१८. सम्यग्दर्शनसूत्र
सम्मत्तरयणसारं मोक्ख–महारुक्ख–मूलमिदि भणियं ।
तं जाणिज्जइ, णिच्छय–ववहार–सरूवदोभेयं ॥1॥
सम्यक्त्वरत्नसारं, मोक्षमहावृक्षमूलमिति भणितम्।
तज्ज्ञायते निश्चय–व्यवहारस्वरूपद्विभेदम् ॥1॥
मोक्षवृक्ष का मूल है, सुरत्न सम्यक सार ।
दर्शन के दो भेद हैं, निश्चय और व्यवहार ॥2.18.1.219॥
सम्यग्दर्शन को मोक्षरूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है। यह निश्चय और व्यवहार के रूप में दो प्रकार का है।
Right Faith is the core of the three jewels; it is the root of the great tree of liberation; it has to be understood from two point of views-real point of view (Niscaya-naya) and practical point of view (vyavaharanaya). (219)
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जीवादी सद्दहणं, सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
ववहारा णिच्छयदो, अप्पा ण हवइ सम्मत्तं ॥2॥
जीवादीनां श्रद्धानं, सम्यक्त्वं जिनवरैः प्रज्ञप्तम्।
व्यवहारात् निश्चयतः, आत्मा णं भवति सम्यक्त्वहेतुरपि ॥2॥
तत्वज्ञान है सम्यक्त्व, जिनवर कह व्यवहार ।
आत्मा निश्चय रहे, सम्यक् यही विचार ॥2.18.2.220॥
व्यवहारनय से जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को जिनदेव ने सम्यक्त्व दर्शन कहा है। निश्चयनय से तो आत्मा ही सम्यग्दर्शन है।
Lord Jina has said that from the practical point of view, Right Faith is faith in the existence of the existence of the soul and the other elements, from the real point of view, the soul itself is Right Faith. (220)
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जं मोणं तं सम्मं, जं सम्मं तमिह होइ मोणं ति ।
निच्छयओ इयरस्स उ, सम्मं सम्मत्त्हेऊ वि ॥3॥
यन् मौन तत् सम्यक् , यत् सम्यक् तहिह भवति् मौनमिति।
निश्चयतः इतरस्य तु, सम्यक्त्वं सम्यक्त्वहेतुरपि ॥3॥
सम्यक् दर्शन मौन है, निश्चयनय ही मौन ।
निश्चय सम्यग्दर्शन से, हेतु सम्यक कौन ॥2.18.3.221॥
निश्चयनय से जो मौन (साधुत्व) है वही सम्यग्दर्शन है और जो सम्यग्दर्शन है वही मौन है। व्यवहारनय से जो निश्चय-सम्यग्दर्शन के हेतु हैं वे भी सम्यग्दर्शन हैं ।
From real point of view true monkhood constitutes righteousness and righteousness constitutes true monkhood. But from the practical point of view, the causes of righteousness are called Right Faith itself. (221)
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सम्मत्त–विरहिया णं सुट्ठु वि उग्गं तवं चरंता णं ।
ण लहंति बोहिलाहं अवि वास–सहस्स–कोडीहिं ॥4॥
सम्यक्त्वविरहिता णं, सुष्ठु अपिउग्रं तपः चरन्तः णं।
न लभन्ते बोधिलाभं, अपि वर्षसहस्रकोटिभिः ॥4॥
सम्यक्त्व बिन लगा रहे, तप करता हर बार ।
लाभ बोध मिलता नहीं, चाहे जनम हज़ार ॥2.18.4.222॥
सम्यक्तविहीन व्यक्ति हज़ारों साल तक भलिभाँति तप करने पर भी बोधिलाभ प्राप्त नहीं कर सकता।
Those persons who are devoid of Right Faith will not obtain Right Knowledge, even if they practise severe penance for a thousand crores of years. (222)
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दंसण–भट्ठा भट्ठा, दसणं– भट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं ।
सिज्झंति चरिय–भट्ठा, दंसण–भट्ठा ण सिज्झंति ॥5॥
दर्शनभ्रष्टाः भ्रष्टाः,दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् ।
सिध्यन्ति चरितभ्रष्टाः, दर्शनभ्रष्टाः न सिध्यन्ति ॥5॥
दर्शन भ्रष्ट ही भ्रष्ट है, मुक्ति नहीं वह ।
चरित्र भ्रष्ट को सिद्धि मिले, दर्शन भ्रष्ट न पाय ॥2.18.5.223॥
जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है वही भ्रष्ट है। उसे कभी निर्वाण प्राप्ति नही हो सकती। चारित्र विहीन सम्यग्दृष्टि रखने वाले चारित्र धारण कर सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।
Those who have renounced Right Faith are deprived persons. There is no liberation for a person devoid of Right Faith. Those who have renounced Right Conduct (by resorting to Right conduct) may attain liberation but not those who have renounced Right Faith. (223)
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दंसण–सुद्धो सुद्धो दंसण–सुद्धो लहेइ णिव्वाणं।
दंसण–विहीण–पुरिसो, ण लहइ तं इच्छियं लाहं ॥6॥
दर्शनशुद्धः शुद्धः, दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम्
दर्शनविहीनः पुरुषः, न लभते तम् इष्टं लाभम् ॥6॥
दर्शन शुद्ध ही शुद्ध है, ले मुक्ति का लाभ ।
दर्शनविहीन पुरुष को, मिले न इसका लाभ ॥2.18.6.224॥
सम्यग्दर्शन से शुद्ध ही निर्वाण प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शन-विहीन पुरुष इष्टलाभ नही कर पाता।
He who has Right Faith is certainly pure; he who is possessed of Right Faith attains liberation. A person devoid of Right Faith does not attain the desired liberation. (224)
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सम्मत्तस्स य लंभे तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो।
सम्मद्दंसणलंभो वरं खु तेलोक्कलंभादो ॥7॥
सम्यक्त्वस्य च लाभ–स्त्रैलोकस्य च भवेत् यो लाभः।
सेत्स्यन्ति येऽपि भव्याः, तद् जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम् ॥7॥
लाभ है सम्यक् एक तरफ़, तीन–लोक उस ओर ।
लाभ नहीं त्रिलोक में, सम्यक् उत्तम छोर ॥2.18.7.225॥
एक ओर सम्यक्त्व का लाभ और दूसरी ओर त्रैलोक्य का लाभ हो तो सम्यग्दर्शन का लाभ श्रेष्ठ है।
In case, one faces the dilemma of selecting between righteousness and the kingdom of three worlds, he should unhesitatingly select the former (i.e. salvation). (225)
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किं बहुणा भणिएणं, जे सिषद्धा णरवरा गए काले ।
सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्म–माहप्पं ॥8॥
किं बहुना भणितेन, ये सिद्धाः नरवराः गते काले।
सेत्स्यन्ति येऽपि भव्याः, तद् जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम् ॥8॥
और अधिक अब क्या कहे, सिद्ध विगत ये काल ।
होंगे सिद्ध भविष्य में, सम्यक्त्व महिमा विशाल ॥2.18.8.226॥
और अधिक क्या कहें? अतीतकाल में जो श्रेष्ठ सिद्ध हुए और जो आगे सिद्ध होंगे वह सम्यक्त्व का ही प्रताप है
What is the use of saying more; it is due to the magnanimity of Right Faith that the great personage and the Bhavya those worthy of attaining emancipation) have attained liberation in the past and will do so in future. (226)
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जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणि–पत्तं सहाव–पयडीए
तह भावेण ण लिप्पइ कसाय–विसएहिं सप्पुरिसो ॥9॥
यथा सलिलेन न लिप्यते, कमलिनीपत्रं स्वभावप्रकृत्या ।
तथा भावेन न लिप्यते, कषायविषयैः सत्पुरुषः ॥9॥
जैसे जल से लिप्त नहीं, कमल पत्र स्वभाव।
विषय–कषायन लिप्तता, सम्यक यदा प्रभाव ॥2.18.9.227॥
जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से लिप्त नही होता।
Just as it is on account of its very nature that a lotus leaf remains untouched by water, similarly a righteous person remains really un-affected by passions and by the objects of sensuous enjoyment. (227)
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उवभीज्ज–मिंदियेहिं दव्वाण–मंचेदणाण–मिदराणं।
ज्ं कुणदि सम्मदिट्ठी तं णिज्जर–णिमित्त ॥10॥
उपभोगमिन्द्रियैः, द्रव्याणामचेतनानामितरेषाम् ।
यत् करोति सम्ग्दृष्टिः तत् सर्वं निर्जरानिमित्तम् ॥10॥
चेतन–अवचेतन करे, द्रव्यों का जन भोग।
करे निर्जरा में सदा, सम्यक दृष्टि प्रयोग ॥2.18.10.228॥
सम्यक्दृष्टि जीव अपनी इन्द्रियों के द्वारा चेतन व अचेतन द्रव्यों का जो भी उपयोग करता है वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है
Whatever use of living or non-living objects, a man of Right Faith may make through his senses, is all for getting release from the Karmas. (228)
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सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई ।
पगरण–चेट्ठा कस्स वि, ण य पायरणो त्तिसो होई ॥11॥
सेवमानोऽपि न सेवते, असेवमानोऽपिसेवकः कश्चित् ।
प्रकरणचेष्टा कस्यापि, न च प्राकरण इति स भवति ॥11॥
भोग करे पर भोग नहीं, ना भोगे पर भोग।
लगा काम में इस तरह, नहीं काम का रोग॥2.18.11.229॥
कोई विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता और कोई सेवन न करते हुए भी सेवन करता है। जैसे कोई जन विवाहादि कार्य में लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता।
There are persons, who do not enjoy sensual pleasures in spite of their actual indulgence in them: on the country, there are others, who enjoy sensual pleasures, without actually indulging in them. They are comparable to such guests who participate in the rites and rituals of a marriage ceremony but who can not be held responsible for marriage as they are not masters of that ceremony. (229)
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न कामभोगा समयं उवेन्ति, न यावि भोगा विगइं उवेन्ति।
जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगइं उवेइ ॥12॥
न कामभोगाः समतामुपयन्ति, न चापि भोगा विकृतिमुपयन्ति।
यस्तत्प्रद्वेषी च परिग्री च, स तेषु मोहाद् विकृतिमुपैति ॥12॥
सम–विषम गुण भाव नहीं, कामभोग के जान ।
राग द्वेष में लगा रहे, भोगी उसको मान॥2.18.12.230॥
इसी तरह काम भोग न समभाव उत्पन्न करते हैं और न ही विषमता। जो उनके प्रति राग-द्वेष रखता है वह उनमें विकृति को प्राप्त होता है।
The objects of enjoyment of senses do not produce either equanimity or perversion. He who has attachment or aversion for objects becomes perverted while enjoying them due to his delusion. (230)
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निस्संकिय निक्कंखय निव्वितिगिच्छा अमूढ़दिट्ठी य।
उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥13॥
निःशंकितं निःकाङ्क्षितं, निर्विवचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च।
उपबृंहा स्थिरीकरणे, वात्सल्य प्रभावेनाऽष्टी ॥13॥
शंका आकांक्षा नहीं, अमूढ–दृष्टि, समभाव।
राज रखे न, धीर रहे, स्नेहिल, धर्म प्रभाव ॥2.18.13.231॥
सम्यग्दर्शन के ये आठ अंग हैः निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थिरीकरण, वास्तल्य और प्रभावना।
The eight essential requisites of Right Faith are: absence of doubt, absence of longing, absence of contempt, absence of confusion, absence of belief in heretical sects, stabilization, affection and exaltation. (231)
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सम्मा–दिट्ठी जीवा, णिस्संका होंति णिब्भया तेण।
सत्त–भय–विप्प–मुक्का, जम्हा तम्हा दु णिस्संका ॥14॥
सम्यग्दृष्टयो जीवा निश्शङ्का भवन्ति निर्भयास्तेन।
सप्तभयविप्रमुक्ता, यस्मात् तस्मात तु निश्शङ्का ॥14॥
सम्यक दृष्टि जीव निःशंक, हो निर्भय का भाव।
सातों भय से मुक्त रहे, निःशंक यही स्वभाव ॥2.18.14.232॥
सम्यग्दृष्टि जीव शंकारहित होते हैं इसलिये निर्भय होते हैं। वे सात प्रकार के भयों से रहित होते है। इस लोक का भय, परलोक भय, रक्षा का भय, वेदना भय और अकस्मात भय।
The Right believing souls are doubtless (non sanka): that is why they are fearless also.They are free of seven kinds of fears: 1. Fear of this world: 2. Fear of the world beyond 3. Fear of Insecurity: 4. Fear of indiscipline: 5. Fear of Death: 6. Fear of pain: and 7. Fear of incapability Hence they are doubtless. (232)
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जो दु ण करेदि कंखं, कम्मफलेसु तह य सव्व–धम्मेसु ।
सो णिक्कंखो चेदा, सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥15॥
यस्तु न करोति का ङ्क्षाम्, कर्मफलेषु तथा सर्वधर्मेषु ।
स निष्काङ्क्षश्चेतयिता, सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य ॥15॥
चाह जिसे कोई नहीं, धरम–करम फल भान।
चाहरहित समझे उसे, सम्यक दृष्टि वो मान ॥2.18.15.233॥
जो समस्त कर्मफलों में और सम्पूर्ण वस्तु धर्मों में किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं रखता, इन को निरकांक्ष सम्यग्दृष्टि समझना चाहिये ।
A person who has no longing for the fruits of Karmas and for all objects or any of the properties of a thing, is possessed of Right Faith. (233)
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नोसक्यि–मिच्छई न पूयं, नो वि य वन्दणगं कुओ पसंसं?
से संजए सुव्वए तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू ॥16॥
न सत्कृतिमिच्छति न पूजां, नोऽपि च वन्दनकं कुतः प्रशंसाम् ।
स संयतः सुब्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः ॥16॥
मान, पूजा चाह नहीं, ना वंदन गुणगान।
संयत, सुव्रत, तपस्वी, साधु आत्म का ज्ञान ॥2.18.16.234॥
जो सत्कार, पूजा और वंदना नही चाहता वह किसी से प्रशंसा की क्या अपेक्षा करेगा। जो संयत है, सुव्रती है, तपस्वी है और आत्मगवेषी है, वही भिक्ष ुहै।
He who desires no honour, no worship, no salutation even, how will he desire praise? He who has self-control, observes the vows correctly, practises penance and seeks to know the true nature of the soul is the real monk. (234)
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खाई–पूया–लाहं सक्काराइं किमिच्छसे जोई।
इच्छसि जदि परलोयं, तेहिं किं तुज्झ परलोयं ॥17॥
ख्याति–पूजा–लाभं, सत्कारादि किमिच्छसि योगिन्!।
इच्छसि यदि परलोकं तैः किं तव परलोके? ॥17॥
ख्याति, पूजा, लाभ मिले, सम्मान सन्त ना चाह।
इच्छा जो परलोक की, नहीं कभी यह राह ॥2.18.17.235॥
हे योगी ! यदि तू परलोक चाहता है तो ख्याति, लाभ, पूजा और सत्कार आदि क्यों चाहता है?
Oh monk, if you desire the bliss of the other world, why do you crave after fame, worship, enjoyment and honour in this world? Of what use are they to you in the next world? (235)
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जो ण करेदि जुगुप्पं, चेदा सव्वेसि मेव धम्माणं।
सो खलु णिव्विगिच्छो, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥18॥
यो न करोति जुगुप्सां, चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणाम्।
सः खलु निर्निचिकित्सः, सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य ॥18॥
ग्लानि जो करता नहीं, वस्तु धर्म पहचान।
निर्विचिकित्सा गुण कहें, सम्यक दृष्टि ज्ञान ॥2.18.18.236॥
जो समस्त वस्तुओं के धर्मों को पहचान कर उनसे ग्लानि नही करता है वो निर्विचिकित्सा धारक सम्यग्दृष्टि है।
He who does not exhibit contempt or disgust towards any of the things, is said to be the right believer. (236)
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जो हवदि असम्मूढो, चेदा सव्वेसु कम्म–भावेसु ।
सो खलु अमूढ–दिट्ठी, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥19॥
यो भवति असंमूढः, चेतयिता सद्दृष्टिः सर्वभावेषु ।
स’लु अमूएदृष्टिः, सम्यदृष्टिर्ज्ञातव्यः॥19॥
व्यक्ति नहीं विमूढ जो, चेतन दृष्टि सुभाव।
अमूढ़ दृष्टि कहते उसे, सम्यक् दृष्टि स्वभाव ॥2.18.19.237॥
जो समस्त वस्तुओं के धर्मों को पहचान कर उनसे ग्लानि नही करता है वो निर्विचिकित्सा धारक सम्यग्दृष्टि है।
He who is completely devoid of delusion as to the nature of things is certainly understood to be the non-deluded right believer. (237)
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नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेण, तहेव य।
खन्तीए मुत्तीए, वड्ढमाणो भवाहि य ॥20॥
ज्ञानेन दर्शनेन च, चारित्रेण तथैव च ।
क्षान्त्या मुक्त्या, वर्धमानो भव च ॥20॥
ज्ञान और दर्शन मिले, तप चरित्र का साथ।
शान्ति और मुक्ति मिले, वर्धमान का हाथ ॥2.18.20.238॥
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, शान्ति एवं मुक्ति के द्वारा जीवन को वर्धमान बनाना चाहिये।
May you prosper with the aid of right knowledge, right faith and right conduct as also forgiveness and freedom from bondage of Karma. (238)
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णो छादय णोऽवि य लूसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज।
ण या वि पण्णे परिहास कुन्जा, ण याऽऽ सियावाद वियागरेज्झा ॥21॥
नो छादयेन्नापि च लूषयेद्, मानं न सेवेत प्रकाशनं च।
न चापि प्राज्ञः परिंहासं कुर्यात्, न चाप्याशीर्वादं व्यागृणीयात् ॥21॥
ना ढ़के ना कहे ग़लत, चाहे नहीं प्रचार।
ज्ञानी की निंदा नहीं, ना वरदान विचार ॥2.18.21.239॥
न शास्त्र के अर्थ को छिपाये और नही शास्त्र की असम्यक् व्याख्या करे। न मान करे अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करे। न किसी विद्वान का परिहार करे न किसी को आशीर्वाद दे।
The wise man should not conceal the meaning of a scriptural text nor should he distort it; he should not harbour pride or a tendency to self-display; he should not make fun of anyone or bestow words of blessing on anyone. (239)
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जत्थेव पासे कई दुप्पउत्तकाएण वायाअदु माणसेणं।
तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा, आइन्न ओ खिप्पमिवक्खलीणं ॥22॥
सत्रैव पश्येत् क्वचित् दुष्प्रयुक्तं, कायेन वाचा अथ मानसेन।
तत्रैव धीरः प्रतिसंहरेत्, आजानेयः (जात्यश्वः) क्षिप्रमिवखलीनम् ॥22॥
दोष जहाँ खुद में दिखे, मन वचन और काय।
धीरज खींचे रास को, पथ में वापस आय ॥2.18.22.240॥
जब अपनें में दोष की प्रवृत्ति दिखायी दे, उसे तत्काल ही मन, वचन व काया से सम्यग्दृष्टि रखते हुए समेट ले जैसे बेक़ाबू घोड़ा रास के द्वारा सीधे रास्ते पर आ जाता है।
The wise man, whenever he comes across an occasion for some wrong doing on the part of body, speech or mind, should withdraw himself there from, just as a horse of good pedigree is brought to the right track by means of rein. (240)
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तिण्णो हु सि अण्णवं महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ ।
अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम! मा परमायए ॥23॥
तीर्णः खलु असि अर्णवं महान्तं, किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः ।
अभित्वरस्व पारं गन्तुं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥23॥
पार महा–सागर किया, क्यों तू अब तट छोर।
हे गौतम! अविलंब तू, बढ़ आगे की ओर ॥2.18.23.241॥
हे गौतम! तू महासागर को तो पार कर गया है अब तट पर क्यों खड़ा है? क्षण भर का भी आलस न कर, तुरन्त आगे बढ़ ।
Oh Gautama, when you have crossed over the big ocean, why then do you come to a stop near the shore? Make haste to go across, be not complacent even for a moment. (241)
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जा धाम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणदि परम–सद्धाए ।
पिय–वयणं जंपंतो, वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ॥24॥
यः धार्मिकेषु भक्तः, अनुचरणं करोति परमश्रद्धया ।
प्रियवचनं जल्पन् वात्सल्यं तस्य भव्यस्य ॥24॥
धर्म का अनुसरण करे, श्रद्धा और अनुराग।
प्रिय वचन हरपल कहे, ममत्व सम्यक् राग ॥2.18.24.242॥
जो धार्मिक जनों में अनुराग रखता है, श्रद्धापूर्वक उनकी अनुशरण करता है तथा प्रिय वचन बोलता है वो वात्सल्य सम्यग्दृष्टि है।
The great person, who is full of devotion for fellow religious person, follows them with a feeling of great faith, and utters loveable words, is possessed of affection. (242)
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धम्म–कहा–कहणेण य, बाहिर–जोगेहिं चावि णवज्जेहिं।
धम्मो पहाविदव्वो, जीवेसु दयाणुकंपाए ॥25॥
धर्मकथाकथनेनल च, बाह्ययोगैश्चाप्यनवद्यैः।
धर्मः प्रभावयित्तव्यो, जीवेषु दयानुकम्पया ॥25॥
धर्म कथा का कथन करें, बाह्य योग अभ्यास।
करना धर्म प्रभावना, जीव दया मन वास ॥2.18.25.243॥
बाह्य ऋतुओं को ध्यान में रखते हुए, धर्म कथा के कथन द्वारा जीवों पर दया करते हुए धर्म की प्रभावना करनी चाहिये।
The radiance of religion should be spread by narration of religious stories, by performance of dispassionate external austerities and by showing mercy and compassion towards living beings. (243)
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पावयणी धम्मकही, वाई नेमित्तओ तवस्सी य।
विज्जा सिद्धो य कवी, अट्ठेव पभावगा भणिया ॥26॥
प्रावचनी धर्मकथी, वादी नैमित्तिकः तपस्वी च।
विद्यावान् सिद्धःच कविः, अष्टौ प्रभावकाः कथिताः ॥26॥
प्रवचनी, वादी, तपकर्ता, ज्ञानी, धर्म का पाठ।
विद्जन, साधक और कवि, धर्म प्रभावक आठ ॥2.18.26.244॥
प्रवचन कुशल, धर्मकथाएँ करने वाला, वादी, निमित्तज्ञानी, तपस्वी, विद्या सिद्ध, ऋद्धि सिद्धियों का स्वामी व कवि ये आठ मनुष्य धर्म प्रभावक कहे गये हैं।
One who holds religious discourse, one who narrates religious stories, one who holds discussions with rivals, one who reads omens, one who performs penance one who is learned, one who is possessed of miraculous powers, one who is a poet, these eight types of person undertake propagation of religion. (244)
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