४.निरूपणसूत्र
जो ण पमाण–णयेहिं, णिक्खेवेणं णिरिक्खदे अत्थं ।
तस्सा–जुत्तं जुत्तं, जुत्तं, मजुत्तं च पडिहादि ॥1॥
यो न प्रमाण–नयाभ्याम्, निक्षेपेण निरीक्षते अर्थम् ।
तस्यायुक्तं युक्तं, युक्तमयुक्तं च प्रतिभाति॥1॥
प्रमाण, नय, निक्षेप से, अर्थ बोध ना जान ।
उचित रहे अनुचित लगे, उचितो–अनुचित ज्ञान ॥1.4.1.32॥
जो प्रमाण, नय और निक्षेप द्वारा अर्थ नहीं जानता तो उचित अनुचित या अनुचित उचित प्रतीत होता है।
The improper appears proper and the proper appears improper to the person, who does not understand the implications of elements by means of comprehensive knowledge (Pramana) different view points (Naya) and way of knowing (Nikshepa).(32)
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णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदय भावत्थो।
निक्खेओ वि उवाओ, जुत्तीए अत्थ–पडिगहणं ॥2॥
ज्ञानं भवति प्रमाणं, नयोऽपि ज्ञातुः हृदयभावार्थः ।
निक्षेपोऽपि उपायः, युक्त्या अर्थप्रतिग्रहणम्॥2॥
ज्ञान यही प्रमाण है, नय ज्ञाता का ज्ञान।
है उपाय निक्षेप भी, अर्थ युक्ति से जान ॥1.4.2.33॥
ज्ञान प्रमाण हैै। ज्ञाता का मन से जाना अभिप्राय (दृष्टिकोण) “नय” है। निक्षेप भी ज्ञान का उपाय है। इस तरह युक्तिपूर्वक अर्थ ग्रहण करना चाहिये।
Knowledge is Authority (Pramana). The view point of knower is the stand-point (Naya). The ways and means of knowing is verbal/linguistic aspect (Nikshipa). One should understand the implications of elements, in this rational manner. (33)
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णिश्चय–ववहार–णया, मूलिम–भेया णयाण सव्वाणं ।
णिच्छय–साहण–हेउं, पज्जय–दव्वत्थियं मुणह ॥3॥
निश्चयव्यवहारनयौ, मूलभेदो नयानां सर्वेषाम् ।
निश्चयसाधनहेतू, पर्यायद्रव्यार्थिको मन्यध्वम् ॥3॥
निश्चय और व्यवहार ही, सकल मूल नय ज्ञान।
द्रर्व्यार्थक पर्याय अपि, नय निश्चय ही मान ॥1.4.3.34॥
निश्चय नय और व्यवहार नय समस्त नयों के मूल हैं। द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय निश्चय नय के साधन हेतु हैं।
The real point of view (Niscaya-naya) and the practical point of view (vyavahara-naya) are the two fundamental types of viewpoints (nayas). The substantial point of view (dravyarthika naya) and the modal point of view (paryayarthika-naya) are the two means for comprehending the real nature of a thing. (34)
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जो सिय भेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स ।
सो ववहारो भणियो विवरीओ णिच्छयो होइ ॥4॥
यः स्याद्भेदोपचारं, धर्माणां करोति एकवस्तुनः।
स व्यवहारो भणितः, विपरीतो निश्चयो भवति ॥4॥
स्यात् वाद वस्तु अखण्ड से, विविध धर्म का ज्ञान ।
नय व्यवहारिक ज्ञान है, ही निश्चय जान ॥1.4.4.35॥
स्यावाद् से एक अखण्ड वस्तु के विविध धर्मों का ज्ञान होता है जिसे व्यवहार नय कहते है। निश्चय नय अखण्ड वस्तु का अनुभव अखण्ड रुप में करता है।
The practical point of view (Vyavahara-nay) does take a thing as whole but concentrates on its units only. The opposite of it is called the real view-point (nischay nay) which takes a comprehensive view and takes into consideration the thing as a whole. (35)
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ववहारे–णुवदिस्सदि, णाणिस्स चरित्त–दंसणं णाणं ।
णवि णाणं ण चरित्तं, ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥5॥
व्यवहारेणोपदश्यते, ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्
नापि ज्ञानं न चरित्रं, न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ॥5॥
दर्शन, ज्ञान,चरित्र है, नय जिसका व्यवहार ।
निश्चयनय त्रिरत्न नहीं, ज्ञायक शुद्ध विचार ॥1.4.5.36॥
व्यवहार नय से यह कहा जाता है कि ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान और चारित्र होता है किन्तु निश्चय नय से उसके ज्ञान, दर्शन व चारित्र (त्रिरत्न) नहीं है। ज्ञानी तो शुद्ध ज्ञायक है।
From the practical standpoint (vyavahara-naya) it is said that a knower has got right perception, right knowledge and right conduct. From Real stand-point (nischaya naya), the wise has neither right Perception, nor right knowledge, nor right conduct. He is purely a knower, a conscious being. (36)
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एवं ववहार णओ, पडिसिद्धो जाण णिच्छय णयेण ।
णिच्छय–णय–संलीणा, मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥6॥
एवं व्यवहारनयं, प्रतिषिद्धं जानीहि निश्चयनयेन ।
निश्चयनयाश्रिताः पुनर्मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ॥6॥
व्यवहार–नय नकार दे, निश्चयनय का ज्ञान ।
निश्चयनय मुनिवर चले, मोक्ष मिलेगा जान ॥1.4.6.37॥
आत्माश्रित निश्चयनय द्वारा पराश्रित व्यवहारनय का प्रतिषेध किया जाता है। निश्चयनय का आश्रय लेने वाले मुनिजन ही निर्वाण प्राप्त करते हैं।
Know that the practical point of view is contradicted by the real point of view. The saints who take recourse to the real point of view (Niscaya-Naya) attain salvation. (37)
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जह ण वि सक्कमणज्जो, अणज्ज–भासं विणा टु़ गाहेटु़ ।
तह ववहारेण विणा, परमत्थु–वदेसेण–मसक्कं ॥7॥
यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम ।
तथा व्यवहारेण विना, परमार्थोपदेशनमशक्यम् ॥7॥
अनार्य वाणी चाहिये, दे अनार्य को ज्ञान ।
संभव ना व्यवहार बिना, परम अर्थ पहचान ॥1.4.7.38॥
जैसे अनार्य पुरुष को अनार्य भाषा के बिना समझाना संभव नही है, वैसे ही व्यवहार के बिना परम अर्थ का उपदेश संभव नहीं है।
Just as it is impossible to explain things to a non- Arya without taking recourse to a non-Aryan language, similarly it is impossible to explain the ultimate truth without taking recourse to vyavahara-naya. (38)
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ववहारोऽभूयत्थो, भूयत्थो देसिदो टुु़ सुद्ध–णओ ।
भूयत्थ–मस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥8॥
व्यवयहारोऽभूतार्थो, भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः।
भूतार्थमाश्रितः खलु, सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः ॥8॥
सच आंशिक व्यवहारनय, निश्चयनय सत् नींव ।
आश्रय जो सच का मिले, सम्यक दृष्टि सजीव ॥1.4.8.39॥
व्यवहारनय आंशिक सत्य है तथा निश्चयनय पूर्ण सत्य (भूतार्थ) है। भूतार्थ का आश्रय लेने वाले ही सम्यगदृष्टि होते हैं।
It is said that the practical point of view does not explain reality as it is, while the real point of view explains it as it is. He’ who takes recourse to the reality as it is, attains the right faith. (39)
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निच्छयमवलंबंता, निच्छयतो निच्छयं अजाणंता ।
नसंति चरणकरणं, बाहिरकरणालसा केई ॥9॥
निश्चयमवलम्बमानाः,निश्चयतः निश्चयम् अजानन्तः ।
नाशयन्ति चरणकरणम्, बाह्यकरणाऽलसाः केचित् ॥9॥
निश्चयनय आश्रय लिये, निश्चय हो ना पास ।
आचरण आलस्य सहित, चरणकरण का नाश ॥1.4.9.40॥
निश्चय का सहारा लेने वाले कुछ जीव निश्चय को निश्चय से न जानने के कारण बाह्य आचरण में आलसी होकर आचार क्रिया का नाश कर देते है। हैडरो।
Those souls (Jiva), who do not understand the Real from the real standpoint, although they rely upon the real, spoil their conduct by becoming either idle or arbitrary, in their outward apparent
behavior. (40)
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सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्वो परमभाव–दरिसीहिं ।
ववहार–देसिदा पुण, जे टु़ु अपरमे ट्ठिदा भावे ॥10॥
शुद्धः शुद्धादेशो, ज्ञातव्यः परमभावदर्शिभिः।
व्यवहारदेशिताः पुन–र्ये त्वपरमे स्थिता भावे ॥10॥
परमभावथिर जीव को, निश्चयनय संदेश ।
अपरमभावी जीव को, नय व्यव्हार उपदेश ॥1.4.10.41॥
परमभाव के जीवों के लिये निश्चयनय ही ज्ञातव्य है पर अपरमभाव में स्थित जीवोंके लिये व्यवहारनय के द्वारा ही उपदेश करना उचित है।
Reality can be understood properly by those who have realized the highest truth: but for those who are in a lower state it is proper to explain the reality through the practical point of view.(41)
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निच्छयओ टुण्णेयं, को भावे कम्मि वट्टई समणो ।
ववहारओ य कीरइ, जो पुव्वठिओ चरित्तम्मि ॥11॥
निश्चयतः दुर्ज्ञेयं, कः भावः कस्मिन् वर्तते श्रमणः ।
व्यवहारतस्तु क्रियते, यः पूर्वस्थितश्चारित्रे ॥11॥
कठिन जानना श्रमण को, बैठा है किस भाव ।
स्थित जब हो विगत में, व्यवहारनय स्वभाव ॥1.4.11.42॥
श्रमण किस भाव में स्थित है यह जानना कठिन है। अतः जो पूर्व चारित्र में स्थित है उनकी क्रिया व्यवहार नय द्वारा चलती है।
It is very difficult to know the mental states of monks; therefore the criterion of senionrity in the order of monks should be decided by practical view-point. (42)
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तम्हा सव्वे वि णया, मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा ।
अण्णोण्णणिस्सिया उण, हवंति सम्मत्तब्भावा ॥12॥
तस्मात् सर्वेऽपि नयाः, मिथ्यादृष्टयः स्वपक्षप्रतिबद्धाः।
अन्योन्यनिश्रिताः पुनः, भवन्ति सम्यक्त्वसद्भावा ॥12॥
हैं वे नय मिथ्या सभी, पक्ष स्वयं का जान ।
भाव मिले सम्यक तभी, होय सकल पहचान ॥1.4.12.43॥
अपने अपने पक्ष का आग्रह रखने वाले सभी नय मिथ्या है। परस्पर सापेक्ष हो जाने पर वे ही सम्यक् भाव को प्राप्त हो जाते है।
Hence all the nayas (view-points), so long as they remain confined to their own respective stand-points, are false, but when they are mutually dependent on one another, they become true. (43)
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कज्जं णाणादीयं, उस्सग्गाववायओ भवे सच्चं ।
तं तह समायरंतो, तं सफलं होइ सव्वं पि ॥13॥
कार्यं ज्ञानादिकं, उत्सर्गापवादतः भवेत् सत्यम् ।
तत् तथा समाचरन्, तत् सफलं भवति सर्वमपि ॥13॥
अपवादों उत्सर्ग करेे, सत्य ज्ञान के काम ।
करे काम कुछ इस तरह, मिले सफलता आम ॥1.4.13.44॥
ज्ञान आदि कार्य सामान्य विधि (उत्सर्ग) एवं विशेष विधि (अपवाद) से सत्य होते है। वे इस तरह से किये जायें कि सब कुछ सफल हो।
Conduct, knowledge etc. are right when they satisfy general rules as well as the exceptional conditions. They should be practised in such a manner that they become fruitful. (44)
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