४३. समापन-सूत्र
एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाण दंसणधरे ।
अरहा नायपुत्ते भगवं, वेसालिए वियाहिए त्ति बेमि ॥1॥
एवं स उदाहृतवान्–अनुत्तरज्ञा–न्यनुत्तरदर्शी अनुत्तरज्ञानदर्शनधरंः।
अर्हन्ज्ञातपुत्रो भगवान, वैशालिको व्याख्यातवानिति ब्रवीमि ॥1॥
अनुत्तरज्ञानी व दर्शी, ज्ञान देय भगवान ।
ज्ञातपुत्र महावीर ने, वैशाली व्याख्यान ॥4.43.1.745॥
इस प्रकार यह हितोपदेश अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी तथा अनुत्तरज्ञानदर्शन के धारी ज्ञातपुत्र भगवान, महावीर ने विशाला नगरी में दिया था।
This benedictory sermon (Hetopadesha) was delivered by lord Mahavir the son of jnat the silent knower (Anutter-darshi) and the silent embodiment of knowledge and perception (Anuttarjnan darshan-dhari) in the city of (Vaishali). (745)
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ण हि णूण पुरा अणुस्सयं, अदुवा तं तह णो अणुट्ठियं।
मुणिणा सामाइ आहियं, णाएण जग–सव्व–दंसिणा॥2॥
नहि नूनं पुराऽ नुश्रुतम–थवा तत्तथा नो समुत्थितम्।
मुनिना सामायिकाद्याख्यातं, ज्ञातेन जगत्सर्वदर्शिना ॥2॥
नही सुना ना ही गुना, महावीर का ज्ञान ।
सामायिक उपदेश थे, नहीं आचरण जान ॥4.43.2.746॥
सर्वदर्शी ज्ञातपुत्र भगवान, महावीर ने सामायिक आदि का उपदेश दिया था, किन्तु जीव ने उसे सुना नही अथवा सुनकर उसका सम्यक् आचरण नहीं किया।
I have attained that well said vector like preachings of jina(jinavachan) today that I never attained so far. I have accordingly adopted that way of achieving higher grade of life. I do not fear death now. (749)
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अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं जो आगतिं जाणइऽणागतिं च ।
जो सासयं जाण असासचं च जातिं मरणं च चयणोववातं ॥3॥
अहो वि सत्ताण वि उड्ढणं च, जो आसवं जाणति संवरं च ।
दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च, सो भासिउ–मरिहति किरियवादं ॥4॥
आत्मानं यः जानाति यश्च लोकं यः आगतिं नागतिं च ।
यः शाश्वतं जानाति अशाश्वतं च जातिमरणं च च्यवनोपपातम्॥3॥
अधः अपि सत्त्वानाम् अपि र्ध्वं य आस्रवं जानाति संवरं च ।
दुःखं चं यः जानाति निर्जरां च सभाषितुम् अर्हति क्रियावादान् ॥4॥
आत्मा जाने लोक भी, आगति नागति ज्ञान।
जन्म मरण नित्यो–अनित्य, चयनादि अपि जान ॥4.43.3.747॥
जिसे सत्य का ज्ञान है, संवर आस्रव सार।
जाने दुख और निर्जरा, सम्यक् कथन अधिकार ॥4.43.4.748॥
जोे आत्मा को जानता है लोक को जानता है, आगति और अनागति को जानता है, शाश्वत-अशाश्वत, जन्म-मरण, चयन और उपवाद को जानता है, आस्रव और संवर को जानता है, दुःख और निर्जरा को जानता है वही क्रियावाद का अर्थात् सम्यक् आचार-विचार का कथन कर सकता है।
He (alone) can properly preach about Right thought and Right conduct (samyak acharvichar) i.e. ritualism (kriyavad), who knows present and future immortal and mortal birth and death dripping and being reborn in heavens; inflow and stoppage of karmas; sorrow and shedding off of karmas. (747 & 748)
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लद्धं अलद्ध–पुव्वं, जिण–वयण–सुभासिदं अमिद–भूदं ।
गहिदो सुग्गइ–मग्गो, णाहं मरणस्स बीहेमि ॥5॥
लब्धमलब्धपूर्वं, जिनवचन–सुभाषितं अमृतभूतम्।
गृहीतः सुगतिमार्गो नाहं मरणाद् बिभेमि ॥5॥
मिला कभी ना पूर्व में, जिन का अमृत सार।
सुगति मार्ग जो मिल गया, भय मरना बेकार ॥4.43.5.749॥
जो मुझे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ वह अमृतमय सुभाषित जिनवचन आज मुझे उपलब्ध हुआ है और तदनुसार सुगति का मार्ग मैंने स्वीकार किया है। अतः अब मुझे मरण का कोई भय नही है।
I have attained that well said vector like preachings of jina (jinavachan) today that I never attained so far. I haveaccordingly adopted that way of achieving higher grade of life. I do not fear death now. (749)
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