२०. सम्यक्चारित्रसूत्र
ववहार–णय–चरित्ते, ववहार–णयस्य होदि तवचरणं ।
णिच्छय–णय–चारित्ते, तवचरणं होदि णिच्छयदो ॥1॥
व्यवहारनयचरित्रे, व्यवहारनयस्य भवति तपश्चरणम्।
निश्चयनयचारित्रे, तपश्चरणं भवति निश्चयतः ॥1॥
व्यवहारनय चारित्र में, तपश्चरण व्यवहार ।
निश्चयनय चारित्र्य में, निश्चय तप आचार ॥2.20.1.262॥
व्यवहारनय के चारित्र में व्यवहारनय का तपश्चरण होता है। निश्चयनय के चारित्र में निश्चयनय का तपश्चरण होता है।
Right Conduct from the practical view-point is to practice austerities from practical view point. Right Conduct from the real view-point is to observe austerities from the real view-point. (262)
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असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ।
वद–समिदि–गुत्ति–रूवं, ववहारणया दु जिणभणियं ॥2॥
अशंभाद्विनिवृत्तिः, शुभे प्रवृत्तिश्च जानीहि चारित्रम् ।
व्रतसमितिगुप्तिरूपं, व्यवहारनयात् तु ज्जिनभणितम् ॥2॥
छोड़ अशुभ, शुभ में गमन, चरित्र हो व्यवहार।
व्रत, समिति, गुप्ति रूप हो, ये जिनदेव विचार ॥2.20.2.263॥
अशुभ को छोड़ना व शुभ को अपनाना ही व्यवहारचारित्र है। जो पाँच व्रत, पाँच समिति व तीन गुप्ति के रूप में जिनदेव द्वारा बताई गई है।
Know that Right Conduct consists in desisting from inauspicious activity and engaging in auspicious activity. Jina has ordained that conduct from the practical point of view consists in the observance of 5 vows, 5 acts of carefulness (Samiti) and control of 3 gupti. (263)
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सुयनाणम्मि वि जीवो, वट्टंतो सो न पाउणति मोक्खं ।
जे तव संजम–मइए, जोगे न चएइ वोढं जे ॥3॥
श्रुतज्ञानेऽपि जीवो, वर्तमानःस स न प्राप्नोति मोक्षम् ।
यस्तपः संयममयान् योगान् न शक्नोति वोढुम् ॥3॥
मगन जीव श्रुतज्ञान में, नहीं मोक्ष हक़दार ।
तप संयम बिन योग के, खुले मुक्ति का द्वार ॥2.20.3.264॥
श्रुतज्ञान जानने वाला जीव भी यदि तप-संयम को धारण करने में असमर्थ हो तो मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ।
A person, even possessing scriptural knowledge will not attain emancipation if he is not able to observe strictly the activities of austerity and self-control. (264)
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सक्किरिया–विरहादो, इच्छि–संपावयं ण नाणं ति ।
मग्गण्णू वाऽचेट्ठो, वातविहीणोऽधवा पोतो ॥4॥
सत्क्रियाविरहात् ईप्सित संप्रापकं न ज्ञानमिति।
मार्गज्ञो वाऽचेष्टो, वातविहीनोऽथवा पोतः ॥4॥
बिना कर्म के लक्ष्य नहीं, कितना भी हो ज्ञान ।
यदि न हो अनुकूल हवा, लगे न तट जलयान ॥2.20.4.265॥
सत्क्रिया से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं करा सकता। जैसे मार्ग का जानकार व्यक्ति प्रयत्न न करे तो गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकता अथवा अनुकूल वायु के अभाव में जलयान इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता।
Though a person knows the right path yet fails to reach his destination due to inaction or absence of favourable wind for his boat; similarly knowledge will not achieve the desired fruit in the absence of virtuous deeds. (265)
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सुबहुं पि सुय–महियं किं काहिइ चरण–विप्प–हीणस्स ।
अंधस्स जह पलित्ता, दीव–सय–सहस्स–कोडी वि ॥5॥
सुबह्वपि श्रुतमधीतं, किं करिष्यति चरणविप्रहीणस्य ।
अन्धस्य यथा प्रदीप्ता, दीपशतसहस्रकोटिरपि ॥5॥
चरित्रहीन के हैं सभी, शास्त्र ज्ञान बेकार ।
ज्यूँ अंधे के सामने, जलते दीप हज़ार ॥2.20.5.266॥
चारित्र शून्य व्यक्ति का विपुल शास्त्र अध्ययन व्यर्थ है जैसे अन्धे के आगे करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है।
Just as a hundredthousand-crore of lamps kept burning are of no use to a blind person, of what use is study of numerous scriptures to a person who has no character? (266)
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थोवह्मि सिक्खिंदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्त–संपुण्णो ।
जो पुण चरित्त–हीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण ॥6॥
स्तोके शिक्षिते जयति, बहुश्रुतं यश्चरित्रसम्पूर्णः ।
यः पुनश्चारित्रहीनः, किं तस्य श्रुतेन बहुकेन ॥6॥
अल्प ज्ञान भी है बहुत, हो जो चरित्रवान ।
चरित्रहीन निष्फल रहे, भले अधिक हो ज्ञान ॥2.20.6.267॥
चारित्र सम्पन्न का अल्प ज्ञान भी बहुत है और चारित्रविहीन का बहुत ज्ञान भी बेकार है।
Aperson of right conduct triumphs over a learned person, even if his scriptural knowledge is little; what is the use of wide study of scriptures for a person without right conduct? (267)
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णिच्छय–णयस्स एवं, अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो ।
से होदि हु सुरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥7॥
निश्चयनयस्य एवं, आत्मा आत्मनि आत्मने सुरतः ।
सः भवति खलु सुचरित्रः, योगी सः लभते निर्वाणम् ॥7॥
आत्मा में तन्मय रहे, निश्चयनयानुसार ।
योगी चरित्रशील को, मिले मोक्ष का द्वार ॥2.20.7.268॥
निश्चयनय के अनुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिये तन्मय होना ही सम्यक्चरित्र है। ऐसे चारित्रशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है।
From the real point of view, he, who is blissfully absorbed in his own soul to know his soul with the aid of his soul, becomes a person of Right Conduct; that ascetic attains emancipation. (268)
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जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणई पुण्ण–पावाणं ।
तं चाचरित्तं भणियं, अवियप्पं कम्म–रहिएण ॥8॥
यद् ज्ञात्वा योगी, परिहारं करोति पुण्यपापानाम् ।
तत् चारित्रं भणितम्, अविकल्पं कर्मरहितैः ॥8॥
जिसे जान योगी करे, पाप–पुण्य परिहार ।
वही चरित सम्पूर्ण है, कर्मरहित व्यवहार ॥2.20.8.269॥
जिसे जानकर योगी पाप व पुण्य दोनों का परिहार कर देता है, उसे ही कर्मरहित निर्विकल्प चारित्र कहा गया है।
An ascetic who eradicates his punya Karmas (merits) as well his Papa Karmas (sins) undoubtedly acquires right conduct-this is said by those who are free from Karmas (i.e. the Jinas). (269)
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जो परदव्वम्मि सुहं, असुहं रागेण कुणादि जदि भावं ।
सो सग–चरिय–भट्ठो, पर–चरिय–चयो हवदि जीवो ॥9॥
यः परद्रव्येशुभमशुभं, रागेण करोति यदि भावम्।
स स्वकचरित्रभ्र, परचरितचरो भवति जीवः ॥9॥
शुभ–अशुभ परद्रव्य के, रहे राग का भाव।
भटक गया स्वचरित्र से परवश जीव स्वभाव ॥2.20.9.270॥
जो राग के वशीभूत होकर पर-द्रव्यों में शुभ-अशुभ भाव रखता है वह जीव स्वकीय चारित्र से भ्रष्ट परचरिताचारी होता है।
The imperfect soul, which develops good and bad thought natures (shubha-ashubha Bhavya) in objects, other than self (in non selves/par-dravya), falls from his real-conduct (Svakiyachartra) and become a prey to unreal (wrong) conduct (parcharitachari). (270)
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जो सव्व–संग मुक्को–णण्णमणो अप्पणं सहावेण।
जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो ॥10॥
यः सर्वसंगमुक्तः, अनन्यमनाः आत्मानं स्वभावेन ।
जानाति पश्यति नियतं, सः स्वकचरितं चरति जीवः ॥10॥
मुक्त सभी से खुद में मस्त, आत्मा में ही भाव।
जाने देखे यह सदा, स्वकीय चरित स्वभाव ॥2.20.10.271॥
जो परिग्रह मुक्त तथा अनन्यमन होकर आत्मा को ज्ञानदर्शनमय स्वभावरूप जानता-देखता है, वह जीव स्वकीयचरिताचारी है।
He, who devoid of all attachment and withdrawing one’s mind from everything else, definitely knows and sees one’s soul in its own true nature, practises what constitutes one’s own conduct
(i.e. Svabhava). (271)
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परमट्ठम्मि दु अठिदो, जो कुणादि तवं वदं च धारयदि ।
तं सव्वं बाल–तवं बाल–वंद विंति सव्वण्हू ॥11॥
परमार्थे त्वस्थितः, यः करोति तपो व्रतं च धारयति ।
तत् सर्व बालतपो, बालव्रतंब्रुवन्ति सर्वज्ञाः ॥11॥
परम अर्थ में थिर नहीं, तप–व्रत हो आचार।
बाल तप और बाल व्रत, यह सर्वज्ञ विचार॥2.20.11.272॥
जो परम अर्थ में स्थित नहीं है उसके तपश्चरण या व्रताचरण को जिनदेव ने बालतप या बालव्रत कहा है।
If one performs austerities (tapas) or observes vows (vratas) without fixed contemplation on the Supreme Self, the omniscients call all that childish austerity (balatapa) and childish vow (balavrata). (272)
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मोस मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु भुंजए ।
न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं ॥12॥
मासे मासे तु यो बलः, कुशाग्रेण तु भुङ्क्ते।
नस स्वाख्यातधर्मस्य, कलामर्घति षोडशीम् ॥12॥
मास मास के व्रत करे, परम शून्य अज्ञान ।
कला सोलहवीं धर्म की, कभी न सकता न जान ॥2.20.12.273॥
परमअर्थ शून्य अज्ञानी मास मास के तप करके भी सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता।
Such child (the ignorant saint with out real conduct) who fasts for months together and who in the end of his fast takes very little food (may be of the size of the fore part of a blade of grass)
can not attain the sixteenth digit (part of the diameter) of the moon of the dharma (Dharma ki solahvinkala). (273)
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चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जों सो समोत्ति णिद्दिट्ठो ।
मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥13॥
चारित्रं खलु धर्मो, धर्मो यः स समः इति निर्दिष्टः।
मोहक्षोभविहीनः, परिणाम आत्मनो हि समः ॥13॥
सच्चा धरम चरित्र ही, समता रूप समान ।
मोह–क्षोभ से हीन यह, सम आत्मा पहचान ॥2.20.13.274॥
वास्तव में चारित्र ही धर्म है। इस धर्म को समतारूप कहा गया है। मोह व क्षोभ से रहित आत्मा का निर्मल परिणाम ही समतारूप है।
Right Conduct is really what constitutes religion; it is said that religion is equanimity. Equanimity is that condition of the soul which is free from delusion and excitement. (274)
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समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं ।
तह चारित्तं धम्मो, सहावआराहणा भणिया ॥14॥
समता तथा माध्यस्थ्यं, शुद्धो भावश्च वीतरागत्वम् ।
तथा चारित्र धर्मः, स्वभावाराधना भणिता ॥14॥
माध्यस्थ या पथ–समता, शुद्ध भाव, वीतराग।
धरम, चरित्र, स्वभाव कहो, सब है एक ही राग ॥2.20.14.275॥
समता, माध्यस्थ भाव, शुद्ध भाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्व-भाव आराधना ये सब शब्द एकार्थक हैं।
Equanimity, tolerance, pure-thought, freedom from attachment and hatred, Right conduct, religion, devotion to one’s own self, all of these are said to be one and same. (275)
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सुविदिद–पदस्थ–सुत्तो, संजम–तव–संजुदो विगदरागो ।
समणो सम–सुह–दुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ॥15॥
सुविदितपदार्थसूत्रः, संयमतपःसंयुतो विगतरागः ।
श्रमणः समसुखदुःखो, भणितः शुद्धोपयोग इति ॥15॥
संयम तप वीतराग है, सूत्र पदार्थ ज्ञान।
सुख–दुख में सम भाव है, शुद्धोपयोगी जान ॥2.20.15.276॥
जिसने तत्त्वसूत्र को भलीभांति जान लिया है, संयम और तप से युक्त है, सुख-दुख में समभाव रखता है उसी श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा जाता है।
That saint (sramana) is called shuddhyopyaogi (one with pure consciousness) – who is well versed in essential elements (padartha) and aphorisms (sutra/precepts/principles); well equipped with restraints and austerities, free from attachment (vigata-rag); and equanimous. (276)
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सुद्धस्स य सामण्णं, भणियं, सुद्धस्स दंसणं णाणं।
सुद्धस्स य णिव्वाणं, सो च्चियं सिद्धो णमो तस्स ॥16॥
शुद्धस्स च श्रामण्यं, भणितं शुद्धस्य दर्शनं ज्ञानम्।
शुद्धस्य च निर्वाणं, स एव सिद्धो नमस्तस्मै ॥16॥
श्रामण्य उपयोग शुद्ध, वो हीदर्शन ज्ञान।
शुद्ध का ही निर्वाण सदा, नमन सिद्धपद जान ॥2.20.16.277॥
ऐसे शुद्धोपयोग को ही श्रामण्य कहा गया है। उसी का दर्शन और ज्ञान कहा गया है। उसी के निर्वाण होता है। वही सिद्धपद प्राप्त करता है। उसे मैं नमन करता हूँ।
Purity of faith and knowledge constitutes pure asceticism. Such pure soul attains liberation. He is the Siddha; to him, I pay my obeisance. (277)
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अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं।
अव्क्युच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ॥17॥
अतिशयमात्मसमुत्थं, विषयातीतमनुपममनन्तम्।
अव्युच्छिन्नं च सुखं, शुद्धोपयोगप्रसिद्धानाम् ॥17॥
अति आत्मसुख विषयरहित, अनंत अनुपम योग।
अविनाशी सुख तब मिले, सिद्ध शुद्ध उपयोग॥2.20.17.278॥
शुद्धोपयोग से सिद्ध होने वाली आत्माओं को अतिशय, आत्मेत्पन्न, अतीन्द्रिय, अनुपम, अनन्त और अविनाशी सुख है।
The bliss of a liberated soul (Siddha), characterised by purity of consciousness, is born of the excellence of his soul, is beyond the reach of senses, is incomparable, inexhaustible, and indivisible. (278)
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जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु।
णाऽऽसवदि सुहं असुहं, समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥18॥
यस्य न विद्यते रागो, द्वेषो मोहो ववा सर्वद्रव्येषु।
नाऽऽस्रवति शुभमशुभं, समसुखदुःखस्य भिक्षो ॥18॥
किसी द्रव्य से मोह नहीं, राग द्वेष ना भाव।
शुभ अशुभ से बँधे नहीं, सुख–दुःख एक स्वभाव ॥2.20.18.279॥
जिसका समस्त द्रव्यों के प्रति राग, द्वेष और मोह नहीं है तथा जो सुख-दुख में समभाव रहता है, उस भिक्षु के शुभ-अशुभ कर्मों का फल (आस्रव) नहीं होता।
The monk who harbours on attachment, aversion or delusion in respect of anything whatsoever and who maintains equanimity of mind in pleasures and pains, does not cause an inflow of good
or evil Karmas. (279)
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णिच्छय सज्झसरूवं सराय तस्सेव साहणं चरणं ।
तम्हा दो वि य कमसो पडिज्ज(च्छ)माणं पवुज्झेह ॥19॥
निश्चयः साध्यस्वरूपः, सरागं तस्यैव साधनं चरणम् ।
तस्मात् द्वे अपि च क्रमशः, प्रतीष्यमाणं प्रबुध्यध्वम् ॥19॥
निश्चय साध्य स्वरूप है, साधन है व्यवहार।
क्रम से धारण जो करे, जीव प्रबुद्ध विचार ॥2.20.19.280॥
व्यवहारचारित्र साधन है और निश्चयचारित्र साध्य है। दोनों को क्रमपूर्वक धारण करने पर जीव प्रबोध को प्राप्त होता है
The real conduct is the end (to be achieved) and the practical conduct is the means (to achieve that end). The practical conduct and the Real conduct when followed serially, yield/give enlightenment of soul. (280)
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अब्भंतर–सोधीण, बहिरसोधी वि होदि णियमेण।
अब्भंतर–दोसेण हु, कुणदि णरो बाहिरे दोसे ॥20॥
अभ्यन्तरशुद्ध्या, बाह्यशुद्धिरपि भवतिनियमेन ।
अभ्यन्तरदोषेण हि, करोति नरः बाह्यान् दोषान् ॥20॥
अंतर्मन जब शुद्ध रहे, बाह्य कर्म निर्दोष।
अंतर में जब दोष हो, करता बाहर दोष ॥2.20.20.281॥
अन्तर शुद्धि होने पर बाह्य शुद्धि होती ही है। आभ्यन्तर दोष से ही जीव बाह्य दोष करता है।
Invariable, internal impurity results in external impurity; due to his internal impurities man commits external blemishes. (281)
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मद–माण–माय–च लोह विवज्ज्यि–भावो दु भाव–सुद्धि त्ति।
परिकहियं भव्वाणं, लोया–लोय–प्पदरिसीहिं ॥21॥
मदमानमायालोभ–विवर्जितभावस्तु भावशुद्धिरिति।
परिकथितं भव्यानां लोकलोकप्रदर्शिभिः ॥21॥
मान व माया लोभ मद, मिटे शुद्ध हो जान ।
जीवों को उपदेश है, सर्वज्ञ देव का ज्ञान ॥2.20.21.282॥
जिनदेव का उपदेश है कि मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है।
Those who have seen and known this world and the other (i.e. the Omniscient Arhats) have preached to all (who are capable of getting release from the Karmas) that purity of mind can be achieved by those who free themselves from lust, conceit, delusion and greed. (282)
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चत उता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्मि।
ण जहदि जदि मोहादि, ण लहदि सो अप्पणं सुद्धं ॥22॥
त्यक्त्वा पापारंम्भं, समुत्थितो वा शुभे चरिते।
न जहाति यदि मोहादीन् न लभते स आत्मकं शुद्धम् ॥22॥
पाप प्रवृत्ति त्यागकर, शुभ चरित्र को पाय।
मोहादि का त्याग नहीं, आत्मशुद्धि क्यों पाय?॥2.20.22.283॥
पाप प्रवृत्ति को त्याग कर व्यवहार चारित्र में आरुढ़ रहने पर भी यदि जीव मोह भाव से मुक्त नहीं होता है तो शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।
He who has acquired auspicious conduct after renouncing all sinful activities, cannot obtain purity of his soul, if he has not freed himself from delusion. (283)
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जह व णिरुद्धं असुहं, सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण ।
तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णियआदं ॥23॥
यथैव निरुद्धम् अशुभं, शुभेन शुभमपि तथैव शुद्धेन ।
तस्मादनेन क्रमेण च, योगी ध्यायतु निजात्मानम् ॥23॥
शुभ कर्मों से अशुभ रुके, शुद्ध से शुभम निरोध।
शुभो–शुद्ध क्रमशः करे, निज आत्मा का बोध ॥2.20.23.284॥
शुभ चारित्र से अशुभ का निरोध किया जाता है व शुद्ध चारित्र से शुभ का निरोध किया जाता है। व्यवहार और निश्चय के पूरेवापर क्रम से योगी आत्मा का ध्यान करे। ।
Just as inauspicious thoughts are obstructed by auspicious conduct, auspicious conduct by pure conduct; hence performing these (latter two types of act) one after another let a yogi meditate on his own soul. (284)
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निच्छयनयस्स चरणाय–विघाए नाणदंसणवहोऽवि ।
ववहारस्स उ चरणे, हयम्मि भयणा हु सेसाणं ॥24॥
निश्चयनयस्य चरणात्म–विघाते ज्ञानदर्शनवधोऽपि ।
व्यवहारस्यतु चरणे, हते भजना खलु शेषयोः ॥24॥
निश्चयनय चरित्र हनन, ज्ञान–दर्शन का घात।
व्यवहारनय चरित्र हनन, ़जरूरी नहीं यह बात ॥2.20.24.285॥
निश्चयनय के अनुसार चारित्र का घात होने पर ज्ञान-दर्शन का भी घात हो जाता है। व्यवहारनय के अनुसार चारित्र का घात होने पर ज्ञान-दर्शन का घात हो भी सकता है और नही भी।
If there is any damage from the real point of view in one’s Right Conduct, then there would be damage in Right Knowledge and Right Faith, but if there is any damage to right conduct from the
empirical point of view then there may or may not be any defect in Right knowledge and Right Faith. (285)
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सद्धं नगरं किच्चचा, तव–संवर–मग्गलं।
खन्तिं निउण–पागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥25॥
तव–नाराय–जुत्तेण, भेत्तूणं कम्म–कंचुयं।
मुणी विगय–संगामो, भवाओ परिमुच्चए ॥26॥
श्रद्धां नपगरं कृत्वा, तपःसंवरमर्गलाम्।
क्षान्तिं निपुणप्रकारं, त्रिगुप्तं दुष्प्रधर्षकम् ॥25॥
तपोनाराचयुक्तेन, भित्वा कर्मकञ्चुकम्।
मुनिर्विगततसंग्रामः, भवात् परिमुच्यते ॥26॥
श्रद्धा मानों है नगर, तप–संवर दो द्वार।
क्षमा, त्रिगुप्ति से बने, अजय ठोस आकार ॥2.20.25.286॥
वाणी तप की धनुष बन कर्म कवच संहार।
मुनि ऐसा संग्राम करे, मुक्त हो तब संसार ॥2.20.26.287॥
श्रद्धा को नगर समझें, तप और संवर को द्वार। क्षमा को खाई समझें व त्रिगुप्ति से सुरक्षित कथा अजेय सुदृढ़ प्राकार बनाकर तपरूप वाणी से युक्त धनुष से कर्म-कवच को भेद कर संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है।
After building a citadel with his Right Faith, gatebars with his austerities and self-control, strong ramparts with his forgiveness, invincible guards with his three controls (of mind,speech and action), a monk arms himself with a bow of his penance, pierces through the garb of his Karma, wins the battle and becomes liberated from this mundane worldly life. (286 & 287)
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