२८. तपसूत्र
जत्थ कसायणिरोहो, बंभं जिणपूयणं अणसणं च ।
सो सव्वो चेव तवो, विससेओ मुद्धलोयंमि ॥1॥
यत्र कषायनिरोधो, ब्रह्म जिनपूजनम् अनशनं च।
तत् सर्वं चैव तपो, विशेषतः मुग्धलोके ॥1॥
कषायरोध ब्रह्मचर्य, जिनपूजन उपवास।
ये सब तप के भाग है, भक्तों का विश्वास ॥2.28.1.439॥
जहाँ कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजन तथा उपवास आत्मलाभ के लिये किया जाता है, वह सब तप है।
(A) Vahya-tapa (External Austerities) consists of prevention of passions, adoption of celibacy, worshiping andfasting (for the good of self). The devotees particularly adopt such austerities.
(439)
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सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरब्भंतरो तह।
बाहिरो छव्विहो वुत्तो, एवमब्भन्तरो तवो ॥2॥
तत् तपो द्विविधं उक्तं, बाह्यमाभ्यन्तरं तथा।
बाह्यं षड्विधं उक्तं, एवमाभ्यन्तरं तपः ॥2॥
आभ्यंतर व बाह्य हैं, तप के दोय प्रकार ।
दोनों के छह भाग हैं, अंतर बाह्य विचार ॥2.28.2.440॥
तप दो प्रकार का है। बाह्य और आभ्यंतर। बाह्य व आभ्यअंतर तप छह-छह प्रकार के है।
Austerities are of two kinds: 1. External and 2. Internal The external austerities are of six kinds. Similar is the case with internal austerities; it is also of six kinds. (440)
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अणसण–मूणोयरिया, भिक्खा–यरिय य रस–परिच्चाओ ।
काय–किलेसो संलीणया य, बज्झो तवो होइ ॥3॥
अनशनमूनादेरिकाभिक्षाचर्या च रसपरित्यागः।
कायक्लेशः संलीनता च, बाह्यं तपो भवति ॥3॥
ऊनोदरिका व अनशन, भिक्षा, रस–परित्याग।
कायक्लेश संलीनता, बाह्य तप के भाग ॥2.28.3.441॥
अनशन, ऊनोदरिका, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश और संलीनता- इस तरह बाह्य तप छह प्रकार के है।
The six kinds of External Austerities are : 1. Fasting; 2. Eating less than ones full (i.e. less than one has appetrl for); 3. Taking a mental vow to accept food from a house holder on the fulfilment of certain condition or conditions, without letting anyone know about the vow; 4.Renunciation of one or more six kinds of delicacies e.g. ghee etc. 5.Sitting and sleeping in lonely place or places devoid of animate
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कम्माण णिज्जरट्ठं आहारं परिहरेइ लीलाए ।
एग–दिणादि पमाणं तस्स तवं अणसणं होदि ॥4॥
कर्मणां निर्जरार्थम्, आहारं परिहरति लीलया।
एकदिनादिप्रमाणं, तस्य तपः अनशनं भवति ॥4॥
कर्मों का करना क्षय हो, त्याग करे आहार ।
यथाशक्ति दिन तय करे, अनशन तप आचार ॥2.28.4.442॥
जो कर्मों की निर्जरा के लिये एक-दो दिन आदि का यथाशक्ति प्रमाण तय करके आहार का त्याग करता है, उनके अनशन तप होता है।
The austerity of fasting consists of the renunciation (abandonment) of food for the period of a day for the shake shedding karmas (Nirjara). (442)
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जे पयणुभत्तपाणा, सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए ।
जो अ तवो सुयहीणो, बाहिरयो सो छुहाहारो ॥5॥
ये प्रतनुभक्तपानाः, श्रुतहेतोस्ते तपस्विनः समये ।
यच्च तपः श्रुतहीनं, बाह्यः स क्षुदाधार ॥5॥
वही तपस्वी आगम में, ज्ञान हेतु आहार।
श्रुतविहीन तप जो करे, भूख मृत्यु बेकार ॥2.28.5.443॥
जो स्वाध्याय के लिये अल्प आहार करते है वे ही आगम में तपस्वी माने गये है। श्रुतविहीन तप तो भूखे मरने जैसा है।
A monk who takes a little food for undertaking study of scriptures is said to be a tapasvi (i.e., one practising the penance), according to scriptures. The penance of fasting without scriptural study amounts only to starving. (443)
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सो नाम अणसणतवो, जेण मणोऽमंगुलं न चिंतेइ ।
जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥6॥
तद् नाम अनशनतपो, येन मनोऽमङ्गलं न चिन्तयति ।
येन नेन्द्रियहानि–र्येन च योगा न हीयन्ते ॥6॥
अनशन तप सब है वही, अचिन्त अमंगल जान।
शिथिल नहीं हों इंद्रियाँ, बचे योग में जान ॥2.28.6.444॥
वास्तव में वही अनशन तप है जिसमें अमंगल की चिंता न हो, इन्द्रियों की शिथिलता न हो तथा मन वचन काय रूप योगों में गिरावट न हो।
Fasting is penance when the person observing it does not entertain any inauspicious thoughts, when it does not result in bodily weakness, and when the activities of mind, speech and body remain unimpaired. (444)
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बलं थामं च पेहाए, सद्धामारोग्गमप्पणो ।
खेत्तं कालं च विन्न्य, तहप्पाणं निजुंजए ॥7॥
बलं स्थाम च प्रेक्ष्य श्रद्धाम् आरोग्यम् आत्मनः ।
क्षेत्रं कालं च विज्ञाय तथा आत्मानं नियुञ्जीत ॥7॥
बल तेज़ श्रद्धा परखे, लेए रोग संज्ञान।
क्षेत्र काल को जान, करेें उपवास प्रतिज्ञान ॥2.28.7.445॥
अपने बल, तेज, श्रद्धा तथा आरोग्य का निरीक्षण करके तथा क्षेत्र और काल को जानकर अपने को उपवास में नियुक्त करना चाहिये।
One should adopt fasting after having properly taken into consideration and weighed one’s own strength/capacity energy, faith and health and having in view the region and the time; (because over-fasting is harmful). (445)
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उवसमणो अक्खाणं उववासो वण्णिदो समासेण ।
तम्हा भुंजंता वि य जिदिंदिया होंति उववासा ॥8॥
उपशमनम् अक्षाणाम्, उपवासः वर्णितः समासेन ।
तस्मात् भुञ्जानाः अपि च, जितेन्द्रियाः भवन्ति उपवासाः॥8॥
इन्द्रियों का उपशमन, कहलाता उपवास।
भोज करे जितेन्द्रिय भी, अनशन तप का वास ॥2.28.8.446॥
संक्षेप में इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है। अतः जितेन्द्रिय भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते हैं।
In short, subjugation of senses is also described as fasting; therefore those who have conquered their senses are said to be fasting, though they may be taking food. (446)
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छट्ठ–ट्ठम–दसम–दुवालसेंहं अबहुसुयस्स जा सोही ।
तत्तो बहुतर–गुणिया, हविज्ज जिमियस्स णाणिस्स ॥9॥
षष्ठाष्टमदशमद्वादशै–रबहुश्रुतस्य या शुद्धिः।
ततो बहुतरगुणिता, भवेत् जिमितस्य ज्ञानिनः ॥9॥
अज्ञानी का शुद्धीकरण, व्रत करके दो चार।
ज्ञानी चाहे नित्य चखे, निर्मल अधिक विचार॥2.28.9.447॥
अज्ञानी तपस्वी की जितनी शुद्धि दो-चार दिनों के उपवास से होती है उससे बहुत अधिक शुद्धि नित्य भोजन करने वाले ज्ञानी की होती है ।
The purity (of self) achieved by one who is well versed in scriptures, though regularly takes food, would be many times more than the purity of a person who is ignorant of scriptures, though he may fast for two, three, four or five days. (447)
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जो जस्स उ आहारो, तत्तो ओमं तु जो करे ।
जहन्नेणेग–सित्थाई, एवं दव्वेण ऊ भवे ॥10॥
यो यस्य त्वाहारः, ततोऽवमं तु यः कुर्यात्।
जघन्येनैकसिक्थादि, एवं द्रव्येण तु भवेत् ॥10॥
भोजन जितना कर सके, थोड़ा कम आहार।
द्रव्यरूप ऊणोदरी, बाह्य तप आकार॥2.28.10.448॥
जो जितना भोजन कर सकता है उससे कम भोजन करना द्रव्यरूपेण ऊनोदरी तप है।
A person, who takes food less even by a morsel than his usual diet, is said to practise penance called formal unodari (partial fasting). (448)
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गोयर–पमाण–दायग–भायण–माणा–विहाण जं गहणं ।
तह एसणस्स गहणं, विविहस्स य वुत्ति परिसंखा ॥11॥
गोचरप्रमाणदायक–भाजननानाविधानं यद् ग्रहणम्।
तथा एषणीयस्य ग्रहणं, विविधस्यच वृत्तिपरिसंख्या ॥11॥
नियम समय आहार ले, हो भिक्षा का भाव।
विविध वृत्तिपरिसंख्य ये तप को होत प्रभाव॥2.28.11.449॥
सीमा तय कर भोजन ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप है।
If one procures alms after having taken various sorts of decisions as to their amount, their donor, their containing-vessel or as to their various types of contents, one performs the penance called vittiparisankhyana i. e. limiting the things begged for. (449)
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खीर–दहि–सप्पिमाई, पणीतं पाणभोयणं।
परिवज्जणं रसाणं तु, भणियं रसविज्जणं ॥12॥
क्षीरदधिसर्पिरादि, प्रणीतं पानभोजनम्।
परिवर्जनं रसानां तु, भणितं रसविवर्जनम्॥12॥
घी दूध या हो दही, पौष्टिक भोजन त्याग ।
साधु ऐसा जो करते, व्रत से रस परित्याग ॥2.28.12.450॥
दूध दही घी आदि पौष्टिक भोजन के त्याग को रस परित्याग नाम तप कहा गया है।
A monk who avoids delicious food like milk, curds, butter and taking his food on leaf, practises the penance of rasaparityaga (renunciation of delicious dishes). (450)
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एगंत–मणावाए, इत्थी–पसु–विवज्जिए ।
सयणासण–सेवणया, विवित्त–सयणासणं ॥13॥
एकान्तेऽनापाते, स्त्रीपशुविवर्जिते।
शयनासनसेवनता, विविक्तशयनासनम् ॥13॥
स्थान चुने एकान्त सा, वर्जित नर और नार ।
शयनासन करके ग्रहण, प्रतिसंलीनता सार ॥2.28.13.451॥
एकान्त तथा स्त्री-पुरुषादि से रहित स्थान में शयन व आसन ग्रहण करना विविक्त-शयनासन (प्रतिसंलीनता) नामक तप है।
The “viviktasayyasan- tapa” of a saint consists of his sitting and sleeping in a lonely place, devoid of men and women, which is (most often) not visited by persons (Anapta). (451)
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ठाणा वीरासणाईया, जीवस्सउ सुहावहा ।
उग्गा जहा धरिज्जन्ति, कायकिलेसं तमाहियं ॥14॥
स्थानानि वीरासनादीनि, जीवस्य तु सुखावहानि।
उग्राणि यथा धार्यन्ते, कायक्लेशः स आख्यातः ॥14॥
वीरासनादि मांडकर सुतप तपें भयकार।
कायक्लेश तप ये कहे, आत्मा को सुखकार॥2.28.14.452॥
पहाड़ गुफा आदि भयंकर स्थानों में आत्मा के सुख के लिये विविध आसनों का अभ्यास करना काया क्लेश नामक तप है।
The “kaya-kleshatapa” of a saint consists of practising the exercises of postures (such as virasan) in dangerous places like forests, caves etc. exercises, that please the soul. (452)
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सुहेण–भाविंद णाणं, दुहे जादे विणस्सादि।
तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए ॥15॥
सुखेन भावितं ज्ञानं, दुःखे जाते विनश्यति ।
तस्मात् यथाबलं योगी, आत्मानं दुःखैः भावयेत् ॥15॥
ज्ञान जब सुख से मिले, दुख आने से नाश।
कायक्लेश से तप करे, मिलता ज्ञान प्रकाश ॥2.28.15.453॥
सुखपूर्वक प्राप्त ज्ञान दुख आने पर नष्ट हो जाता है। योगी को अपनी शक्ति अनुसार कायक्लेशपूर्वक आत्मचिन्तन करना चाहिये।
The knowledge, acquired with ease (comfortably) disappears/ vanishes, on the arrival of (at the occasion of) distress or discomforts (Dukha). That is why, an ascetic should, concentrate on self, by means of self-inflicted pains so long as the mind is not disturbed. (453)
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ण दुक्खं ण सुखं वा वि, जहाहेतु तिगिच्छिति।
तिगिच्छिए सुजुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं ॥16॥
मोहक्खए उ जुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं।
मोहक्खए जहाहेउ, न दुक्खं न वि वा सुहं ॥17॥
न दुःखं न सुखं वाऽपि यथाहेतु चिकित्सति।
चिकित्सते सुयुक्तस्य दुःखं वा यदि वा सुखम् ॥16॥
मोहक्षये तु युक्तस्य, दुःखं वा यदि वा सुखम्।
मोहक्षये यथाहेतु, न दुःखं नाऽपि वा सुखम् ॥17॥
सुख व दुख हेतु नहीं, चिकित्सा करते रोग।
होगा सुख या दुख भले, चिकित्सा है ये योग ॥2.28.16.454॥
मोह क्षय भी इसी तरह, सुख या दुख तो नाम।
मोह क्षय भी हेतु नहीं, सुख या दुख परिणाम ॥2.28.17.455॥
चिकित्सा कराने पर रोगी को दुख भी हो सकता है और सुख भी उसी तरह मोह के क्षय में सुख और दुख दोनों हो सकते हैं।
Neither an experience of pain nor an experience of pleasure is an appropriate cause for curing an ailment but one who conducts one’s life well, gets cured either by way of pain or by way of pleasure. Likewise, one engaged in putting an end to one’s delusion might experience either pain or pleasure but neither pain nor pleasure is what puts an end to one’s delusion. (454 &
455)
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पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं।
झाणं च विउस्सग्गो, अब्भंतरओ तवो एसो ॥18॥
प्रायश्चित्तं विनयः, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः ।
ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः ॥18॥
प्रायश्चित और विनय सह, वैयावृत्य स्वाध्याय।
ध्यान और व्युत्सर्ग भी, आभ्यन्तर तप थाय ॥2.28.18.456॥
आभ्यंतर तप भी छह प्रकार के हैं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग।
The internal austerities are of six kinds : 1. Expiation; 2. Reverence; 3. Service of saint (worthy people) 4. Study; 5. Giving up attachment to the body; and 6. Meditation. (456)
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वद–समिदि–सील–संजम–परिणामो करण–णिग्गहो भावो।
सो हवदि पायच्छित्तं, अणवरयं चेव कायव्वो ॥19॥
व्रत–समिति–शील–संयम–परिणामः करणनिग्रहो भावः।
स भवति, प्रायश्चित्तम्, अनवरतं चैव कर्तव्यः ॥19॥
शील समिति संयम व्रत, इन्द्रियनिग्रह भाव।
प्रायश्चित तप है यही, कर्तव्य सतत स्वभाव ॥2.28.19.457॥
व्रत, समिति, शील, संयम तथा इंद्रिय निग्रह का भाव ये सब प्रायश्चित तप हैं, जो निरन्तर कर्तव्य नित्य करणीय है।
The internal austerity of Expiation includes vows, carefulnesses, conduct, thought natures of Restraint and thought actions of sense control which are to be constantly observed or followed. (457)
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कोहादि–सग–ब्भाव–क्खय–पहुदि–भावणाए णिग्गहणंं।
पायच्छित्तं भणिदं, णिय–गुण–चिंता य णिच्छयदो॥20॥
क्रोधादि–स्वकीयभाव–क्षयप्रभृति–भावनायां निग्रहणम्।
प्रायश्चित्तं भणितं, निजगुणचिन्ता च निश्चयतः ॥20॥
क्रोध आदि निज भाव में, क्षय का रखते ध्यान।
निजगुण चिंतन हो जहाँ, प्रायश्चित ही जान ॥2.28.20.458॥
क्रोध आदि स्वकीय भावों के क्षय की भावना रखना तथा निजगुणो का चिंतन करना निश्चय प्रायश्चित तप है।
Thinking of controlling anger and other thoughts, passification of intense thoughts, contemplation of one’s own virtues, theseconstitute atonement from the real view-point. (458)
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णंता–णंत–भवेण, समज्जिअ–सुह–असुह–कम्म–संदोहो।
तव–चरणेण, विणस्सदि, पायच्छित्तं तवं तम्हा ॥21॥
अनन्तानन्तभवेन, समर्जित–शुभाशुभकर्म्मसन्दोहः।
तपश्चरणेन विनश्यति, प्रायश्चित्तं तपस्तस्मात् ॥21॥
अनन्त भव, अर्जित करम, शुभ अशुभ का नाश।
मार्ग तपस्या ही करे, प्रायश्चित तप खास ॥2.28.21.459॥
अनन्तान्त भवों में उपर्जित शुभ-अशुभ कर्मों का नाश तपस्या से होता है। अतः तपस्या करना प्रायश्चित है।
The multitude of auspicious and inauspicious Karmas accumulated during endless transmigration can be destroyed bypractice of penances; so, the atonement (expiation) is called the penance. (459)
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आलोयण पडिकमणं, उभयविवेगो तहा विउस्सगो।
तब छेदो मूलं वि य परिहारो चेव सद्दहणा॥22॥
अलोचना प्रतिक्रमणं, उभयविवेकः तथा व्युत्सर्गः ।
तपःछेदो मूलमपि च, परिहारः चैव श्रद्धानं ॥22॥
आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, व्युत्सर्ग, विवेक ।
छेद, मूल, परिहार, तप, प्रायश्चित दस नेक ॥2.28.22.460॥
प्रायश्चित दस प्रकार का है। स्व-आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार तथा श्रद्धान।
The Expiation is of ten kinds : 1. Full and voluntary confession to the Head of the order (Alochana); 2. Self analysis and repentance for faults (pratikramana); 3. Doing both (ubaya); 4. Giving up a much abandonment of beloved object (e.g. particular food or drink) (vivka); 5. Giving up attachment with the body (vyutsarga); 6. Austerities of a particular kind prescribe in a penance (tapa); 7. Cutting short the standing of a saint by way of degradation (chheda); 8. Out rooting the standing of a saint (muta); 9. Rustication for some time (parihar); and 10. Fresh readmission after expulsion from the order (upasthpana).(460)
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अणाभोग–किदं कम्मं, जं किं वि मणसा कदं ।
तं सव्वं आलोचेज्ज हु, अव्वाखित्तेण चेदसा ॥23॥
अनाभोगकृतं कर्म, यत्किमपि मनसा कृतम् ।
तत्सर्वमालोचयेत् खलु अव्याक्षिप्तेन चेतसा ॥23॥
अनाभोगकृत कर्म रहे सार्वजनिक या काम।
दोनो की आलोचना करना गुरु के धाम ॥2.28.23.461॥
दूसरों द्वारा जाने गये कर्म आभोगकृत व न जाने गये कर्म अनाभोगकृत कर्म हैं। दोनों प्रकार के कर्मों की आलोचना अपने गुरु से करनी चाहिये।
An evil act done unintentionally or intentionally all this has to be confessed with an unperturbed mind. (461)
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जह बालो जपन्तो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ।
तं तह आलोइज्जा, माया–मय–विप्पमुक्को वि ॥24॥
यथा बालो जल्पन् कार्यमकार्यं च ॠजुकं भणति।
तत् तथाऽऽलोचेन्मायामदविप्रमुक्त एव ॥24॥
बालक अपने काम को, माँ को देत बताय।
कर स्वदोष आलोचना, साधु सम्मुख आय॥2.28.24.462॥
जैसे बालक अपने कार्य को माता के समक्ष व्यक्त कर देता हैवैसे ही साधु के समक्ष अपने दोषों की आलोचना माया व मद त्याग कर करनी चाहिये ।
Just as a child speaks of its good and bad acts in a straightforward manner to mother, similarly one ought to confess one’s guilt with a mind free from deceit and pride. (409)
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जह कंटएण विद्धो, सव्वंगे वेयणद्दिओ होइ।
तह चेव उद्धियम्मि उ, निस्सल्लो निव्वुओ होइ ॥25॥
एवमणुद्धिय दोसो, माइल्लो तेणं दुक्खिओ होइ।
सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वुओ होइ ॥26॥
यथा कण्टकेन विद्धः, सर्वाङ्गे वेदनार्दितो भवति।
तथैव उद्धृते तु निश्शल्यो निर्वृतो भवति ॥25॥
एवमनुददृतदोषो, मायावी तेन दुःखितो भवति।
स एव त्यक्तदोषः, सुविशुद्धो निर्वृतो भवति ॥26॥
काँटा चुभने पर जहाँ, पीड़ा का हो भान।
निकले काँटा देह से, लगता सब आसान॥2.28.25.463॥
प्रकट करे नहीं दोष को, मायावी दुख भोग।
गुरु से निज आलोचना, विशुद्ध सुखी सब रोग॥2.28.26.464॥
जैसे काँटा चुभने पर पीड़ा निकलने पर सुख अनुभव होता है वैसे ही स्व आलोचना साधु के समक्ष कर देने पर शुद्धि प्राप्त होती है।
He who is pricked by a thorn feels the pain all over his body (but) becomes free from such pain when the thorn is removed. Similarly, he who hides his faults fraudulently, becomes miserable; he who confesses his faults honestly becomes pure and free from mental affliction. (463 & 464)
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जो पस्सदि अप्पाणं सम–भावे संठवित्तु परिणामं ।
आलोयण–मिदि जाणह, परम–जिणंदस्स उवएसं ॥27॥
यः पश्यत्यात्मानं, समभावे संस्थाप्य परिणामम्।
आलोचनमिति जानीत, परमजिनेन्द्रस्योपदेशम् ॥27॥
स्थापित हो परिणाम में, देख आत्म समभाव।
ज्ञान यही आलोचना, जिन उपदेश प्रभाव ॥2.28.27.465॥
जिनदेव का कहना है कि अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है।
He who realises his own soul after attaining mental equanimity achieves confession, know this to be the advice of the supreme Jina. (465)
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अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं।
गुरु–भत्ति–भाव–सुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ॥28॥
अभ्युत्थानमञ्जलिकरणं, तथैवासनदानम्।
गुरुभक्तिभावशुश्रूषा, विनय एष व्याख्यातः ॥28॥
हाथ जोड़कर हो खड़े, उच्चासन बैठाय।
गुरु भक्ति सेवा करे, तप वो विनय कहाय ॥2.28.28.466॥
गुरु व वृद्ध जनों के समक्ष आने पर खड़े होना, हाथ जोड़ना व उन्हें उच्च आसन देना, भक्ति करना व सेवा करना विनय तप है।
To get up at the arrival of an elder to welcome him with folded hands, to offer him (an honoured) seat, to serve him with feeling of devotedness, these constitute humility. (466)
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दंसण–णाणे विणओ चरित्त–तव–ओवचारिओ विणओ ।
पंचविहो खलु विणओ पंचम–गइ–णायगो भणिओ ॥29॥
दर्शनज्ञाने विनय–श्चारित्रतप–औपचारिको विनयः।
पञ्चविधः खलु विनयः पञ्चमगतिनायको भणितः ॥29॥
औपचारिक ज्ञान, तप, दर्शन, चरित्र, प्रकार।
पाँच भेद हैं विनय के, ले जाते भव पार॥2.28.29.467॥
दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय और औपचारिकविनय- ये विनय तप के पाँच भेद है जो मोक्ष की ओर ले जाते है।
Humility is of five kinds; humility in faith, in knowledge, in conduct, in penance and in decorum or etiquette, these lead toliberation, i.e. the fifth state. (467)
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एकम्मि हीलियम्मि, हीलिया हुंति ते सव्वे।
एकम्मि पूइयम्मि, पूइया हुंति सव्वे ॥30॥
एकस्मिन् हीलिते, हीलिता भवन्ति सर्वे।
एकस्मिन् पूजिते, पूजिता भवन्ति सर्वे ॥30॥
तिरस्कार हो एक का, सब पर है यह वार।
करता पूजा एक की, सब पूजे संसार ॥2.28.30.468॥
एक के तिरस्कार में सब का तिरस्कार होता है और एक की पूजा में सब की पूजा होती है।
If one (elder) is insulted, it amounts to an insult to all; if one is venerated, all of them are venerated. (468)
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विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे।
विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो? ॥31॥
विनयः शासने मूलं, विनीतः संयतः भवेत्।
विनयात् विप्रमुक्तस्य, कुतो धर्मः कुतः तपः? ॥31॥
जिन शासन की जड विनय, संयम तप के भाव।
विनय रहित को क्या कहे, तप और धर्म अभाव ॥2.28.31.469॥
विनय जिनशासन का मूल है। संयम तथा तप से विनीत बनना चाहिये। जो विनय से रहित है उसका कैसा धर्म और कैसा तप?
Humility is the basic (virtue) according to Jaina scripture; a person of humility acquires selfrestratint. What conduct andausterities can be observed by him, who lack humility. (469)
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विणओ मोक्खद्दारं, विणयादो संजमो तवो णाणं।
विणएणा–राहिज्जइ, आयरिओ सव्वसंघो य ॥32॥
विनयो मोक्षद्वारं, विनयात् संयमस्तपो ज्ञानम् ।
विनयेनाराध्यते, आचार्यः सर्वसंघश्च ॥32॥
विनय मोक्ष का द्वार वो, संयम तप और ज्ञान।
विनीत गुरु आराधना, सकल संघ सम्मान ॥2.28.32.470॥
विनीत गुरु आराधना, सकल संघ सम्मान ॥2.28.32.470॥विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम, तप, तथा ज्ञान प्राप्त होता है। विनय से आचार्य तथा सर्वसंघ की आराधना होती है।
Humility is the gateway to liberation; through humility one acquires self-restraint, penance and knowledge. By humility one honours the Acarya and the Sangh (i.e. the entire community of religious people). (470)
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विणयाहीया विज्जा, देति फलं इह परे य लोगम्मि ।
न फलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाइं ॥33॥
विनयाधीताः विद्याः, ददति फलम् इह परत्र च लोके ।
न फलन्ति विनयहीनाः, सस्यानीव तोयहीनानि ॥33॥
विनय से जो विद्या मिले, फलदायिनी त्रिलोक।
विनयविहीन सफल नहीं, जल बिन धान न लोक॥2.28.33.471॥
विनयपूर्वक प्राप्त की गयी विद्या इस लोक तथा परलोक में फलदायिनी होती है और विनयविहीन विद्या फलप्रद नही होती जैसे बिना जल के धान्य नही उपजता।
Learning acquired with humility proves fruitful in this world and in the other world; just as a plant cannot grow without water, learning will not be fruitful without humility. (471)
तम्हा सव्व–पयत्तेण, विणयत्तं मा कदाइ छंडिज्जो।
अप्प–सुदो वि य पुरिसो खवेदि कम्माणि विणएण ॥34॥
तस्मात् सर्वप्रयत्ने, विनीतत्वं मा कदाचित् छर्दयेत् ।
अल्पश्रुतोऽ पि च पुरुषः, क्षपयति कर्माणि विनयेन ॥34॥
विनय कभी ना छोड़िये, करें प्रयत्न हज़ार।
अल्पश्रुती भी विनय से, कर्म झराए अपार ॥2.28.34.472॥
इसलिये हर तरह से विनय को कभी नही छोड़ना चाहिए। अल्पश्रुत का अभ्यासी पुरुष भी विनय के द्वारा कर्मों का नाश करता है।
Therefore, one should not abandon humility at any cost. Even a person with less scriptural knowledge can annihilate his Karmas, if he has humility. (472)
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सेज्जा–गास–णिसेज्जा उवधीपडिलेहणा उवग्गहिदे।
आहारो–सह–वायण– विकिंचणुव्वत्तणादीसु ॥35॥
शय्यावकाशनिषद्या, तथा उपधिप्रतिलेखनाभिःउपगृहीते।
आहारौषधवाचना–विकिंचन वन्दनादिभिः ॥35॥
शय्या, वसति, आसन धरे, सेवा संत प्रतिलेख।
भोजन, औषधि, वाचना,वैयावृत्य तप देख ॥2.28.35.473॥
शय्या, वसति, आसन तथा प्रतिलेखन से उपकृत साधुजनों की आहार, औषधि, वाचना, मल-मूल विसर्जन तथा वन्दना आदि से सेवा-सुश्रुषा करना वैयावृत्य तप है।
The service to a monk (vaiyavrttya) consists in providing him bed, residence, seat, proper cleaning of his implements etc. and then arranging for his food, medicine, a reading of scriptural text, a proper disposal of refuse with propers respect. (473)
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अद्धाण–तेण–सावद–रय–णदी–रोधणा–सिवे ओमे।
वेज्जावच्चं उत्तं, संगह–सारक्खणो–वेदं ॥36॥
अध्वस्तेनश्वापद–राजनदीरोधनाशिवे अवमे ।
वैयावृत्यमुक्तं, संग्रहसंरक्षणोपेतम् ॥36॥
चोर व राजा पशु नदी, थके व रोगी लोग।
सेवा और रक्षा करे, वैयावृत्य तप योग ॥2.28.36.474॥
जो मार्ग में चलने से थक गये हैं, चोर हिंसक पशु, राजा द्वारा व्यथित, नदी की रुकावट, मरी आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से रक्षा व सार-सम्हाल करना वैयावृत्य है।
Offering protection to and taking care of a monk who becomesfatigued on his way, is threatened by a thief, a wild animal, a king or obstructed by river or gets afflicted by a contagious disease or famine, is service to a monk (vaiyavrttya). (474)
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परियट्टणा य वायण, पडिच्छणा– णुवेहणा य धम्मकहा ।
थुदि–मंगल–संजुत्तो, पंचविहो होइ सज्झाओ ॥37॥
परिवर्तना च वाचना, पृच्छानाऽपुनप्रेक्षणा च धर्मकथा ।
स्तुतिमङ्गलसंयुक्तः, पञ्चविधो भवति स्वाध्यायः ॥37॥
परिवर्तन पूछे पढ़े, चिंतन, कथा विचार।
मंगलपूर्वक स्तुति करे, स्वाध्याय प्रकार॥2.28.37.475॥
स्वाध्याय तप पाँच प्रकार का है। परिवर्तना, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और स्तुति मंगलपूर्वक धर्म कथा करना।
Study of scriptures (svadhyaya) is of five kinds : (1) reading of scriptural text (2) questioning (3) repitition (4) pondering over and (5) narration of religious discourses opening with auspicious praise (of Jina). (475)
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पूयदिसु णिरवेक्खो, जिण–सत्थं जो पढेइ भत्तीए।
कम्ममल–सोहणट्ठं, सुयलाहो सुहयरो तस्स ॥38॥
पूजादिषु निरपेक्षः, जिनशास्त्रं यः पठति भक्त्या ।
कर्ममलशोधनार्थं, श्रुतलाभः सुखकरः तस्य ॥38॥
आदर की इच्छा नहीं, भक्तिपूर्वक ज्ञान।
कर्म रूपी मल शोधन को , श्रुतलाभ सुखद जान ॥2.28.38.476॥
आदर सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो कर्मरूपी मल को धोने के लिये भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रों को पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ स्व-पर सुखकारी होता है।
He who studies scriptures with devotion without any desire for personal praise and honour or purging of his Karmic pollution,
will have the benefit of scriptural knowledge conducive to his happiness. (476)
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सज्झायं जाणंतो, पंचिंदियसंवुडो तिुगुत्तो य।
होइ य एकग्गमणो, विणएण समाहिओ साहू ॥39॥
स्वाध्यायं जानानः, पञ्चेन्द्रियसंवृतः त्रिगुप्तः च।
भवति च एकाग्रमनाः, विनयेन समाहितः साधुः ॥39॥
जानता स्वाध्याय को, पंचेन्द्रिय कमान।
त्रिगुप्तिमय एकाग्रमन, साधु विनय पहचान ॥2.28.39.477॥
स्वाध्यायी पाँचों इन्द्रियों से संयत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय से समाहित तथा एकाग्रमन होता है
A monk who has studied the scriptures keeps his five sense organs under control, practises the three guptis i.e. the control over one’s speech and body, concentrates his mind and observes humility. (477
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णाणेण–झाण–सिज्झी, झाणादो सव्व–कम्म–णिज्जरणं।
णिज्जरणफलं मोक्ख, णाणब्भासं तदो कुज्जा ॥40॥
ज्ञानेन ध्यानसिद्धिः ध्यानात् सर्वकर्मनिर्जरणम् ।
निर्जरणफलं मोक्षः ज्ञानाभ्यासं ततः कुर्यात् ॥40॥
ध्यान–सिद्धि है ज्ञान से, कर्म–ध्यानसे कर्मनाश।
निर्जराफल मोक्ष करे, सतत ज्ञान अभ्यास ॥2.28.40.478॥
ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है। अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिये।
Perfect meditation is attained through knowledge and destruction of Karmas by meditation; liberation is the fruit of destruction of Karmas; hence; one should be engaged constantly in acquisition of knowledge. (478)
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बारसविहम्मि वि तवे, अब्भिंतरबाहिरे कुसलदिट्ठे।
न वि अत्थि वि होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥41॥
द्वादशविधेऽपि तपसि, साभ्यन्तरबाह्ये कुशलदृष्टे।
नापि अस्त्ि नापि च भविष्यति, स्वाध्यायसमं तपः कर्म ॥41॥
अन्तर्बाह्य बारह तप, तप स्वाध्याय महान।
है, ना होगा, ना हुआ, महिमा इसकी जान॥2.28.41.479॥
बाह्याभ्यंतर बारह तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है न होगा।
Among the twelve penances, internal and external which are experienced by one wise person, there is no penance, that equals or will be equal to the study of scriptures. (479)
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सयणासण–ठाणे वा, जे उ भिक्खू न बावरे।
कायस्य विउस्सग्गो, छट्ठो सो परिकत्तिओ ॥42॥
शयनासनस्थाने वा, यस्तु भिक्षुर्न व्याप्रियते ।
कायस्य व्युत्सर्गः, षष्ठः स परिकीर्तितः ॥42॥
शयन आसन स्थान में, कायिक ना व्यापार।
कायोत्सर्ग है तप छठा, कर ले साधु विचार ॥2.28.42.480॥
भिक्षु का शयन, आसन और खड़े होने में व्यर्थ का कायिक व्यापार न करना, काष्ठवत रहना, छठा कायोत्सर्ग तप है।
A monk who makes no movements of his body while sleeping, sitting or standing and checks all activities of his body is said to observe the sixth penance of bodily steadiness (Kayotsarg). (480
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देहमइजड्डसुद्धी सुहदुक्खतितिक्खया णुप्पेहा।
झायइ य सुहं झाण, एगग्गो काउसग्गम्मि ॥43॥
देहमति जाड्यशं सुखदुःख तितिक्षता अनुप्रेक्षा।
ध्यायति च शुभं ध्यानम् एकाग्रः कायोत्सर्ग ॥43॥
कायोत्सर्ग देहमति, जड़ता करे विनाश।
अनुप्रेक्षा, एकाग्रता व सहनशक्ति विकास॥2.28.43.481॥
कायोत्सर्ग के लाभ ः 1. देह की जड़ता नष्ट होती है। 2. बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है। 3. सुख दुख सहने की शक्ति का विकास होता है। 4. भावनाओं का समुचित नियंत्रण होता है। 5. चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है।
The benefits of practising meditation with bodily steadiness are: removal of bodily and mental lethargy, development of capacity to bear pain as well as pleasure, acquisition of deep reflection, and enhanced power of concentration in pure meditation. (481)
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तेसिं तु तवो ण सुद्धो निक्खंता जे महाकुला।
जं नेवन्नो वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जइ ॥44॥
तेषामपि तपो न शुद्धं, निष्क्रान्ताः ये महाकुलाः ।
यद् नैवाऽन्येविजानन्ति, न श्लोकं प्रवेदयेत् ॥44॥
महाकुल का तप अशुद्ध, इच्छा तप सत्कार।
नहीं ख़बर ना प्रशंसा, तप का नहीं प्रचार ॥2.28.44.482॥
पूजा सत्कार के लिये जो तप करते है वो व्यर्थ है।तप इस तरह से करना चाहिये की दूसरे लोगों को पता न चले। अपने तप की प्रशंसा नही करनी चाहिये।
The penance of those who are born in noble families and have renounced their homes will not be pure, if they practise it for
praise and honour; those who desire to attain purity must practise penance unnoticed and without any desire for praise. (482)
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नाणमयवायसहिओ, सीलुज्जलिओ तवो मओ अग्गी ।
ंसारकरणबीयं, दहइ दवग्गी व तणरासिं ॥45॥
ज्ञानमयवातसहिंत, शीलोज्ज्वलितं तपो मतोऽग्निः ।
संसारकरणबीजं, दहति दवाग्निरिव तृणराशिम् ॥45॥
ज्ञानवायु शील प्रज्वलित, तप की लगती आग।
कर्मबीज सारे जलें, घास जले वन आग॥2.28.45.483॥
ज्ञानमयी वायु तथा शील द्वारा प्रज्वलित अग्नि कर्म बीज को वैसे ही जला डालती है, जैसे वन में लगी आग घास को।
The fire of penance which is set ablaze by righteous character when combined with the wind of Right knowledge, will burn the
seed of karma which is the cause of mundane existence, like a forest-fire which burns heap of grass. (483)
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