३३. संलेखनासूत्र
सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥1॥
शरीरमाहुर्नौरति, जीव उच्यते नाविकः।
संसारोऽर्णव उक्तः, यं तरन्ति महर्षयः ॥1॥
देह को नाव कहा गया हैऔर जीव को नाविक। यह संसार समुन्दर है जिसे महर्षि तैर जाते हैं। (जीव को तारते नहीं/तरते हैं।)
The body is called a boat, the soul is a boatman, the worldly existence is an ocean which the great sages cross over. (567)
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बहिया उड्ढामादाय नावकंखे कयाइ वि ।
पुव्वकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे ॥2॥
बाह्यमूर्ध्वमादाय, नावकाङ्क्षेत् कदाचिद् अपि।
पूर्वकर्मक्षयार्थाय, इमं देहं समुद्धरेत् ॥2॥
विषयों की आशा नहीं, होय मुक्ति की चाह ।
पूर्व कर्म क्षय के लिये, मिली देह की राह ॥2.33.2.568॥
मुक्ति का लक्ष्य रखने वाला साधक कभी भी बाह्य विषयों की आकांक्षा न रखे। पूर्वकर्मों का क्षय करने के लिये ही इस शरीर को धारण करें।
He who has an eye on his upward journey (liberation) should not think of the external objects (i. e., worldly pleasures): he should protect his body for annihilating the past Karmas. (568)
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धीरेण वि मरियव्वं काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं ।
तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तेण मरिउं ॥3॥
धीरेणापि मर्त्तव्य, कापुरुषेणाप्यवश्यमर्तव्यम्।
तस्मात् अवश्यमरणे, वरं खलु धीरत्वे मर्त्तुम् ॥3॥
मरना सबको एक दिन, कायर हो या धीर।
अवश्यंभावी है यदि, स्वीकारो घर धीर ॥2.33.3.569॥
धैर्यवान को भी मरना है और कायर पुरुष को भी मरना है। जब मरना अवश्यम्भावी है तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उत्तम है।
The end of the brave as well as coward is death. As death is inevitable one should prefer to die bravely. (In other words, dying bravely is preferable). (569)
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इक्कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि ।
तं मरणं मरयिव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ ॥4॥
एकं पण्डितमरणं, छिनत्ति जातिशतानि बहुकानि।
तद् मरणे मर्त्तव्यं, येन मृतः सुमृतः भवति ॥4॥
ज्ञानपूर्वक जब मरे, हो जन्मों का नाश ।
पंडित मरता इस तरह, हो सुमरण विश्वास ॥2.33.4.570॥
ज्ञानपूर्वक मरण सैकड़ों जन्मों का नाश कर देता है। अतः इस तरह से मरना चाहिए जिससे मरण सुमरण हो जाय।
One death-of-the-wiseman puts an end to hundreds of births; hence one ought to die such a death as earns one the title welldied. (570)
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इक्कं पंडियमरणं, पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो ।
खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं ॥5॥
एकं पण्डितमरणं, प्रतिपद्यते सुपुरुषः असम्भ्रान्तः ।
क्षिप्रं सः मरणानां, करिष्यति अन्तम् अनन्तानाम् ॥5॥
धैर्यवान सत्पुरुष का, पंडित मरण महान।
एक मरण ही शीघ्र करे, अनन्तजन्म का हान ॥2.33.5.571॥
निर्भय सत्पुरुष एक पण्डितमरण को प्राप्त होता है और बार बार मरण का अन्त कर देता है।
A wise person who is free from anxiety dies a peaceful death once; by such death, he immediately puts an end to an infinite number of deaths. (571)
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चरे पयाइं परिसंकमाणो जं किंचि पासं इह मण्णमाणो ।
लाभन्तरे जीविय वूहइता, पच्छा परिन्न्य मलावधंसी ॥6॥
चरेत्पदानि परिशङ्कमानः, यत्किंचित्पाशमिह मन्यमानः ।
लाभान्तरे जीवितं बृंहयित्वा, पश्चात्परिज्ञाय मलावध्वंसी ॥6॥
पग पग संभव दोष का, साधक रखता ध्यान।
लाभ देह से मिले नहीं, तब ही त्याग विधान ॥2.33.6.572॥
साधक पग पग पर दोषों की संभावनाओं को ध्यान में रख कर चले। छोटे से छोटे दोषों को भी बंधन समझकर सावधान रहे। नये नये लाभ के लिये जीवन को सुरक्षित रखे। जब देह से लाभ होता दिखाई न दे तो ज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे।
One ought to undertake every activity with the fear of bondage (i.e., possibilities of bondage) one ought to prolong one’s life in the hope of acquiring ever new gains in the future and at the end, one ought to destroy one’s defilements with prudence. (572)
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तस्स ण कप्पादि भत्तपइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो ।
सो मरणं पेच्छंतो होदि हु सामण्ण–णिव्विण्णो ॥7॥
तस्य न कल्पते भक्त–प्रतिज्ञा अनुपस्थिते भयं पुरतः ।
सो मरणं प्रेक्षमाणः, भवति हि श्रामण्यनिर्विष्णः ॥7॥
भोज त्याग अनुचित सदा, देह स्वस्थ सुजान।
मरण चाह फिर भी रहे, विरक्त मुनित्व सा मान ॥2.33.7.573॥
जिसके सामने संयम तप आदि साधना की क्षति की आशंका नहीं है उसके लिए भोजन का त्याग उचित नहीं। यदि फिर भी भोजन का त्याग करना चाहता है तो कहना होगा की वह मुनित्व से ही विरक्त हो गया है।
He who has no fear of any kind before him, should not take the vow of desisting from food and water; if he seeks death, he should be treated as disgusted taken even from his monkhood, i.e., fast-unto-death. (573
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संलेहणा य दुविहा, अब्भिंतरिया य बाहिरा चेव।
अब्भिंतरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे ॥8॥
संलेखना च द्विविधा, अभ्यन्तरिका च बाह्य चैव ।
अभ्यन्तरिका कषाये, बाह्या भवति च शरीरे ॥8॥
दो प्रकार संलेखना, बाहर अंदर जान।
नाश देह बाहर करे, कृश–पाप अंतर ज्ञान ॥2.33.8.574॥
संलेखना दो प्रकार की है। बाह्य और आभ्यंतर। कषायों को मिटाना आभ्यंतर संलेखना है और देह को नष्ट करना बाह्य संलेखना है।
A Sallekhana-i. e., fastunto- death is of two kinds; internal and external, internal sallekhana consists in emaciating the passions while the external one consists in emaciating the body. (574)
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कसाए पयणुए किच्चा अप्पाहारो तितिक्खए ।
अह भिक्खू गिलाएज्जा, आहारसेव अंतियं ॥9॥
कषायान् प्रतनून् कृत्वा, अल्पाहारः तितिक्षते।
अथ भिक्षुग्लीयेत्, आहारस्येव अन्तिकम् ॥9॥
कृश कषाय करता रहे, कम कर ले आहार ।
क्षीण हुई जब देह तो, पूरन त्याग विचार ॥2.33.9.575॥
अंतर के कषायों को नष्ट करते हुए धीरे धीरे आहार की मात्रा घटाएँ। यदि वह रोगी है और शरीर अत्यंत क्षीण हो गया है तो आहार का सर्वथा त्याग कर दे।
A monk (adopting the vow of sallekhana) should first subdue his passions and (then) reduce the intake of his food gradually; but when the body becomes extremely weak, he should stop taking any food. (575)
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न वि कारणं तणमओ संथारो, न वि य फासुया भूमि ।
अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मणो जस्स ॥10॥
नापि कारणं तृणमयः संस्तारः, नापि च प्रासुका भूमिः ।
आत्मा खलु संस्तारो भवति, विशुद्धं मनो यस्य ॥10॥
संस्तारक तृणमय नहीं, भूमि न प्रासुक जान ।
आत्मा ही संस्तारक है, मन विशुद्ध संज्ञान॥2.33.10.576॥
जिसका मन विशुद्ध है उसका बिछौना न तो घास है और नही प्रासुक भूमि है।उसकी आत्मा ही उसका बिछौना है।
A person whose mind is pure, needs neither a bed of straw nor a faultless ground; his soul itself becomes his bed. (576)
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न वि तं सत्थं च विसं च, दुप्पउतु व्व कुणइ वेयालो ।
जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पु व्व पमाइणो कुद्धो ॥11॥
जं कुणइ भावा सल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि ।
दुल्लहबोहीयत्तं, अणंतसंसारियत्तं च ॥12॥
तत् शस्त्रं च विषं च, दुष्प्रयुक्तो वा करोति वैतालः।
यन्त्रं वा दुष्प्रयुक्तं, सर्पो वा प्रमादिनः क्रुद्ध ॥11॥
यत् करोति भावशल्य–मनुद्धृतमुत्तमार्थकाले ।
दुर्लभबोधिकत्वम्, अनन्तसंसारिकत्वं च ॥12॥
नहीं प्रमादी का करे, अनिष्ट दुष्ट वेताल।
दुष्प्रयुक्त हो यंत्र या, क्रुद्ध सर्प सा काल ॥2.33.11.577॥
मगर समाधि काल में, माया मिथक विचार
बोधि में बाधा बने, अंत न हो संसार ॥2.33.12.578॥
शस्त्र, विष, भूत, दुष्प्रयुक्त यन्त्र तथा क्रुद्धसर्प आदि प्रमादी का उतना अनिष्ट नही करते जितना अनिष्ट समाधिकाल में मन में रहे हुए माया, निथ्यात्व व निदान शल्य करते है। इससे ज्ञान की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है तथा संसार का अंत नही होता।
Mental thorns (salya) like deceit, perverted attitude and a desire for worldly enjoyments in next life in a person observing the vow of Sallekhana cause him greater pain than a tainted weapon, poison, devil, an evil-motivated amulet or an angry serpent, for in the presence of these salyas right understanding becomes impossible and involvement in an infinite transmigratory cycle becomes inevitable. (577 & 578)
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तो उद्धरंति गारवरहिया, मूलं पुणब्भवलयाणं।
मिच्छादंसणसल्लं, मायासल्लं नियाणं च ॥13॥
तदुद्द्धरन्ति गौरवरहिता, मूलं पुनर्भवलतानाम्।
मिथ्यादर्शनशल्यं, मायाशल्यं निदानं च ॥13॥
साधु की अभिमानरहित, समूल नष्ट भव चाल ।
मिथ माया निदान शल्य, अंतरा देत निकाल॥2.33.13.579॥
अतः अभिमान रहित साधक पुनर्जन्मरूपी मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य व निदानशल्य को अन्तरंग से निकाल फेंकते हैं।
A monk who is free from pride cuts down the three roots of rebirth, i.e., the thorns of wrong faith, deceit and desire for worldly enjoyment in next life. (579)
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मिच्छा–दंसण रत्ता, सणिदाणा किण्ह–लेस–मोगाढा ।
इय जे मरंति जीवा तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥14॥
मिथ्यादर्शनरक्तः, सनिदानाः कृष्णलेश्यामवगाढाः।
इतिये भ्र्रियन्ते जीवा–स्तेषां दुर्लभा भवेद् बोधिः ॥14॥
मिथ्यादर्शन अनुरक्त रहे, कृष्ण लेश्या भार।
मरण मिले जब इस तरह, दुर्लभ बोधि विचार॥2.33.14.580॥
इस संसार में जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त होकर निदानपूर्वक तथा कृष्णलेश्या की प्रगाढ़तासहित मरण को प्राप्त होते हैं उनके लिये बोधि लाभ दुर्लभ है।
Hence those persons who die as attached to wrong faith, as full of desire for sensuous enjoyment in return for the good acts performed, as subject to krsna lesya (black- colouring) do not find it easy to attain right understanding.(580)
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सम्म–द्दंसण–रत्ता अणिदाणा सुक्क–लेस–मोगाढा ।
इय जे मरंति जीवा तेसिं सुलहा हवे–बोही ॥15॥
सम्यग्दर्शनरक्ताः, सनिदानाः कृष्णलेश्यामवगाढा ।
इतिये भ्र्रियन्ते जीवा–स्तेषां दुर्लभा भवेद् बोधिः ॥15॥
सम्यग्दर्शन अनुराग हो, शुक्ल लेश्य आचार।
सुलभ रहे उस जीव को, बोधि भाव विचार ॥2.33.15.581॥
जो जीव सम्यग्दर्शन के अनुरागी होकर, निदानरहित तथा शुक्ल लेेश्यापूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं उनके लिए बोधि की प्राप्ति सुलभ होती है।
On the other hand) those persons who die as attached to right faith, as devoid of desire for sensuous enjoyment in return for the good acts performed, as subject to sukla lesya (white colouring) find it easy to attain right understanding. (581)
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आराहणाए कज्जे परियम्मं सव्वदा वि कायव्वं ।
परियम्म–भाविदस्स हु, सुह–सज्झा–राहणा होइ ॥16॥
आराधनायाः कार्ये, परिकर्म सर्वदा अपि कर्त्तव्यम्।
परिकर्मभावितस्य खलु, सुखसाध्या आराधना भवति ॥16॥
रहे सतत आराधना, कर्तव्य निष्ठता भाव।
सतत करे अभ्यास जो, पूजन सुखद प्रभाव ॥2.332.16.582॥
मरणकाल में रत्नत्रय की सिद्धि अभिलाषी साधक को चाहिये कि व पहले से ही सम्यक्तवादी का अनुष्ठान करता रहे क्योंकि अभ्यास करने वाले की आराधना सुखपूर्वक होती है ।
Therefore, the saints, who are desirous to attain three jewels at the time of their death, should make it a point to practice the reverences and religious performances relating to Righteousness from before; because it is easier, for such saints, to practice reverences at the time of death. (582)
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जहरायकुल–पसूओ जोग्गं णिच्चमवि कुणइ परियम्म।
तो जिदकरणो जुद्धे कम्मसमत्थो भविस्सदि हि ॥17॥
इय सामण्णं साधू वि कुणदि णिच्चमवि जोग–परियम्मं।
तो जिदकरणो मरणे झाणसमत्थो भविस्सहदि ॥18॥
यथा राजकुलप्रसूत योग्यं नित्यमपिप करोति परिकर्म्म ।
ततः जितकरणो युद्धे, कर्मसमर्थो भविष्यति हि ॥17॥
एवं श्रामण्यधुरपि, करोति नित्यमपि योगपरिकर्म्म ।
ततः जितकरणः मरणे, ध्यानसमर्थो भविष्यति हि ॥18॥
राजपुत्र जैसे करता, सतत शस्त्र अभ्यास।
युद्ध विजय निश्चित करें, हो समर्थ विश्वास ॥2.33.17.583॥
समभावी इस ही तरह, करे ध्यान अभ्यास।
मरण समय मन वश रहे, ध्यान योग्य विश्वास ॥2.33.18.584॥
राजकुल में उत्पन्न राजपुत्र निरन्तर शस्त्र अभ्यास करते हुए दक्षता हासिल कर युद्ध में विजयी होता है वैसे ही समभावी साधु नित्य ध्यानाभ्यास करते हुए चित्त वश में कर लेते हैं और मरणकाल में ध्यान करने में समर्थ हो जाते है।
One who is born in a royal family and performs his (military) exercises regularly will become competent to win all wars:similarly a monk who regularly engages himself in meditationand practise of the vows of monastic life, conquers his mind, andwill become competent to practice meditation at his death. (583 & 584)
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मोक्ख–पहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेव।
तत्थेव विहर णिच्चं, मा विहरसु अण्णदव्वेसु ॥19॥
मोक्षपथे आत्मनं, स्थापय त चैव ध्याय त चैव ।
तत्रैव विहर नित्यं, मा विहरस्व अन्यद्रव्येषु ॥19॥
मुक्ति मार्ग स्थापित करे, आत्मा में ही ध्यान।
हरपल आत्मा में रहे, अन्य द्रव्य नहीं भान॥2.33.19.585॥
हे भव्य! तू मोक्ष मार्ग में ही आत्मा को स्थापित कर। उसी का ध्यान कर। उसी का अनुभव तथा उसी में विहार कर। अन्य द्रव्यों में विहार मत कर।
Fix (your) soul on the path of liberation and meditate on the soul only; always be engrossed in it and not in any other substance. (585)
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इह–पर–लोगा–संस–प्पओग, तह जीव–मरण–भोगेसु ।
वज्जिज्जा भाविज्ज य, असुहं संसार–परिणामं ॥20॥
इहपरलोकाशंसा–प्रयोगो तथा जीवितमरणभोगेषु।
वर्जयेद् भावयेत् च अशुभ संसारपरिणामम् ॥20॥
चाह लोक सुख की नहीं, जन्म चक्र का त्याग ।
दृष्टि में रखे जगत को, सतत अशुभ परिणाम ॥2.33.20.586॥
संलेखनारत साधक को मरण काल में इस लोक और परलोक में सुखादि के प्राप्त करने की इच्छा का तथा जीने और मरने की इच्छा का तथा जीने और मरने की इच्छा का त्याग करके अन्तिम साँस तक संसार के अशुभ परिणाम का चिन्तन करना चाहिये।
One should give up desire for pleasures in this world as also in the next; should give up liking either for life or for death or for enjoyments, should engage thought in the evil consequences available in the world of transmigration. (586)
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पर–दव्वादो दुगई, सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ।
इय णाऊण सदव्वे कुणइ रई विरइ इयरम्मि ॥21॥
परद्रव्यात् दुर्गतिः, स्वद्रव्यात् खलु सुगतिः भवति ।
इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये, कुरुत रतिं विरतिम् इतरस्मिन् ॥21॥
परद्रव्य भाव दुर्गति मिले, सुगति आत्म स्वभाव।
लीन रहे निज द्रव्य में, अलग न होय प्रभाव ॥2.33.21.587॥
पर-द्रव्य अर्थात् धन-धान्य, परिवार व देहादि में अनुरक्त होने से दुर्गति होती है और स्व-द्रव्य अर्थात् अपनी आत्मा में लीन होने से सुगति होती है।
One gets birth in a miserable state by being devoted to other substances, i.e., worldly things and birth in a good state by being devoted to contemplation of one’s own soul; knowing this one should be absorbed in meditation of one’s soul and desist from thinking of other substances. (587)
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