३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान)
जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं ।
जीवा ते गुण–सण्णा, णिद्दिट्ठा सव्व–दरिसीहिं ॥1॥
यैस्तु लक्ष्यन्ते, उदयादिषु सम्भवैर्भावैः।
जीवास्ते गुणसंज्ञा, निर्दिष्टाः सर्वदर्शिभिः ॥1॥
कर्म उदय परिणाम से, जीवों की पहचान।
जिन देव कहते उसको, जीव के गुणस्थान ॥2.32.1.546॥
कर्मों के उदय से होनेवाले परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते है उन्हे जिनेन्द्रदेव ने ‘गुणस्थान’ संज्ञा दी है।
Those states resulting from the fruition etc. of Karmas, by which souls are distinguished are given the name `guna’ (spiritual stages) by the Omniscients. (546)
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मिच्छो सासण मिस्सो, अविरद–सम्मो य देस–विरदो य ।
विरदो पमत्त इयरो, अपुव्व अणियट्टि सुहुमो य ॥2॥
उवसंत–खीण–मोहो, सजोति केवलि–जणो अजोगी य ।
चोद्दस गुणट्ठाणाणि य, कमेण सिद्धा य णायव्वा ॥3॥
मिथ्यात्वं सास्वादनः मिश्रः, अविरतसम्यक्त्वः च देशविरतश्च।
विरतः प्रमत्तंः इतरः, अपूर्वः अनिवृत्तिः सूक्ष्मश्च ॥2॥
उपशान्तः क्षीणमोहः, संयोगिकेवलिजिनः अयोगी च ।
चतुर्दश गुणस्थानानि च, क्रमेण सिद्धाः च ज्ञातव्याः ॥3॥
सासादन मिथ्यात्व मिश्र, अविरत–सम्यक् देशान ।
प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्व भी, लघु अनिवृत्ति, गुणान ॥2.32.2.547॥
क्षीणमोह उपशांत भी, सयोगि–अयोगि ज्ञान ।
क्रम ये चौदह मात्र ही, सिद्ध नहीं गुण जान ॥2.32.3.548॥
गुणस्थान चौदह है। मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत-सम्यक्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म-साम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवलिजिन भी, अयोगिकेवलिजिन। सिद्ध गुण स्थान से परे है।
There are fourteen stages in the path of gradual spiritual development; (1) false belief, (2) failing from right faith, (3) mixture of right faith and wrong faith, (4) vowless right faith, (5) partial observance of vows, (6) non-vigilant observance of vows, (7) vigilant observance of vows, (8) unique condition of bliss, which has not been experienced before, (9) constant thought-activity (that is meditation), (10) slightest attachment, (11) subsided delusion, (12) destroyed delusion, (13) omniscient with activities, and (14) Omniscient without activity. It should be understood that emancipation is attained in stages. (547 & 548)
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तं मिच्छत्तं जम–सद्दहणं, तच्चाण होदि अत्थाणं ।
संसइद–मभिग्गहियं, अणभिग्गहियं तु तं तिविहं ॥4॥
तद् मिथ्यात्वं यदश्रद्धानं, तत्त्वानां भवति अर्थानाम्।
संशयितमभिगृहीतम–नभिगृहीतं तु तत् त्रिविधम् ॥4॥
श्रद्धा ना तत्वार्थ पे, हो ना मिथ्या भाव ।
संशयित, अभिग्रहित भी, अनभिग्रहित स्वभाव ॥2.32.4.549॥
तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धा का अभाव मिथ्यात्व है।यह तीन प्रकार का है। संशयीत, अभिग्रहित और अनभिग्रहित।
Wrong belief consists of the absence of faith in elements (tattva). This is of three kinds; 1. Sceptic, 2. Acquired from external sources (Abhigrahita) and 3 . Anintuitional (Nisargaja/independent of the precept by others). (549)
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सम्मत्त–रय–पव्वय–सिहरादो, मिच्छ–भूमि समभिमुहो ।
णासिय–सम्मत्तो सो, सासण–णामो मुणेयव्वो ॥5॥
सम्यक्त्वरत्नपर्वत–शिखरात् मिथ्याभावसमभिमुखः ।
नाशितसम्यक्त्वः सः, सासस्वादननामा मन्तव्यः ॥5॥
गिर सम्यक्त्वशिखर से, पहुँच न पाया स्थान।
अधर लटकते जीव का, सासादन गुणस्थान ॥2.32.5.550॥
सम्यक्त्व के अभाव में जो मिथ्यात्व की ओर मुड़ गया हैलेकिन मिथ्यात्व में प्रवेश नही किया है उस मध्यवर्ती अवस्था को सासादन गुणस्थान कहा है।
The soul falls down from the peak of the mountain of right faith, with his face towards the plain of wrong faith, and has his rightfaith destroyed – this stage of soul is called sasvadana, i.e., having taste of right faith. (550)
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दहि–गुड–मिव वा–मिस्सं, पिहु–भावं णेव कारिदुं सक्कं ।
एवं मिस्सय–भावो, सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो ॥6॥
दधिगुडमिव व्यामिश्रं, पृथग्भावं नैव कर्तुं शक्यम् ।
एवं मिश्रकभावः, सम्यक्मिथ्यात्वमिति ज्ञातव्यम् ॥6॥
गुड़ दही जिस तरह मिले, अलग नहीं कर पाय।
सम्यक् मिथ्या जब मिले, स्थान मिश्र कहलाय ॥2.32.6.551॥
दही और गुड़ के मेल के स्वाद की तरह सम्यकत्व और मिथ्यात्व का मिश्रित भाव जिसे अलग नहीं किया जा सकता, मिश्र गुण स्थान कहलाता है।
The mixed thought nature of Righteousness (Sainykatva) and wrong faith (Methyatva) that can not be separated and is like the taste of curd and Raw sugar is called mixed stage of spiritual development (Misra-Gunasthan). (551)
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णों इंदिएसु विरदो, णो जीवे थावरे चावि ।
जो सद्दहइ जिणत्तं, सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥7॥
नो इन्द्रियेषुविरतो, नो जीवे स्थावरे त्रसे चापि ।
यः श्रद्दधाति जिनोक्तं, सम्यग्दृष्टिरविरतः सः ॥7॥
इन्द्रिय विषय विरक्त नहीं, जीव न हिंसा त्याग।
श्रद्धा हो तत्त्वार्थ में , अविरत सम्यक् जाग ॥2.32.7.552॥
जो इन्द्रिय विषयों व हिंसा से अनुरक्त नहीं है पर तत्वार्थ पर श्रद्धा रखता है वह व्यक्ति अविरतसम्यकदृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
He who has not vowed to abstain from indulgence in the senses and from hurting the mobile and immobile living beings; although he has firm faith in the doctrines propounded by the Jina. This stage is said to be of a person of right vision without abstinence (Avirata-Samyagdrsti). (552)
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जो तस– वहाउ–विरदो, णो विरओ अक्ख–थावर–वहाओ ।
पडि–समयं जो जीवो, विरया–विरओ जिणेक्कमई ॥8॥
यस्त्रसवधाद्विरतः, नो विरतः अत्र स्थावरबधात् ।
प्रतिसमयं सः जीवों, विरताविरतो जिनैकमतिः ॥8॥
त्रस हिंसा से हो अलग, स्थावर का ना त्याग।
जिन–शासन श्रद्धा रहे, देशविरत गुण जाग ॥2.32.8.553॥
जिन-शासन श्रद्धा रहे, देशविरत गुण जाग ॥2.32.8.553॥जो त्रस जीवों की हिंसा से तो विरत हो गया है परन्तु एकेन्द्रिय स्थावर (वनस्पति, जल, भूमि, अग्नि, वायु) की हिंसा से विरत नही हुआ है तथा एकमात्र जिन भगवान में ही श्रद्धा रखता है वह श्रावक देशविरत गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
One who desists from a killing of the mobile living beings but not from that of the immobile ones and yet who has unwavering faith in Jinas is called (viratavirata or desavirata), i.e., partial observer of vows. (553)
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वत्ता–वत्त–पमाएल जो वसइ पमत्त–संजओ होइ ।
सयल–गुण–सील–कलिओ, महव्वई चित्तला–यरणो ॥9॥
व्यक्ताव्यक्तप्रमादे, यो वसति प्रमत्तसंयतो भवति।
सकलगुणशीलकलितो, महाव्रती चित्रलाचरणः ॥9॥
सकल शील गुण समत्वित, महाव्रती हो जान ।
व्यक्त–अव्यक्त प्रमाद बचा, प्रमत्त संयत स्थान ॥2.32.9.554॥
जिसने महाव्रत धारण कर लिये हैं, सकल शील-गुण से समन्वित हो गया है लेकिन जिसमें व्यक्त-अव्यक्तरूप में प्रमाद शेष है वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
One who has adopted the Great Vows, is equipped with all virtuous qualities and good conduct, often exhibits negligence in a manifest or a nonmanifest form and hence whose conduct is bit defective is to be called pramattasamyata i.e., non-vigilant observer of great vows. (554)
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णट्ठा–सेस–पमाओ,वय–गुण–सीलोलि–मंडिओ णाणी ।
अणुवसमओ अखवओ, झाण–णिलीणो हु अप्पमत्तो सो ॥10॥
नष्टशेषप्रमादो, व्रतगुणशीलावलिमण्डितो ज्ञानी ।
अनुपशमकः अक्षपको, ध्याननिलीनो हि अप्रमत्तः सः॥10॥
पंडित व्रतगुणशील हो, प्रमाद नष्ट हो जाय ।
मोहनीय बाकी रहे, अप्रमत्तसंयत कहलाय॥2.32.10.555॥
जो ज्ञानी होने के साथ व्रत, शील और गुण की माला से सुशोभित है व सम्पूर्ण प्रमाद समाप्त हो गया है, आत्मध्यान में लीन रहता है लेकिन मोहनीय कर्म का उपशम व क्षय करना शेष है वह अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कलहाता है।
The wise man who is well equipped with all vows, whose negligence has disappeared entirely, who remains absorbed in meditation, but who has started neither subsiding his delusive karmas nor annihilating his delusive karmas is called apramattasamyata, i.e., vigilant observer of great vows. (555)
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एयम्मि गुणट्ठाणे, विसरिस–समय–ट्ठिएहि जीवेहिं ।
पुव्व–मपत्ता जम्हा, होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥11॥
एतस्मिन् गुणस्थाने, विसदृशसमयस्थितैर्जीवैः।
पूर्वमप्राप्ता यस्मात्, भवन्ति अपूर्वा हि परिणामाः ॥11॥
भिन्न काल स्थित जीव के अपूर्व भाव संज्ञान ।
पहले ना धारण किये, अष्टम गुण का स्थान ॥2.32.11.556॥
आठवें गुणस्थान में जीव विभिन्न समय में स्थित अपूर्व भावों को धारण करते है जो पहले कभी नही हो पाये थे, वह अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती है।
In this (eighth) stage of spiritual development the soul experiences unique but frequently changing mental states (of bliss) which have not been experienced ever before; hence the stage is called apurvakarna). (556)
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तारिस–परिणाम–ट्ठि–जीवा, हु जिणेहिं गलिय–तिमिरेेहिं ।
मोहस्स–पुव्वकरणा, खवणु–वसम–णुज्जया भणिया ॥12॥
तादृशपरिणामस्थितजीवाः, हि जिनैर्गलिततिमिरैः ।
मोहस्यापूर्वकरणाः,क्षपणोपशमनोद्यताः भणिताः ॥12॥
जीव अपूर्व सगुण रहे, कह जिनेन्द्र यह ज्ञान ।
क्षय उपशम तत्पर रहे, कर्म मोहनीय जान ॥2.32.12.557॥
जिनेन्द्रदेव ने उन अपूर्वपरिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने में तत्पर कहा है। मोहनीय कर्म का उपशम व क्षय नौवें व दसवें गुणस्थान में होता है लेकिन उसकी तैयारी आठवें स्थान से शुरू हो जाती है
The souls, experiencing such mental states (of bliss), get ready either to subside or to annihilate their delusive karmas, are given the designation `apurvakarna’ by Jinas, free from all darkness, i.e., ignorance. (557)
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होंति अणिट्टिणो ते, पडिसमयं जेसि–मेक्क–परिणामा।
विमल–यर–झाण–हुयवह–सिहाहिं णिद्दड्ढ–कम्म–वणा ॥13॥
भवन्ति अनिवर्तिनस्ते, प्रतिसमयं येषामेकपरिणामाः।
विमलतरध्यानहुतवह–शिखाभिर्निर्दग्धकर्मवनाः ॥13॥
सतत एक परिणाम हो, अनिवृत्ति गुणस्थान ।
ध्यान ये निर्मल अग्नि शिखा, भस्म कर्म वन जान ॥2.32.13.558॥
जिनके निरंतर एक ही भाव होता है वे जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थान (नौवाँ) वाले होते है। ये जीव निर्मलतर ध्यानरूपी अग्निशिखाओं से कर्म-वन को भस्म कर देते है।
The souls, occupying the ninth stage of spiritual development enjoy the constant mental state (of bliss) each moment and burn down the forest of the karmas through the flames of the fire of a very pure meditation, are called anivartin (anivrttikarana). (558)
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कोसुंभो जिह राओ, अब्भंतरदो य सुहुम–रत्तो य ।
एवं सुहुम–सराओ, सुहुम–कसाओ त्ति णायव्वो ॥14॥
कौसुम्भः यथा रागः, अभ्यन्तरतः च सूक्ष्मरक्तः च।
एवं सूक्ष्मसरागः, सूक्ष्मकषाय इति ज्ञातव्यः ॥14॥
क्षीण रंग सा शेष रहा, सूक्ष्म सदा मन–राग।
सूक्ष्म शेष कषाय सा, ‘सूक्ष्मकषाय’ प्रभाग॥2.32.14.559॥
कुसुम्भ के हल्के रंग की तरह जिनके अंतरंग में केवल सूक्ष्म राग शेष रह गया है, उन मुनियों को सूक्ष्म-सराग या सूक्ष्म-कषाय गुणवर्ती (दसवाँ) जानना चाहिये।
Just as a Kusumbha flower has a slight tinge of reddish colour, similarly a monk who has reached this tenth stage of spiritual development retains a slight tinge of attachment internally, Hence this stage is called suksma-Kasaya or suksma – samparaya, i.e., the stage of slight attachment. (559)
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कदक–फल–जुद जलं वा, सरए सरवाणियं व णिम्मलय ।
सयलो–वसंत–मोहो, उवसंत–कसायओ होदि ॥15॥
कतकफलयुतजलं वा, शरदि सरः पानीयम् इव निर्मलकम् ।
सकलोपशान्तमोहः, उपशान्तकषायतो भवति ॥15॥
ज्यों निर्मल फल युक्त जल, शरद सरोवर जान।
मोह समस्त निशांत हुआ उपशान्त कषाय स्थान ॥2.32.15.560॥
जैसे मिट्टी के बैठ जाने से जल निर्मल हो जाता हैलेकिन जल थोड़ा भी हिल जाने से मिट्टी ऊपर आ जाती है वैसे ही मोह के उदय से उपशान्तकषाय श्रमण (ग्यारहवाँ) स्थानच्युत होकर सूक्ष्मसराग (दसवाँ) स्थान में पहुँच जाता है।
Just as the water mixed with kataka-fruit or a pond’s water in the autumn season have their dirtiness subsided, similarly a person whose all delusive karmas have subsided is called upasanta Kasaya. i.e., whose passions are subsided. (560)
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णिस्सेस–खीण–मोहो, फलिहा–मल भायणुदय–समचित्तो ।
खीण–कसाओ भण्णइ,णिग्गंथो वीयराएहिं ॥16॥
निःशेषक्षीणमोहः स्फटिकामल–भाजनोदक–समचित्तः।
क्षीणकषाो भण्यते, निर्ग्रन्थो वीतरागैः ॥16॥
सकल मोहनीय कर्म जहां हो जाते अवसान।
अल्प मोह क्षण भाव कटु, शेष न इस गुणस्थान ॥2.32.16.561॥
सम्पूर्ण मोह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाता हैउन्हें वीतराग ने क्षीणकषाय निर्ग्रन्थ (बारहवाँ) गुणस्थान कहा है ।
The monk whose all delusive karmas are annihilated and whose mind is (clean) like the water placed in a crystalmade vessel is designated ksinamoha and destroys passions by the worthy soul,free from all attachment. (561)
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केवल–णाण–दिवायर–किरण–कलाव–प्पणासि–अण्णाओ।
णव–केवल–लद्धुग्गम–सुजविय परमप्प–ववएसो ॥17॥
असहाय–णाण–दंसण–सहिओ वि हु केवली हु जोएण।
जुत्तो त्ति सजोगो इदि, अणाइ–णिहणा–रिसे उत्तो ॥18॥
केवलज्ञानदिवाकर–किरणकलाप–प्रणाशिताज्ञानः।
नवकेवललब्ध्युद्गम–प्रापितपरमात्मव्यपदेशः ॥17॥
असहायज्ञानदर्शन–सहितोऽपि हि केवली हि योगेन ।
युक्त इति सयोगिजिन , अनादिनिधन आर्षे उक्तः ॥18॥
केवल ज्ञानरविकिरणोंसे नष्ट किया अज्ञान ।
प्रकटी नौ लब्धियाँ तब, परमात्मा संज्ञान ॥2.32.17.562॥
केवल ज्ञानदर्शनयुत, पर शेष काय योग।
जिन का यही गुणस्थान है, केवली सयोग ॥2.32.18.563॥
केवल ज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से जिनका अज्ञान अंधकार सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा नौ केवल लब्धियों के प्रकट हो जाने से जिन्हें परम आत्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे केवली और काय योग ये युक्त हो जाने के कारण सयोगी केवली (तेरहवाँ गुणस्थान) जिन कहलाते है। (नौ उपलब्धियाँ-सम्यकत्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग)
The saints, whose darkness of ignorance has been totally annihilated by the rays of the sun of perfect knowledge and who has earned the little of paramatm (pure and perfect soul) on account of the appearance of nine attainments in his soul (i.e. attainments of 1. Perfect Right belief (Samyaktva), 2. Infinite knowledge (Anant-jnana), 3. Infinite conation (Anant Darshan), 4. Infinite bless (Anant sukha), 5. Infinite prowess (Anant virya), 6. Destructive or purified charity (Khayika-dan), 7. Destructive or purified gain (Kshayika-labha), 8. Destructive or purified enjoyment (Kshyikabhog) and 9. Destructive or purified re-enjoyment (Kshayikaupabhog) are called ‘kevalis” (omniscient), due to there inherent attributes of (perfect) knowledge and perception which is quite independent of senses.They are also called vibrating pure and perfect souls (sayogakevalis) due to the continuance of their bodies; and they are called ‘Jinas’s due to their victory over (four) destructive karmas (named) knowledge obscuring obstructurekarmas). This has been so stated in ever lasting jain scriptrures (Jinagam). (562 & 563)
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सेलेसिं संपत्तो, णिरुद्ध–णिस्सेस–आसवो जीवो।
कम्म–रय–विप्प–मुक्को, गय–जोगो केवली होइ॥19॥
जो है स्वामी शील के, किए आस्रव बंद जान।
सम्पूर्ण कर्मरहित को, अयोग केवलीजान॥2.32.19.564॥
जो शील के स्वामी हैं, जिनके सभी नवीन कर्मों का आस्रव अवरुद्ध हो गया है तथा जो पूर्वसंचित कर्मों से सर्वथा मुक्त हो चुके हैं वे अयोगीकेवली (चौदहवाँ गुण स्थान) कहलाते हैं ।
Ayog-kevalis (vibrationless perfect souls) are such saints, as are masters of conduct (sila ke swami); whose fresh inflow of karmas has been stopped and whose past accumulated karmas have been fully destroyed. (564)
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सो तम्मि चेव समये, लोयग्गे उड्ढागमणसब्भाओ ।
संचिट्ठइ असरीरो पवरट्ठ गुणप्पओ णिच्चं ॥20॥
सो तस्म्नि् चैव समये, लोकाग्रे ऊर्ध्वगमनस्वभावः।
संचेष्टते अशरीरः प्रवराष्टगुणात्मको नित्यम् ॥20॥
स्थान अयोगी जब मिले, ऊर्ध्वगमन स्वभाव ।
अदेह आठ गुण सहित, सिद्ध लोक ठहराव ॥2.32.20.565॥
इस चौदहवें केवलस्थान को प्राप्त कर लेने के बाद उसी समय ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला वह अयोगीकेवली अशरीरी तथा उत्कृष्ट आठ गुण सहित सदा के लिये लोक के अग्रभाग में चले जाते हैं उसे सिद्ध कहते हैं।
Having reached the fourteenth stage of the vibrationless pure and perfect soul (Ayogakevali Gunasthan), the soul becomes bodiless is associated with eight supreme attributes; and goes to the summit of the universe. Such souls are called “Siddhas”. (565)
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अट्ठ–विह–कम्म–वियडा सीदीभूता णिरंजणा णिच्चा।
अट्ठगुणा कय–किच्चा, लोयग्ग–णिवासिणो सिद्धा ॥21॥
अष्टविधकर्मविकलाः, शीतीभूता निरञ्जना नित्याः ।
अष्टगुणाःकृतकृत्याः, लोकाग्रनिवासिनः सिद्धाः ॥21॥
आठ कर्मों से रहित, नित्य निरंजन आस।
आठ गुण कृतार्थ सह, सिद्ध लोक निवास ॥2.32.21.566॥
सिद्ध जीव अष्टकर्मो से रहित, सुखमय, निरंजन, नित्य, अष्टुणसहित तथा कृतकृत्य होते है और सदैव लोक के अग्रभाग में निवास करते है।
“Siddhas” (pure and perfect souls are free of eight karmas, blissful (sukh-maya), spotless (Niraijan/untainted), Eternal (Nitya) and full of eight attributes. Having attained their aims, they permanently dwell on the summit of the universe. (566)
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