३०. अनुप्रेक्षासूत्र
झाणोवरमेऽवि मुणी, णिच्चमणिच्चाइभावणापरमो ।
होइ सुभावियचित्तो, धम्मज्झाणेण जो पुव्विं ॥1॥
ध्यानोपरमेऽपि मुनिः, नित्यमनित्यादिभावनापरमः।
भवति सुभावितचित्तः, धर्मध्यानेन यः पूर्वम् ॥1॥
धर्म ध्यान ही परम है, सर्वप्रथम हो भाव।
धर्म ध्यान परिपूर्ण हो, आदि अनित्य सुभाव ॥2.30.1.505॥
मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म ध्यान द्वारा अपने चित्त को भावपूर्ण करे। बाद में सदा अनित्य, अशरण आदि भावनाओं के चिन्तन में लीन रहे।
A saint desirous of salvation should first of all inculcate his mind (subhavit kare) with Righteous concentration and thereafter (i.e. after being disinterested therefrom) he should engage himself in pondering of Reflections such as that of transitoriness (Anityabhavana) or unprotectiveness (Asharna-bhavana). (505)
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अद्धुव–मसरण–मेगत्त–मण्ण–संसार–लाय–मसुइत्तं।
आसव–संवर–णिज्जर–धम्मं बोधिं च चिंतिज्ज ॥2॥
अध्रुवमशरणमेकत्व–मन्यत्वसंसार–लोकमशुचित्वं।
आस्रवसंवरनिर्जर, धर्मं बोधि च चिन्तयेत् ॥2॥
अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्य, अपवित्र, लोक, संसार ।
आस्रव, संवर, धर्म, निर्जरा, बारह बोधि प्रकार ॥2.30.2.506॥
अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, अपवित्र, लोक, संसार, आस्रव, संवर, धर्म, निर्जरा, बोधि इन बारह भावनाओं का चिन्तन करना चाहिये।
One should reflect upon twelve reflections, which are : 1. Reflection of Transitoriness; 2. Reflection of unprotectiveness refugelessness; 3. Reflection of mundaneness; 4. Reflection of loneliness; 5. Reflection of separateness; 6. Reflection of impurity; 7. Reflection of inflow of karmas; 8. Reflection of stoppage of karmas; 9. Reflection of shedding off of karmas; 10. Reflection of universe; 11. Reflection of nature of Right path; (Dharma); 12. Reflection of Rarity of enlightenment. (506)
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जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जोव्वणं जरा–सहियं ।
लच्छी विणास–सहिया इय सव्वं भंगुरं मुणह ॥3॥
जन्म मरणेन समं, सम्पद्यते यौवनं जरासहितम्।
लक्ष्मीः विनाशसहिता, इति सर्वं भङ्गुरं जानीत ॥3॥
जन्म मरण का संग है, वृद्ध अपि यौवन यार।
लक्ष्मी संग विनाश है, क्षण भंगुर संसार ॥2.30.3.507॥
जन्म मरण केे साथ जुड़ा हुआ है और यौवन वृद्धावस्था के साथ। लक्ष्मी चंचला है। इस प्रकार संसार में सब कुछ अनित्य है।
The birth is blended with death and youth with oldage (or decay). The Goddess of wealth (Laxmi) is playful (Chanchala/wanton/trekish). Thus, everything in the world is fragile/transitory (Kshanabhangur/quickly perishable). (507)
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चउऊण महामोहं सिए मुणिऊण भंगुरे सव्वे ।
णिव्वसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तम लहह ॥4॥
त्शक्त्वा महामोहं, विषयान् ज्ञात्वा भङ्गुरान् सर्वान्।
निर्विषयं कुरुत मनः, येन सुखमुत्तमं लभध्वम् ॥4॥
इन्द्रिय विषयक मोह तजे, क्षण भंगुर सब जान ।
विषयरहित मन को रखें, उत्तम सुख का भान ॥2.30.4.508॥
महामोह को तज कर तथा सब इन्द्रिय विषयों को अनित्य जानकर मन को निर्विषय बनाओ ताकि उत्तम सुख प्राप्त हो।
Having renounced great delusion/mahamoha) and being conscious of the perishable nature of the subjects of senses (indriya-visaya), make your mind free of sense subjects (Nirvisaya) so that you may attain supreme bless. (508)
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वित्तं पसवो य णाइओ, तं बालं सरणं त्ति मण्णई ।
एए मम तेसिं वा अहं णो ताणं सरणं ण विज्जई ॥5॥
वित्तं पशवश्च ज्ञातयः, तद् वालः शरणमिति मन्यते ।
एते मम तेष्वप्यहं, नो त्राणं शरणं न विद्यते ॥5॥
जो धन पशु की शरण ले, ज्ञानशून्य अंजान।
ये मेरे मैं आपका, शरणागत ना मान ॥2.30.5.509॥
अज्ञानी जीव, धन, पशु तथा जातिबन्धु को अपना रक्षक या शरण मानता है कि ये मेरे हैं और मैं इनका हूँ।
The ignorant being (Ajnani-jiva) deems cattle wealth and fellow being (janti varga/caste fellows) as his protectors or protection(refuge). (He deems) “they are mine and I am theirs in actuality” they are neither (his) protectors nor (his) protection (refuge).(509)
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संगं परिजाणमि, सल्लं पि य उद्धरामि तिविहेणं ।
गुत्तीओ समिईओ, मज्झं ताणं च सरणं च ॥6॥
संगं परिजानामि, शल्यमपि चोद्धरामि त्रिविधेन ।
गुप्तयः समितयः, मम त्राणं च शरणं च ॥6॥
तजूं परिग्रह, मायादि, तजता त्रिविध शल्य।
गुप्ति और समितियाँ हैं, मेरी रक्षक शरण्य ॥2.30.6.510॥
मै परिग्रह को समझ बूझकर छोड़ता हूँ। माया, मिथ्यात्व व निदान इन तीन शल्यों को भी मन-वचन-काय से दूर करता हूँ। तीन गुप्तियाँ और पाँच समितियाँ ही मेरे लिये रक्षक और शरण हैं।
I know that they are all (the forms of) attachments; I shall remove those defects knows as salya from my mind, speech and body; the guptis and the samitis are my protectors and shelters.(510)
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धी संसारो जहियं, जुवाणओ परमरूवगव्व्यिओ ।
मरिऊण जायइ, किमी तत्थेव कलेवरे नियए ॥7॥
धिक् संसारं यत्र, युवा परमरूपगर्वितकः ।
मृत्वा जायते, कृमिस्तत्रैव कलेवरे निजके ॥7॥
अति सुन्दर गर्वित युवा, मृत्यु बाद विचार।
कीट बने उसी तन मेें, जग को है धिक्कार ॥2.30.7.511॥
इस संसार को धिक्कार है जहाँ अति सुन्दर युवक मृत्यु पश्चात उसी शरीर में कीट के रुप में उत्पन्न हो जाता है।
Fie upon the transmigratory cycle where a youth, highly proud of his own handsomeness, is born after death as a tiny insect in his own dead body. (511)
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सो नत्थि इहोगासो, लोए वालग्गकोडिमित्तोऽवि ।
जम्मण मरणाबाहा, अणेगसो जत्थ न य पत्ता ॥8॥
स नास्तीहावकाशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि ।
जन्ममरणाबाधा, अनेकशो यत्र न च प्राप्ताः ॥8॥
बाल – नोक बराबर भी, नहीं जगत में स्थान।
पड़ा भोगना कष्ट जहाँ, जन्म–मरण श्रीमान ॥2.30.8.512॥
इस संसार में बाल की नोक जितना भी स्थान ऐसा नही है जहाँ इस जीव ने अनेक बार जन्म-मरण का कष्ट न भोगा हो।
There is no place in this world, even as tiny as tip of hair, where a soul has not suffered the pangs of births and deaths several times. (512)
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बाहिजरमरणमयरो निरंतरुप्पत्तिनीरनिकुरुंबो ।
परिणामदारुणदुहो, अहो दुरंतो भवसमुद्दो॥9॥
व्याधिजरामरणमकरो, निरन्तरोत्पत्ति–नीरनिकुरुम्बः।
परिणामदारुणदुःखः, आहे! दुरन्तो भवसमुद्रः॥9॥
ज्वर बुढापा और मरण, मगरमच्छ कर पार।
सतत जन्म जलराशि है, भवसागर व्यापार ॥2.30.9.513॥
अहो! इस भव सागर का अन्त बड़े कष्ट से होता है। इसमें व्याधि, बुढ़ापा, मरणरूपी अनेक मगरमच्छ है। निरन्तर जन्म ही जलराशि है। इसका परिणाम दारुण दुख है।
Oh, this ocean of mundane existence is difficult to cross over; there are many crocodiles in the form of disease, old-age and death; there is great mass of water in the form of constant births and deaths, the result of all these are terrible misery. (513)
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रयणत्तय–संजुत्तो,जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं ।
संसारं तरइ जदो, रयणत्तय–दिव्व–णावाए ॥10॥
रत्नत्रयसंयुक्तः, जीवः अपि भवति उत्तमं तीर्थम्।
संसारं तरति यतः, रत्नत्रयदिव्यनावा ॥10॥
त्रिरत्न संयुक्त जीव ये, उत्तम तीर्थ समान।
पार करे संसार की, नाव त्रिरत्न महान॥2.30.10.514॥
रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन, ज्ञान व चारित्र) से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ है क्योंकि वह रत्नत्रय रूपी दिव्य नौका द्वारा संसार सागर पार कर लेता है।
A soul endowed with the Three Jewels constitutes an excellent ford. One can cross the ocean of transmigratory cycle with the aid of the divine boat of Three Jewles. (514)
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पत्तेयं पत्तेयं नियगं, कम्मफलमणुहवंताणं ।
को कस्स जए सयणो? को कस्स व परजणो भणिओ? ॥11॥
प्रत्येक प्रत्येकं निजकं, कर्मफलमनुभवताम्।
कः कस्य जगति स्वजनः? कः कस्य वा परजनो भणितः ॥11॥
प्रत्येक जीव स्वतंत्र है, करे कर्मफल भोग ।
कौन अपना या–पर–जन कौन बताये लोग ॥515॥
यहाँ प्रत्येक जीव अपने अपने कर्म फल को अकेला ही भोगता है। ऐसी स्थिति में यहाँ कौन किसका स्वजन है और कौन किसका पर जन?
In this world where every one has to suffer the fruits of his own Karmas individually, is there any person whom one can call his own either related or stranger? (515)
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एगो मे सासदो अप्पा, णाण–दंसण–लक्खणोे।
सेसा मे बाहिरा–भावा, सव्वे संजोग–लक्खणा ॥12॥
एको मे शाश्वत आत्मा, ज्ञानदर्शनसंयुतः।
शेषा मे बाह्या भावाः, सर्वे संयोगलक्षणाः ॥12॥
शाश्वत केवल आत्मा, ज्ञान दर्शन योग ।
देह राग है अन्य सभी, मात्र रहे संयोग ॥2.30.12.516॥
ज्ञान और दर्शन से युक्त मेरी एक आत्मा ही शाश्वत है शेष सब अर्थात देह तथा रागादि भाव तो संयोगलक्षण वाले है। उनके साथ मेरा संयोग संबंध मात्र है। वे मुझसे अन्य ही है।
My soul endowed with knowledge and faith is alone permanently mine; all others are alien to me and are in the nature of external adjuncts. (516)
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संजोगमूला जीवेणं, पत्ता दुक्खपरंपरा।
तम्हा ंजोगसंबंधं, सव्वभावेण वोसिरे ॥13॥
संयोगमूला जीवेन, प्राप्ता दुःखपरम्परा।
तस्मात्संयोगसम्बन्धं, सर्वभावेन व्युत्सृजामि ॥13॥
दुख मूल संयोग सदा, एक सनातन राग ।
करूँ मेल संयोग का, पूर्ण भाव से त्याग ॥2.30.13.517॥
इस संयोग के कारण ही जीव दुखों की परम्परा को प्राप्त हुआ है। अतः सम्पूर्ण भाव से मैं इस संयोग सम्बंध का त्याग करता हूँ।
All the series of miseries suffered by a soul are born of these alien associations; therefore, I sever whole-heartedly contactsfrom all alien associations. (517)
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अणुसोअइ अन्न जणं अन्नभवंतरगयं तु बालजणो ।
नवि सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुद्दे ॥14॥
अनुशोचत्यन्यजन–मन्यभावान्तरगतं तु बालजनः।
नैव शोचत्यात्मानं, क्लिश्यमानं भवसमुद्रे ॥14॥
मृतक जनों पर दुख करें, कहलाता अज्ञान।
आत्मा की चिंता नहीं, भवसागर में जान॥2.30.14.518॥
अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गये हुए दूसरे लोगों के लिये तो शोक करता है किन्तु भव सागर में कष्ट भोगने वाली अपनी आत्मा की चिन्ता नही करता।
A foolish person grieves over the death of another person when he has departed to assume another birth but he does not think of his own soul which is suffering in this ocean of mundane existence. (518)
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अन्नं इमं सरीरं, अन्नोऽहं बंधवाविमे अन्ने ।
एवं ज्ञात्वा क्षमं, कुशलस्य न तत् क्षमं कर्तुम् ॥15॥
अन्यदिदं शरीरम्, अन्योऽहं बान्धवा अपीमेऽन्ये ।
एवं ज्ञात्वा क्षमं, कुशलस्य न तत् क्षमं कर्तुम् ॥15॥
मैं शरीर दोनों अलग, बंधु अन्य समान।
कुशल जन आसक्त नहीं, हो जो ऐसा ज्ञान ॥2.30.15.519॥
यह शरीर अन्य है, मैं अन्य हूँ, बन्धु बान्धव भी मुझसे अन्य है। ऐसा जानकर कुशल व्यक्ति उनमें आसक्त न हो।
My body is other than (different from) my self; my relatives are also other than my self. Having known so the clever persons should not have (or continue to have) attachments with them.
(519)
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जो जाणिऊए देहं, जीवसरूवादु तच्चदो भिण्णं ।
अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरंं स्स अण्णत्तं ॥16॥
यः ज्ञात्वा देहं, जीवस्वरूपात् तत्त्वतः भिन्नम्।
आत्मानमपि च सेवते, कार्यकरं तस्य अन्यत्वम् ॥16॥
रूप समझ तन–जीव को, भिन्न तत्व का ज्ञान।
आत्मा का अनुचिंतन हो, अन्यत्व भाव संज्ञान॥2.30.16.520॥
जो शरीर को जीव के स्वरूप से तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्मा का अनुचिन्तन करता है, उनकी अन्यत्व भावना कार्यकारी है।
He who reflects over his own soul, after knowing that, in principle, his body is distinct from his soul, achieves effective results. (520)
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मंसट्ठियसंघाए, मुत्तपुरीसभरिए नवच्छिद्दे।
असुइं परिस्सवंते, सुहं सरीरग्मि किं अत्थि?॥17॥
मांसास्थिकसंघाते, मूत्रपुरीषभृते नवच्छिद्रे।
अशुचि परिस्रवति, शुभं शरीरे किमस्ति? ॥17॥
माँस हड्डियों से बना, मैल भरे नौ छेद।
तन है नाली गंदगी, सुख का कैसा वेद ॥2.30.17.521॥
माँस और हड्डी के मेल से निर्मित, मल-मूत्र से भरे, नौ छिद्रों के द्वारा अशुचि पदार्थों को बहाने वाले शरीर में क्या सुख हो सकता है?
What joy can there be in a body that is constructed/ made by assembling bones and flesh; which is full of excreta; and which out pours the filthy material (ashuchi-padartha) from (as many as) nine out lets. (521)
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एदे मोहय–भावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो।
हेयं ति मण्णमाणो आसव–अणुवेहणं तस्स ॥18॥
एतान् मोहजभावान् यः परिवर्जयति उपशमे लीनः।
हेयम् इति मन्यमानः, आस्रवानुप्रेक्षणं तस्य ॥18॥
भाव उदय हो मोह के, साधु करता त्याग।
आस्रव इसको मानना, अनुप्रेक्षा का भाग ॥2.30.18.522॥
मोह के उदय से उत्पन्न होने वाले इन सब भावों को त्यागने योग्य जानकर उपशम भाव में लीन मुनि इनका त्याग कर देता है। यह उसकी आस्रव अनुप्रेक्षा है।
A monk who controls his senses through restraints of his mind, speech and body, and is aware of the observance of samiti, i.e., the five types of vigilance, prevents influx of karmas and will not attract the dust of new karmas. (522)
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मण–वयण–काय–गुत्तिंदियस्स समिदीसु अप्पमत्तस्स।
आसव–दार–णिरोहे, णव–कम्म–रया–सवो ण हवे ॥19॥
मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियस्य समितिषु अप्रमत्तस्य ।
आस्रवदारनिरोधे, नवकर्मरजआस्रवो न भवेत् ॥19॥
काय मन वचन गुप्ति का, शुद्ध समिति पहचान।
बंद आस्रव द्वार रहे, संवर अनुप्रेक्षा ज्ञान॥2.30.19.523॥
तीन गुप्तियों के द्वारा इन्द्रियों को वश में करनेवाला तथा पाँच समितियों के पालन में अप्रमत्त मुनि के आस्रव द्वारों का निरोध हो जाने पर नवीन कर्म रज का आस्रव नही होता है। वह संवर अनुप्रेक्षा है।
The closure of the inlets of karmic inflow of the soul by a saint – who observes all the five carefulnesses and controls his senses
by means of three preservations (disciplines) results in the stoppage of the arrival of new filth of karmas, this constitutes his reflection of stoppage (samivaraanupreksha) of karmas. (523)
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णाऊण लोगसारं, णिस्सारं दीहगमणसंसारं।
लोयग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सुहवासं ॥20॥
ज्ञात्वा लोकसारं, निःसारं दीर्घगमनसंसारम्।
लोकाग्रशिखरवासं, ध्याय प्रयत्नेन सुखवासम् ॥20॥
सार नहीं इस लोक में, दीर्घ गमन संसार।
ध्यान करे सर्वोच्च का, सिद्ध चले जिस पार ॥2.30.20.524॥
लोक को निःसार तथा संसार को दीर्घ गमनरूप जानकर मुनि प्रयत्नपूर्वक लोक के सर्वोच्च अग्रभाग में स्थित मुक्तिपद का ध्यान करता है, जहाँ मुक्त (सिद्ध जीव) सुखपूर्वक सदा निवास करते हैं।
It is preached by Jina that the dissociation of Karmic matter (from the self) is called Nirjara. Know that means of Samvara (stoppage) are also the means of Nirjara. (524)
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जरा–मरण–वेगेणं, वुज्झमणाण पाणिणं।
धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरण–मुत्तमं ॥21॥
जरामरणेवेगेन, डह्यमानानां प्राणिनाम्।
धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम् ॥21॥
जरा मरण में डूबते, जीवन तेज बहाव।
द्वीप–प्रतिष्ठा और गति, शरण धर्म की नाव ॥2.30.21.525॥
जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते-डूबते हुए प्राणियों के लिये धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है।
For living beings who are floating in the currents of old age and death, religion is the best island, resting place and supreme shelter. (525)
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माणुस्सं विग्गहं लद्धूं, सुई धम्मस्स दुल्लहा।
जं सोच्चा पडिवज्जन्ति, तवं खन्ति–महिंसयं ॥22॥
मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिर्धर्मस्य दुर्लभा।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिमहिंस्रताम् ॥22॥
दुर्लभ जन्म मनुष्य का, दुर्लभतर श्रुत ज्ञान।
लेय नियम में जानकर, दया क्षमा का दान॥2.30.22.526॥
प्रथम तो चतुर्गतियों में भ्रमण करने वाले जीव को मनुष्य शरीर मिलना ही दुर्लभ है फिर ऐसे धर्म का श्रवण तो और भी कठिन है जिसे सुनकर तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त किया जाय॥
(An impure soul-,that is roaming about in four grades of life, – is rarely fortunate to occupy (human-body); and he who occupies human body, more rarely gets the opportunity (or opportunities) to listen to (and thereby understand) the (true) religion i.e. a religion that includes austerities forgiveness and non-violence.
(526)
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आहच्च सवणं लद्धूं, सद्धा परमदुल्लहा।
सोच्चा ने आउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई॥23॥
आहत्य श्रवणं लब्ध्वा, श्रद्धापरमदुर्लभ ।
श्रुत्वा नैयायिकं मार्ग वहवः परिभ्रश्यन्ति ॥23॥
लाभ श्रवण शायद मिले, श्रद्धा ना आसान ।
न्याय मार्ग की बात सुन, विचलित होता ध्यान ॥2.30.23.527॥
कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाये तो उस पर श्रद्धा होना महा कठिन है। क्योंकि बहुत से लोग न्यायसंगत मोक्षमार्ग को सुनकर भी उससे विचलित हो जाते है।
Even after listening to the religious text, it is extremely difficult to cultivate faith in it; because there are many people, who even after learning about the righteous path, deviate from it. (527)
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सुइं च लद्धं सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं।
बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए ॥24॥
श्रुतिं च लब्ध्वाश्रद्धां च, वीर्य पुनर्दुर्लभम् ।
बहवो रोचमाना अपि, नो च तत् प्रतिपद्यन्ते ॥24॥
श्रुति श्रद्धा अरु लाभ भी, दुर्लभ संयम भार।
रुचि संयम के साथ रख, सम्यक् नहीं स्वीकार ॥2.30.24.528॥
धर्म के प्रति श्रद्धा हो जाने पर भी संयम में पुरुषार्थ होना अत्यन्त दुर्लभ है। बहुत से लोग संयम में रुचि रखते हुए भी उसे सम्यक् रूपेण स्वीकार नही कर पाते।
(Further more) it is very difficult for one,- who listens to and believes in (true) dharma to adopt (Right) conduct (Restraint), Many persons are inclined towards (such) conduct; but they are incapable of adopting it, righteously in appropriate manner.
(528)
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भावणा–जोग–सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया।
णावा व तीर–संपण्णा, सव्व–दुक्खा तिउट्टइ ॥25॥
भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिव आख्यातः।
नौरिव तीरसंपन्ना, सर्वदुःखात् त्रुट्यति ॥25॥
भाव योग शुद्ध–आत्मा, जल में नाव समान।
तट पर पहुँचे नाव तो, अंत दुखो का जान ॥2.30.25.529॥
भावना योग से शुद्ध आत्मा को जल में नौका के समान कहा गया है। जैसे अनुकूल पवन का सहारा पाकर नौका किनारे पर पहुँच जाती है वैसे ही शुद्ध आत्मा संसार के पार पहुँचती है जहाँ उसके समस्त दुखों का अन्त हो जाता है।
A person who has purified his soul by his thought activity resembles a boat; as boat crosses an ocean, so also such a person secures freedom from all misery. (529)
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बारस–अणुवेक्खाओ, पच्चक्खाणं तहेव पडिक्कमणं।
आलोयणं समाहिं, तम्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ॥26॥
द्वादशानुप्रेक्षाः, प्रत्याख्यानं तथैव प्रतिक्रमणम् ।
आलोचनं समाधिः, तस्मात् भावयेत् अनुप्रेक्षाम् ॥26॥
भाव बारह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान बखान।
समाधिसह आलोचना, सतत चिन्तवन ध्यान ॥2.30.26.530॥
अतः बारह अनुप्रेक्षाओं का तथा प्रत्याख्यान (निरोध करना), प्रतिक्रमण, आलोचना एवं समाधि का बारम्बार चिन्तवन करते रहना चाहिए।
The twelve Anupreksa (deep reflections), abstinence, repentance, confession and meditation, one should deeply contemplate on these reflections. (530)
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