्छुल्लो कच्छुं कंडयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं।
मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं बिंति ॥5॥
यथा कच्छुरः कच्छुं, कण्ड्यन् दुःखं मनुते सोख्यम् ।
मोहातुरा मनुष्याः, तथा कामदुःखं सुखं ब्रुवन्ति ॥5॥
खुजलाने से सुख मिले, जैसे खुजली भाय ।
काम मोह में जो फँसे, दुख को सुख समझाय ॥1.4.5.49॥
खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता है वैसे ही मोह व काम से आतुर मनुष्य दुख को सुख मानता है।
Just as a person suffering from itching considers the scratching of his body to be a pleasure though reallyit is painful similarly people who are underthe spell of infatuation consider the sensuous enjoyment to be pleasurable. (49)
****************************************
भोगा–मिस–दोस–विसण्णे, हिय–निस्सेयस बुद्धि–वोच्चत्थे ।
बले य मन्दिए मूढ़े, बज्झई मच्छिया व खेलंमिं ॥6॥
भोगामिषदोषविषण्णः,हितनिःश्रेयसबुद्धिविपर्यस्तः।
बालश्च मन्दितः मूढः, बध्यते मक्षिकेव श्लेष्मणि ॥6र्॥
रत हो भोगविलास में, बुद्धि भ्रमित हो जाय ।
मंदबुद्धि की मूर्खता, मक्खी मल लिपटाय ॥1.5.6.50॥
विपरीत बुद्धिवाला अज्ञानी मन्द और मूढ़ जीव भोग विलास में इस तरह बंध जाता है जैसे मक्खी श्लेष्म में।
He who is immersed in sensual pleasures bcomes blind in knowing what is beneficial to spiritual welfare, becomes ignorant, dull and entangles himself in his own aramas like a fly
caught in phlegm. (50)
****************************************
जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जम्मजरामरणसंभवं दुक्खं ।
न य विसएसु विरज्जई, अहो सुबद्धी कवडगंठी ॥7॥
जानाति चिन्तयति, जन्मजरामरणसम्भवं दुःखम्।
न च विषयेषु विरज्यते, अहो! सुबद्धः कपटग्रन्थिः ॥7॥
समझे चिंतन का विषय, जनम–मरण दुख काल ।
अचरज! विषय विरक्त नहीं, सुदृढ़ माया जाल ॥1.5.7.51॥
जीवन मरण व जरा से होनेवाले दुख को जानता है उसका विचार भी करता है किन्तु भोगों से विरक्त नही हो पाता है। अहो! माया की गाँठ कितनी मजबूत होती है।
Everyone knows about the pains of birth, old age and death, and yet no one develops disregard for the objects of sensual pleasures. Oh: how strong is this knot of deciet? (51)
****************************************
जो खलु संसारत्थो, जीवो तत्ते दु होदि परिणामो ।
परिणामादा कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥8॥
गदि–मधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते ।
ते हिं दु विसयग्गहणं तत्ते रागो वा दोसो वा ॥9॥
जायदि जीवस्सेवं भावो संसार–चक्क–वालम्मि ।
इदि जिणवरेहिं भणिदो, अणादि–णिधणो सणिधणो वा ॥10॥
यः खलु संसारस्थो, जीवस्ततस्तु भवति परिणामः।
परिणामात् कर्म, कर्मतः भवति गतिषु गतिः ॥8॥
गतिमधिगतस्य देहो, देहादिन्द्रियाणि जायन्ते।
तैस्तु विषयग्रहणं, ततो रागो वा द्वेषो वा ॥9॥
जायते जीवस्यैवं, भावः संसारचक्रवाले।
इति जिनवरैर्भणितो–ऽनादिनिधनः सनिधनो वा ॥10॥
जीव बसे संसार में, ऐसे ही परिणाम।
करमबद्ध परिणामतः, पाते गति हर शाम ॥1.5.8.52॥
देह गति हर जनम मिले, इन्द्रिय तन परिणाम ।
विषयग्रहण करता रहे, राग द्वेष का धाम ॥1.5.9.53॥
जीव भ्रमण करता रहे, जगत–चक्र का काम ।
अनंत चले या नियत हो, परिभ्रमण परिणाम ॥1.5.10.54॥
राग-द्वेष व कर्म बंधन के अनुसार संसारी जीव का जनम मरण का चक्र चलता रहता है । जन्म से शरीर व शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। इन्द्रियों सेे विषयों को भोगता है । उससे फिर राग द्वेष पैदा होता है। इस प्रकार जीव संसार में भ्रमण करता रहता है सम्यग्दृष्टि न होने के कारण यह चक्र अनन्त काल तक चलता रहता है।
A person who is worldly, becomes the subject of felling, words and actions of attachment (Raag) and aversion (Dwesha); as a consequence, karma binds his soul; the bondage of karmas results of birth , he gets a body the body will have its senses; the senses will lead to their respective enjoyments which in turn will give birth to attachment and aversion. The consequences of such wanderings, and absence of Right belief are beginning less and endless; but on the attainment of Right belief, such wanderings become beginning less but though not endless. (i.e. they are ended by the Right believing imperfect souls) (52-54)
****************************************
जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य ।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तवो ॥11॥
जन्म दुःखं, जरा दुक्खं रोगाश्च मरणानि च ।
अहो दुःखः खलु संसारः, यत्र क्लिश्यन्ति जन्तवः ॥11॥
जन्म मरण दुख रोग भी, वृद्धावस्था मार।
क्लेष पावे जीव सभी, सकल दुखी संसार ॥1.5.11.55॥
जन्म, बुढ़ापा, रोग व मृत्यु दुख है। अहो! संसार में दुख ही दुख है और जीव कष्ट पाता रहता है।
Birth is painful, old age is painful, disease and death are painful. Oh! The world is nothing but a misery, where living beings undergoes through great sufferings. (55)
****************************************