३८. प्रमाणसूत्र
संसय–विमोह–विब्भय–विविज्जियं, अप्प–पर–सरूवस्स ।
गहणं सम्मं णाणं, सायार–मणेय–भेयं तु ॥1॥
संशयविमोह–विभ्रमविवर्जितमात्म–परस्वरूपस्य।
ग्रहणं सम्यग्ज्ञानं, साकारमनेकभेदं ॥1॥
विमोह विभ्रम संशयरहित, स्व–पर रूप का ज्ञान ।
भेद अनेक विकल्प है, ग्रहण हो सम्यग्यान ॥4.38.1.674॥
संशय, विमोह और विभ्रम इन तीन मिथ्याज्ञानों सें रहित अपने और पर के स्वरूप को ग्रहण करना सम्यगज्ञान है। यह वस्तुस्वरूप का यथार्थ निश्चय कराता है। इसलिये इसे साकार अर्थात् सावकल उपक (निश्चयात्मक) कहा गया है।
Such a grasping of the nature of self and that of other things, as is free from doubt, mistake and uncertainty is called the right knowledge; it is of a determinate form and is of various types. (674)
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तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं ।
ओहीनाणं तइंय, मणनाणं च केवलं ॥2॥
तत्र पञ्चविधं ज्ञानं, श्रुतमाभिनिबोधिकम् ।
अवधिज्ञानं तु तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम् ॥2॥
ज्ञान पाँच प्रकार है, मति और श्रुत का ज्ञान ।
ज्ञान अवधि व मनः पर्यय भी, उत्तम केवल ज्ञान ॥4.38.2.675॥
वह ज्ञान पाँच प्रकार का है। आभिनिबोधिक या मतिज्ञश्रान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान।
Knowledge is of five kinds: 1. Sensory; 2. Scriptural (Srit-Jnan); 3. Clairvoyance; 4. Telepathic and 5. Perfect knowledge (Keval jnan). (675)
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पंचेव होंति णाणा, मदि–सुद–ओही–मणं च केवलयं ।
खयउवसमिया चउरो, केवलणाणं हवे खइयं ॥3॥
नञ्चैव भवन्ति ज्ञानानि, मतिश्रुतावधिमनश्च केवलम् ।
क्षायोपशमिकानि चत्वारि, केवलज्ञानं भवेत् ॥3॥
केवल, अवधि, श्रुत मति, मनो ज्ञान प्रकार।
ज्ञान अपूरन चार रहे, “केवल” पूर्ण विचार ॥4.38.3.676॥
एकदेश क्षय व उपशम से उत्पन्न होने के कारण प्रथम चार ज्ञान अपूर्ण (क्षायोपशमिक) है। समस्त कर्मों के क्षय होने के कारण पाचवाँ केवलज्ञान परिपूर्ण (क्षायिक) है।
Knowledge is thus of five kinds: sensory knowledge, scriptural knowledge, clairvoyance, telepathy and perfect (omniscience). The first four are part knowledge and result from substance cum annihilation of the relevant Karmas, while omniscience result after total annihilation of Karmas. (676)
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ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा ।
सण्णा सत्ती मती पण्णा, सव्वं आभिणिबोहियं ॥4॥
ईहा अपोहः विमर्शः मार्गणा च गवेषणा।
संज्ञा स्मृतिः मतिः प्रज्ञा सर्वम् आभिनिबकम् ॥4॥
सोच विचार, तर्क समझ, निर्णय और अनुमान ।
अभिनिबोधिक इसे कहे, या कहिये मतिज्ञान ॥4.38.4.677॥
ईहा (सोच), अपोह (समझ), मीमांसा (विचार), गवेषणा (तर्क), संज्ञा, शक्ति, स्मृति और प्रज्ञा ये सब अभिनिबोधिक या मतिज्ञान है।
Reflection on what has been perceived, reasoning, questioning, examining, searching, understanding and judging these are the varieties of sensory knowledge. (677)
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अत्थादो अत्थंतर–मुवलंभो, तं भणंति सुदणाणं ।
आभिणिबोहिय–पुव्वं, णियमेणिह सद्दजं पमुहं ॥5॥
अर्थादिथन्तिर–मुपलम्भः तं भणन्ति श्रुतज्ञानम्।
आभिनिबोधिकपूर्व, नियमेन च शब्दजं मूलम् ॥5॥
अर्थान्तर को ग्रहण करे, कहलाता श्रुतज्ञान।
मतिज्ञान पूर्वक रहे, शब्द मुख्य पहचान ॥87.5.678॥
शब्द जो जानकर उस पर से अर्थान्तर को ग्रहण करना श्रुतज्ञान है। यह ज्ञान नियमतः आभिनिबोधिक ज्ञानपूर्वक होता है। इसके दो भेद है। लिंगजन्य और शब्दजन्य । धुँआ देखकर होने वाला अग्नि का ज्ञान लिंगज है और वाचक शब्द सुन या पढ़ कर होने वाला ज्ञान शब्दज है। आगम में शब्दज श्रुतज्ञान का प्राधान्य है।
(Like Reasoning by inference/Anuman/lingajnan), the scriptural knowledge consists of knowing or grasping the clearmeaning expressed in words (Vacyartha) on the basis of the knowledge of words of “Arhat’s” (Sabda/Arhta). This knowledge is as a rule the result of sensory knowledge (Abhinibodhak/Matijnan). The scriptural knowledge is of two kinds: 1. Verbal (Sadba-janya) and 2. Non-verbal (to know about fire by seeing smoke in the sky is nonverbal scripturalknowledge and the knowledge derived from works read or spoken is verbal scriptural knowledge). Again there is predominance of verbal scriptural knowledge.(678)
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इंदियमणोनिमित्तं, जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं ।
निययतत्थुत्तिसमत्थं, तं भावसुयं मई सेसं ॥6॥
प्रादुर्भवति चान्यः, पर्यायः पर्यायो व्ययते अन्यः ।
द्रव्यस्य तदपि द्रव्यं, नैव प्रनष्टं नैव उत्पन्नम् ॥6॥
इन्द्रिय व मन से निमित्त, ज्ञान शब्द अनुसार ।
शब्द श्रुत कहना समर्थ, शेष है बुद्धि विचार ॥4.38.6.679॥
इन्द्रिय और मन के निमित्त से सुनकर पढ़कर होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। वह अपने विषयभूत अर्थ को दूसरे से कहने में समर्थ होता है। शेष इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने अश्रुतानुसारी अवग्रहादि ज्ञान मतिज्ञान है। इसको स्वयं तो जाना जा सकता है लेकिन दूसरे को नही समझाया जा सकता है।
The scriptural knowledge has been so denominated as it follows the scriptures with the help (support) of senses and mind. It is capable of communicating the significance (purpose) of its subject (visaya bhuta Artha). The rest (i.e. the tendency towards an object (Avagrega) and the like knowledge which is not in accordance with scriptures, though it caused by senses and mind, is sensory knowledge (Mati-jnan). (679)
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मइ–पुव्वं सुय–मुत्तं, न मई सुय–पुव्विया विसेसोऽयं ।
पुव्वं पूरण–पालण–भावाओ जं मई तस्त ॥7॥
मतिपूर्व श्रुतमुक्तं, न मतिःश्रुतपूर्विका विशेषोऽयम् ।
पूर्वं पूरणपालन–भाववाद्यद् मतिस्तस्य ॥7॥
मतिपूर्वक आगम कहे, होत सदा श्रुतज्ञान।
श्रुतपूर्वक मतिज्ञान ना, प्रमुख अन्तर जान ॥4.38.7.680॥
आगम में कहा गया है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञानपूर्वक नहीं होता है। यही दोनों ज्ञानों में अन्तर है।
The sensory knowledge includes (Precedes and assists) the scriptural knowledge; not vice versa. This is the main difference in between these two kind of knowledge. The word “Purva” has been derived from the root (dhatu) “pri” which me ans f a s t ening up/ complying wi th/pa l an and completing/filling/purana. As the sensory knowledge completes and complies with scriptural knowledge it (sensitive-knowledge) precedes it (scriptural) (knowledge). Hence, scriptural knowledge has been said to be mingles with sensory knowledge. (680)
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अवहीयदि त्ति ओही सीमाणाणे त्ति वण्णिदं समए ।
भव–गुण–पच्चय–विहियं, तमोहिणाणं त्ति णं बंति ॥8॥
अवधीयत इत्यवधिः, सीमाज्ञानमिति वर्णितं समये।
भवगुणप्रत्ययविधिकं, तदवधिज्ञानमिति ब्रुवन्ति ॥8॥
अवधिज्ञान सीमित रहे, भाव क्षेत्र द्रव्यकाल ।
भव गुणों का भेद कहे, सीमा है हर हाल ॥4.38.8.681॥
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादापूर्वक पदार्थों को एकदेश जाननेवाला ज्ञान अवधि ज्ञान कहते है। इसे आगम में सीमाज्ञान भी कहा गया है। इसके दो भेद है। भवप्रत्यय और गुण प्रत्यय।
“Avadhiyati” its avadhih (i.e. the knowledge, which partly know the objects having limitations of subjects matter (Dravya), area/space (kshetra), time (kala) and quality of the objects known (Bhava) is called clairvoyance knowledge (Avadhi- Jnan). Agama describes it as the knowledge limitation. It is of two kinds: 1. The clairvoyance knowledge since birth (Bhavapratyaya) and 2. The clairvoyance knowledge derived from merit (Guna pratyaya). (681)
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चिंतिय–मचिंतियंऽवा अद्धं चिंतिय–मणेय–भेय–गयं ।
मण–पज्जवत्ति णाणं, जंजाणइ तं तु णर–लोए ॥9॥
चिन्तितमचिन्तितं वा, अर्द्ध चिन्तितमनेकभेदगतम्।
मनःपर्यायः ति ज्ञानं, यज्जानाति तत्तु नरलोके ॥9॥
अचिंत चिंतित, अर्धचिंतित, भेद अनेक प्रकार ।
मन प्रत्यक्ष ही जानता, मनुष्यलोक विचार ॥4.38.9.682॥
जो ज्ञान मनुष्यलोक में स्थित जीव के चिन्तित, अचिंतित,अर्धचिंतित आदि अनेक प्रकार के अर्थ से मन को प्रत्यक्ष जानता है वह मनः पर्याय ज्ञान है।
The knowledge which directly knows the thoughtful (chintiata), unthoughtful (Achintita) and semi thoughtful (Ardha-chintita) minds of embodied souls of the human universe (Maunsya-lok) is called telepathic knowledge (Manah-parayaya) (Jnan). (682)
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केवल–मेगे सुद्धं, सगल–मसाहारणं अणंतं च।
पायं च नाण–सद्दो, नाम–समाणा–हिगरणोऽयं ॥10॥
सविकल्प–निर्विकल्पम् इति पुरुषं यो भणेद् अविकल्पम्।
सविकल्पमेव वा निश्चयेन न स निश्चितः समये ॥10॥
एकमात्र है शुद्ध सकल, अनंत अद्भुत ज्ञान ।
ज्ञान एक है शब्द कई, कोई न एक समान ॥4.38.10.683॥
केवल शब्द के एक, शुद्ध, सकल, असाधारण और अनन्त आदि अर्थ हैं। केवल ज्ञान एक है क्योंकि उसके होने से अन्य ज्ञान निवृत्त हो जाते है इसलिये एकाकी है। मलकलंक से रहित होने से शुद्ध है। सम्पूर्ण ज्ञेयों का ग्राहक होने से सकल है। इसके समान और कोई ज्ञान नहीं इसलिये असाधारण है। इसका कभी अन्त नही होता इसलिये अनन्त है।
The word “Keval” signifies one (Eka) pure (Shuddha) Gross (sakal) extra ordinary (Asadharana) and infinite (Ananta). Hence perfect knowledge (keval-Jnan) one it is not assisted (or supported) by senses etc.; and all the other kinds of knowledge disappear (retire) the moment it manifests. Therefore perfect knowledge is alone (E’ka ki/singular) and is pure by virtue of that being (absolutely) free of all the spots/flaws of the filth (of karmas). It is gross, as it knows (understands) all the knowables. It is extraordinary; because there is no parallel or comparison to it (none other forms of knowledge is a match of/equal to it). It is infinite because it never ends. (683)
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संभिन्नं पासंतो, लोक–मलोगं च सव्वओ सव्वं ।
तं नत्थि जं ना पासइ, भूयं भव्वं भविस्सं च ॥11॥
संभिन्नं पश्यन् लोकमलोकं च सर्वतः सर्वम् ।
तन्नास्ति यत्र पश्यति, भूतं भव्यं भविष्यच्च ॥11॥
ज्ञान है केवल जानता, पूर्ण लोक अलोक ।
आज भूत भविष्य भी, छुपता नहीं त्रिलोक ॥4.38.11.684॥
केवल ज्ञान और अलोक को सर्वतः परिपूर्ण रुप से जानता है। भूत भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नही है जिसे केवल ज्ञान नही जानता।
Perfect knowledge knows universe and non universe in all its totality. There was nothing in past and noting at present and shall be nothing in future, which perfect knowledge does not know. (684)
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गेहृइ वत्थुसहावं अविरुद्धं सम्मुरूवं जं णाणं।
भणियं खु तं पमाणं पच्चक्ख–परोक्ख–भेएहिं ॥12॥
गुह्णाति वस्तुस्वभावम्, अविरुद्धं सम्यग्रूपं यज्ज्ञानम्।
भणिते खलु तत् प्रमाणं, प्रत्यक्षपरे क्षभेदाभ्याम् ॥12॥
ज्ञात स्वभाव सम्यक् सदा, उसको ही सच मान ।
भेद है उसके दो कहे, प्रत्यक्ष परोक्षप्रमाण ॥4.38.12.685॥
जो ज्ञान वस्तु स्वभाव को – यथार्थस्वरुप को–सम्यक् रुप से जानता है, उसे प्रमाण कहते हैं। इसके दो भेद है। प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण।
Pramana is the knowledge which rightly knows the nature of soul (Vastu-svabhava). It is of two kinds : 1. Direct and 2. Indirect (685)
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जीवो अक्खो अत्थव्वण–भोयण–गुणन्निओ जेणं ।
तं पई वट्ट नाणं जे एच्चक्खं तय तिविहं॥13॥
तहवः अक्षः अर्थव्यापन–भोजनगणान्वितो येन ।
तं प्रति वर्तते ज्ञानं, यत् प्रत्यक्षं तत् त्रिविम् ॥13॥
जीव ‘अक्ष’ भी हम कहे, भोगे तीनों लोक ।
मन–अवधि का अंतर बस, साक्षात हर लोक ॥4.38.13.686॥
जीव को अक्ष कहते हैं। जो ज्ञानरुप में समस्त पदार्थों में व्याप्त है वह अक्ष अर्थात जीव है। उस अक्ष से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके तीन भेद है। अवधि, मनःपर्यय व केवल ज्ञान।
The soul (jiva) is called “Akasha” this word has been derived from the root (Dhata) “Ashuvyapn”. “Akasha” (Jiva) is that which is prevailing (vyapta) in all the beings in the form of knowledge the derivation of the work “Akasha” can also be effected for the root “Ash” that means food. He who enjoys the prosperity of all the three worlds is “Aksha” (Jiva). In this way the interpretation of Juva as Aksha is done from both roots, The knowledge obtained through “Akasha” is direct (Pratyaksha) is if three kinds : 1. Clairvoyance, 2. Telepathic and 3. Perfect. (686)
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अक्खस्स पोग्गलकया, जं दव्विन्दिय–मणा–परा तेणं।
तेहिं तो जं नाणं, परोक्खमिह तम–णुमाणं व ॥14॥
अक्षस्य पुद्गलकृतानि यत्, द्रव्येन्द्रियमनांसि पराणितेन ।
तैस्तस्माद् यज्ज्ञानं, परोक्षमिह तदनुमानमिव ॥14॥
भिन्न मन द्रव्येन्द्रियाँ, जीव अलग पहचान ।
कहे ज्ञान परोक्ष उसे, ‘पर’ करता अनुमान ॥4.38.14.687॥
पौद्गलिक होने के कारण द्रव्येन्द्रियों और मन जीव (अक्ष) से पर है। अतः उससे होने वाला ज्ञान परोक्ष है। जैसे अनुमान में धुएँ से अग्नि का ज्ञान होना।
The objective senses (Dravyendriya’ s) and the mind (mana) are different from “Aksha” (Jiva). Hence the knowledge acquired thorough them is called indirect (paroksa). Just as in inference (Anuman) the smoke gives the knowledge of fire in the same way the indirect knowledge is caused by non self (par/other). (687)
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होंति परोक्खाइं मइ–सुयाइं जीवस्स पर–निमित्ताओ।
पुव्वो–वलद्ध–संबंध–सरणाओ, वाणुमाणं व ॥15॥
भवतः परोक्षे मति–श्रुते जीवस्य परनिमित्तात्।
पूर्वोपलब्धसम्बन्ध–स्मरणाद् वाऽनुमानमिव ॥15॥
मति व शब्द परोक्ष है, ‘पर’ निमित्त है ज्ञान ।
पूर्व है और याद से, पर निमित्त अनुमान ॥3.38.15.688॥
जीव के मति और श्रुतज्ञान परनिमित्तक होने के कारण परोक्ष है। अथवा अनुमान की तरह पहले से उपलब्ध अर्थ के स्मरण द्वारा होने के कारण भी वे परनिमित्तक है।
The sensory and scriptural knowledge of the soul (jiva) are indirect (Apratyaksha) by virtue of being dependent upon others because they are caused by the remembrance of an object known before (but which is now out of sight), as in inference. (688)
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एगंतेण परोक्खं, लिंगिय–मोहाइयं च पच्चक्खं।
इंदिय–मणो–भवंजं, तं संववहार–पच्चक्खं ॥16॥
एकान्तेन परोक्षं, लैङ्गिकमव्ध्यादिकं च प्रत्यक्षम्।
इन्द्रियमनोभवं यत्, तत् संव्यहारप्रत्यक्षम् ॥16॥
अवधि मन बस सामने, परोक्ष लिंग से ज्ञान ।
इन्द्रिय इस मन ज्ञान को, लोक सत्य ही मान ॥4.38.16.689॥
लिंग से होने वाला श्रुतज्ञान तो अकाम्तरूप से परोक्ष ही है। अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान एकान्तरूप से प्रत्यक्ष ही है। किन्तु इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान लोक व्यवहार में प्रत्यक्ष माना जाता है। इसलिये वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है।
In a real sense, the cognition acquired through the other sources is paroksa i.e. indirect while cognition acquired directly by the soul is pratyaksa. But the cognition, born of a sense-organ is `pratyaksa’ practically so called. (689)
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