३४. तत्त्वसूत्र
जावन्तऽविज्जा–पुरिसा, सव्वे ते दुक्ख–संभवा ।
लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणन्तए ॥1॥
यावन्तोऽविद्यापुरुषाः, सर्वे ते दुःखसम्भवाः।
लुप्यन्ते बहुशो मूढाः, संसारेऽनन्तके ॥1॥
अज्ञानी सब है दुखी, दुख उत्पादक मान।
मूढ़ विवेकी लुप्त हुये, जग अनन्त अज्ञान ॥3.34.1.588॥
समस्त अज्ञानी पुरुष दुःखी हैं। वे विवेकमूढ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं।
All who are ignorant suffer misery and they are the creators of unhappiness.; most of those who are foolish will remain confounded in this endless mundane of existence. (588)
—————————————————————————————————————————
समिक्ख पंडिए तम्हा, पास–जाइ–पहे बहू ।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्तिं भूएसु कप्पए ॥2॥
समीक्ष्य पण्डितस्तस्मात्, पाशजातिपथान, ब्रहून् ।
आत्मना सत्यमेषयेत् मैत्रीं भूतेषु कल्पयेत् ॥2॥
पण्डित परख कर जाते, बन्धनरूप सम्बन्ध ।
खोजे स्वयं सत्य को, बाँधे मैत्री–बन्ध ॥3.34.2.589॥
इसलिए पंडित पुरुष अनेकविध बंधनरूप स्त्री-पुत्रादि के सम्बन्धों की, जो कि जन्म-मरण के कारण है, समीक्षा करके स्वयं सत्य की खोज करे और सब प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखे।
Hence, a wise person, considering that most of the ways of living result in entanglements of existence, should search for truth with his own soul and develop friendliness towards all living beings. (589)
—————————————————————————————————————————
तच्चं तह परमट्ठं, दव्वसहावं तहेव परमपरं ।
धेयं सुद्धं परमं, एयट्ठा हुंति अभिहाणा ॥3॥
तत्त्वं तथा परमार्थः, द्रव्यस्वभावस्तथैव परमपरम्।
ध्येयं शुद्धं परमम्, एकार्थानि भवन्त्यभिधानानि ॥3॥
तत्त्व वा द्रव्यस्वभाव, शुद्ध अथवा परमार्थ ।
परम व परापरध्येय, हैं नाम सब एकार्थ ॥3.34.3.590॥
तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर-अपर ध्येय, शुद्ध, परम-ये सब शब्द एकार्थवाची है।
All these words Elements, subtle truth, Nature of substance, objects of contemplation of self and nonself , pure and supreme are synonymous. (590)
—————————————————————————————————————————
जीवाऽजीवा य बन्धो य, पुण्णं पावाऽऽसवो तहा ।
संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव॥4॥
जीवा अजीवाश्च बन्धश्च, पुण्यं पापास्रवः तथा।
सवंरो निर्जरा मोक्षः, सन्त्येते तथ्या नव ॥4॥
जीव–अजीव आस्रव, बन्ध पुण्य पाप अर्थ।
संवर, निर्जरा व मोक्ष, कुल नौ कहे पदार्थ ॥3.34.4.591॥
जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष-ये नौ तत्त्व या पदार्थ हैं।
The nine essential elements are : 1. Soul; 2. Non soul; 3. Karmic Bondage; 4. Merit; 5. Demerit; 6. Inflow of karmas; 7. Stoppage of the inflow of karmas; 8. Shedding of karmas; and 9. liberation. (591)
—————————————————————————————————————————
उवओगलक्खणमणाइ–निहणमत्थंतरं सरीराओ ।
जीवमरूविं कारिं, भोयं च सयस्स कम्मस्स ॥5॥
उपयोगलक्षणमनाद्य–निधनमर्थान्तरं शरीरात् ।
जीवमरूपिणं कारिणं, भोगे च स्वकस्य कर्मणः ॥5॥
अनादिनिधन, चेतनमय, देह भिन्न है जीव।
कर्ता भोक्ता कर्म का, रूपादिरहित जीव ॥3.34.5.592॥
जीव का लक्षण उपयोग है। यह अनादि-निधन है। शरीर से भिन्न है। अरूपी है। अपने कर्म का कर्ता भोक्ता है।
The characteristics of soul is consciousness, eternal, different from the body, formless and is the doer and enjoyer of his karmas. (592)
—————————————————————————————————————————
सुह–दुक्ख–जाणणा वा, हिद परियम्मं च अहिद भीरुत्तं ।
जस्स ण विज्जदि णिच्चं तं समणा विंति अज्जीवं ॥6॥
सुखदुःख ज्ञानं वा, हितपरिकर्म चाहितभीरुत्वम् ।
यस्य न विद्यते नित्यं, तं श्रमणा ब्रुवते अजीवम् ॥6॥
सुख–दुख का ज्ञान नहीं, अचेतन है सदीव ।
हि–अहित का भय नहीं, श्रमण कहे अजीव ॥3.34.6.593॥
श्रमण जन उसे अजीव कहते हैं जिसे सुख दुख का ज्ञान नही होता।हित के प्रति उद्यम और अहित का भय नही होता।
The saints call them nonsouls, which are not conscious of pleasure and pain; does not know what is beneficial and what is not beneficial. Non-soul can’t live eternal. (593)
—————————————————————————————————————————
अज्जीवो पुण णेओ, पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं ।
कालो पुग्गल मुत्तो, रूवादि गुणो अमुत्ति सेसा हु ॥7॥
अजीवः पुनः ज्ञेयः पुद्गलः धर्मः अधर्मः आकाशः ।
कालः पुुद्गलः मूर्तः रूपादिगुणः, अमूर्तयः शेषाः खलु ॥7॥
पुद्गल, धर्म, अधर्म द्रव्य, अजीव नभ संग काल।
पुद्गल मूर्त रूप गुण, शेष अमूर्त विशाल ॥3.34.7.594॥
अजीव द्रव्य पाँच प्रकार का है – पुद्गल, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश और काल। इनमें से पुद्गल रूपादि गुण युक्त होने से मूर्तिक है। शेष चारों अमूर्तिक है।
The non souls are of five kinds: 1. Matter; 2. Medium of Rest; 3. Medium of motion. 4. Space; 5. Time; of them matter is corporal (formal), as it has the attributes of form etc. The rest four are noncorporeal. Ajiva should again be known (to be of five kinds): matter (pudgala), motion (dharma) rest (adharma), space (akasa) and time (kala): matter has form as it has the attributes of colour etc., the rest of them are verily formless. (594)
—————————————————————————————————————————
नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो ।
अज्झत्थेहेउं निययऽस्स बन्धो, संसारहेउं च वयन्ति बन्धं ॥8॥
नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात्, अमूर्त्तभावादपि च भवति नित्यः ।
अध्यात्महेतुर्नियतः अस्य बन्धः, संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम् ॥8॥
इन्द्रियाँ जाने नहीं, नित अमूर्त गुण सार।
बंधें आत्मा राग से, बंधन ही संसार ॥3.34.8.595॥
आत्मा अमूर्त है अतः वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नही है । तथा अमूर्त पदार्थ नित्य होता है। आत्मा के आन्तरिक रागादि भाव ही निश्चयतः बन्ध के कारण है और बन्ध को संसार का हेतु कहा गया है
The soul is not perceptible to the senses as it has no corporal form; it is external since it has no corporal form; due to internal activities like the passions, Karma binds the soul; and it is said that bondage is the cause of mundane existence. (595)
—————————————————————————————————————————
रत्तो बंधदि कम्मं, मुंच्चदि कम्मेहिं राग–रहिवप्पा।
एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥9॥
रक्तो बध्नाति कर्मं, मुच्यते कर्मभी रागरहितात्मा।
एष बन्धसमासो, जीवानां जानीहि निश्चयतः ॥9॥
रागादिभाव बन्ध के कारण, संसार कारण बन्ध ।
निश्चयनय संक्षेप से, यही है जीवबन्ध ॥3.34.9.596॥
रागयुक्त ही कर्म बंधन करता है। रागरहित आत्मा कर्मों से मुक्त होती है। यह निश्चय नय से संक्षेप में जीवों के बन्ध का कथन है।
Attachment binds the soul (with Karmas); a soul which is free from attachments becomes liberated from Karmas. Know that this surely is briefly (the nature of) the Karmic bondage of souls.(596)
—————————————————————————————————————————
तम्हा णिव्वुदिकामो रागं सव्वत्थ कुणदि मा किंचि।
सो तेण वीदरागो भवियो भवसायरं तरदि ॥10॥
तस्मात् निर्वृत्तिकामो, रागंसर्वत्र करोतु मा किंचित्।
स तेन वीतरागो, भव्यो भवसागरं तरति॥10॥
अभिलाषी हो मोक्ष का, करे न किंचित राग ।
भवसागर को पार करे, जीव बने वीतराग ॥3.34.10.597॥
इसलिये मोक्षअभिलाषी को तनिक भी राग नही करना चाहिये। ऐसा करने से वह वीतराग होकर भवसागर को तार जाता है।
Therefore, it is desirable to renounce the attachments; do not do anything at any time that brings about an attachment even to the slightest degree; it is due to this that a soul conquers all attachments and crosses over the ocean of worldly existence. (597)
—————————————————————————————————————————
कम्मं पुण्णं पावं, हेदउं तेसिं च होंति सच्छिदरा।
मंद–कसाया सच्छा, तिव्व–कसाया असच्छा हु ॥11॥
कर्म पुण्यं पापं, हेतवः तेषां च भवन्ति स्वेच्छेतराः।
मन्दकषायाः स्वच्छाः, तीव्रकषायाः अस्वच्छाः खलु ॥11॥
पाप पुण्य है कर्म दो, शुभम अशुभ हैं भाव ।
मंद–कषाय ये हैं शुभ, शुभ ना तीव्र स्वभाव ॥3.34.11.598॥
कर्म दो प्रकार के है। पुण्यरूप व पापरूप। पुण्यकर्म का हेतु शुभभाव है व पापकर्म का हेतु अशुभ भाव है। मन्दकषायी जीव स्वच्छभाव वाले होते हैं। तीव्कषायी वाले जीव अस्वच्छ भाववाले होते हैं।
Karma is the cause of merit (punya) and demerit (papa); auspicious thoughts give rise to merit while inauspicious thoughts to demerit. Those who are possessed of subdued passions have clean (mental states); those with intense passions will have unclean (mental states). (598)
—————————————————————————————————————————
सव्वत्थ वि पिय–वचणं, दुव्वयणे दुज्जणे वि खम–करणं।
सव्वेसिं गुण–गहणं, मंद–कसायाण दिट्ठंता ॥12॥
सर्वत्र अपि प्रियवचनं, दुर्वचने अपि क्षमाकरणम्।
सर्वेषां गुणग्रहणं, मन्दकषायाणां दृष्टान्ताः ॥12॥
बोल वचन सर्वत्र प्रिय, क्षमा दुर्वचन पाय ।
ग्रहण करे गुण जगत के, लक्षण मन्द कषाय॥3.34.12.599॥
सर्वत्र ही प्रिय वचन बोलना, दुर्वचन वाले को भी क्षमाभाव तथा सबके गुणों को ग्रहण करना – ये मन्दकषायी जीवों के लक्षण है।
Always speak words which are dear (to others), even those wicked men who use harsh words ought to be forgiven; one must take the best from all people, these are illustrative of persons possessed of subdued passions. (599)
—————————————————————————————————————————
अप्प–पसंसण–करणं, पुज्जेसु वि दोस–गहण–सीलत्तं।
वेर धरणं च सुइरं, तिव्व–कसायाण लिंगाणि॥13॥
आत्मप्रशंसनकरणं, पूज्यषु अपि दोषग्रहणशीलत्वम्।
वैरधारणं च सुचिरं, तीव्रकषायाणां लिङ्गानि ॥13॥
आत्म प्रशंसा लीन जो, पूज्य पुरुष में दोष ।
दीर्घ काल तक बैर हो, तीव्र पाप का कोष ॥3.34.13.600॥
अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना, दीर्घकाल तक बैर की गाँठ बाँधे रखना – ये तीव्र कषाय वाले जीव के लक्षण है।
Praising oneself, picking up faults even with those who are worthy of worship and maintaining inimical attitude for a pretty long time, these are the characteristics of persons possessed of intense passions. (600)
—————————————————————————————————————————
रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माइं ।
आसवदारेहिं अवि–गुहेहिं तिविहे करणेणं ॥14॥
रागद्वेषप्रमत्तः, इन्द्रियवशगः करोति कर्माणि।
आस्रवद्वारै रविगूहितैस्त्रिविधेन करणेन ॥14॥
राग द्वेष हो इन्द्रियवश, कर्मों में मदहोश ।
खुले द्वार आस्रव रहे, कर्म निरन्तर जोश ॥3.34.14.601॥
रागद्वेष से प्रमत्त जीव इन्द्रियाँधीन होकर मन-वचन-काय के द्वारा उसके आस्रव द्वार खुले रहने के कारण निरन्तर कर्म करता रहता है।
A person, having lost his self-awareness due to attachment and aversion, remains enslaved by the senses. His doors of karmic influx being open, he commits Karmas continuously through three fold means, i. e., mind, body and speech. (601)
—————————————————————————————————————————
आसवदारेहिं सया, हिंसाई एहिं कम्ममासवइ।
जह नावाइ विणासो, छिद्दहि जलं उयहिमज्झे ॥15॥
आस्रवद्वारैः सदा, हिसादिकैः कर्मस्रवति।
यथा नावो विनाश–श्छिद्रैः जलम् उदधिमध्ये ॥15॥
खुले आस्रव द्वार हों, होता सतत प्रवाह ।
छेद रहे जब नाव में, मिलती जल को राह ॥3.34.15.602॥
हिंसा आदि कर्मों से निरन्तर आस्रव होता रहता है, जैसे कि जल के आने से सछिद्र नौका समुद्र में डूब जाती है।
There is a continuous inflow of the Karmas through the doors of influx, i. e., violence etc., just as a boat with holes sinks in the sea due to the inflow of water, so does the soul. (602)
—————————————————————————————————————————
मणसा वाया कायेण, का वि जुत्तरस विरि–परिणामो ।
जीवस्स–प्पणिओगे, जोगो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठो ॥16॥
मनसा वाचा कायेन, वापि युक्तस्य वीर्यपरिणामः।
जीवस्य प्रणियोगः, योग इति जिनै–र्निर्दिष्ट ॥16॥
काय मन वचन साथ ही, जीव वीर्य परिणाम ।
प्रदेश–परिस्पन्दनस्वरूप, प्राणयोग के काम ॥3.34.16.603॥
योग भी आस्रव द्वार है। मन वचन व काय से युक्त जीव का जो वीर्य परिणाम होता है उसे योग कहते है। प्रदेश-परिस्पन्दनस्वरूप को भी प्रणियोग कहते हैं।
Yogas are also the doors of Karmic influx). The vibrations in the soul through the activities of mind, body and the speech are known as Yoga. So say the Jinas. (603)
—————————————————————————————————————————
जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो।
निरुद्धजोगिस्सव से ण होति, अछिद्द पोतस्स व अंबुणाथे ॥17॥
यथा यथा अल्पतरः तस्य योगः, तथा तथा अल्पतरः तस्य बन्धः।
निरुद्धयोगिनः वा सः न भवति, अछिद्रपोतस्येव अम्बुनाथे ॥17॥
योग अल्पतर होत ज्यूँ, बंध अल्प हो जाय ।
योग निरोधक बंध रुके, बंद छिद्र जल नाय ॥3.34.17.604॥
जैसे जैसे योग अल्पतर होता हैवैसे वैसे बन्ध या आस्रव भी अल्पतर होता है। योग का निरोध हो जाने पर बन्ध नही होता। जैसे छेद रहित जहाज़ में जल प्रवेश नहीं करता ।
As soon as the Yogas, i.e., the soul vibrations lessen, the bondage or the Karmic influx also lessens. The moment the Yogas are stopped, the Karmic-influx does not take place; just as the water
does not enter the boat which has no holes. (604)
—————————————————————————————————————————
मिचछत्ताविरदीविय, कसाय जोगाय आसवा होंति।
संजम–विराय–दंसण–जोगाभावो य संवरओ ॥18॥
मिथ्यात्वाऽविरतिः अपि च कषाया योगाश्च आस्रवा भवन्ति।
संयम–विराग–दर्शन–योगाभावश्च संवरकः ॥18॥
आस्रव जिनका मूल है, अविरति कषाय योग ।
अयोग विराग संयम ये, दर्शन संवरही योग ॥3.34.18.605॥
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग- ये आस्रव के कारण है। संयम, विराग, दर्शन और योग का अभाव- ये संवर के हेतु है।
Wrong faith, nonrefrainment, passion and Yoga are the causes of Karmic influx. Selfrestraint, detachment, right-faith and the absence of Yoga are the causes of cessation. (605)
—————————————————————————————————————————
रुंधिय–छिद्द–सहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि।
मिच्छत्ताइ–अभावे, तह जीवे संवरो होई ॥19॥
रुद्धछिद्रसहस्रे, जलयाने यथा जलं तु नास्रवति।
मिथ्यात्वाद्यभावे, तथा जीवे संवरों भवति ॥19॥
छेद बंद जलयान में, पानी घुस ना पाय ।
मिथ्यात्वादिक दूर हों, तब संवर हो जाय ॥3.34.19.606॥
जैसे जलयान के हज़ारों छेद बंद कर देने पर उसमें पानी नही घुसता वैसे ही मिथ्यात्व आदि के दूर हो जाने पर जीव में संवर होता है।
Just as there is no inflow of water in the boat after the thousands of its holes have been plugged, similarly, the wrong faiths being removed, there is the cessation of Karmic influx in the soul (Jiva). (606)
—————————————————————————————————————————
सव्व–भूय–प्पभूयस्स, सम्मं भूयाइ पासओ।
पिहियावस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई ॥20॥
सर्वभूतात्मभूतस्य, सम्यक् भूतानि पश्यतः।
पिहितास्रवस्य दान्तस्य, पापं कर्म न बध्यते ॥20॥
देखे आत्मा जीव में, बन्द कर्म के द्वार ।
पाप कर्म बंधन नहीं, संयमी आस्रव पार ॥3.34.20.607॥
जो समस्त प्राणियों को आत्मवत देखता है और जिसने कर्म आस्रव के सारे द्वार बन्द कर दिये हैं, उस संयमी को पाप करम का बंध नहीं होता।
He who feels all beings to be like himself and who has stopped all the doors of the Karmic influx, such a self-restrained persondoes not suffer the bondage of sinful deeds. (607)
—————————————————————————————————————————
मिच्छत्ता–सव–दारं, रुंभइ समत्त–दिड–कवाडेण।
हिंसादि दुवाराणि वि, दिढ–वय–फलिहहिं रुंभंति ॥21॥
मिथ्यात्वस्रवद्वारं रुध्यते सम्यक्त्वद़ृढ़कपाटेन।
हिंसादिद्वाराणि अपि दृढ़व्रतपरिघैः रुध्यन्ते ॥21॥
मिथ्या आस्रव द्वार रुके, सम्यक ठोस कपाट ।
हिंसा दृढ व्रत से रुके, मिले मोक्ष का ठाट ॥3.34.21.608॥
सम्यक्त्वरूपी जीव दृढ़ कपाटों से मिथ्यात्वरूपी आस्रव द्वार को रोकता है तथा द़ृढ व्रतरूपी कपाटों में हिंसा आदि द्वारों को रोकता है।
The soul aspiring after liberation blocks the doors of influx of wrong faith by the firm shutters of righteousness and those of violence etc. by the shutters of staunch vows. (608)
—————————————————————————————————————————
जहा महातलायस्स, सन्निरुद्धे जलागमे।
उस्सिंचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे ॥22॥
एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे।
भवकोडीसंचियं कम्मं, तक्सा निज्जरिज्जइ ॥23॥
यथा महातडागस्य, सन्निरुद्धे जलागमे।
उत्सिञ्चनया तपनया, क्रमेण शोषणा भवेत् ॥22॥
एवं तु संयतस्यापि पापकर्मनिरास्रवे।
भव कोटिसंचितं कर्म, तपसा निपर्जीर्यते ॥23॥
हो जैसे तालाब बड़ा, करे बंद जल द्वार ।
ताप सूर्य का ज्यूँ बढ़े, पानी का संहार ॥3.34.22.609॥
कर्म बंधन संयम से, बंद हो आस्रव द्वार।
नष्ट हो संचित कर्म सभी, तप निर्जरा अपार ॥3.34.23.610॥
जैसे किसी बड़े तालाब का जल, जल के मार्ग को बन्द करने से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है वैसे ही संयमी का करोड़ों भावों से संचित कर्म, पाप कर्म के प्रवेश मार्ग को रोकने से तथा तप से निर्जरा को प्राप्त होता है।
Just as the water of a large tank gradually evaporates (disappears) and the tank dried up by closing all the inlets thereafter by throwing of the remaining water; and by the scorching heat of sun; similarly, the past accumulated karmas (i.e. karmas earned during the past millions of lives) of an abstains person get destroyed (and eradicated) by closing the in lets of vicious karmas (papa-karmas) and by austerities that lead to the shedding of karmas. (609 & 610)
—————————————————————————————————————————
तवसा चेव ण मोक्खो, संवर–हीणस्स होइ जिण–वयणे।
ण हु सोत्ते णविसंते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं ॥24॥
तपसा चैव न मोक्षः, संवरहीनस्य भवति जिनवचने ।
न हि स्रोतसि प्रविशति, कृत्स्नं परिशुष्यति तडागम् ॥24॥
स़िर्फ तप से मोक्ष नहीं, हो यदि संवरहीन ।
पानी जब आता रहे, ताल न नीर विहीन ॥3.34.24.611॥
जिनवचन का कहना हैकि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नही मिलता; जैसे की पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नही सूखता।
A saint who does not stop the inflow of karmas to soul shall not attain salvation by performing austerities. Such a saint can be well compared to a tank, whose inlets of water is not closed and consequently which does not get fully dried up inspite of all the efforts, made to that effect. (611)
—————————————————————————————————————————
जं अण्णानी कम्म खवेइ, बहुआहिं वासकोडीहिं।
तं नाणी तह जुत्ता, अवेइ उस्सास मेत्तेण ॥25॥
यद् अज्ञानी कर्म, क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः।
तद् ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः, क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण ॥25॥
अज्ञानी क्षय कर्म का, तपे करोड़ों साल ।
ज्ञानी क्षय त्रिगुप्ति से, एक श्वास कर डाल ॥3.34.5.612॥
अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्म में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा एक साँस में सहज कर डालता है।
A wise man by properly observing (there) preservations disciplines easily, destroys as many karmas, in a breath as are destroyed by an ignorant person in millions (Crores) of years or lives by means of austerities (In absence of proper observation of Preservations). (612)
—————————————————————————————————————————
सेणावइम्मि णिहए, जहा सेणा पणस्सई।
एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए ॥26॥
सेनापती निहते, यथा सेना प्रणश्यति।
एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये क्षयं गते ॥26॥
सेनापति हो कालवश, सेना होती नाश ।
मोहनीय यदि नष्ट हों, कर्मों का तब नाश ॥3.34.26.613॥
जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती हैवैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं।
Just as an army is, (easily) exterminated after the elimination of its commander; similarly, all the karmas are easily destroyed after the eradication (destruction) of the deluded. (613)
—————————————————————————————————————————
कम्ममल–विप्पमुक्कोउड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता।
सो सव्वणाण–दरिसी, लहदि सुह–मणिंदिय–मण्ंतं ॥27॥
कर्ममलविप्रमुक्त, उर्ध्वं लोकस्यान्तमधिगम्य।
स सर्वज्ञानदर्शी, लभते सुखमनिन्द्रियमनन्तम् ॥27॥
कर्म मलसे विमुक्त हो, गमन करे लोकान्त ।
सर्वदर्शी सर्वज्ञ लहें, आत्मिक सुखद अनन्त ॥3.34.27.614॥
कर्मफल से विमुक्त जीव ऊपर लोकान्त तक जाता है और वहाँ वह सर्वज्ञ व सर्वदर्शी के रूप में अतीन्द्रिय अनन्तसुख भोगता है।
The soul, liberated from the Karmic pollution, ascends the top of the universe and there enjoys transcendental infinite bliss, possessing all knowledge and all perception (i. e., being omniscient). (614)
—————————————————————————————————————————
चक्कि–कुरु–फणि–सुरंदेसु, अहमिंदे जं सुहं तिकालभवं।
तत्तो अणंतगुणिदं, सिद्धाणं खणसुहं होदि ॥28॥
चक्रिकुरुफणिसुरेन्द्रषु, अहमिन्द्रे यत् सुखं त्रिकालभवम्।
तत् अनन्तगुणितं, सिद्धानां क्षणसुखं भवति ॥28॥
चक्री भोगभूमिजीव, फणीश या नाकेश ।
सुख पाए जितना उससे, अनंत सुख लोकेश ॥3.34.28.615॥
चक्रवर्तियों को, उत्तरकुरु, दक्षिणकुरु आदि भोगभूमिवाले जीवों को तथा फणीन्द्र, सुरेन्द्र एवं अहमिन्द्रों को त्रिकाल में जितना सुख मिलता है उस सबसे भी अनन्तगुना सुख सिद्धों को एक क्षण में अनुभव होता है।
The bliss attained by the Siddhas in a moment is infinite times more than the pleasure enjoyed by the emperors, by the Jivas residing in the regions of the Karmas, and by the Fanindras, Surendras and Ahamindrasin all the ages. (615)
—————————————————————————————————————————
सव्वे सरा णियट्ठंति, तक्का जत्थ ण विज्जइ।
मई तथ ण गाहिया, ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेयण्णे ॥29॥
सर्वे स्वराः निवर्त्तन्ते, तर्को यत्र न विद्यते।
मतिस्तत्र न गाहिका, ओजः अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः ॥29॥
वर्णन शब्द ना कर सके, नहीं तर्क का काम ।
मानस का व्यापार नहीं, खेद न होत मुक़ाम ॥3.34.29.616॥
मोक्ष की अवस्था का शब्दों और तर्कों में वर्णन संभव नही है। मोक्ष अवस्था संकल्प-विकल्पातीत है, मलकलंक से रहित होने से वहाँ ओज भी नहीं है। रागातीत होने के कारण सातवें नर्क का ज्ञान होने पर भी किसी प्रकार का खेद नही है।
It is not possible to describe the state of liberation in words as they transcend any such verbal expression. Nor is there the possibility of argument as no mental business is possible. The state of liberation transcends all the determinations and alternatives. Side by side with it, there is no pride due to being devoid of all the blemishes of the mind. There is no melancholy even if there is knowledge of upto the seventh hell, due to it transcending the pleasure and pain. (616)
—————————————————————————————————————————
णवि दुक्खं णवि सुक्खं, णवि पीडा णेव विज्जे बाहा।
णवि मरणं णवि जण्णं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥30॥
नापि दुःखं नापि सौख्यं, नापि पीडा नैव विद्यते बाधा।
नापि मरणं नापि जननं, तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥30॥
जहाँ नहीं सुख–दुख रहे, पीड़ा बाधा भान ।
मरण–जनम का चक्र नहीं, रहता केवल ज्ञान ॥3.34.30.617॥
जहाँ न दुख है न सुख, न पीड़ा है न बाधा, न मरण है न जन्म, वही निर्वाण है।
Where there is neither pain nor pleasure, neither suffering nor obstacle, neither birth nor death, there is emancipation. (617)
—————————————————————————————————————————
णवि इंदिय उवसग्गा, णवि मोहो विम्हियो ण णिद्दा य ।
ण य तिण्हा णेव छुहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥31॥
नापि इन्द्रियाणि उपसर्गाः, नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च।
न च तृष्णा नैव क्षुधा, तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥31॥
इन्द्रिय, उपसर्ग नहीं, नींद न विस्मय, मोह ।
भूख प्यास रहती नहीं, निर्वाणी आरोह ॥3.34.31.618॥
जहाँ न इन्द्रियाँ है न उपसर्ग, न मोह है न विस्मय, न निन्द्रा हैन तृष्णा और न भूख, वहीं निर्वाण है।
Where there are neither sense organs, nor surprise, nor sleep, nor thirst, nor hunger, there is emancipation. (618)
—————————————————————————————————————————
णवि कम्मं णोकम्म, णविं चिंता णेव अट्टरुद्दाणि।
णवि धम्म–सुक्क–झाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥32॥
नापि कर्म्म नोकर्म्म, नापि चिन्ता नैवार्तरौद्रे।
नापि धर्म्मराक्लध्याने, तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥32॥
नहीं कर्म, नोकर्म ना, चिंता नहीं दुर्ध्यान ।
धर्म, शुक्ल और ध्यान नहीं, वहीं होय निर्वाण ॥3.34.32.619॥
जहाँ कर्म ना अकर्म है, न चिन्ता है न आर्तरौद्र ध्यान, न धर्म ध्यान है और न शुक्ल ध्यान, वही निर्वाण है।
Where there is neither Karma, nor quasi-Karma nor the worry, nor any type of thinking which is technically called Artta, Raudra, Dharma and Sukla, there is Nirvana. (619)
—————————————————————————————————————————
विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलं विरियं।
केवलदिट्ठि अमुत्तं, अत्थित्तं सप्पदेसत्तं ॥33॥
विद्यते केवलज्ञानं, केवलसौख्यं च केवलं वीर्यम्।
केवलदृष्टिरमूर्तत्व–मस्तित्वं सप्रदेयत्वम् ॥33॥
केवल दर्शन ज्ञान रहे, सुख और वीर्य अनन्त ।
अरूप प्रदेशत्व गुण अस्तित्ववादि अनन्त ॥3.34.33.620॥
वहाँ केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख, केवलवीर्य, केवलदृष्टि, अरूपता, अस्तित्व और सप्रदेशत्व ये गुण होते हैं।
In the emancipated souls, there are attributes like absolute knowledge, absolute bliss, absolute potentiality, absolute vision, formlessness, existence and extension. (620)
—————————————————————————————————————————
निव्वाणं ति अबांद्ध ति, सिद्धी लोग्गमेव य ।
खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरन्ति महेसिणो ॥34॥
निर्वाणमित्यबाधमिति, सिद्धीर्लोकाग्रमेव च।
क्षेमं शिवमनाबाधं, यत् चरन्ति महर्षयः ॥34॥
महर्षि को निर्वाण हो, सिद्ध लोक अबाध ।
मंगल भी लोकाग्र है, शिव रहे अनाबाध ॥3.34.34.621॥
जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं वह स्थान निर्वाण है, अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध है।
Emancipation which is realized only by the great is the state of unobstructedness, perfection, residing at the top of universe, wellbeing, goodness and freedom from the obstacles. (621)
—————————————————————————————————————————
लाउ य एरंड–फले, अग्गीधूमे उसु धणु–विमुक्के ।
गई पुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गई तु ॥35॥
अलाबु च एरण्डफल–मग्निधूम इषुर्धनुर्विप्रमुक्तः ।
गतिः पूर्वप्रयोगेणैव, सिद्धानामपि गतिस्तु ॥35॥
तुम्बी, अगन एरण्ड हो, बाण चले आकाश ।
सिद्ध ऊपर को बढ़त, करलो यह विश्वास ॥3.34.35.622॥
जैसे मिट्टी से लिप्त तुम्बी डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही तैरने लग जाता है अथवा जैसे एरण्ड का फल धूप से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को ही जाते है, जैसेअग्नि की गति स्वभावतः ऊपर की ओर ही होती है अथवा जैसे धनुष से छूटा हुआ बाण पूर्व प्रयोग से मतिमान होता है, वैसे ही सिद्ध जीवों की गति भी स्वभावतः ऊपर की ओर होती है।
Just as there is an upward motion in gourd if freed inside the water, in caster-seed (when it is dried), in fire or smoke and in the arrow shot from the bow, in the sameway there is a natural upward motion of the emancipated souls. (622)
—————————————————————————————————————————
अव्वाबाह–मणिंत्थि–मणोवमं पुण्ण–पाव–णिम्मुक्कं।
पुण–रागमण–वरहियं, णिच्चं अचलं अणालंबं ॥36॥
अव्याबाधमनिन्द्रिय–मनुपमं पुण्यपापनिर्म्मुक्तम्।
पुनरागमनविरहितं, नित्यमचलमनालम्बम् ॥36॥
अव्याबाध अतीन्द्रिय, अनुपम पुण्य न पाप।
पुनर्जन्म का चक्र नहीं, नित्य अचल प्रताप ॥3.34.36.623॥
परमात्म-तत्व, अव्याबाध, अतीन्द्रिय, पुण्य-पापरहित, पुनरागमनरहित, नित्य, अचल और निरालम्ब होता है।
The state of emancipation is free from all obstacles and senseorgans, unique, devoid of merit and demerit, devoid of rebirth, eternal, immobile and independent. (623)
—————————————————————————————————————————