२३. श्रावकधर्म सूत्र
संपत्त-दंसणाई, पइदियहं जइजणा सुणेई य ।
सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं बिंति ॥1॥
संप्राप्तदर्शनादिः, प्रतिदिवसं यतिजनाच्छृणोति च।
सामाचारीं परमां यः, खलु तं श्रावकं ब्रुवते ॥1॥
सम्यक दृष्टि से प्रति दिन, संगत साधु काम ।
श्रवण करे उपदेश का, श्रावक उसका नाम ॥2.23.1.301॥
जो सम्यकदृष्टि व्यक्ति प्रतिदिन मुनिजनों से आचार–विषयक उपदेश सुनता है उसे श्रावक कहते हैं।
He is called a Sravaka (householder) who, being endowed with right faith, listens every day to the preachings of the monks about right conduct. (301)
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पंचुंबर-सहियाइं, सत्त वि विसणाइं जो विवज्जेइ ।
सम्मत्त-विसुद्ध-मई, सो दंसण-सावओ भणिओ ॥2॥
पञ्चोदुम्बरसहितानि सप्त अपि व्यसनानि यः विवर्जयति।
सम्यक्त्वविशुद्धमतिः स दर्शनश्रावकः भणितः ॥2॥
पाँच उदुम्बर सात व्यसन करता है जो त्याग।
सम्यक-बुद्धि उसकी शुद्ध ‘दर्शन-श्रावक’ जाग ॥2.23.2.302॥
पाँच उदुम्बर फल (उमर, कठूमर, गूलर, पीपल तथा बड़) और सात व्यसनों का त्याग करने वाला व्यक्ति “दार्शनिक श्रावक” कहा जाता है जिसकी बुद्धि सम्यक् दर्शन से विशुद्ध हो गई है। धर्म में दान और पूजा मुख्य है। और श्रमण धर्म में ध्यान व अध्ययन मुख्य है।
A pious householder is one who has given up (eating) five udumbarfruits (like banyan, Pipala, fig (Anjeer), kathumara and pakar), is free from seven vices and is called Darsana Sravaka, a man whose intellect is purified by right faith.(302)
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इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य ।
दंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाइं ॥3॥
स्त्री द्यूतं मद्यं, मृगया वचे तथा परुषता च।
दण्डपरुषत्वम् अर्थस्य दूषणं सप्त व्यसनानि॥3॥
परस्त्री, जुआ, मदिरालय, कटुवचन या शिकार ।
कड़ा दण्ड परधनहरण, व्यसन सात विचार ॥2.23.3.303॥
परस्त्री सहवास, जुआ, मदिरापान, शिकार करना, कटुवचन बोलना, कड़ा दण्ड देना और अर्थ दूषण (चोरी) करना ये सात व्यसन है।
The seven vices are: (1) sexual intercourse with other than one’s own wife, (2) gambling, (3) drinking liquor (4) hunting, (5) harshness in speech, (6) harsh in punishment and (7) misappropriation of other’s property. (303)
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मांसा-सणेण वड्ढइ, दप्पो दप्पेण मज्ज-महिलसइ।
जूयं पि रमइ तो तं, पि वण्णिए पाउण्ह दोसे ॥4॥
मांसाशनेन वर्धते दर्पः दर्पेण मद्यम् अभिलषति।
द्यूतम अपि रमते ततः तद् अपि वणिर्र्तात् प्राप्नोति दोषान् ॥4॥
दर्प मांसाहार से, चाहे दर्प शराब ।
जुए की जो लत लगती, मानव बने ख़राब ॥2.23.4.304॥
मांसाहार से अहंकार बढ़ता है, अहंकार से मद्यपान की अभिलाषा जागती है। और तब वह जुआ भी खेलती है इस प्रकार मनुष्य सब दोषों का घर बन जाता है।
Meat-eating increases pride, pride creates a desire for intoxicating drinks and pleasure in gambling; and thus springs up all aforesaid vices. (304)
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लोय-सत्थम्मि वि, वण्णियं जहा गयण-गामिणो विप्पा ।
भुवि मंसा-सणेण पडिया, तमहा ण पउंजए मंसं ॥5॥
लौकिकशास्त्रे अपि वर्णितम् यथा गगनगामिनः विप्राः ।
भुवि मांसाशनेन पतिताः तस्माद् न प्रयोजयेद् मांसम् ॥5॥
कहता लौकिक शास्त्र यही, पांडित्य का नाश ।
पतित मांस सेवन करे, खाएं ना हम काश ॥2.23.5.305॥
लौकिक शास्त्र में भी यह उल्लेख मिलता है कि माँसाहारी पंडित जो कि आकाश में विचरण करता था वो गिर कर पतित हो गया। अतएव माँस का सेवन नही करना चाहिये।
Scriptures of other religions have described that sages moving in air have fallen to the ground on eating meat; therefore meateating should be avoided. (305)
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मज्जेण णरो अवसो, कुणेइ कम्माणि णिंद-णिज्जाइं ।
इहलोए-परलोए, अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ॥6॥
मद्येन नरः अवशः करोति कर्माणि निन्दनीयानि ।
इहलोके परलोके अनुभवति अनन्तकं दुःखम् ॥6॥
मद्यपान जो जन करे, करता खोटे काम ।
लोक और परलोक में, सकल दुखों का धाम॥2.23.6.306॥
मदिरापान से मदहोश होकर मनुष्य निन्दनीय कर्म करता है और फलस्वरूप इस लोक तथा परलोक में अनन्त दुखों का अनुभव करता है।
A person loses control over himself by drinking intoxicating liquors and commits many censurable deeds. He experiences endless miseries both in this world and in the next. (306)
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संवेग-जणिय-करणा, णिस्सल्ला मंदरुव्व णिक्कंपा ।
जस्स दढा जिणभत्ती तस्स भयं णत्थि संसारे ॥7॥
संवेगजनितकरणा, निःशल्या मन्दर इव निष्कम्पा ।
यस्य दृढा जिनभक्तिः, तस्य भयं नास्ति संसारे ॥7॥
जग त्याग मन भाव रहे, हो मज़बूत विचार ।
दृढ़ जिनभक्ति मन बसे, हो भय बिनु संसार ॥2.23.7.307॥
जिसके मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने वाली मेरुपर्वत की तरह दृढ़ जिनभक्ति है उसे संसार में किसी तरह का भय नही।
A person who has firm devotion towards Jina like the steady mountain Meru, inclination for renunciation and is free from defects of character (salya) will have no fear in this world. (307)
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सत्तू वि मित्तभावं, जम्हा उवयाइ विणय-सोलस्स।
विणओ तिविहेण तओ, कायव्वो देस-विरएण ॥8॥
शत्रुः अपि मित्रभावम् यस्माद् उपयाति विनशीलस्य ।
विनयः त्रिविधेन ततः कर्तव्यः देशविरतेन ॥8॥
विनयशील जब व्यक्ति हो, शत्रु मित्र बन जाय ।
अणुव्रत श्रावक विनय रहे, मन वचन और काय ॥2.23.8.308॥
विनयशील व्यक्ति का शत्रु भी मित्र बन जाता है। इसलिये अणुव्रती श्रावक को मन–वचन–काय से सम्यक्तवादी गुणों की तथा गुणीजनों की विनय करना चाहिये।
Since even an enemy approaches a man of humility with friendliness, a house-holder must cultivate humility of three kinds: (in thought, speech and action). (308)
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पाणिवहमुसावाए, अदत्तपरदारनियमणेहिं च।
अपरिमिच्छाओऽवि, अणुव्वयाइं विरमणाइं ॥9॥
प्राणिवधमृषावादा-दत्तपरदारनियमनैश्च।
अपरिमितेच्छातोऽपि च, अणुव्रतानि विरमणानि ॥9॥
हिंसा चोरी झूठ हो, या पर-स्त्री से काम।
विरक्त परिग्रह से रहे, अणुव्रत श्रावक नाम ॥2.23.9.309॥
हिंसा, असत्य वचन, चोरी, परस्त्री गमन तथा असीमित कामना (परिग्रह) इन पाँचो पापों से विरति अणुव्रत है।
Injury to living beings (himsa), speaking falsehood, taking away a thing which is not given (theft), sexual enjoyment with other than one’s own wife and limitless desire for possession
(parigraha)-abstinence from these acts are called (five) small vows. (309)
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बंध-वह-च्छवि-च्छेए, अइमारे भत्त-पाण-वुच्छेए।
कोहाइ-दूसिय-मणो, गो-मणुयाईण नो कुज्जा ॥10॥
बन्धवधछविच्छेदान् अतिभारान् भक्तपानव्युच्छेदान्।
क्रोधादिदूषितमनाः, गोमनुष्यादीनां न कुर्यात् ॥10॥
आश्रित चाकरपशु का, बंधन वद्य, अंगभंग॥
अतिभार अन्न निषेध ये, कलुषित मन का संग ॥2.23.10.310॥
हिंसा से विरक्त श्रावक को क्रोध आदि कषाय से मन को दूषित करके पशु व मनुष्य आदि का बंधन, ताड़न, पीड़न, छेदन, अधिक भार लादना, खान–पान आदि रोकने का कर्म नही करना चाहिये क्योंकि यह हिंसा ही है। इनका त्याग स्थूल हिंसा विरति है।
One should not tie, injure, mutilate, load heavy burdens and deprive from food and drink any animal or human being with a polluted mind by anger or other passions are the transgression (aticara) of the vow of Ahimsa. (310)
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थूल-मुसावायस्स उ विरई, दुच्चं स पंचहा होइ ।
क्न्न्-गो-भु-आलिय-नासहरण, कूडसक्खिज्जे ॥11॥
स्थूलमृषावादस्य तु, विरतिः द्वितीयं स पंचधा भवति ।
कन्यागोभूअलीक-न्यासहरण-कूटसाक्ष्याणि ॥11
दूजा व्रत असत्यविरति, पंचविध इसकी राह।
(न्यासहर) कन्या गौभू, विषयक झूठ गवाह॥2.23.11.311॥
असत्य से विरक्ति दूसरा अणुव्रत है। इसके भी पाँच भेद है। कन्या, पशु तथा भूमि के लिये झूठ बोलना, किसी की धरोहर को दबा लेना और झूठी गवाही देना। इनका त्याग स्थूल असत्य विरति है।
Refraining from major type of falsehood is the second vow; this major type of falsehood is of five kinds; speaking untruth about unmarried girls, animals and land, repudiating debts or pledges and giving false evidence. (311)
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सहसा अब्भक्खाणं रहसा य सदारमंतभेय च ।
मोसोवएसयं कूडलेहकरणं च वज्जिज्जा ॥12॥
सहसाभ्याख्यानं, रहसा च स्वदारमन्त्रभेदं च।
मृषोपदेशं कूटलेखकरणं च वर्जयेत् ॥12॥
बात बिना सोचे नहीं, नहीं रहस्य बताय ।
मिथ्या प्रवचन करे नहीं, छद्म न लेख लिखाय ॥2.23.12.312॥
सत्य–अणुव्रती बिना सोचे समझे न कोई बात करता है न किसी का राज उगलता है। न अपनी पत्नी की बात मित्रों को बताता है और नही मिथ्या उपदेश देता है और नही जाली हस्ताक्षर करता है।
making a false charge rashly (or without consideration), divulging any one’s secret, disclosing the secrets confided to by one’s own wife, giving false advice and preparation of a false document or writing these should be avoided. (312)
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वज्जिज्जा तेनाहड-तक्करजोगं विरुद्धरज्जं च ।
कूडतुल-कूडमाणं, तप्पडिरूवं च ववहारं ॥13॥
वर्जयेत् स्तेनाहृतं, तस्करयोगं विरुद्धराज्यं च।
कूट तुलाकूट माने तन्प्रतिरूपं च व्यवहारम् ॥13॥
साथ न चोरों, का करे, गैर राज-आचार ।
कूट तोल, खोटा नहीं, जाली ना व्यवहार ॥2.23.13.313॥
अचौर्य अणुव्रती चोरी का माल न ख़रीदे और न ही प्रेरक बने। टैक्स आदि की चोरी न करे और मिलावट न करे। जाली करेंसी न चलाये।
One should desist from: buying stolen property, inciting another to commit theft, avoiding the rules of government, use of false weights and measures adulteration and preparation to counterfeit coins and notes. (313)
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इत्तरिय-परिग्गहिया-परिगहियागमण णंगकीडं च ।
परविवाहक्करणं कामे, तिव्वाभिलासं च ॥14॥
इत्वरपरिगृहीता-ऽपरिगृहीतागमना-नङ्गक्रीडा च ।
पर (द्वितीय) विवहकरणं, कामे तीव्राभिलाषःच ॥14॥
पर-नारी से दूर रहे, अनंगक्रीडा त्याग।
पर विवाह में रुचि नहीं, नहीं काम से राग ॥2.23.14.314॥
ब्रह्मचर्य अणुव्रती को परायी स्त्रियों से सदा दूर रहना चाहिये। अनंग क्रीड़ा नही करनी चाहिये। अपनी संतान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह कराने में रुचि नही लेनी चाहिये। काम की तीव्र लालसा का त्याग करना चाहये।
A sravak-who has taken the partial vow of chastity should remain satisfied with his wife and keep himself completely away (aloof/indifferent/unconcerned) from other unmarried and married women. He should not indulge in unnatural sexual intercourse (Anaiya krida). (Further) he should not take interest in the marriages of persons, other than his own offsprings. He must renounce intense lust for sex. (314)
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विरयापरिग्गहाओ, अपरिमिआओअ गंततण्हाओ ।
बहुदोससंकुलाओ, नरयगइगमणपंथाओ ॥15॥
खित्ताइ-हिरन्नइ-धणाइ-दुपयाइ-कुवियगस्स तहा ।
सम्मं विसुद्ध-चित्तो न परमाणाइक्कामं कुज्जा ॥16॥
विरताः परिग्रहात्-अपरिमिताद्-अनन्ततृष्णात्।
बहुदोषसंकुलात्, नरकगतिगमनपथात् ॥15॥
क्षेत्रादेः हिरण्यादेः धनादेः द्विपदादेः कुप्यकस्य तथा ।
सम्यग्विशुद्धचित्तो, न प्रमाणातिक्रमं कुर्यात् ॥16॥
परिग्रह की सीमा करे, तृष्णा का यह बीज।
कारण भारी दोष का, देत नरक गति चीज़ ॥2.23.15.315॥
धातु खेत, घर, धन रहे, पशु वाहन भण्डार।
सम्यक श्रावक मन निर्मल, हद बाँधे व्यवहार ॥2.23.16.316॥
असीमित परिग्रह अनन्त तृष्णा का कारण है। नरकगति का मार्ग है। अतः परिग्रह–परिमाणाणुव्रती श्रावक को क्षेत्र, मकान, सोना–चाँदी, धन–धान्य, द्विपद–चतुष्पद आदि का एक सीमा से ़ज़्यादा परिग्रह नही करना चाहये।
Persons should refrain from accumulation of unlimited property due to unquenchable thirst (i.e. greed) as it becomes a pathway to hell and results in numerous faults. A righteous and pureminded person should not exceed the self-imposed limit in the acquisition of lands, gold, wealth, servants, cattle, vessels and pieces of furniture. (315 & 316)
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भाविज्ज य संतोसं, गहिय-मियाणिं अजाणमाणेणं ।
थोवं पुणो न एवं, गिह्ल्स्सिामो त्ति (न) चिंतज्जा ॥17॥
भावयेच्च सन्तोषं, गृहीतमिदानीमजानानेन।
स्तोकंपुनः न एवं, ग्रहीष्याम इति चिन्तयेत् ॥17॥
सदा भाव संतोष रहे, सीमा में सामान।
पुनःग्रहण का भाव नहीं, अपरिग्रह का भान॥2.23.17.317॥
उसे संतोष रखना चाहिये। उसे ऐसा विचार नहीं करना चाहिये कि अभी तो सीमा में परिग्रह करता हूँ बाद में अधिक ग्रहण कर लूँगा।
He should be contented. He should not think “I have fixed certain limits this time unknowingly; in future, I’ll again accept that in case of need.” (317)
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जं च दिसावेरमणं, अणत्थदंडेंहिं जं च वेरमणं।
देसावगासियंपि य, गुणव्वयाइं भवे ताइं ॥18॥
यच्च दिग्विरमणं, अनर्थदण्डात् यच्च विरमणम् ।
देशावकाशिकमपि च, गुणव्रतानि भवेयुस्तानि ॥18॥
दिशा गमन सीमित रहे, व्यर्थ-दंड का त्याग ।
सीमित गमन विदेश भी, त्रय गुणव्रत हो राग ॥2.23.18.318॥
श्रावक के सात शील व्रतों में ये तीन गुणव्रत होते हैं। दिशाविरति, अनर्थदण्डविरति तथा देशावकाशिक।
The three supplementary vows (Gunavritas) that are included in the seven disciplinary vows (Shilavritas) are :- 1. Limitations regarding movements in various directions. 2. Limitations
regarding unnecessary performances; 3. Limitations regarding movements in different territories. (318)
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उड्ढमहे तिरियं पि य दिससासु परिमाण-करण-मिह पढमं ।
भणियं गुणव्वयं खलु, सावगणम्मम्मि वीरेण ॥19॥
ऊर्ध्वमधस्तिर्यगपि च, दिक्षु परिमाणकरणमिह प्रथमम् ।
भणितं गुणव्रतं खलु, श्रावकधर्मे वीरेण ॥19॥
दिशाओं का परिसीमन, पहली सीमा जान।
गुणव्रत ये है सर्व प्रथम, श्रावक धर्म निशान ॥2.23.19.319॥
व्यापार आदि के क्षेत्र की सीमा करते हुए ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशाओं में गमनागमन की सीमा बाँधना प्रथम दिग्व्रत नामक गुणव्रत है।
Lord Mahavira has said that the first Gunavrata in the religion of a householder is digvrata, accoring to which one should limit his activities (for the purpose of business and enjoyment of the
senses, etc.) to certain regional boundaries in the upward, lower and oblique direction. (319)
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वय-भंग-कारणं होइ, जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण।
क्ीरइ गमण-णियत्ती, तं जाण गुणव्वंय विदियं ॥20॥
व्रतभङ्गकारणं भवति, यस्मिन् देशे तत्र नियमेन।
क्रियते गमननिवृत्तिः, तद् जानीहि गुणव्रतं द्वितीयम् ॥20॥
कारण जो व्रत भंग बने, देश नहीं प्रस्थान।
देश अवकाश व्रत यही, दूजा गुणव्रत जान ॥2.23.20.320॥
जिस देश में जाने से किसी भी व्रत का भंग होता हो या उसमे दोष लगता हो, उस देश में जाने की नियमपूर्वक निवृत्ति देशावकाशिक नामक दूसरा गुणव्रत है।
Know that the second Gunavrata (desavakasika gunavrata) is not to visit any particular geographical region where there is possibility of violation of an accepted vow (i. e. to cross the fixedregional boundaries for the purpose of sensuous enjoyment). (320)
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विरई अणत्थदंडे, तच्चं स चउव्विहो अवज्झाणो।
पमायायरिय हिंसप्पयाण, पावोवएसे य ॥21॥
विरतिरनर्थदण्डे, तृतीयं, स चतुर्विधः अपध्यानम् ।
प्रमादाचरितम् हिंसाप्रदानम् पापोपदेशश्च ॥21॥
कष्ट अकारण दे नहीं, अनर्थ दण्ड है चार।
सोच बुरी प्रमाद चर्या, शस्त्र ये पाप प्रचार ॥2.23.21.321॥
बिना किसी उद्देश्य से कार्य करना व किसी को सताना अनर्थ दण्ड कहलाता है। इसके चार भेद है। अपध्यान, प्रमादपूर्ण चर्या, हिंसा के उपकरण देना और पाप का उपदेश। इन चारों का त्याग अनर्थदण्डविरति नामक तीसरा गुणव्रत है।
The third gunavrata consists in refraining from a futile violent act which might be one of the fourtypes, viz. (1) entertaining evil thought, (2) negligent behaviour, (3) lending to someone an
instrument of violence and (4) advising someone to commit a sinful act. (321)
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अट्ठेण तं न बंधइ, जमणट्ठेणं तु थेव-बुहभावा।
अट्ठे कालाईया नियागमा न उ अणट्ठाए ॥22॥
अर्थेन तत्नबध्वाति, यदनर्थेन स्तोकबहुभावात्।
अर्थे कालादिकाः, नियामकाः न त्वनर्थके ॥22॥
अर्थ कर्म हो बंधन कम, कर्म निरर्थक पाप।
काल आदि से लक्ष्य मिले, बिना प्रयोजन ताप ॥2.23.22.322॥
प्रयोजनवश कार्य में अल्प कर्म बंध होता है और बिना प्रयोजन कार्य में अधिक कर्म बंधन होता है।
The association of karmas (karmi particles) to soul, in case of purposeful activities, is (Comparatively) less than that in case of purposeless activity. (322)
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कंदप्पं कुक्कुइयं मोहरियं संजुयाहि गरणं च।
उवभोग-परीभोगा-इरेयगयं चित्थ वज्जइ ॥23॥
कान्दर्प्यम् कौत्कुच्यं, मौखर्यं संयुक्ताधिकरणं च ।
उपभोगपरिभोगा-तिरेकगतं चात्र वर्जयेत्॥23॥
अशिष्टवचन कुचेष्टा, शस्त्रग्रह ना राज्य।
भोगादि सीमन में अति,यहाँ सर्वथा त्याज्य ॥2.23.23.323॥
अनर्थदण्डविरत श्रावक को अशिष्ट वचन, शारीरिक कुचेष्टा, व्यर्थ बकवास, हिंसा के अधिकरणों का संयोजन तथा उपभोग की मर्यादा का अतिरेक नही करना चाहिये।
ASravak, who has taken the partial vow of Anartha-dand-virati, should not violated the limits of enjoyment and re-enjoyment of consumable and nonconsumable things. He should not collect
and make the instruments of violence available. Such a sravak should also neither cut joke another (kandarp); nor gesticulate and do mischievous; nor gossip (monkharya) or be garrulous.(323)
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भोगणं परिसंखा, सामाइय-मतिहि संविभागो य ।
पेसहविहि य सव्वो चदुरो सिक्खाउ वुत्ताओ ॥24॥
भोगानां परिसंख्या, सामायिकम् अतिथिसंविभागश्च ।
पौषधविधिश्च सर्वः, चतस्रः शिक्षा उक्ताः ॥24॥
भोग-सीमा,सामायिक अतिथि सेवा विचार।
प्रबोध का उपवास कर, शिक्षाव्रत ये चार ॥2.23.24.324॥
चार शिक्षाव्रत इस प्रकार है। भोगों का परिमाण, सामायिक, अतिथि संविभाग और प्रोषधोपवास।
Setting limit to the consumable and unconsumable objects of sensuous enjoyment, practising the mental equanimity (Samayika), offering food etc. to the monks, guests and other needy persons and performing fast along with the religious set called pausadha, all these are known as four disciplinary vows. (324)
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वज्जणमणंगुंबरि, अच्चंगाणं च भोगओ माणं।
कम्मयओ खरकम्मा-इयाण अवरं इमं भणियं ॥25॥
वर्जनमनन्तकमुदम्बरि-अत्यङ्गानां च भोगतो मानम्।
कर्मकतः खरकर्मादिानां अपरम् इदं भणितम् ॥25॥
माँस उदुम्बरू वनस्पति, परिमाण आहार।
हिंसा से अर्जन नहीं, परिमाण व्यापार ॥2.23.25.325॥
भोगोपभोग परिमाण व्रत दो प्रकार का है। भोजनरूप और व्यापाररूप। वनस्पति, फल, मद्य, माँस आदि का त्याग भोजनरूप परिमाण व्रत है और आजीविका में हिंसा का त्याग व्यापाररूप परिमाण व्रत है।
The first disciplinary vow (i. e. bhogapabhoga viramana) is of two types, viz., that in respect of enjoyment and that in respect of occupation. The former consists in refrainment from eating the
infinite souled vegetables (i.e. bulbous roots), fruit containing microscopic organism which are called udumbaras and flesh etc., the second is refrainment from such trades and industries
which involves violence and other sinful acts. (325)
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सावज्जजोगं परिरक्खणट्ठा, सामाइयं केवलियं पसत्थं।
गिहत्थ-धम्मा परमं ति नच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्था ॥26॥
सावद्ययोगपरिरक्षणार्थं, सामायिकं केवलिकं प्रशस्तम् ।
गृहस्थधर्मात् परममिति ज्ञात्वा, कुर्याद्बुध आत्महितं परत्र ॥26॥
पापों से रक्षा हेतु, सामायिक है प्रशस्त।
आत्महित हेतु यही सुधी गृही को रास्त॥2.23.26.326॥
हिंसा आरम्भ से बचने के लिये सामायिक व्रत उत्तम है। विद्वान श्रावक को आत्महित तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये सामायिक करनी चाहिये।
Aimed at refrainment from sinful acts, the only auspicious religious act is samayika. Hence considering it to be something superior to a householder’s ordinary acts, an intelligent person ought to perform samayika for the sake of one’s own welfare. (326)
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सामाइयम्मि उ कए,द समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥27॥
सामायिके तु कृते, श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात् ।
एतेन कारणेन, बहुशः सामायिक कुर्यात् ॥27॥
सामायिक के समय मे, श्रमण संत आचार।
श्रावक सामायिक रहे, इसलिये हर बार॥2.23.27.327॥
सामायिक काल में श्रावक भी श्रमण की तरह हो जाता है इसलिये श्रावक को नियमपूर्वक सामायिक करनी चाहिये ।
While observing the vow of Samayika (i. e., refraining from sinful acts and practice for mental equanimity) a householder becomes equal to a saint; for reason, he should observe it many
times (in a day). (327)
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सामाइयं ति काउं, परचिंतं जो ए चिंतइ सड्ढो ।
अट्टवसट्टोवगओ, निरत्थयं तस्स सामाइयं ॥28॥
सामायिकमिति कृत्वा, परचिन्तां यस्तु चिन्तयति ।
आर्तवशार्तोपगतः, निरर्थक तस्य सामायिकम् ॥28॥
परचिन्ता सामायिक में, श्रावक मनोविचार।
ध्यान बाहर में रहे, नहीं सामायिक तार ॥2.23.28.328॥
सामायिक करते समय जो श्रावक पर–चिन्ता करता है उसकी सामायिक निर्रथक है।
If a householder thinks of other worldly matters (than his self) while practising samayika, he will become engrossed in distressful concentration; his samayika will be fruitless. (328)
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आहार देहसक्कार-बंभाऽवावारपोसहो य णं।
देसे सव्वे य इमं, चरमे सामइयं णियमा ॥29॥
आहारदेहसत्कार-ब्रह्मचर्यमव्यापारोषधः च।
देशेसर्वस्मिन्च इदं’ चरमे सामायिकं नियमात् ॥29॥
अन्न दैहिक ब्रह्म -नहीं, कर्म त्याग व्रत चार।
सामायिक हो नियम से, प्रोषध पूर्ण विचार ॥2.23.29.329॥
आहार, शरीर संस्कार, अब्रह्म तथा आरम्भ त्याग ये चार बातें प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत में आती है। जो सम्पूर्ण प्रोषध करता है उसे नियमितः सामायिक करनी चाहिये।
Posadhopavas involves abstinence from food, from embellishment of the body, from sexual union and from violence. It is of two types, viz., partial and total and performing posadha of the latter type one must necessarily perform samayika. (329)
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अन्नइणं सुद्धाणं, कप्पणिज्जाण देसकालजुत्तं।
दाणं जईणमुचियं, गिहीण सिक्खावयं भणियं ॥30॥
अन्नादीनां शुद्धानां,कल्पनीयानां देशकालयुतम् ।
दानं यतिभ्यः उचितं, गृहिणां शिक्षाव्रतं भणितम् ॥30॥
अन्न दान हो शुद्ध रूप से, देश काल अनुसार।
दान यही समझे उचित, गृहस्थ शिक्षा सार ॥2.23.30.330॥
उद्गम आदि दोषों से रहित, देश व काल के अनुकूल, शुद्ध अन्न आदि का उचित रीति से मुनि आदि संयमियों को दान देना गृहस्थ का अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है।
Ahouseholder who offers pure food etc. to the monks in a proper manner and according to the rules and the needs of place and time, observes the fourth disciplinary vow (called Atithisamvibhaga). (330)
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आहारो-सह-सत्था-भय-भेओ जं चउव्विहं दाणं ।
तं वुच्चइ दयव्वं, णिद्दिट्ठ-मुवासय-ज्झयणे ॥31॥
अहारौषध-शास्त्रानुभयभेदात् यत् चतुर्विधम् दानम् ।
तद् उच्यते दातव्यं निर्दिष्टम् उपासक-अध्ययने ॥31॥
अन्न व औषध, शास्त्र, अभय, दान चार प्रकार।
देने योग्य दान ये, श्रावक के आचार॥2.23.31.331॥
श्रावक के आचार में देने योग्य चार प्रकार के दान कहे गये है। आहार, औषध, शास्त्र व अभय ।
Charity (Dana) is of four kinds:- 1. Food; 2. Medicine; 3. Books; and 4. Amnesty (assurance of protection or safety). According to the code of conduct of a sravak all the four are worth giving.(331)
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दाणंभोयणमेत्तं दिण्णइ धण्णो हवेइ सायारो।
पत्तापत्त-विसेसं संदंसणे किं वियारेण ॥32॥
दान भोजनमात्रं, दीयते धन्यो भवति सागारः।
पात्रापात्रविशेषसंदर्शने किं विचारेण ॥32॥
भोजन दान से धन्य हो, भव सागर हो पार।
पात्र उचित या हो नहीं, करना नहीं विचार ॥2.23.32.332॥
भोजनमात्र का दान करने से भी गृहस्थ धन्य होता है। इसमें पात्र और अपात्र का विचार करने से क्या लाभ।
A householder, who gives food in charity becomes praiseworthy, what is the good of inquiring about the fitness or unfitness of the person receiving the charity? (332)
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साहूणं कप्पणिज्जं, जं न वि दिण्णं कहिं पि कंचि तहिं।
धीरा जहुत्तकारी, सुसावया तं न भुंजंति ॥33॥
साधूनां कल्पनीयं, यद् नापि दत्तं कुत्रापि किंचित् तत्र।
धीराः यथोक्तकारिणः, सुश्रावकाः तद् न भुञ्जते ॥33॥
साधु के अनुकूल जहाँ, ना थोड़ा भी दान।
धीर त्यागी श्रावक का, नहीं भोज का स्थान ॥2.23.33.333॥
जिस घर में साधुओं के अनुकूल दान नही दिया जाता, उस घर में शास्त्रोक्त आचरण करने वाले त्यागी श्रावक भोजन नही करते।
The pious householders who are prudent and have good conduct as per scriptures, do not take food in a house where no charity of any kind is given to a monk. (333)
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जो मुनि-भुत्त-वसेसं, भुंजइ सो भुंजइ जिणुवदिट्ठ।
स्ंसार-सार-सोक्खं, कमसो णिव्वाण-वर-सोक्खं ॥34॥
यो मुनिभुक्तविशेषं, भुङ्क्ते स भुङ्क्ते जिनोपदिष्टम् ।
संसारसारसौख्यं, क्रमशो निर्वाणवरसौख्यम् ॥34॥
मुनि पश्चात भोजन करे, पाये सुख संसार।
जिनदेव कहे क्रमशः, हो भव सागर पार ॥2.23.34.334॥
जो गृहस्थ मुनि को भोजन कराने के पश्चात भोजन करता है, वास्तव में उसी का भोजन करना सार्थक है। वह मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है।
He, who eats which is left after a monk has taken food, enjoys the best worldly happiness and will gradually obtain the bliss of emancipation. This is the preaching of the Jina. (334)
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जं कीरइ परि-रक्खा, णिच्चं मरण-भय-भीरु-जीवाणं ।
तं जाण अभय-दाणं, सिंहामणिं सव्व-दाणाणं ॥35॥
यत् क्रियते परिरक्षा, नित्यं मरणभयभरुजीवानाम् ।
तद् जानीहि अभयदानम्, शिखामणि सर्वदानानाम् ॥27॥
भय से जीव की रक्षा, होय अभय का दान।
अभय दान श्रेष्ठ है, सब दान में महान॥2.23.35.335॥
मृत्यु भय से जीवों की रक्षा करना अभय दान है। यह दान सब दानों का शिरोमणि है।
Know that giving protection always to living beings who are in fear of death is known as abhayadana, supreme amongst all charities. (335)
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संपत्त-दंसणाई, पइदियहं जइजणा सुणेई य ।
सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं बिंति ॥1॥
संप्राप्तदर्शनादिः, प्रतिदिवसं यतिजनाच्छृणोति च।
सामाचारीं परमां यः, खलु तं श्रावकं ब्रुवते ॥1॥
सम्यक दृष्टि से प्रति दिन, संगत साधु काम ।
श्रवण करे उपदेश का, श्रावक उसका नाम ॥2.23.1.301॥
जो सम्यकदृष्टि व्यक्ति प्रतिदिन मुनिजनों से आचार–विषयक उपदेश सुनता है उसे श्रावक कहते हैं।
He is called a Sravaka (householder) who, being endowed with right faith, listens every day to the preachings of the monks about right conduct. (301)
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पंचुंबर-सहियाइं, सत्त वि विसणाइं जो विवज्जेइ ।
सम्मत्त-विसुद्ध-मई, सो दंसण-सावओ भणिओ ॥2॥
पञ्चोदुम्बरसहितानि सप्त अपि व्यसनानि यः विवर्जयति।
सम्यक्त्वविशुद्धमतिः स दर्शनश्रावकः भणितः ॥2॥
पाँच उदुम्बर सात व्यसन करता है जो त्याग।
सम्यक-बुद्धि उसकी शुद्ध ‘दर्शन-श्रावक’ जाग ॥2.23.2.302॥
पाँच उदुम्बर फल (उमर, कठूमर, गूलर, पीपल तथा बड़) और सात व्यसनों का त्याग करने वाला व्यक्ति “दार्शनिक श्रावक” कहा जाता है जिसकी बुद्धि सम्यक् दर्शन से विशुद्ध हो गई है। धर्म में दान और पूजा मुख्य है। और श्रमण धर्म में ध्यान व अध्ययन मुख्य है।
A pious householder is one who has given up (eating) five udumbarfruits (like banyan, Pipala, fig (Anjeer), kathumara and pakar), is free from seven vices and is called Darsana Sravaka, a man whose intellect is purified by right faith.(302)
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इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य ।
दंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाइं ॥3॥
स्त्री द्यूतं मद्यं, मृगया वचे तथा परुषता च।
दण्डपरुषत्वम् अर्थस्य दूषणं सप्त व्यसनानि॥3॥
परस्त्री, जुआ, मदिरालय, कटुवचन या शिकार ।
कड़ा दण्ड परधनहरण, व्यसन सात विचार ॥2.23.3.303॥
परस्त्री सहवास, जुआ, मदिरापान, शिकार करना, कटुवचन बोलना, कड़ा दण्ड देना और अर्थ दूषण (चोरी) करना ये सात व्यसन है।
The seven vices are: (1) sexual intercourse with other than one’s own wife, (2) gambling, (3) drinking liquor (4) hunting, (5) harshness in speech, (6) harsh in punishment and (7) misappropriation of other’s property. (303)
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मांसा-सणेण वड्ढइ, दप्पो दप्पेण मज्ज-महिलसइ।
जूयं पि रमइ तो तं, पि वण्णिए पाउण्ह दोसे ॥4॥
मांसाशनेन वर्धते दर्पः दर्पेण मद्यम् अभिलषति।
द्यूतम अपि रमते ततः तद् अपि वणिर्र्तात् प्राप्नोति दोषान् ॥4॥
दर्प मांसाहार से, चाहे दर्प शराब ।
जुए की जो लत लगती, मानव बने ख़राब ॥2.23.4.304॥
मांसाहार से अहंकार बढ़ता है, अहंकार से मद्यपान की अभिलाषा जागती है। और तब वह जुआ भी खेलती है इस प्रकार मनुष्य सब दोषों का घर बन जाता है।
Meat-eating increases pride, pride creates a desire for intoxicating drinks and pleasure in gambling; and thus springs up all aforesaid vices. (304)
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लोय-सत्थम्मि वि, वण्णियं जहा गयण-गामिणो विप्पा ।
भुवि मंसा-सणेण पडिया, तमहा ण पउंजए मंसं ॥5॥
लौकिकशास्त्रे अपि वर्णितम् यथा गगनगामिनः विप्राः ।
भुवि मांसाशनेन पतिताः तस्माद् न प्रयोजयेद् मांसम् ॥5॥
कहता लौकिक शास्त्र यही, पांडित्य का नाश ।
पतित मांस सेवन करे, खाएं ना हम काश ॥2.23.5.305॥
लौकिक शास्त्र में भी यह उल्लेख मिलता है कि माँसाहारी पंडित जो कि आकाश में विचरण करता था वो गिर कर पतित हो गया। अतएव माँस का सेवन नही करना चाहिये।
Scriptures of other religions have described that sages moving in air have fallen to the ground on eating meat; therefore meateating should be avoided. (305)
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मज्जेण णरो अवसो, कुणेइ कम्माणि णिंद-णिज्जाइं ।
इहलोए-परलोए, अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ॥6॥
मद्येन नरः अवशः करोति कर्माणि निन्दनीयानि ।
इहलोके परलोके अनुभवति अनन्तकं दुःखम् ॥6॥
मद्यपान जो जन करे, करता खोटे काम ।
लोक और परलोक में, सकल दुखों का धाम॥2.23.6.306॥
मदिरापान से मदहोश होकर मनुष्य निन्दनीय कर्म करता है और फलस्वरूप इस लोक तथा परलोक में अनन्त दुखों का अनुभव करता है।
A person loses control over himself by drinking intoxicating liquors and commits many censurable deeds. He experiences endless miseries both in this world and in the next. (306)
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संवेग-जणिय-करणा, णिस्सल्ला मंदरुव्व णिक्कंपा ।
जस्स दढा जिणभत्ती तस्स भयं णत्थि संसारे ॥7॥
संवेगजनितकरणा, निःशल्या मन्दर इव निष्कम्पा ।
यस्य दृढा जिनभक्तिः, तस्य भयं नास्ति संसारे ॥7॥
जग त्याग मन भाव रहे, हो मज़बूत विचार ।
दृढ़ जिनभक्ति मन बसे, हो भय बिनु संसार ॥2.23.7.307॥
जिसके मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने वाली मेरुपर्वत की तरह दृढ़ जिनभक्ति है उसे संसार में किसी तरह का भय नही।
A person who has firm devotion towards Jina like the steady mountain Meru, inclination for renunciation and is free from defects of character (salya) will have no fear in this world. (307)
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सत्तू वि मित्तभावं, जम्हा उवयाइ विणय-सोलस्स।
विणओ तिविहेण तओ, कायव्वो देस-विरएण ॥8॥
शत्रुः अपि मित्रभावम् यस्माद् उपयाति विनशीलस्य ।
विनयः त्रिविधेन ततः कर्तव्यः देशविरतेन ॥8॥
विनयशील जब व्यक्ति हो, शत्रु मित्र बन जाय ।
अणुव्रत श्रावक विनय रहे, मन वचन और काय ॥2.23.8.308॥
विनयशील व्यक्ति का शत्रु भी मित्र बन जाता है। इसलिये अणुव्रती श्रावक को मन–वचन–काय से सम्यक्तवादी गुणों की तथा गुणीजनों की विनय करना चाहिये।
Since even an enemy approaches a man of humility with friendliness, a house-holder must cultivate humility of three kinds: (in thought, speech and action). (308)
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पाणिवहमुसावाए, अदत्तपरदारनियमणेहिं च।
अपरिमिच्छाओऽवि, अणुव्वयाइं विरमणाइं ॥9॥
प्राणिवधमृषावादा-दत्तपरदारनियमनैश्च।
अपरिमितेच्छातोऽपि च, अणुव्रतानि विरमणानि ॥9॥
हिंसा चोरी झूठ हो, या पर-स्त्री से काम।
विरक्त परिग्रह से रहे, अणुव्रत श्रावक नाम ॥2.23.9.309॥
हिंसा, असत्य वचन, चोरी, परस्त्री गमन तथा असीमित कामना (परिग्रह) इन पाँचो पापों से विरति अणुव्रत है।
Injury to living beings (himsa), speaking falsehood, taking away a thing which is not given (theft), sexual enjoyment with other than one’s own wife and limitless desire for possession
(parigraha)-abstinence from these acts are called (five) small vows. (309)
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बंध-वह-च्छवि-च्छेए, अइमारे भत्त-पाण-वुच्छेए।
कोहाइ-दूसिय-मणो, गो-मणुयाईण नो कुज्जा ॥10॥
बन्धवधछविच्छेदान् अतिभारान् भक्तपानव्युच्छेदान्।
क्रोधादिदूषितमनाः, गोमनुष्यादीनां न कुर्यात् ॥10॥
आश्रित चाकरपशु का, बंधन वद्य, अंगभंग॥
अतिभार अन्न निषेध ये, कलुषित मन का संग ॥2.23.10.310॥
हिंसा से विरक्त श्रावक को क्रोध आदि कषाय से मन को दूषित करके पशु व मनुष्य आदि का बंधन, ताड़न, पीड़न, छेदन, अधिक भार लादना, खान–पान आदि रोकने का कर्म नही करना चाहिये क्योंकि यह हिंसा ही है। इनका त्याग स्थूल हिंसा विरति है।
One should not tie, injure, mutilate, load heavy burdens and deprive from food and drink any animal or human being with a polluted mind by anger or other passions are the transgression (aticara) of the vow of Ahimsa. (310)
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थूल-मुसावायस्स उ विरई, दुच्चं स पंचहा होइ ।
क्न्न्-गो-भु-आलिय-नासहरण, कूडसक्खिज्जे ॥11॥
स्थूलमृषावादस्य तु, विरतिः द्वितीयं स पंचधा भवति ।
कन्यागोभूअलीक-न्यासहरण-कूटसाक्ष्याणि ॥11
दूजा व्रत असत्यविरति, पंचविध इसकी राह।
(न्यासहर) कन्या गौभू, विषयक झूठ गवाह॥2.23.11.311॥
असत्य से विरक्ति दूसरा अणुव्रत है। इसके भी पाँच भेद है। कन्या, पशु तथा भूमि के लिये झूठ बोलना, किसी की धरोहर को दबा लेना और झूठी गवाही देना। इनका त्याग स्थूल असत्य विरति है।
Refraining from major type of falsehood is the second vow; this major type of falsehood is of five kinds; speaking untruth about unmarried girls, animals and land, repudiating debts or pledges and giving false evidence. (311)
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सहसा अब्भक्खाणं रहसा य सदारमंतभेय च ।
मोसोवएसयं कूडलेहकरणं च वज्जिज्जा ॥12॥
सहसाभ्याख्यानं, रहसा च स्वदारमन्त्रभेदं च।
मृषोपदेशं कूटलेखकरणं च वर्जयेत् ॥12॥
बात बिना सोचे नहीं, नहीं रहस्य बताय ।
मिथ्या प्रवचन करे नहीं, छद्म न लेख लिखाय ॥2.23.12.312॥
सत्य–अणुव्रती बिना सोचे समझे न कोई बात करता है न किसी का राज उगलता है। न अपनी पत्नी की बात मित्रों को बताता है और नही मिथ्या उपदेश देता है और नही जाली हस्ताक्षर करता है।
making a false charge rashly (or without consideration), divulging any one’s secret, disclosing the secrets confided to by one’s own wife, giving false advice and preparation of a false document or writing these should be avoided. (312)
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वज्जिज्जा तेनाहड-तक्करजोगं विरुद्धरज्जं च ।
कूडतुल-कूडमाणं, तप्पडिरूवं च ववहारं ॥13॥
वर्जयेत् स्तेनाहृतं, तस्करयोगं विरुद्धराज्यं च।
कूट तुलाकूट माने तन्प्रतिरूपं च व्यवहारम् ॥13॥
साथ न चोरों, का करे, गैर राज-आचार ।
कूट तोल, खोटा नहीं, जाली ना व्यवहार ॥2.23.13.313॥
अचौर्य अणुव्रती चोरी का माल न ख़रीदे और न ही प्रेरक बने। टैक्स आदि की चोरी न करे और मिलावट न करे। जाली करेंसी न चलाये।
One should desist from: buying stolen property, inciting another to commit theft, avoiding the rules of government, use of false weights and measures adulteration and preparation to counterfeit coins and notes. (313)
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इत्तरिय-परिग्गहिया-परिगहियागमण णंगकीडं च ।
परविवाहक्करणं कामे, तिव्वाभिलासं च ॥14॥
इत्वरपरिगृहीता-ऽपरिगृहीतागमना-नङ्गक्रीडा च ।
पर (द्वितीय) विवहकरणं, कामे तीव्राभिलाषःच ॥14॥
पर-नारी से दूर रहे, अनंगक्रीडा त्याग।
पर विवाह में रुचि नहीं, नहीं काम से राग ॥2.23.14.314॥
ब्रह्मचर्य अणुव्रती को परायी स्त्रियों से सदा दूर रहना चाहिये। अनंग क्रीड़ा नही करनी चाहिये। अपनी संतान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह कराने में रुचि नही लेनी चाहिये। काम की तीव्र लालसा का त्याग करना चाहये।
A sravak-who has taken the partial vow of chastity should remain satisfied with his wife and keep himself completely away (aloof/indifferent/unconcerned) from other unmarried and married women. He should not indulge in unnatural sexual intercourse (Anaiya krida). (Further) he should not take interest in the marriages of persons, other than his own offsprings. He must renounce intense lust for sex. (314)
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विरयापरिग्गहाओ, अपरिमिआओअ गंततण्हाओ ।
बहुदोससंकुलाओ, नरयगइगमणपंथाओ ॥15॥
खित्ताइ-हिरन्नइ-धणाइ-दुपयाइ-कुवियगस्स तहा ।
सम्मं विसुद्ध-चित्तो न परमाणाइक्कामं कुज्जा ॥16॥
विरताः परिग्रहात्-अपरिमिताद्-अनन्ततृष्णात्।
बहुदोषसंकुलात्, नरकगतिगमनपथात् ॥15॥
क्षेत्रादेः हिरण्यादेः धनादेः द्विपदादेः कुप्यकस्य तथा ।
सम्यग्विशुद्धचित्तो, न प्रमाणातिक्रमं कुर्यात् ॥16॥
परिग्रह की सीमा करे, तृष्णा का यह बीज।
कारण भारी दोष का, देत नरक गति चीज़ ॥2.23.15.315॥
धातु खेत, घर, धन रहे, पशु वाहन भण्डार।
सम्यक श्रावक मन निर्मल, हद बाँधे व्यवहार ॥2.23.16.316॥
असीमित परिग्रह अनन्त तृष्णा का कारण है। नरकगति का मार्ग है। अतः परिग्रह–परिमाणाणुव्रती श्रावक को क्षेत्र, मकान, सोना–चाँदी, धन–धान्य, द्विपद–चतुष्पद आदि का एक सीमा से ़ज़्यादा परिग्रह नही करना चाहये।
Persons should refrain from accumulation of unlimited property due to unquenchable thirst (i.e. greed) as it becomes a pathway to hell and results in numerous faults. A righteous and pureminded person should not exceed the self-imposed limit in the acquisition of lands, gold, wealth, servants, cattle, vessels and pieces of furniture. (315 & 316)
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भाविज्ज य संतोसं, गहिय-मियाणिं अजाणमाणेणं ।
थोवं पुणो न एवं, गिह्ल्स्सिामो त्ति (न) चिंतज्जा ॥17॥
भावयेच्च सन्तोषं, गृहीतमिदानीमजानानेन।
स्तोकंपुनः न एवं, ग्रहीष्याम इति चिन्तयेत् ॥17॥
सदा भाव संतोष रहे, सीमा में सामान।
पुनःग्रहण का भाव नहीं, अपरिग्रह का भान॥2.23.17.317॥
उसे संतोष रखना चाहिये। उसे ऐसा विचार नहीं करना चाहिये कि अभी तो सीमा में परिग्रह करता हूँ बाद में अधिक ग्रहण कर लूँगा।
He should be contented. He should not think “I have fixed certain limits this time unknowingly; in future, I’ll again accept that in case of need.” (317)
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जं च दिसावेरमणं, अणत्थदंडेंहिं जं च वेरमणं।
देसावगासियंपि य, गुणव्वयाइं भवे ताइं ॥18॥
यच्च दिग्विरमणं, अनर्थदण्डात् यच्च विरमणम् ।
देशावकाशिकमपि च, गुणव्रतानि भवेयुस्तानि ॥18॥
दिशा गमन सीमित रहे, व्यर्थ-दंड का त्याग ।
सीमित गमन विदेश भी, त्रय गुणव्रत हो राग ॥2.23.18.318॥
श्रावक के सात शील व्रतों में ये तीन गुणव्रत होते हैं। दिशाविरति, अनर्थदण्डविरति तथा देशावकाशिक।
The three supplementary vows (Gunavritas) that are included in the seven disciplinary vows (Shilavritas) are :- 1. Limitations regarding movements in various directions. 2. Limitations regarding unnecessary performances; 3. Limitations regarding movements in different territories. (318)
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उड्ढमहे तिरियं पि य दिससासु परिमाण-करण-मिह पढमं ।
भणियं गुणव्वयं खलु, सावगणम्मम्मि वीरेण ॥19॥
ऊर्ध्वमधस्तिर्यगपि च, दिक्षु परिमाणकरणमिह प्रथमम् ।
भणितं गुणव्रतं खलु, श्रावकधर्मे वीरेण ॥19॥
दिशाओं का परिसीमन, पहली सीमा जान।
गुणव्रत ये है सर्व प्रथम, श्रावक धर्म निशान ॥2.23.19.319॥
व्यापार आदि के क्षेत्र की सीमा करते हुए ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशाओं में गमनागमन की सीमा बाँधना प्रथम दिग्व्रत नामक गुणव्रत है।
Lord Mahavira has said that the first Gunavrata in the religion of a householder is digvrata, accoring to which one should limit his activities (for the purpose of business and enjoyment of the senses, etc.) to certain regional boundaries in the upward, lower and oblique direction. (319)
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वय-भंग-कारणं होइ, जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण।
क्ीरइ गमण-णियत्ती, तं जाण गुणव्वंय विदियं ॥20॥
व्रतभङ्गकारणं भवति, यस्मिन् देशे तत्र नियमेन।
क्रियते गमननिवृत्तिः, तद् जानीहि गुणव्रतं द्वितीयम् ॥20॥
कारण जो व्रत भंग बने, देश नहीं प्रस्थान।
देश अवकाश व्रत यही, दूजा गुणव्रत जान ॥2.23.20.320॥
जिस देश में जाने से किसी भी व्रत का भंग होता हो या उसमे दोष लगता हो, उस देश में जाने की नियमपूर्वक निवृत्ति देशावकाशिक नामक दूसरा गुणव्रत है।
Know that the second Gunavrata (desavakasika gunavrata) is not to visit any particular geographical region where there is possibility of violation of an accepted vow (i. e. to cross the fixedregional boundaries for the purpose of sensuous enjoyment). (320)
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विरई अणत्थदंडे, तच्चं स चउव्विहो अवज्झाणो।
पमायायरिय हिंसप्पयाण, पावोवएसे य ॥21॥
विरतिरनर्थदण्डे, तृतीयं, स चतुर्विधः अपध्यानम् ।
प्रमादाचरितम् हिंसाप्रदानम् पापोपदेशश्च ॥21॥
कष्ट अकारण दे नहीं, अनर्थ दण्ड है चार।
सोच बुरी प्रमाद चर्या, शस्त्र ये पाप प्रचार ॥2.23.21.321॥
बिना किसी उद्देश्य से कार्य करना व किसी को सताना अनर्थ दण्ड कहलाता है। इसके चार भेद है। अपध्यान, प्रमादपूर्ण चर्या, हिंसा के उपकरण देना और पाप का उपदेश। इन चारों का त्याग अनर्थदण्डविरति नामक तीसरा गुणव्रत है।
The third gunavrata consists in refraining from a futile violent act which might be one of the fourtypes, viz. (1) entertaining evil thought, (2) negligent behaviour, (3) lending to someone an instrument of violence and (4) advising someone to commit a sinful act. (321)
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अट्ठेण तं न बंधइ, जमणट्ठेणं तु थेव-बुहभावा।
अट्ठे कालाईया नियागमा न उ अणट्ठाए ॥22॥
अर्थेन तत्नबध्वाति, यदनर्थेन स्तोकबहुभावात्।
अर्थे कालादिकाः, नियामकाः न त्वनर्थके ॥22॥
अर्थ कर्म हो बंधन कम, कर्म निरर्थक पाप।
काल आदि से लक्ष्य मिले, बिना प्रयोजन ताप ॥2.23.22.322॥
प्रयोजनवश कार्य में अल्प कर्म बंध होता है और बिना प्रयोजन कार्य में अधिक कर्म बंधन होता है।
The association of karmas (karmi particles) to soul, in case of purposeful activities, is (Comparatively) less than that in case of purposeless activity. (322)
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कंदप्पं कुक्कुइयं मोहरियं संजुयाहि गरणं च।
उवभोग-परीभोगा-इरेयगयं चित्थ वज्जइ ॥23॥
कान्दर्प्यम् कौत्कुच्यं, मौखर्यं संयुक्ताधिकरणं च ।
उपभोगपरिभोगा-तिरेकगतं चात्र वर्जयेत्॥23॥
अशिष्टवचन कुचेष्टा, शस्त्रग्रह ना राज्य।
भोगादि सीमन में अति,यहाँ सर्वथा त्याज्य ॥2.23.23.323॥
अनर्थदण्डविरत श्रावक को अशिष्ट वचन, शारीरिक कुचेष्टा, व्यर्थ बकवास, हिंसा के अधिकरणों का संयोजन तथा उपभोग की मर्यादा का अतिरेक नही करना चाहिये।
ASravak, who has taken the partial vow of Anartha-dand-virati, should not violated the limits of enjoyment and re-enjoyment of consumable and nonconsumable things. He should not collect and make the instruments of violence available. Such a sravak should also neither cut joke another (kandarp); nor gesticulate and do mischievous; nor gossip (monkharya) or be garrulous.(323)
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भोगणं परिसंखा, सामाइय-मतिहि संविभागो य ।
पेसहविहि य सव्वो चदुरो सिक्खाउ वुत्ताओ ॥24॥
भोगानां परिसंख्या, सामायिकम् अतिथिसंविभागश्च ।
पौषधविधिश्च सर्वः, चतस्रः शिक्षा उक्ताः ॥24॥
भोग-सीमा,सामायिक अतिथि सेवा विचार।
प्रबोध का उपवास कर, शिक्षाव्रत ये चार ॥2.23.24.324॥
चार शिक्षाव्रत इस प्रकार है। भोगों का परिमाण, सामायिक, अतिथि संविभाग और प्रोषधोपवास।
Setting limit to the consumable and unconsumable objects of sensuous enjoyment, practising the mental equanimity (Samayika), offering food etc. to the monks, guests and other needy persons and performing fast along with the religious set called pausadha, all these are known as four disciplinary vows. (324)
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वज्जणमणंगुंबरि, अच्चंगाणं च भोगओ माणं।
कम्मयओ खरकम्मा-इयाण अवरं इमं भणियं ॥25॥
वर्जनमनन्तकमुदम्बरि-अत्यङ्गानां च भोगतो मानम्।
कर्मकतः खरकर्मादिानां अपरम् इदं भणितम् ॥25॥
माँस उदुम्बरू वनस्पति, परिमाण आहार।
हिंसा से अर्जन नहीं, परिमाण व्यापार ॥2.23.25.325॥
भोगोपभोग परिमाण व्रत दो प्रकार का है। भोजनरूप और व्यापाररूप। वनस्पति, फल, मद्य, माँस आदि का त्याग भोजनरूप परिमाण व्रत है और आजीविका में हिंसा का त्याग व्यापाररूप परिमाण व्रत है।
The first disciplinary vow (i. e. bhogapabhoga viramana) is of two types, viz., that in respect of enjoyment and that in respect of occupation. The former consists in refrainment from eating the infinite souled vegetables (i.e. bulbous roots), fruit containing microscopic organism which are called udumbaras and flesh etc., the second is refrainment from such trades and industries which involves violence and other sinful acts. (325)
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सावज्जजोगं परिरक्खणट्ठा, सामाइयं केवलियं पसत्थं।
गिहत्थ-धम्मा परमं ति नच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्था ॥26॥
सावद्ययोगपरिरक्षणार्थं, सामायिकं केवलिकं प्रशस्तम् ।
गृहस्थधर्मात् परममिति ज्ञात्वा, कुर्याद्बुध आत्महितं परत्र ॥26॥
पापों से रक्षा हेतु, सामायिक है प्रशस्त।
आत्महित हेतु यही सुधी गृही को रास्त॥2.23.26.326॥
हिंसा आरम्भ से बचने के लिये सामायिक व्रत उत्तम है। विद्वान श्रावक को आत्महित तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये सामायिक करनी चाहिये।
Aimed at refrainment from sinful acts, the only auspicious religious act is samayika. Hence considering it to be something superior to a householder’s ordinary acts, an intelligent person ought to perform samayika for the sake of one’s own welfare. (326)
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सामाइयम्मि उ कए,द समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥27॥
सामायिके तु कृते, श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात् ।
एतेन कारणेन, बहुशः सामायिक कुर्यात् ॥27॥
सामायिक के समय मे, श्रमण संत आचार।
श्रावक सामायिक रहे, इसलिये हर बार॥2.23.27.327॥
सामायिक काल में श्रावक भी श्रमण की तरह हो जाता है इसलिये श्रावक को नियमपूर्वक सामायिक करनी चाहिये ।
While observing the vow of Samayika (i. e., refraining from sinful acts and practice for mental equanimity) a householder becomes equal to a saint; for reason, he should observe it many times (in a day). (327)
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सामाइयं ति काउं, परचिंतं जो ए चिंतइ सड्ढो ।
अट्टवसट्टोवगओ, निरत्थयं तस्स सामाइयं ॥28॥
सामायिकमिति कृत्वा, परचिन्तां यस्तु चिन्तयति ।
आर्तवशार्तोपगतः, निरर्थक तस्य सामायिकम् ॥28॥
परचिन्ता सामायिक में, श्रावक मनोविचार।
ध्यान बाहर में रहे, नहीं सामायिक तार ॥2.23.28.328॥
सामायिक करते समय जो श्रावक पर–चिन्ता करता है उसकी सामायिक निर्रथक है।
If a householder thinks of other worldly matters (than his self) while practising samayika, he will become engrossed in distressful concentration; his samayika will be fruitless. (328)
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आहार देहसक्कार-बंभाऽवावारपोसहो य णं।
देसे सव्वे य इमं, चरमे सामइयं णियमा ॥29॥
आहारदेहसत्कार-ब्रह्मचर्यमव्यापारोषधः च।
देशेसर्वस्मिन्च इदं’ चरमे सामायिकं नियमात् ॥29॥
अन्न दैहिक ब्रह्म -नहीं, कर्म त्याग व्रत चार।
सामायिक हो नियम से, प्रोषध पूर्ण विचार ॥2.23.29.329॥
आहार, शरीर संस्कार, अब्रह्म तथा आरम्भ त्याग ये चार बातें प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत में आती है। जो सम्पूर्ण प्रोषध करता है उसे नियमितः सामायिक करनी चाहिये।
Posadhopavas involves abstinence from food, from embellishment of the body, from sexual union and from violence. It is of two types, viz., partial and total and performing posadha of the latter type one must necessarily perform samayika. (329)
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अन्नइणं सुद्धाणं, कप्पणिज्जाण देसकालजुत्तं।
दाणं जईणमुचियं, गिहीण सिक्खावयं भणियं ॥30॥
अन्नादीनां शुद्धानां,कल्पनीयानां देशकालयुतम् ।
दानं यतिभ्यः उचितं, गृहिणां शिक्षाव्रतं भणितम् ॥30॥
अन्न दान हो शुद्ध रूप से, देश काल अनुसार।
दान यही समझे उचित, गृहस्थ शिक्षा सार ॥2.23.30.330॥
उद्गम आदि दोषों से रहित, देश व काल के अनुकूल, शुद्ध अन्न आदि का उचित रीति से मुनि आदि संयमियों को दान देना गृहस्थ का अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है।
Ahouseholder who offers pure food etc. to the monks in a proper manner and according to the rules and the needs of place and time, observes the fourth disciplinary vow (called Atithisamvibhaga). (330)
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आहारो-सह-सत्था-भय-भेओ जं चउव्विहं दाणं ।
तं वुच्चइ दयव्वं, णिद्दिट्ठ-मुवासय-ज्झयणे ॥31॥
अहारौषध-शास्त्रानुभयभेदात् यत् चतुर्विधम् दानम् ।
तद् उच्यते दातव्यं निर्दिष्टम् उपासक-अध्ययने ॥31॥
अन्न व औषध, शास्त्र, अभय, दान चार प्रकार।
देने योग्य दान ये, श्रावक के आचार॥2.23.31.331॥
श्रावक के आचार में देने योग्य चार प्रकार के दान कहे गये है। आहार, औषध, शास्त्र व अभय ।
Charity (Dana) is of four kinds:- 1. Food; 2. Medicine; 3. Books; and 4. Amnesty (assurance of protection or safety). According to the code of conduct of a sravak all the four are worth giving.(331)
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दाणंभोयणमेत्तं दिण्णइ धण्णो हवेइ सायारो।
पत्तापत्त-विसेसं संदंसणे किं वियारेण ॥32॥
दान भोजनमात्रं, दीयते धन्यो भवति सागारः।
पात्रापात्रविशेषसंदर्शने किं विचारेण ॥32॥
भोजन दान से धन्य हो, भव सागर हो पार।
पात्र उचित या हो नहीं, करना नहीं विचार ॥2.23.32.332॥
भोजनमात्र का दान करने से भी गृहस्थ धन्य होता है। इसमें पात्र और अपात्र का विचार करने से क्या लाभ।
A householder, who gives food in charity becomes praiseworthy, what is the good of inquiring about the fitness or unfitness of the person receiving the charity? (332)
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साहूणं कप्पणिज्जं, जं न वि दिण्णं कहिं पि कंचि तहिं।
धीरा जहुत्तकारी, सुसावया तं न भुंजंति ॥33॥
साधूनां कल्पनीयं, यद् नापि दत्तं कुत्रापि किंचित् तत्र।
धीराः यथोक्तकारिणः, सुश्रावकाः तद् न भुञ्जते ॥33॥
साधु के अनुकूल जहाँ, ना थोड़ा भी दान।
धीर त्यागी श्रावक का, नहीं भोज का स्थान ॥2.23.33.333॥
जिस घर में साधुओं के अनुकूल दान नही दिया जाता, उस घर में शास्त्रोक्त आचरण करने वाले त्यागी श्रावक भोजन नही करते।
The pious householders who are prudent and have good conduct as per scriptures, do not take food in a house where no charity of any kind is given to a monk. (333)
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जो मुनि-भुत्त-वसेसं, भुंजइ सो भुंजइ जिणुवदिट्ठ।
स्ंसार-सार-सोक्खं, कमसो णिव्वाण-वर-सोक्खं ॥34॥
यो मुनिभुक्तविशेषं, भुङ्क्ते स भुङ्क्ते जिनोपदिष्टम् ।
संसारसारसौख्यं, क्रमशो निर्वाणवरसौख्यम् ॥34॥
मुनि पश्चात भोजन करे, पाये सुख संसार।
जिनदेव कहे क्रमशः, हो भव सागर पार ॥2.23.34.334॥
जो गृहस्थ मुनि को भोजन कराने के पश्चात भोजन करता है, वास्तव में उसी का भोजन करना सार्थक है। वह मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है।
He, who eats which is left after a monk has taken food, enjoys the best worldly happiness and will gradually obtain the bliss of emancipation. This is the preaching of the Jina. (334)
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जं कीरइ परि-रक्खा, णिच्चं मरण-भय-भीरु-जीवाणं ।
तं जाण अभय-दाणं, सिंहामणिं सव्व-दाणाणं ॥35॥
यत् क्रियते परिरक्षा, नित्यं मरणभयभरुजीवानाम् ।
तद् जानीहि अभयदानम्, शिखामणि सर्वदानानाम् ॥27॥
भय से जीव की रक्षा, होय अभय का दान।
अभय दान श्रेष्ठ है, सब दान में महान॥2.23.35.335॥
मृत्यु भय से जीवों की रक्षा करना अभय दान है। यह दान सब दानों का शिरोमणि है।
Know that giving protection always to living beings who are in fear of death is known as abhayadana, supreme amongst all charities. (335)
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संपत्त-दंसणाई, पइदियहं जइजणा सुणेई य ।
सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं बिंति ॥1॥
संप्राप्तदर्शनादिः, प्रतिदिवसं यतिजनाच्छृणोति च।
सामाचारीं परमां यः, खलु तं श्रावकं ब्रुवते ॥1॥
सम्यक दृष्टि से प्रति दिन, संगत साधु काम ।
श्रवण करे उपदेश का, श्रावक उसका नाम ॥2.23.1.301॥
जो सम्यकदृष्टि व्यक्ति प्रतिदिन मुनिजनों से आचार–विषयक उपदेश सुनता है उसे श्रावक कहते हैं।
He is called a Sravaka (householder) who, being endowed with right faith, listens every day to the preachings of the monks about right conduct. (301)
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पंचुंबर-सहियाइं, सत्त वि विसणाइं जो विवज्जेइ ।
सम्मत्त-विसुद्ध-मई, सो दंसण-सावओ भणिओ ॥2॥
पञ्चोदुम्बरसहितानि सप्त अपि व्यसनानि यः विवर्जयति।
सम्यक्त्वविशुद्धमतिः स दर्शनश्रावकः भणितः ॥2॥
पाँच उदुम्बर सात व्यसन करता है जो त्याग।
सम्यक-बुद्धि उसकी शुद्ध ‘दर्शन-श्रावक’ जाग ॥2.23.2.302॥
पाँच उदुम्बर फल (उमर, कठूमर, गूलर, पीपल तथा बड़) और सात व्यसनों का त्याग करने वाला व्यक्ति “दार्शनिक श्रावक” कहा जाता है जिसकी बुद्धि सम्यक् दर्शन से विशुद्ध हो गई है। धर्म में दान और पूजा मुख्य है। और श्रमण धर्म में ध्यान व अध्ययन मुख्य है।
A pious householder is one who has given up (eating) five udumbarfruits (like banyan, Pipala, fig (Anjeer), kathumara and pakar), is free from seven vices and is called Darsana Sravaka, a man whose intellect is purified by right faith.(302)
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इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य ।
दंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाइं ॥3॥
स्त्री द्यूतं मद्यं, मृगया वचे तथा परुषता च।
दण्डपरुषत्वम् अर्थस्य दूषणं सप्त व्यसनानि॥3॥
परस्त्री, जुआ, मदिरालय, कटुवचन या शिकार ।
कड़ा दण्ड परधनहरण, व्यसन सात विचार ॥2.23.3.303॥
परस्त्री सहवास, जुआ, मदिरापान, शिकार करना, कटुवचन बोलना, कड़ा दण्ड देना और अर्थ दूषण (चोरी) करना ये सात व्यसन है।
The seven vices are: (1) sexual intercourse with other than one’s own wife, (2) gambling, (3) drinking liquor (4) hunting, (5) harshness in speech, (6) harsh in punishment and (7) misappropriation of other’s property. (303)
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मांसा-सणेण वड्ढइ, दप्पो दप्पेण मज्ज-महिलसइ।
जूयं पि रमइ तो तं, पि वण्णिए पाउण्ह दोसे ॥4॥
मांसाशनेन वर्धते दर्पः दर्पेण मद्यम् अभिलषति।
द्यूतम अपि रमते ततः तद् अपि वणिर्र्तात् प्राप्नोति दोषान् ॥4॥
दर्प मांसाहार से, चाहे दर्प शराब ।
जुए की जो लत लगती, मानव बने ख़राब ॥2.23.4.304॥
मांसाहार से अहंकार बढ़ता है, अहंकार से मद्यपान की अभिलाषा जागती है। और तब वह जुआ भी खेलती है इस प्रकार मनुष्य सब दोषों का घर बन जाता है।
Meat-eating increases pride, pride creates a desire for intoxicating drinks and pleasure in gambling; and thus springs up all aforesaid vices. (304)
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लोय-सत्थम्मि वि, वण्णियं जहा गयण-गामिणो विप्पा ।
भुवि मंसा-सणेण पडिया, तमहा ण पउंजए मंसं ॥5॥
लौकिकशास्त्रे अपि वर्णितम् यथा गगनगामिनः विप्राः ।
भुवि मांसाशनेन पतिताः तस्माद् न प्रयोजयेद् मांसम् ॥5॥
कहता लौकिक शास्त्र यही, पांडित्य का नाश ।
पतित मांस सेवन करे, खाएं ना हम काश ॥2.23.5.305॥
लौकिक शास्त्र में भी यह उल्लेख मिलता है कि माँसाहारी पंडित जो कि आकाश में विचरण करता था वो गिर कर पतित हो गया। अतएव माँस का सेवन नही करना चाहिये।
Scriptures of other religions have described that sages moving in air have fallen to the ground on eating meat; therefore meateating should be avoided. (305)
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मज्जेण णरो अवसो, कुणेइ कम्माणि णिंद-णिज्जाइं ।
इहलोए-परलोए, अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ॥6॥
मद्येन नरः अवशः करोति कर्माणि निन्दनीयानि ।
इहलोके परलोके अनुभवति अनन्तकं दुःखम् ॥6॥
मद्यपान जो जन करे, करता खोटे काम ।
लोक और परलोक में, सकल दुखों का धाम॥2.23.6.306॥
मदिरापान से मदहोश होकर मनुष्य निन्दनीय कर्म करता है और फलस्वरूप इस लोक तथा परलोक में अनन्त दुखों का अनुभव करता है।
A person loses control over himself by drinking intoxicating liquors and commits many censurable deeds. He experiences endless miseries both in this world and in the next. (306)
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संवेग-जणिय-करणा, णिस्सल्ला मंदरुव्व णिक्कंपा ।
जस्स दढा जिणभत्ती तस्स भयं णत्थि संसारे ॥7॥
संवेगजनितकरणा, निःशल्या मन्दर इव निष्कम्पा ।
यस्य दृढा जिनभक्तिः, तस्य भयं नास्ति संसारे ॥7॥
जग त्याग मन भाव रहे, हो मज़बूत विचार ।
दृढ़ जिनभक्ति मन बसे, हो भय बिनु संसार ॥2.23.7.307॥
जिसके मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने वाली मेरुपर्वत की तरह दृढ़ जिनभक्ति है उसे संसार में किसी तरह का भय नही।
A person who has firm devotion towards Jina like the steady mountain Meru, inclination for renunciation and is free from defects of character (salya) will have no fear in this world. (307)
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सत्तू वि मित्तभावं, जम्हा उवयाइ विणय-सोलस्स।
विणओ तिविहेण तओ, कायव्वो देस-विरएण ॥8॥
शत्रुः अपि मित्रभावम् यस्माद् उपयाति विनशीलस्य ।
विनयः त्रिविधेन ततः कर्तव्यः देशविरतेन ॥8॥
विनयशील जब व्यक्ति हो, शत्रु मित्र बन जाय ।
अणुव्रत श्रावक विनय रहे, मन वचन और काय ॥2.23.8.308॥
विनयशील व्यक्ति का शत्रु भी मित्र बन जाता है। इसलिये अणुव्रती श्रावक को मन–वचन–काय से सम्यक्तवादी गुणों की तथा गुणीजनों की विनय करना चाहिये।
Since even an enemy approaches a man of humility with friendliness, a house-holder must cultivate humility of three kinds: (in thought, speech and action). (308)
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पाणिवहमुसावाए, अदत्तपरदारनियमणेहिं च।
अपरिमिच्छाओऽवि, अणुव्वयाइं विरमणाइं ॥9॥
प्राणिवधमृषावादा-दत्तपरदारनियमनैश्च।
अपरिमितेच्छातोऽपि च, अणुव्रतानि विरमणानि ॥9॥
हिंसा चोरी झूठ हो, या पर-स्त्री से काम।
विरक्त परिग्रह से रहे, अणुव्रत श्रावक नाम ॥2.23.9.309॥
हिंसा, असत्य वचन, चोरी, परस्त्री गमन तथा असीमित कामना (परिग्रह) इन पाँचो पापों से विरति अणुव्रत है।
Injury to living beings (himsa), speaking falsehood, taking away a thing which is not given (theft), sexual enjoyment with other than one’s own wife and limitless desire for possession (parigraha)-abstinence from these acts are called (five) small vows. (309)
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बंध-वह-च्छवि-च्छेए, अइमारे भत्त-पाण-वुच्छेए।
कोहाइ-दूसिय-मणो, गो-मणुयाईण नो कुज्जा ॥10॥
बन्धवधछविच्छेदान् अतिभारान् भक्तपानव्युच्छेदान्।
क्रोधादिदूषितमनाः, गोमनुष्यादीनां न कुर्यात् ॥10॥
आश्रित चाकरपशु का, बंधन वद्य, अंगभंग॥
अतिभार अन्न निषेध ये, कलुषित मन का संग ॥2.23.10.310॥
हिंसा से विरक्त श्रावक को क्रोध आदि कषाय से मन को दूषित करके पशु व मनुष्य आदि का बंधन, ताड़न, पीड़न, छेदन, अधिक भार लादना, खान–पान आदि रोकने का कर्म नही करना चाहिये क्योंकि यह हिंसा ही है। इनका त्याग स्थूल हिंसा विरति है।
One should not tie, injure, mutilate, load heavy burdens and deprive from food and drink any animal or human being with a polluted mind by anger or other passions are the transgression (aticara) of the vow of Ahimsa. (310)
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थूल-मुसावायस्स उ विरई, दुच्चं स पंचहा होइ ।
क्न्न्-गो-भु-आलिय-नासहरण, कूडसक्खिज्जे ॥11॥
स्थूलमृषावादस्य तु, विरतिः द्वितीयं स पंचधा भवति ।
कन्यागोभूअलीक-न्यासहरण-कूटसाक्ष्याणि ॥11
दूजा व्रत असत्यविरति, पंचविध इसकी राह।
(न्यासहर) कन्या गौभू, विषयक झूठ गवाह॥2.23.11.311॥
असत्य से विरक्ति दूसरा अणुव्रत है। इसके भी पाँच भेद है। कन्या, पशु तथा भूमि के लिये झूठ बोलना, किसी की धरोहर को दबा लेना और झूठी गवाही देना। इनका त्याग स्थूल असत्य विरति है।
Refraining from major type of falsehood is the second vow; this major type of falsehood is of five kinds; speaking untruth about unmarried girls, animals and land, repudiating debts or pledges and giving false evidence. (311)
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सहसा अब्भक्खाणं रहसा य सदारमंतभेय च ।
मोसोवएसयं कूडलेहकरणं च वज्जिज्जा ॥12॥
सहसाभ्याख्यानं, रहसा च स्वदारमन्त्रभेदं च।
मृषोपदेशं कूटलेखकरणं च वर्जयेत् ॥12॥
बात बिना सोचे नहीं, नहीं रहस्य बताय ।
मिथ्या प्रवचन करे नहीं, छद्म न लेख लिखाय ॥2.23.12.312॥
सत्य–अणुव्रती बिना सोचे समझे न कोई बात करता है न किसी का राज उगलता है। न अपनी पत्नी की बात मित्रों को बताता है और नही मिथ्या उपदेश देता है और नही जाली हस्ताक्षर करता है।
making a false charge rashly (or without consideration), divulging any one’s secret, disclosing the secrets confided to by one’s own wife, giving false advice and preparation of a false document or writing these should be avoided. (312)
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वज्जिज्जा तेनाहड-तक्करजोगं विरुद्धरज्जं च ।
कूडतुल-कूडमाणं, तप्पडिरूवं च ववहारं ॥13॥
वर्जयेत् स्तेनाहृतं, तस्करयोगं विरुद्धराज्यं च।
कूट तुलाकूट माने तन्प्रतिरूपं च व्यवहारम् ॥13॥
साथ न चोरों, का करे, गैर राज-आचार ।
कूट तोल, खोटा नहीं, जाली ना व्यवहार ॥2.23.13.313॥
अचौर्य अणुव्रती चोरी का माल न ख़रीदे और न ही प्रेरक बने। टैक्स आदि की चोरी न करे और मिलावट न करे। जाली करेंसी न चलाये।
One should desist from: buying stolen property, inciting another to commit theft, avoiding the rules of government, use of false weights and measures adulteration and preparation to counterfeit coins and notes. (313)
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इत्तरिय-परिग्गहिया-परिगहियागमण णंगकीडं च ।
परविवाहक्करणं कामे, तिव्वाभिलासं च ॥14॥
इत्वरपरिगृहीता-ऽपरिगृहीतागमना-नङ्गक्रीडा च ।
पर (द्वितीय) विवहकरणं, कामे तीव्राभिलाषःच ॥14॥
पर-नारी से दूर रहे, अनंगक्रीडा त्याग।
पर विवाह में रुचि नहीं, नहीं काम से राग ॥2.23.14.314॥
ब्रह्मचर्य अणुव्रती को परायी स्त्रियों से सदा दूर रहना चाहिये। अनंग क्रीड़ा नही करनी चाहिये। अपनी संतान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह कराने में रुचि नही लेनी चाहिये। काम की तीव्र लालसा का त्याग करना चाहये।
A sravak-who has taken the partial vow of chastity should remain satisfied with his wife and keep himself completely away (aloof/indifferent/unconcerned) from other unmarried and married women. He should not indulge in unnatural sexual intercourse (Anaiya krida). (Further) he should not take interest in the marriages of persons, other than his own offsprings. He must renounce intense lust for sex. (314)
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विरयापरिग्गहाओ, अपरिमिआओअ गंततण्हाओ ।
बहुदोससंकुलाओ, नरयगइगमणपंथाओ ॥15॥
खित्ताइ-हिरन्नइ-धणाइ-दुपयाइ-कुवियगस्स तहा ।
सम्मं विसुद्ध-चित्तो न परमाणाइक्कामं कुज्जा ॥16॥
विरताः परिग्रहात्-अपरिमिताद्-अनन्ततृष्णात्।
बहुदोषसंकुलात्, नरकगतिगमनपथात् ॥15॥
क्षेत्रादेः हिरण्यादेः धनादेः द्विपदादेः कुप्यकस्य तथा ।
सम्यग्विशुद्धचित्तो, न प्रमाणातिक्रमं कुर्यात् ॥16॥
परिग्रह की सीमा करे, तृष्णा का यह बीज।
कारण भारी दोष का, देत नरक गति चीज़ ॥2.23.15.315॥
धातु खेत, घर, धन रहे, पशु वाहन भण्डार।
सम्यक श्रावक मन निर्मल, हद बाँधे व्यवहार ॥2.23.16.316॥
असीमित परिग्रह अनन्त तृष्णा का कारण है। नरकगति का मार्ग है। अतः परिग्रह–परिमाणाणुव्रती श्रावक को क्षेत्र, मकान, सोना–चाँदी, धन–धान्य, द्विपद–चतुष्पद आदि का एक सीमा से ़ज़्यादा परिग्रह नही करना चाहये।
Persons should refrain from accumulation of unlimited property due to unquenchable thirst (i.e. greed) as it becomes a pathway to hell and results in numerous faults. A righteous and pureminded person should not exceed the self-imposed limit in the acquisition of lands, gold, wealth, servants, cattle, vessels and pieces of furniture. (315 & 316)
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भाविज्ज य संतोसं, गहिय-मियाणिं अजाणमाणेणं ।
थोवं पुणो न एवं, गिह्ल्स्सिामो त्ति (न) चिंतज्जा ॥17॥
भावयेच्च सन्तोषं, गृहीतमिदानीमजानानेन।
स्तोकंपुनः न एवं, ग्रहीष्याम इति चिन्तयेत् ॥17॥
सदा भाव संतोष रहे, सीमा में सामान।
पुनःग्रहण का भाव नहीं, अपरिग्रह का भान॥2.23.17.317॥
उसे संतोष रखना चाहिये। उसे ऐसा विचार नहीं करना चाहिये कि अभी तो सीमा में परिग्रह करता हूँ बाद में अधिक ग्रहण कर लूँगा।
He should be contented. He should not think “I have fixed certain limits this time unknowingly; in future, I’ll again accept that in case of need.” (317)
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जं च दिसावेरमणं, अणत्थदंडेंहिं जं च वेरमणं।
देसावगासियंपि य, गुणव्वयाइं भवे ताइं ॥18॥
यच्च दिग्विरमणं, अनर्थदण्डात् यच्च विरमणम् ।
देशावकाशिकमपि च, गुणव्रतानि भवेयुस्तानि ॥18॥
दिशा गमन सीमित रहे, व्यर्थ-दंड का त्याग ।
सीमित गमन विदेश भी, त्रय गुणव्रत हो राग ॥2.23.18.318॥
श्रावक के सात शील व्रतों में ये तीन गुणव्रत होते हैं। दिशाविरति, अनर्थदण्डविरति तथा देशावकाशिक।
The three supplementary vows (Gunavritas) that are included in the seven disciplinary vows (Shilavritas) are :- 1. Limitations regarding movements in various directions. 2. Limitations regarding unnecessary performances; 3. Limitations regarding movements in different territories. (318)
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उड्ढमहे तिरियं पि य दिससासु परिमाण-करण-मिह पढमं ।
भणियं गुणव्वयं खलु, सावगणम्मम्मि वीरेण ॥19॥
ऊर्ध्वमधस्तिर्यगपि च, दिक्षु परिमाणकरणमिह प्रथमम् ।
भणितं गुणव्रतं खलु, श्रावकधर्मे वीरेण ॥19॥
दिशाओं का परिसीमन, पहली सीमा जान।
गुणव्रत ये है सर्व प्रथम, श्रावक धर्म निशान ॥2.23.19.319॥
व्यापार आदि के क्षेत्र की सीमा करते हुए ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशाओं में गमनागमन की सीमा बाँधना प्रथम दिग्व्रत नामक गुणव्रत है।
Lord Mahavira has said that the first Gunavrata in the religion of a householder is digvrata, accoring to which one should limit his activities (for the purpose of business and enjoyment of the senses, etc.) to certain regional boundaries in the upward, lower and oblique direction. (319)
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वय-भंग-कारणं होइ, जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण।
क्ीरइ गमण-णियत्ती, तं जाण गुणव्वंय विदियं ॥20॥
व्रतभङ्गकारणं भवति, यस्मिन् देशे तत्र नियमेन।
क्रियते गमननिवृत्तिः, तद् जानीहि गुणव्रतं द्वितीयम् ॥20॥
कारण जो व्रत भंग बने, देश नहीं प्रस्थान।
देश अवकाश व्रत यही, दूजा गुणव्रत जान ॥2.23.20.320॥
जिस देश में जाने से किसी भी व्रत का भंग होता हो या उसमे दोष लगता हो, उस देश में जाने की नियमपूर्वक निवृत्ति देशावकाशिक नामक दूसरा गुणव्रत है।
Know that the second Gunavrata (desavakasika gunavrata) is not to visit any particular geographical region where there is possibility of violation of an accepted vow (i. e. to cross the fixedregional boundaries for the purpose of sensuous enjoyment). (320)
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विरई अणत्थदंडे, तच्चं स चउव्विहो अवज्झाणो।
पमायायरिय हिंसप्पयाण, पावोवएसे य ॥21॥
विरतिरनर्थदण्डे, तृतीयं, स चतुर्विधः अपध्यानम् ।
प्रमादाचरितम् हिंसाप्रदानम् पापोपदेशश्च ॥21॥
कष्ट अकारण दे नहीं, अनर्थ दण्ड है चार।
सोच बुरी प्रमाद चर्या, शस्त्र ये पाप प्रचार ॥2.23.21.321॥
बिना किसी उद्देश्य से कार्य करना व किसी को सताना अनर्थ दण्ड कहलाता है। इसके चार भेद है। अपध्यान, प्रमादपूर्ण चर्या, हिंसा के उपकरण देना और पाप का उपदेश। इन चारों का त्याग अनर्थदण्डविरति नामक तीसरा गुणव्रत है।
The third gunavrata consists in refraining from a futile violent act which might be one of the fourtypes, viz. (1) entertaining evil thought, (2) negligent behaviour, (3) lending to someone an instrument of violence and (4) advising someone to commit a sinful act. (321)
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अट्ठेण तं न बंधइ, जमणट्ठेणं तु थेव-बुहभावा।
अट्ठे कालाईया नियागमा न उ अणट्ठाए ॥22॥
अर्थेन तत्नबध्वाति, यदनर्थेन स्तोकबहुभावात्।
अर्थे कालादिकाः, नियामकाः न त्वनर्थके ॥22॥
अर्थ कर्म हो बंधन कम, कर्म निरर्थक पाप।
काल आदि से लक्ष्य मिले, बिना प्रयोजन ताप ॥2.23.22.322॥
प्रयोजनवश कार्य में अल्प कर्म बंध होता है और बिना प्रयोजन कार्य में अधिक कर्म बंधन होता है।
The association of karmas (karmi particles) to soul, in case of purposeful activities, is (Comparatively) less than that in case of purposeless activity. (322)
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कंदप्पं कुक्कुइयं मोहरियं संजुयाहि गरणं च।
उवभोग-परीभोगा-इरेयगयं चित्थ वज्जइ ॥23॥
कान्दर्प्यम् कौत्कुच्यं, मौखर्यं संयुक्ताधिकरणं च ।
उपभोगपरिभोगा-तिरेकगतं चात्र वर्जयेत्॥23॥
अशिष्टवचन कुचेष्टा, शस्त्रग्रह ना राज्य।
भोगादि सीमन में अति,यहाँ सर्वथा त्याज्य ॥2.23.23.323॥
अनर्थदण्डविरत श्रावक को अशिष्ट वचन, शारीरिक कुचेष्टा, व्यर्थ बकवास, हिंसा के अधिकरणों का संयोजन तथा उपभोग की मर्यादा का अतिरेक नही करना चाहिये।
ASravak, who has taken the partial vow of Anartha-dand-virati, should not violated the limits of enjoyment and re-enjoyment of consumable and nonconsumable things. He should not collect and make the instruments of violence available. Such a sravak should also neither cut joke another (kandarp); nor gesticulate and do mischievous; nor gossip (monkharya) or be garrulous.(323)
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भोगणं परिसंखा, सामाइय-मतिहि संविभागो य ।
पेसहविहि य सव्वो चदुरो सिक्खाउ वुत्ताओ ॥24॥
भोगानां परिसंख्या, सामायिकम् अतिथिसंविभागश्च ।
पौषधविधिश्च सर्वः, चतस्रः शिक्षा उक्ताः ॥24॥
भोग-सीमा,सामायिक अतिथि सेवा विचार।
प्रबोध का उपवास कर, शिक्षाव्रत ये चार ॥2.23.24.324॥
चार शिक्षाव्रत इस प्रकार है। भोगों का परिमाण, सामायिक, अतिथि संविभाग और प्रोषधोपवास।
Setting limit to the consumable and unconsumable objects of sensuous enjoyment, practising the mental equanimity (Samayika), offering food etc. to the monks, guests and other needy persons and performing fast along with the religious set called pausadha, all these are known as four disciplinary vows. (324)
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वज्जणमणंगुंबरि, अच्चंगाणं च भोगओ माणं।
कम्मयओ खरकम्मा-इयाण अवरं इमं भणियं ॥25॥
वर्जनमनन्तकमुदम्बरि-अत्यङ्गानां च भोगतो मानम्।
कर्मकतः खरकर्मादिानां अपरम् इदं भणितम् ॥25॥
माँस उदुम्बरू वनस्पति, परिमाण आहार।
हिंसा से अर्जन नहीं, परिमाण व्यापार ॥2.23.25.325॥
भोगोपभोग परिमाण व्रत दो प्रकार का है। भोजनरूप और व्यापाररूप। वनस्पति, फल, मद्य, माँस आदि का त्याग भोजनरूप परिमाण व्रत है और आजीविका में हिंसा का त्याग व्यापाररूप परिमाण व्रत है।
The first disciplinary vow (i. e. bhogapabhoga viramana) is of two types, viz., that in respect of enjoyment and that in respect of occupation. The former consists in refrainment from eating the infinite souled vegetables (i.e. bulbous roots), fruit containing microscopic organism which are called udumbaras and flesh etc., the second is refrainment from such trades and industries which involves violence and other sinful acts. (325)
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सावज्जजोगं परिरक्खणट्ठा, सामाइयं केवलियं पसत्थं।
गिहत्थ-धम्मा परमं ति नच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्था ॥26॥
सावद्ययोगपरिरक्षणार्थं, सामायिकं केवलिकं प्रशस्तम् ।
गृहस्थधर्मात् परममिति ज्ञात्वा, कुर्याद्बुध आत्महितं परत्र ॥26॥
पापों से रक्षा हेतु, सामायिक है प्रशस्त।
आत्महित हेतु यही सुधी गृही को रास्त॥2.23.26.326॥
हिंसा आरम्भ से बचने के लिये सामायिक व्रत उत्तम है। विद्वान श्रावक को आत्महित तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये सामायिक करनी चाहिये।
Aimed at refrainment from sinful acts, the only auspicious religious act is samayika. Hence considering it to be something superior to a householder’s ordinary acts, an intelligent person ought to perform samayika for the sake of one’s own welfare. (326)
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सामाइयम्मि उ कए,द समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥27॥
सामायिके तु कृते, श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात् ।
एतेन कारणेन, बहुशः सामायिक कुर्यात् ॥27॥
सामायिक के समय मे, श्रमण संत आचार।
श्रावक सामायिक रहे, इसलिये हर बार॥2.23.27.327॥
सामायिक काल में श्रावक भी श्रमण की तरह हो जाता है इसलिये श्रावक को नियमपूर्वक सामायिक करनी चाहिये ।
While observing the vow of Samayika (i. e., refraining from sinful acts and practice for mental equanimity) a householder becomes equal to a saint; for reason, he should observe it many times (in a day). (327)
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सामाइयं ति काउं, परचिंतं जो ए चिंतइ सड्ढो ।
अट्टवसट्टोवगओ, निरत्थयं तस्स सामाइयं ॥28॥
सामायिकमिति कृत्वा, परचिन्तां यस्तु चिन्तयति ।
आर्तवशार्तोपगतः, निरर्थक तस्य सामायिकम् ॥28॥
परचिन्ता सामायिक में, श्रावक मनोविचार।
ध्यान बाहर में रहे, नहीं सामायिक तार ॥2.23.28.328॥
सामायिक करते समय जो श्रावक पर–चिन्ता करता है उसकी सामायिक निर्रथक है।
If a householder thinks of other worldly matters (than his self) while practising samayika, he will become engrossed in distressful concentration; his samayika will be fruitless. (328)
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आहार देहसक्कार-बंभाऽवावारपोसहो य णं।
देसे सव्वे य इमं, चरमे सामइयं णियमा ॥29॥
आहारदेहसत्कार-ब्रह्मचर्यमव्यापारोषधः च।
देशेसर्वस्मिन्च इदं’ चरमे सामायिकं नियमात् ॥29॥
अन्न दैहिक ब्रह्म -नहीं, कर्म त्याग व्रत चार।
सामायिक हो नियम से, प्रोषध पूर्ण विचार ॥2.23.29.329॥
आहार, शरीर संस्कार, अब्रह्म तथा आरम्भ त्याग ये चार बातें प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत में आती है। जो सम्पूर्ण प्रोषध करता है उसे नियमितः सामायिक करनी चाहिये।
Posadhopavas involves abstinence from food, from embellishment of the body, from sexual union and from violence. It is of two types, viz., partial and total and performing posadha of the latter type one must necessarily perform samayika. (329)
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अन्नइणं सुद्धाणं, कप्पणिज्जाण देसकालजुत्तं।
दाणं जईणमुचियं, गिहीण सिक्खावयं भणियं ॥30॥
अन्नादीनां शुद्धानां,कल्पनीयानां देशकालयुतम् ।
दानं यतिभ्यः उचितं, गृहिणां शिक्षाव्रतं भणितम् ॥30॥
अन्न दान हो शुद्ध रूप से, देश काल अनुसार।
दान यही समझे उचित, गृहस्थ शिक्षा सार ॥2.23.30.330॥
उद्गम आदि दोषों से रहित, देश व काल के अनुकूल, शुद्ध अन्न आदि का उचित रीति से मुनि आदि संयमियों को दान देना गृहस्थ का अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है।
Ahouseholder who offers pure food etc. to the monks in a proper manner and according to the rules and the needs of place and time, observes the fourth disciplinary vow (called Atithisamvibhaga). (330)
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आहारो-सह-सत्था-भय-भेओ जं चउव्विहं दाणं ।
तं वुच्चइ दयव्वं, णिद्दिट्ठ-मुवासय-ज्झयणे ॥31॥
अहारौषध-शास्त्रानुभयभेदात् यत् चतुर्विधम् दानम् ।
तद् उच्यते दातव्यं निर्दिष्टम् उपासक-अध्ययने ॥31॥
अन्न व औषध, शास्त्र, अभय, दान चार प्रकार।
देने योग्य दान ये, श्रावक के आचार॥2.23.31.331॥
श्रावक के आचार में देने योग्य चार प्रकार के दान कहे गये है। आहार, औषध, शास्त्र व अभय ।
Charity (Dana) is of four kinds:- 1. Food; 2. Medicine; 3. Books; and 4. Amnesty (assurance of protection or safety). According to the code of conduct of a sravak all the four are worth giving. (331)
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दाणंभोयणमेत्तं दिण्णइ धण्णो हवेइ सायारो।
पत्तापत्त-विसेसं संदंसणे किं वियारेण ॥32॥
दान भोजनमात्रं, दीयते धन्यो भवति सागारः।
पात्रापात्रविशेषसंदर्शने किं विचारेण ॥32॥
भोजन दान से धन्य हो, भव सागर हो पार।
पात्र उचित या हो नहीं, करना नहीं विचार ॥2.23.32.332॥
भोजनमात्र का दान करने से भी गृहस्थ धन्य होता है। इसमें पात्र और अपात्र का विचार करने से क्या लाभ।
A householder, who gives food in charity becomes praiseworthy, what is the good of inquiring about the fitness or unfitness of the person receiving the charity? (332)
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साहूणं कप्पणिज्जं, जं न वि दिण्णं कहिं पि कंचि तहिं।
धीरा जहुत्तकारी, सुसावया तं न भुंजंति ॥33॥
साधूनां कल्पनीयं, यद् नापि दत्तं कुत्रापि किंचित् तत्र।
धीराः यथोक्तकारिणः, सुश्रावकाः तद् न भुञ्जते ॥33॥
साधु के अनुकूल जहाँ, ना थोड़ा भी दान।
धीर त्यागी श्रावक का, नहीं भोज का स्थान ॥2.23.33.333॥
जिस घर में साधुओं के अनुकूल दान नही दिया जाता, उस घर में शास्त्रोक्त आचरण करने वाले त्यागी श्रावक भोजन नही करते।
The pious householders who are prudent and have good conduct as per scriptures, do not take food in a house where no charity of any kind is given to a monk. (333)
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जो मुनि-भुत्त-वसेसं, भुंजइ सो भुंजइ जिणुवदिट्ठ।
स्ंसार-सार-सोक्खं, कमसो णिव्वाण-वर-सोक्खं ॥34॥
यो मुनिभुक्तविशेषं, भुङ्क्ते स भुङ्क्ते जिनोपदिष्टम् ।
संसारसारसौख्यं, क्रमशो निर्वाणवरसौख्यम् ॥34॥
मुनि पश्चात भोजन करे, पाये सुख संसार।
जिनदेव कहे क्रमशः, हो भव सागर पार ॥2.23.34.334॥
जो गृहस्थ मुनि को भोजन कराने के पश्चात भोजन करता है, वास्तव में उसी का भोजन करना सार्थक है। वह मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है।
He, who eats which is left after a monk has taken food, enjoys the best worldly happiness and will gradually obtain the bliss of emancipation. This is the preaching of the Jina. (334)
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जं कीरइ परि-रक्खा, णिच्चं मरण-भय-भीरु-जीवाणं ।
तं जाण अभय-दाणं, सिंहामणिं सव्व-दाणाणं ॥35॥
यत् क्रियते परिरक्षा, नित्यं मरणभयभरुजीवानाम् ।
तद् जानीहि अभयदानम्, शिखामणि सर्वदानानाम् ॥27॥
भय से जीव की रक्षा, होय अभय का दान।
अभय दान श्रेष्ठ है, सब दान में महान॥2.23.35.335॥
मृत्यु भय से जीवों की रक्षा करना अभय दान है। यह दान सब दानों का शिरोमणि है।
Know that giving protection always to living beings who are in fear of death is known as abhayadana, supreme amongst all charities. (335)
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