४४. वीरस्तवन
णाणं सरणं में, दंसणं च सरणं च चरिय सरणं च ।
तव, संजमं च सरणं, भगवं सरणो महावीरो ॥1॥
ज्ञानं शरणं मम, दर्शनं च शरणं च चारित्र शरणं च।
तपः संयमश्च शरणं, भगवान् शरणो महावीरः ॥1॥
ज्ञान दर्शन की शरण, चरित्र है मम धीर ।
तप संयम की शरण मैं, मैं शरण महावीर ॥4.44.1.750॥
ज्ञान मेरा शरण है, दर्शन मेरा शरण है, चारित्र मेरा शरण है, तप और संयम मेरा शरण है तथा भगवान महावीर मेरे शरण है।
I am under the shelter of knowledge; I am under the shelter of perception; I am under the shelter of conduct; I am under the shelter of austerities and restraints; and I am under the shelter of lord Mahavir. (750)
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से सव्वदंसीअभिभूय णाणी, णिरामगंधे धिइयं ठियप्पा।
अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्जं, गंथा अतीते अभए अणाऊ ॥2॥
स सर्वदर्शीअभिभूज्ञानी, निरामगन्धो धृतिमान् स्थितात्मा।
अनुत्तरः सर्वजगति विद्वान्, ग्रन्थादतीतः अभयोऽनायुः ॥2॥
केवलज्ञानी सर्वदर्शी, मूल, स्थित, धीरवान ।
भयरहित अपरिग्रही, सर्वजगत विद्वान॥4.44.2.751॥
वे भगवान महावीर सर्वदर्शी, केवलज्ञानी, मूल और उत्तर-गुणों सहित विशुद्ध चारित्र का पालन करनेवाले, धैर्यवान और ग्रन्थातीत अर्थात् अपरिग्रही थे। अभय थे और आयुकर्म से रहित थे।
Lord Mahavir was omnipercept, omniscient follower of pureconduct with all its basic/original (Mula) and subsequent/posterior (uttar) attributes, Enduring, possessionless anthatila/devoid of knots) fearless and free of age karma.(751)
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से भूइ–पण्णे अणिएय–चारी, ओहंतलरे धीरे अणंतचक्खू ।
अणुत्ते तवति सूरिए व, वइरोयणिंदे व तमं पगासे ॥3॥
स भूतिप्रज्ञोऽनिकेतचारी, ओघन्तरो धीरोऽनन्तचक्षुः।
अनुत्तरं तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र इव तमः प्रकाशयति॥3॥
अनियताचारी, केवली, अनन्तदर्शी, भव पार।
अग्नि से ज्यूँ तम मिटे, ज्ञान से अंधकार ॥4.44.3.752॥
वे वीरप्रभु अनन्तज्ञानी, अनियताचारी थे। संसार-सागर को पार करनेवाले थे। धीर और अनन्तदर्शी थे। सूर्य की भाँति अतिशय तेजस्वी थे। जैसे जाज्वल्यमान अग्नि अन्धकार को नष्ट कर प्रकाश फैलाती है, वैसे ही उन्होंने भी अज्ञानांधकार का निवारण करके पदार्थों के सत्यस्वरूप को प्रकाशित किया था।
Lord Mahavir had infinite knowledge (Anant jnani) and indefinite conduct (Aniyata chari/of unfixed/indeterminate conduct. He had succeeded in crossing the ocean of the world.He was enduring and possessed of infinite perception (Anantdarshi). He was extremely brilliant (Tejasvi/illustrous) like sun just as fireablaze/destroys darkness and brings enlightenment; similarly lord Mahavir had removd the darkness of ignorance and thrown light on the true nature of essential elements (Padartha). (752)
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हत्थीसु एरावणमाहु णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा ।
पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, णिव्वाण वादी–णिह नायपुत्ते॥4॥
हस्तिष्वेरावणमाहुः ज्ञातं, सिंहो मुगाणां सलिलानां गङ्गा ।
पक्षिषु वा गरुडो वैनतेयः निर्वाणवादिनामिह ज्ञातपुत्रः ॥4॥
ज्ञानी अनन्त अनिकेत है, अनन्त दर्शी धीर।
सूर्य सा है तेजस्वी, तम निवारण वीर ॥4.44.4.753॥
जैसे हाथियों में ऐरावत, मृगों में सिंह, नदियों में गंगा, पक्षियों में वेणुदेव (गरुड़) श्रेष्ठ हैं, उसी तरह निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र (महावीर) श्रेष्ठ थे।
The son of Jnat (Mahavir) was best of all the propounders of salvation (Nirvanvadis), in the manner in which Airavat is best of all the animals, Ganga is best of all the rivers; and eagles (venudev/Garud) is best of all the birds. (753)
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दाणाण सेट्ठं अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवज्जं वयंति ।
तवेसु वा उत्तम बंभचेरं, लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ॥5॥
दानानां श्रेष्ठमभग्रप्रदानं, सत्येषु वा अनवद्यं वदन्ति।
तपस्सु वा उत्तमं ब्रह्मचर्यर्ं, लोकोत्तमः श्रमणो ज्ञातपुत्रः ॥5॥
अभय दान में श्रेष्ठ है, वचन न पीड़ा तीर।
तप में उत्तम ब्रह्मचर्य श्रमण श्रेष्ठ महावीर ॥4.44.5.754॥
जैसे दानों में अभयदान श्रेष्ठ है सत्यवचनों में अनवद्य वचन (पर-पीड़ाजनक नहीं) श्रेष्ठ है। जैसे सभी सत्यतपों में ब्रह्मचर्य उत्तम है, वैसे ही ज्ञातपुत्रं श्रमण लोक में उत्तम थे।
The supermost saint son of Jnata was supreme in the universe in the like manner in which the charity of protection (Abhaya-dan)is supermost of all the charities in which flawless and blameless speech (Anavadya-vachan) is supermost of all the true speeches; and celibacy (Brahma-charya) is supermost of all the true austerities (Satya-tapa). (754)
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जयइ जगजीवजोणी–वियाणओ जगगुरु जगाणंदो ।
जगणाहो जगबंधू, जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥6॥
जयति जगज्जीवयोनि–विज्ञायकों जगद्गुरुर्जगदानन्दः ।
जगन्नाथो जगद्बन्धु–र्जयति जगन्पितामहो भगवान् ॥6॥
ज्ञात योनि जीव जगत, गुर जग आनन्द जान ।
नाथ जगत है बंधु जगत, महावीर भगवान ॥4.44.6.755॥
जगत् के जीवों की योनि अर्थात् उत्पत्तिस्थान को जाननेवाले, जगत् के गुरु, जगत् के आनन्ददाता, जगत् के नाथ, जगत् के बन्धु, जगत् के पितामह भगवान जयवन्त हों।
May the lord-who knows the Yonis (breeding-centers/ generation centers) of all the living beings of the universe; who gives joy to universe; who is the lord of the universe; the brother of the universe and the great grant father of the universe be ever victorious. (755)
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जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ ।
जयइ गुरु लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥7॥
जयति श्रुतानां प्रभवः, तीर्थ कराणामपश्चिमो जयति।
जयति गुरुर्लोकनां, जयति महात्मा महावीरः ॥7॥
ज्ञाता हैं श्रुतज्ञान के, ये तीर्थंकर वीर।
लोक गुरु जयवन्त कहो, ये वीर महावीर ॥4.44.7.756॥
द्वादशांगरूप श्रुतज्ञान के उत्पत्तिस्थान जयवन्त हों, तीर्थकरों में अन्तिम जयवन्त हों। लोकों के गुरु जयवन्त हों। महात्म महावीर जयवन्त हों।
May the generation center of scriptural knowledge, that consists of twelve limbs (Dwada sanga-vani) the last amongst the twenty four tirthankars be victorious; May the great soul Mahavir be
victorious. (756)
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