१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जणइ पावगं ।
उभयं पि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥1॥
श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम्।
उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यत् छेकं तत् समाचरेत् ॥1॥
सुनकर जाने हित कहाँ, सुनकर जाने पाप ।
सुनकर जाने हित–अहित, चुने उचित फिर आप ॥2.19.1.245॥
सुनकर ही हित और अहित का मार्ग जाना जा सकता है और उस पर आचरण करना चाहिये।
After listening to scriptures, a person comes to know what is good and what is sinful, having thus known through listening one ought to perform what leads to welfare. (245)
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णाणाऽणत्तीए पुणो, दंसणतवनियमसंजमे ठिच्चा ।
विहरइ विसुज्झमाणो जावज्जीवं पि निक्कंपो ॥2॥
ज्ञानाऽऽज्ञप्त्या पुनः, दर्शनतपोनियमसंये स्थित्वा।
विहरति विशुध्यमानः, यावज्जीवमपि निष्कम्पः ॥2॥
संयम में तप नियम हो, आज्ञा के अनुसार ।
स्थिरचित साधक रहे, जीवन शुद्ध विहार ॥2.19.2.246॥
तप नियम, संयम में स्थित होकर ज्ञान के आदेशानुसार संयमी साधक कर्म-मल से विशुद्ध जीवनपर्यन्त विहार करता है।
Under the influence of scriptural knowledge, one becomes firm in his faith, meditation, observance of vows and selfrestraint, and lives a life of purity throughout his lifetime without any wavering thoughts. (246)
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जह जह सुद–भोगाहर, अदिसय–रस–पसर संजुयमपुव्वं ।
तह तह पल्हादिज्जदि, नव नव संवेग सड्ढाए ॥3॥
यथा यथा श्रुतमवगाहते, अतिशयरसप्रसरसंयुतमपूर्वम् ।
तथा तथा प्रह्लादते मुनिः, नवनवसंवेगश्रद्धाकः ॥3॥
ज्यूँ ज्यूँ मुनि करते श्रवण, अतिशयरस अनुराग ।
श्रद्धा नित नूतन बढ़े, मन जागे वैराग ॥2.19.3.247॥
जैसे जैसे मुनि रस के अतिरेक से युक्त होकर ज्ञान को सुनता है वैसे वैसे वैराग्य के प्रति श्रद्धा बढ़ती है ।
As a monk continues to master the scriptures with extraordinary devotion and unbounded interest, he experiences supreme bliss with renewed faith accompanied that is full of renunciation. (247)
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सुई जहा ससुत्ता न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि ।
जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे ॥4॥
सूची यथा ससूत्रा, न नश्यति कचवरे पतिताऽपि।
जीवोऽपि तथा ससूत्रो, न नश्यति गतोऽपि संसारे ॥4॥
धागे संग रहती सुई, मिले अगर खो जाय ।
ज्ञान शास्त्री जीव भी, जग में ना खो पाय ॥2.19.4.248॥
जैसे धागा पिरोयी हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही शास्त्रज्ञानयुक्त जीव संसार में नष्ट नहीं होता।
A needle with a thread in it does not get lost even when it falls in a heap of rubbish, so a person endowed with scriptural knowledge does not lose his self, even if involved in transmigratory cycle. (248)
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सम्मत्त–रयण–भट्ठा, जाणंता बहु–विहाइं सत्थाइं ।
आराहणा–विरहिया, भमंति तत्थेव तत्थेव ॥5॥
सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टा, जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि ।
आराधनाविरहिता, भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥5॥
सम्यक्त्व रत्न हो नहीं, शास्त्रज्ञान अपार ।
श्रद्धा उसमें हो नहीं, भटके बारंबार ॥2.19.5.249॥
शास्त्रों के ज्ञाता में अगर सम्यक्त्व का अभाव हो तो आराधना विहीन होने से अनेक गतियों में भ्रमण करता रहता है।
Those who have renounced the jewel of right faith will continue to wander in different states of mundane existence, as they are devoid of proper devotions to virtuous qualities, even though they may be wellacquainted with many kinds of scriptures. (249)
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परमाणु–मित्तयं पि हु, य रायादीणं तु विज्जदे जस्स ।
ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागम–धरो वि ॥6॥
परमाणुमात्रमपि खलु, रागादीनां तु विद्यते यस्य ।
नापि स जानात्यात्मानं चापि सोऽजानन् ॥6॥
आत्मानमजानन्, अनात्मानं चापि सोऽजानन्।
कथं भवति सम्यग्दृष्टि–जींवाजीवान् अजानन् ॥7॥
शेष परम–अणु मात्र भी, राग जीव के पास।
आत्मा को जाने नहीं, जाने आगम ज्ञान ॥2.19.6.250॥
आत्मा जब जाने नहीं, नहीं अनात्मा ज्ञान ।
वो दृष्टि सम्यक नहीं, जीव अजीव न भान ॥2.19.7.251॥
जिस व्यक्ति में परमाणुभर भी राग शेष हो, वो समस्त आगम का ज्ञाता होकर भी आत्मा को नही जानता। आत्मा को न जानने से अनात्मा को भी नहीं जानता। जो जीव-अजीव को नही जानता वो सम्यक्दृष्टि कैसे हो सकता है?
A person, who has in him even an iota of attachment, though he may be knowing all the scriptures, will not understand the nature of the soul, He who does not know the (nature of) soul, will not know the non-soul also. How can a person not knowing the souland the non-soul, become a person having right faith? (250 & 251)
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जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि ।
जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ॥8॥
येन तत्त्वं विबुध्यते, येन चित्तं निरुध्यते ।
येन आत्मा विशुध्यते, तज् ज्ञानं जिनशासने ॥8॥
जहाँ तत्व का ज्ञान हो, रहता चित्त निरोध ।
आत्मा जिसकी शुद्ध हो, जिनशासन का बोध ॥2.19.8.252॥
जिसमें तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है व आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है।
According to the teachings of Jina, knowledge is that which helps to understand the truth, controls the mind and purifies the soul. (252)
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जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि।
जेण मितीपभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ॥9॥।
येन रागाद्विरज्यते, येन श्रेयस्सु रज्यते।
येन मैत्री प्रभाव्येत, तज् ज्ञानं जिनशासने ॥9॥
जीव राग जिससे विमुख, बढ़ती श्रेय कमान।
बढ़े मित्रता भाव जहाँ, जिन शासन का ज्ञान ॥2.19.9.253।
जिससे जीव राग से विमुख होता है, श्रेय व मैत्रीभाव बढ़ता है वही जिनशासन के अनुसार सम्यग्ज्ञान है।
According to the teachings of Jina, it is through knowledge that ties of attachment are severed, attraction towards auspiciousness is developed and which enhances the thoughts and attitudes of compassion or friendship towards all livingbeings.(253)
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जो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध–पुट्ठं अण्ण–मविसेसं।
अपदेस–सुत्त–मज्झं पस्सदि जिण–सासणं सव्वं ॥10॥
यः पश्यति, आत्मान–मबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम् ।
अपदेशसूत्रमध्यं, पश्यति जिनशासनं सर्वम् ॥10॥
कर्मरहित जो आत्मा, गुण ना अन्य विशेष।
अंत मध्य आदि नहीं, जिन–शासन परिवेश ॥2.19.10.254॥
जो आत्मा को कर्मरहित, अन्य से रहित, विशेष से रहित तथा आदि-मध्य औरअंतविहीन देखता है वही समग्र जिनशासन को देखता है।
He only knows the whole doctrine of Jina, who knows the soul,unbound by karmic matter, different from everything else, devoid of all particularities and well described in the scriptures.(254)
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जो अप्पाणं जाणदि असुइ सरीरादु तच्चदो भिण्ण ।
जाणग–रूव–सरूवं सो सत्थं जाणदे सव्वं ॥11॥
य आत्मानं जानाति, अशुचिशरीरात् तत्त्वतः भिन्नम् ।
ज्ञायकरूपस्वरूपं, स शास्त्रं जानाति सर्वम् ॥11॥
आत्मा को जो जानता, भिन्न है तन पहचान।
जाने तत्त्व स्वरूप को, सकल शास्त्र का ज्ञान॥2.19.11.255॥
जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वतः अलग तथा ज्ञायक-भावरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है।
That man alone knows all scriptures who understands pure soul as fundamentally different from the unholy body and who deems/understands it (soul) to be a conscious being. (255)
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सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो।
जाणंतो दु असुद्धं, असुद्ध–मेवप्पयं लहइ ॥12॥
शुद्धं तु विजानन्, शुद्धं चैवात्मानं लभते जीवः।
जानंस्त्वशुद्ध–मशुद्धमेवात्मानं लभते ॥12॥
शुद्ध आत्मा जो मानता, शुद्ध आत्मा पाय ।
अशुद्ध माने आत्मा, आत्म शुद्ध नहीं जाय ॥2.19.12.256॥
जो जीव आत्मा को शुद्ध जानता है वही शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है। जो आत्मा को देहयुक्त जानता है वह अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है।
One who knows soul as pure oneself attains a pure self. But who contemplates the soul as having impure nature becomes himself impure. (256)
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जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ ।
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ ॥13॥
योऽध्यात्मं जानाति, स बहिर्जानाति।
यो बहिर्जानाति, सोऽध्यात्मं जानाति ॥13॥
जो जाने अध्यात्म को, भौतिकको भी जान ।
बाहर भी जो जानता, अंदर का भी ज्ञान ॥2.19.13.257॥
जो अध्यात्म को जानता है वह बाह्य (भौतिक) को जानता है। जो भौतिक को जानता है वह अध्यात्म को जानता है।
He who knows the internal, knows the external and he who knows the external, knows the internal. (257)
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जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ ।
जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥14॥
यः एकं जानाति, स सर्वं जानाति।
यः सर्वं जानाति, स एकं जानाति ॥14॥
जाने जो जन एक को, जाने सकल जहान।
जो जन सबको जानता है, उसे एक का ज्ञान ॥2.19.14.258॥
जो एकको जानता है वह सबको जानता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है।
He who knows the one (the self) knows everything else; he who knows all things, knows the one (the self). (258)
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एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि ।
एदेण होहि तित्तो तो होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥15॥
एतस्मिन् रतो नित्यं, सन्तुष्टो भव नित्यमेतस्मिन् ।
एतेन भव तृप्तो, भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम् ॥15॥
लीन रहो इस ज्ञान में, संतुष्टि का भान।
जो तृप्त इस में रहे, करे परम सुख पान ॥2.19.15.259॥
तू इस ज्ञान में लीन रह। इसी में सदा संतुष्ट रह। इसी से तृप्त हो। इसी से तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा ।
Be you always engrossed in pure knowledge; be you ever satisfied in it, be contented with it; you will get supreme happiness therefrom. (259)
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जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्त–गुणत्त–पज्जयत्तेहिं।
सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥16॥
यो जानात्यर्हन्तं, द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः।
स जानात्यात्मानं, मोहः खलु याति तस्य लयम् ॥16॥
जो जाने अरिहंत को, द्रव्य तत्व गुण ज्ञान।
वही जानता आत्म को, मोह भंग हो मान ॥2.19.16.260॥
जो अर्हन्त को पूर्ण रूपेण (द्रव्य-गुण-पर्याय) जानता हैवही आत्मा को जानता है। उसका मोह निश्चय ही विलीन हो जाता है।
He who knows the Arhat from the view-points of substance, attributes and modifications, knows also the pure soul; his delusion will surely come to an end. (260)
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लद्धूणं णिहिं एक्को, तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते।
तह णाणी णाण–णिहिं भुंजेइ चइत्तु पर–तत्तिं ॥17॥
लब्ध्वा निधिमेकस्तस्य फलमनुभवति सुजनत्वेन ।
तथा ज्ञानी ज्ञाननिधिं, भुङ्क्ते त्यक्त्वा परतृप्तिम् ॥17॥
निधि मिले जब जीव को, स्वजन संग उपभोग।
ज्ञान मिले जब जीव को, खुद करता उपयोग॥2.19.17.261॥
जैसे कोई व्यक्ति निधि प्राप्त होने पर उसका उपयोग स्वजनों के बीच करता है वैसे ही ज्ञानी ज्ञान-निधि का उपयोग पर-द्रव्यों से अलग होकर अपने में ही करता है।
Just as one getting hold of a treasure consumes it in a gentlemanly fashion, similarly the wise man, getting hold of the treasure of knowledge, enjoys it ignoring all pleasure derived from anything else. (261).
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