२६. समिति-गुप्तिसूत्र
इरिया–भासे–सणा–दाणे, उच्चारे समिई इय ।
मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा ॥1॥
ईर्याभाषैषणाऽऽदाने–उच्चारे समितय इति।
मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः, कायगुप्तिश्चाष्टमी ॥1॥
गमनागमन, भाषा, भिक्षा, रखरखाव, उत्सर्ग।
काय वचन मन गुप्तियाँ, आठ गुप्ति समिति वर्ग ॥2.26.1.384॥
ईर्या (गमनागमन), भाषा, एषणा (आहार), आदान-प्रदान और उत्सर्ग (मल-मूत्र त्याग) – ये पाँच समितियाँ है। मन, वचन व काया ये तीन गुप्तियाँ है।
Vigilance in walk, speech, begging alms, receiving and keeping down of things and excreting are five Samitis (acts of carefulnes): control of mind, control of speech and control of body (i.e. actions) are three guptis. All are eight in number. (384)
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एदाओ अट्ठ पवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं ।
रक्खंति सदा मुणिणो, मादा पुत्तं व पयदाओ ॥2॥
एता अष्ट प्रवचन–मातरः ज्ञानदर्शनचारित्राणि।
रक्षन्ति सदा मुनीन्, मातरः पुत्रमिव प्रयताः ॥2॥
प्रवचन माता आठ हैं, रक्षा पुत्र समान ।
हरपल मुनि रक्षा करे, चरित्र दर्शन ज्ञान ॥2.26.2.385॥
ये आठ प्रवचन माताएँ है। ये माता की तरह मुनि के सम्यक् दर्शन ज्ञान व चारित्र का रक्षण करती हैं।
These eight are called pravacanamata (mother precepts). Just as a diligent mother protects her son, so they protect right knowledge, right faith and right conduct of the monk. (385)
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एयाओ पंच समिई ओ, चरणस्स य पवत्तणे ।
गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो ॥3॥
एताः पञ्च समितयः, चरणस्य च प्रवर्तने।
गुप्तयो निवर्तने उक्ताः, अशुभार्थेभ्यः सर्वशः॥3॥
करें नियंत्रित आचरण, ये समितियाँ पाँच ।
गुप्तियाँ निवृत्त करे, अशुभ करे ना आँच ॥2.26.3.386॥
ये पाँच समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिये है और तीन गुप्तियाँ सभी अशुभ विषयों से निवृत्ति के लिये है।
The five types of vigilances are meant for the practice of religious life and the three controls (guptis) for the prevention of every thing sinful. (386)
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जह गुत्तस्सिरियाई, न होंति दोसा तहेव समियस्स ।
गुत्तीट्ठिय प्पमायं, रुंभइ समिई सचेट्ठस्स ॥4॥
यथा गुप्तस्य ईर्यादि (जन्या) न भवन्ति दोषाः, तथैव समितस्य।
गुप्तिस्थितो प्रमादं, रुणद्धि समिति (स्थितः) सचेष्टस्य ॥4॥
गुप्ति समिति पालन हो, गमनागमन न दोष ।
गुप्ति समिति त्रुटि रोकती, चेष्टाएँ निर्दोष ॥2.26.4.387॥
जैसे गुप्ति का पालन करने वाले को अनुचित गमनागमन मूलक दोष नही लगते, वैसे ही समिति का पालन करने वाले को भी दोष नही लगते।
Just as one who practises the gupti is not touched by defects pertaining to Samiti so also one who practises the samiti; does not have the defects of gupti. (387)
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मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥5॥
म्रियतां वा जीवतु वा जीवः अयताचारस्य निश्चिता हिंसा ।
प्रयतस्य नास्ति बन्धो, हिंसामात्रेण समितिषु ॥5॥
जीव जिये अथवा मरे, लापरवाही दोष।
समितियों में जो रहे, ना बंधन निर्दोष ॥2.26.5.388॥
जीव मरे या जीये, लापरवाह (अयतनाचारी) को हिंसा का दोष अवश्य लगता है। किन्तु जो समितियों में प्रयत्नशील है उस से बाह्य हिंसा हो जाने पर भी उसे कर्म बंध नही होता।
The person who is careless in his activities is certainly guilty of violence irrespective of whether a living being remains alive or dies; on the other hand, the person who is careful in observing the samitis experiences no karmic bondage simply because some killing has taken place in connection with his activities. (388)
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आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, सा दव्वतो होति ण भावति उ ।
भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्तेण सदा वधेति ॥6॥
संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, सा दव्वहिंसा खलु भावतो य ।
अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होज्जा, वधेण जोगो दुहतो वऽहिंसा ॥7॥
आहत्य हिंसा समितस्य या तु, सा द्रव्यतो भवति न भावतः तु ।
भावेन हिंसा तु असंयतस्य, यान् वा अपि सत्त्वान् न सदा हन्ति ॥6॥
सम्प्राप्तिर्तस्येव यदा भवति, सा द्रव्यहिंसा खलु भावतो च ।
अध्यात्मशुद्धस्य यदा न भवति, वधेन योगः द्विधाऽपि च अहिंसा ॥7॥
समिति पालन में हिंसा, द्रव्य है, नहीं भाव ।
हिंसा भाव असंयत का, दोष बड़ा प्रभाव ॥2.26.6.389॥
प्राणी का जब घात हो, द्रव्य–भाव का दोष ।
संत मन से घात नहीं, द्रव्य–भाव निर्दोष ॥2.26.7.390॥
इसका कारण यह है कि समिति का पालन करते हुए जो अंजाने में हिंसा होती है वो द्रव्य हिंसा है भाव हिंसा नही। असंयमी को जाने अंजाने में गई द्रव्य व भाव दोनों हिंसा का दोष लगता है।
A monk who is observing the Samitis i.e. vigilant about his activities may commit himsa (injury) through oversight; in such a case, there is only external violence (Dravya-Himsa) and not the internal. On the other hand a negligent person is guilty of the internal violence (Bhava-Himsa) even though no external violence is caused by him by killing being. When an injury is caused through negligence of a person, whether he is ascetic or not there will be both types of violence external (physical) as well as internal (mental). A monk firm in his observance of the samitis will not cause any violence because of the purity of his soul; there will be neither external violence nor internal violence. (389 & 390)
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उच्चालियम्हि–पाए, इरिया–समिदस्स णिग्गमत्थाए ।
आबाधेज्ज कुहिगहँ मरिज्ज तं जोगमासेज्ज॥8॥
ण हितस्स तण्णिमित्तोबंधोसुहुमो य देसिदो समये ।
मुच्छा परिग्गहो च्चिह, अज्झप्प पमाणदो दिट्ठो ॥9॥
उच्चालिते पादे, ईर्यासमितस्य निर्गमनार्थाय।
अबाधे कुलिङ्गी, म्रियेत तं योगमासाद्य ॥8॥
न हि तद्घातनिमित्तो, बन्धो सूक्ष्मोऽपि देशितः समये।
मूर्च्छा परिग्रहो इति च, अध्यात्मप्रमाणतो भणितः ॥9॥
ईर्यासमिति सम्मत चले, कुचल मरे जब जीव।
दोष लगे ना साधु को, अहिंसक है वो जीव॥2.26.8.391॥
ज्यूँ मूर्च्छा अध्यात्म में, परिग्रह की पहचान।
घमंड में जो जन रहे, हिंसक उसको मान॥2.26.9.392॥
ईर्यासमिति पूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे अचानक कोई छोटा सा जीव आ जावे और कुचल कर मर जाये तो आगम के अनुसार इससे साधु को लेश मात्र भी बंध नही होता। जैसे शास्त्रों में मूर्छा को ही परिग्रह कहा गया है वैसे ही प्रमाद को हिंसा कहा गया है ।
If a tiny living creature is accidentally crushed under the foot of a monk who is careful in respect of his movement, the scriptures state that he will not attract even the slightest of karmac bondage (i.e. he is not responsible for that violence). Just as possessiveness consists in a sese of attachment so the violence consists in the intention of killing. (391 & 392)
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पउमणि–पंत व जहा उदयेण ण लिप्पदि सिणेह–गुण–जुत्तं ।
तह समिदीहिं ण लिप्पई साधू काएसु इरियंतो ॥10॥
पद्मिनीपत्रं वा यथा, उदकेन न लिप्यते स्नेहगुणयुक्तम्।
तथा समितिभिर्न लिप्यते, साधुः कायेषु ईर्यन् ॥10॥
लिप्त नहीं ज्यूँ कमलिनी, सगुणा स्नेह अपार।
समिति पूर्वक साधु चले, रहे न बंध विचार॥2.26.10.393॥
जैसे स्नेहगुण से युक्त कमलिनी का पत्र जल से लिप्त नही होता, वैसे ही समितिपूर्वक जीवों के बीच विचरण करने वाला साधु पाप से लिप्त नही होता।
Just as a lotus-leaf possessing the property of smoothness in not touched by water; similarly a monk practising samitis is not touched by karmic bondage in the course of moving around in the midst of living beings. (393)
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जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव।
तव्वुड्डीकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥11॥
यतना तु धर्मजननी, यतना धर्मस्य पालनी चैव।
तद्वृद्धिकरी यतना, एकान्तसुखावहा यतना ॥11॥
यत्न चरित जननी धरम, यत्न ही पालनहार ।
यत्न चरित बढ़ता धरम, यत्न ही सुख का द्वार ॥2.26.11.394॥
यत्नाचारिता धर्म की जननी है। यत्नाचारिता धर्म की पालनहार है। यत्नाचारिता धर्म को बढ़ाती है। यत्नाचारिता एकान्त सुखावह है।
Carefulness (Yatana) is the mother of religion; it is also the protector of religion; it helps the growth of religion and it begets perfect happiness. (394)
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जयं चरे जयंचिट्ठे, जयमासे जयं सए ।
जयं भुंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई ॥12॥
यत चरेत् यतं तिष्ठेत्, यतमासीत यतं शयीत।
यतं भुञ्जानः भाषमाणः, पाप कर्मं न बध्वाति ॥12॥
सोये बैठे चल रहे, खान–पान संवाद ।
साथ विवेकी आचरण, पाप न बंधन बाद ॥2.26.12.395॥
यत्नाचारपूर्वक चलने, बैठने, सोने, खाने और बोलने में साधु को पाप कर्म का बंध नही होता।
A monk who moves cautiously, stands cautiously, sits cautiously, sleeps cautiously, eats cautiously and speaks cautiously would not be bounded by the evil karmas. (395)
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फासुय–मग्गेण दिवा, जुगंतर–प्पेहिणा सकज्जेण ।
जंतूणि परिहरंते–णिरिया–समिदी हवे गमणं ॥13॥
प्रासुकमार्गेण दिवा, युगान्तरप्रेक्षिणा सकार्येण।
जन्तून् परिहरता, ईर्यासमितिः भवेद् गमनम् ॥13॥
चार हाथ तक देख के, पथ चलता जब काम।
ध्यान जीव हिंसा रहे, ईर्या समिति अंजाम॥2.26.13.396॥
कार्यवश दिन में प्रासुक मार्ग (जिस पर पहले से आवागमन है) पर चार हाथ भूमि को आगे देखते हुए जीवों को बचाते हुए चलना ईर्या समिति है।
Iryasamiti consists in walking along a trodden path during daytime when required to move out for any work, looking ahead to a distance of four cubits and avoiding the killing of tiny living creatures. (396)
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इन्दियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा।
तम्मुत्ती तप्पुक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए ॥14॥
इन्द्रियार्थान् विवर्ज्य, स्वाध्यायं चैव पञ्चधा ।
तन्मूर्तिः (सन्) तत्पुरस्कारः, उपयुक्त ईर्यां रीयेत ॥14॥
रहती वश में इंद्रियाँ, स्वाध्याय नही नाम।
हो तन्मयता गमन में ईर्या समिति अंजाम ॥2.26.14.397॥
इन्द्रियों के विषय तथा पाँच प्रकार के स्वाध्याय का कार्य छोड़कर केवल गमन क्रिया में लीन हो, उसी को महत्व देकर जागृतिपूर्वक चलना चाहिये।
A saint should walk, paying full attention to and giving utmost importance to walking. During that period he should give up all the five kinds of studies and sense subjects. (397) Note:- The five-fold methods of study are: Reading of sacred texts (vacana), questioning the teacher (prcchana), revision by re-reading (paravartana), pondering over what has already been studied and learnt (anupreksa) and reading illustrative strories(dharmakatha)
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तहेवुच्चावया पाणा, भत्ताट्ठाए समागया।
त–उज्जुयं न गच्छेज्जा, जयमेव परक्कमे ॥15॥
तथैवुच्चावचाः प्राणिनः, भक्तार्थं समागताः ।
तदृजुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत् ॥15॥
जीव जन्तु जब राह में, भोजन लेकर चाह।
पास कभी ना जाइये, भय से वो गुमराह ॥2.26.15.398॥
नाना प्रकार के जीव-जन्तु चारा दाने के लिये राह में होते है, साधु को उनके सामने भी नही जाना चाहिये ताकि वे भयग्रस्त न हो।
While walking, proper care should be taken so as to avoid confrontation with the animals, birds and various other living beings which gather on the way, in search of food-in order to save them from being fear struck (terror-struck). (398)
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न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं न निरट्ठं न मम्मयं ।
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा ॥16॥
न लपेत् पृष्टः सावद्यं, न निरर्थं न मर्मगम्।
आत्मार्थं परार्थं वा, उभयस्यान्तेण वा ॥16॥
पाप वचन या निरर्थक, ना दुख भेदी वाद।
भाषा समिति यही कहे, कर ना वाद विवाद ॥2.26.16.399॥
जो स्वयं व अन्य के लिये पाप वचन, निरर्थक वचन और कटु वचन का प्रयोग न करे वो भाषा समिति परायण साधु है।
Even when enquired, a monk ought not to utter a sinful word, a senseless word, a heart-rending word either for the sake of oneself, or for the sake of another one, or for the sake of both.(399)
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तहेव करुसा भासा गुरु भूओ–वघाइणी ।
सच्चा विसा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥17॥
तथैव परुषा भाषा, गुरुभूतोपघातिनी।
सत्यापि सा न वक्तव्या, यतो पापस्य आगमः ॥17॥
कटु वचन बोले नहीं, लगे जीव अपघात ।
सत्य वचन पापी बड़ा, जो करता आघात ॥2.26.17.400॥
कटु वचन या प्राणियों के चोट पहुँचाने वाली भाषा भी न बोले। ऐसा सत्य वचन भी न बोले जिससे पाप का बंध होता है।
The monk should not use harsh words or speak what is harmful to other living beings; even if it is true, because it is sinful. (400)
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तहेव काणं काणे त्तिल पंडगं पंडगे त्ति वा।
वाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए ॥18॥
तथैव काणं काण इति, पण्डकं पण्डक्र इति वा।
व्याि वाऽपि रोगी इति, स्तेनं चौर इति नो वदेत् ॥18॥
काने को काना नहीं, नही नपुंसक बोल।
रोगी को रोगी नहीं, चोर चोर ना बोल ॥2.26.18.401॥
काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर भी न कहे।
Similarly, he should not call an one-eyed person as one-eyed, and eunuch as eunuch, a diseased person as diseased or a thief a thief. (401)
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पेसुण्ण–हास–कक्स–पर–णिंदा–प्यप्पसंस विकहादी।
वज्जिा स–परहियं, भासा–समिदी हवे कहणं ॥19॥
पैशुन्यहासकर्कश–परनिन्दाऽऽत्मप्रशंसा–विकथादीन्।
वर्जयित्वा स्वपरहित्तं, भाषासमितिः भवेत् कथनम् ॥19॥
चुग़ली, हास्य, कर्कश, निन्दा, आत्म प्रशंसा त्याग।
करे निरर्थक बात नहीं, भाष समिति वीतराग ॥2.26.19.402॥
चुग़ली, हास्य, कर्कश वचन, पर निन्दा, आत्म प्रशंसा, रसवर्धक या विकारवर्धक कथा का त्याग करके स्व-पर हितकारी वचन बोलना ही भाषा समिति है।
Carefulness in speech (bhasasamiti) consists in avoiding slanderous, ridiculous and speeches blaming others, selfpraise or incredible stories. Such speeches conduce neither to the good of oneself nor that of others. (402)
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दिट्ठं मियं असंदिद्धं, पडिपुन्न वियं जियं।
अयंपिरम–णुव्विवग्गं, भासं निसिर अत्तवं ॥20॥
दृष्टां मिताम् असन्दिग्धां, प्रतिपूर्णां व्यक्ताम्।
अजल्पनशीलां अनुद्विग्नां, भाषां निसृज आत्मवान् ॥20॥
असंदिग्ध, देखी भली, पूर्ण व्यक्त हो बात।
उद्वेगरहित व सहज हो, आत्मवान मुनि जात ॥2.26.20.403॥
आत्मवान मुनि ऐसी भाषा बोले जो आँखों देखी बात को कहती हो, संक्षिप्त हो, संदेहास्पद न हो, स्वर-व्यंजन आदि से पूर्ण हो, व्यक्त हो, सहज और उद्वेगरहित हो।
A wise monk would speak what he has seen; his speech should be brief, free from ambiguity, clearly expressed, free from prattle and incapable of causing anxiety. (403)
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दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवो वि दुल्लहा।
मुहादाई मुहाजीवो, दो वि गच्छंति सोग्गइं ॥21॥
दुर्लभा तु मुधादायिनः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभः।
धादायिनः मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छत सुगतिम् ॥21॥
निष्प्रयोजन देन दुर्लभ, दुर्लभ भिक्षा पान।
दोनों को शुभ गति मिले, बढ़े मोक्ष की शान ॥2.26.21.404॥
बिना स्वार्थ के देने वाले भी दुर्लभ है और भिक्षा पर जीवन बिताने वाले भी दुर्लभ है। दोनों तरह के व्यक्ति परम्परा से सुगति या मोक्ष प्राप्त करते है।
It is difficult to find faultless alms-givers; it is more difficult to find one who lives on faultless begging; one who gives faultless alms and the one who lives one faultless begging, both will attain happy state in the next birth. (404)
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उग्गम–उप्पादण–एसणेहिं पिंड च उवधि सज्जं च।
सोधंतस्स य मुणिणो, परिसुज्झइ एसणा–समिदी॥22॥
उद्गमोत्पादनैषणैः, पिण्डं च उपथिं शय्यां वा ।
शोधयतश्च मुनेः, परिशुद्ध्यति एषणा समितिः॥22॥
उद्ग़म, उत्पादन, अशन, दोष रहित हो भोज ।
शुद्ध न जिनकी शायिका, एषणा व्रत मुनि रोज़ ॥2.26.22.405॥
आहार उगाने, बनाने व ग्रहण करते समय लगने वाले दोषों का ध्यान रखना और शय्या आदि शुद्ध रखना एषणा समिति है।
The carefulness of food (E’sana-samiti) of a saint consists of accepting food, free of all the defects, arising out of its preparation (Udgamadosa), production (utpadan) and consumption (Asan/eating); and the purification of the material objects of his bed, place of residence etc. (405)
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णबलाउ–साउअट्ठं, ण सरीरस्सु–वचयट्ठ तेजट्ठं ।
णाणट्ठ–संजमट्ठं, झाणट्ठं चेव भंजेज्जा ॥23॥
न बलायुः स्वादार्थं, न शरीरस्योपचयार्थंतेजो अर्थम् ।
ज्ञानार्थं संयमार्थं, ध्यानार्थं चैव भुञ्जीत ॥23॥
बल, आयु व स्वाद, नही, नहीं तेज–उपचार।
ज्ञान संयम ध्यान मिले, मुनि करता आहार ॥2.26.23.406॥
मुनि बल, आयु, स्वाद या तेज बढ़ाने के लिये आहार नहीं करते। वे ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिये ही आहार करते हैं।
Amonk should not take food for the sake of (physical) strength, taste, bodily improvement or lustre; but only for acquisition of knowledge, self-restraint and meditation. (406)
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जहा दुम्स्स पुप्फेसु, भमरो आवियई रसं।
न य पुप्फं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥24॥
उमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो।
विंहगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया ॥25॥
यथाद्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमरः आपिबति रसम्।
न च पुष्पं क्लामयति, स च प्रीणात्यात्मानम् ॥24॥
एवमेते श्रमणाः मुक्ता, ये लोके सन्ति साधवः।
विहंगमा इव पुष्पेषु, दानभक्तैषणारताः ॥25॥
पुष्प को पीड़ा नहीं, भ्रमर करे रस पान।
पुष्प मुरझाता नहीं, रहे तृप्ति का भान॥2.26.24.407॥
साधु मुक्त बस इसी तरह, विचरण करता जाय।
दाता को भी कष्ट नहीं, समिति एषणा भाय॥2.26.25.408॥
जैसे भ्रमर पुष्पोंको तनिक भी पीड़ा पहुँचाये बिना रस ग्रहण करता है और अपने को तृप्त करता है, वैसे ही लोक में विचरण करने वाले परिग्रहण से रहित साधु दाता को किसी प्रकार का कष्ट दिये बिना उसके द्वारा दिया गया शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। यही उनकी एषणा समिति है।
Just as a large black bee (bhramar) (Collect and) take Juice offlowers without causing any annoyance/inconvenience to them(flowers) and gets itself satisfied; similarly a saint who moveabout in world free of (all) external and internal possessions doaccept fresh and pure food (Prasuka-Ahar), as offered by the donors, without causing any annoyance/inconvenience to them (donors). The carefulness of food of a saint lie in such process.(407 & 408)
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आहाकम्म–परिणओ, फासुयभोई वि बंधओ होई।
सुद्धं गवे माणो, आहाकम्मे वि सो सुद्धो ॥26॥
आधाकर्मपरिणतः, प्रासुकभोजी अपि बन्धको भवति ।
शुद्धं गवेषयन्, आधाकर्मण्यपि स शुद्धः ॥26॥
हिंसा से भोजन बने, प्रासुक भोजी दोष।
मन में शुद्ध हो भावना, हिंसक भोज निर्दोष॥2.26.26.409॥
यदि साधु दोषयुक्त अपने उद्देश्य से बनाया गया भोजन करता है तो वह दोष का भागी हो जाता है। किन्तु यदि वह उद्गम आदि दोषों से रहित शुद्ध भोजन की आशा रखते हुए अशुद्ध भोजन भी कर लेता है तो भावों से शुद्ध होने के कारण वह शुद्ध है।
IA monk who entertains in his mind the idea of having a violently prepared meal; binds down karmas even if he is actually having a nonviolently prepared meal. On the other hand, a monk who always looks for a pure (non-violently prepared) meal is pure (blameless) even if perchance he gets a violently prepared meal. (409)
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चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई।
आइए निक्खिवेज्जा वा, दुहओ वि समिए सया ॥27॥
देहादिसंगरहितः, मानकषायैः सकलपरित्यक्तः।
आत्मा आत्मनि रतः, स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ॥28॥
आँखों से चौकस रहे, रखे या वस्तु उठाय।
निक्षेपण आदान समिति मुनि को यही बताय ॥2.26.27.410॥
विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला मुनि अपने उपकरणों को आँखों से देखकर तथा साफ़ करते हुए उठाये और रखे। यही आदान निक्षेपण समिति है।
If a monk attentively undertakes the required visual inspection and cleaning while receiving or placing down things, he always practises the concerned two-fold samiti (i.e., samiti in respect of
receiving and placing things). (410)
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एगंते अचित्ते दूरे, गूढे विसाल–मविरोहे।
उच्चारदिच्चाओ, पदिठाणिया हवे समिदी ॥28॥
एकान्ते अचित्ते दूरे, गूढे विशाले अविरोधे।
उच्चारादित्यागः, प्रतिष्ठापनिका भवेत् समितिः ॥28॥
दूर, एकान्त, जीव ना, अवरोधक ना भान।
मल या मूत्र विसर्जन को, उत्सर्ग समिति जान ॥2.26.28.411॥
साधु को मलमूत्र का विसर्जन ऐसे स्थान पर करना चाहिये जहाँ एकान्त हो, गीली वनस्पति तथा त्रस जीवों से रहित हो, गाँव आदि से दूर हो, कोई विरोध न करता हो। यह उत्सर्ग समिति है।
A monk should answer his calls of nature at a place which is solitary, free from insects and grass, concealed, spacious, free from objection, this is observance of Utsarga Samiti. (411)
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संरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव य।
मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥29॥
संरम्भे समारम्भे, आरम्भे च तथैव च।
मनः प्रवर्तमानं तु, निवर्त्तयेद् यतं यतिः ॥29॥
समारम्भ या हो सरम्भ या आरम्भ हो काम।
रोके मुनि मन को सदा, रहता खुद निष्काम ॥2.26.29.412॥
जागरुक साधु सरम्भ (हिंसा का विचार), समारम्भ (हिंसा के लिये सामग्री जुटाना) व आरम्भ (हिंसा आरम्भ करना) करने से प्रवृत्त मन को रोके ।
An attentive monk should prevent his mind from indulging in evil thoughts (samrambha), collection of implements which cause harm to others (samarambha) and evil actions (arambha). (412)
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संरंमसमारंभे, आरंभे य तहेव य ।
वयं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥30॥
संरम्भे समारम्भे, आरम्भे च तथव च।
वचः प्रवर्तमानं तु, निवर्त्तयेद् यतं यतिः ॥30॥
समारम्भ या हो सरम्भ या आरम्भ हो काम।
साधु वचन को रोकता, रहता खुद निष्काम॥2.26.30.413॥
जागरुक साधु सरम्भ (हिंसा का विचार), समारम्भ (हिंसा के लिये सामग्री जुटाना) व आरम्भ (हिंसा आरम्भ करना) करने से प्रवृत्त वचन को रोके ।
A careful saint should with hold his speech from including towards the determination (sainrainbha) preparation (samaranibha) and commencement of doing things (Arambha). He should protect (defend) his speech (vacan) in the like manner. (413)
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संरंभसमारंभे, आरंभम्मि तहेव य।
कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥31॥
संरम्भे समारम्भे, आरम्भेतथैव च।
कायं प्रवर्तमानं तु, निवर्त्तयेद् यतं यतिः ॥31॥
समारम्भ या हो सरम्भ या आरम्भ हो काम।
काया को मुनि रोकता, रहता खुद निष्काम ॥2.26.31.414॥
जागरुक साधु सरम्भ (हिंसा का विचार), समारम्भ (हिंसा के लिये सामग्री जुटाना) व आरम्भ (हिंसा आरम्भ करना) करने से प्रवृत्त काया को रोके।
A careful (vigilant) saint should withhold his body from inclining towards the determination (sanirambha), preparation (samaranbha) and commencement (Aramibha) of doing things, he should protect it body in such manner. (414)
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खेखत्तस्स वई णयरस्स, खाइया अहव होइ पायारो।
तह पावस्स णिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहुस्स ॥32॥
क्षेत्रस्य वृत्तिर्नगरस्य, खातिकाऽथवा भवति प्राकारः।
तथा पापस्य निरोधः, ताः गुप्तयः साधोः ॥32॥
बाड़ खेत, खाई, नगर, रक्षा करे दीवार।
पाप का होता निरोध, साधु गुप्ति विचार ॥2.26.32.415॥
जैसे खेत की बाड़ और नगर की खाई या दीवार उसकी रक्षा करते है वैसे ही पाप निरोधक गुप्तियाँ साधु के संयम की रक्षा करती है।
As a fence protects a field, a ditch or a rampart protects a city, so the guptis (i.e., control of mind, speech and body) protect a monk from sins. (415)
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एया पवयणमाया, जे सम्मं आयरे मुणी।
से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए ॥33॥
एताः प्रवचनमातॄः, यः सम्यगाचरेन्मुनिः।
स क्षिप्रं सर्वसंसारात्, विप्रमुच्यते पण्डितः ॥33॥
प्रवचन माता आठ हो, सम्यक् आचरण जान।
मुक्त भये संसार से, साधु का यह ज्ञान ॥2.26.33.416॥
जो मुनि आठ प्रवचन माताओं का सम्यक् आचरण करता है वह ज्ञानी शीघ्र इस संसार से मुक्त हो जाता है।
A monk who practises these eight motherprecepts by hisrighteous conduct is a wise person who will be liberated quickly from all bondages of mundane existence. (416)
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