१७. रत्नत्रयसूत्र
धम्मादी–सद्दहणं, सम्मंत णाण–मंग–पुव्व–गदं ।
चिट्ठा तवं हि चरिया, ववहारो मोक्ख–मग्गो त्ति ॥1॥
धर्मादिश्रद्धानं, सम्यक्त्वं ज्ञानमङ्गपूर्वगतम्।
चेष्टा तपसि चर्या, व्यवहारो मोक्षमार्ग इति ॥1॥
सम्यक दर्शन श्रद्धा–धरम , अगों–पूर्व विचार ।
तप चेष्टा सम्यक्चरित्र, मोक्ष मार्ग व्यव्हार ॥2.17.1.208॥
धर्म आदि (छह द्रव्य तथा तत्त्वार्थ) का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। तप में प्रयत्नशीलता सम्यक्चारित्र है। यह व्यवहार मोक्ष मार्ग है।
To have faith in the existence of (substances like) dharma etc. is right faith, to have acquaintance with the texts called Anga and Purva is right knowledge, to perserve in the performance of penance is right conduct. These three constitute the pathway-toemancipation understood from the standpoint vyavaharanaya.(208)
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नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे ।
चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसज्झई ॥2॥
ज्ञानेन जानाति भावान्, दर्शनेन च श्रद्धत्ते।
चारित्रेण निगृह्णाति, तपसा परिशुध्यति ॥2॥
ज्ञान बताये भाव को, दर्शन से विश्वास ।
निरोध करें चारित्र से, तप से निर्मल आस ॥2.17.2.209॥
मनुष्य ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है, दर्शन से उनको मानता है, चारित्र से निरोध करता है और तप से विशुद्ध होता है।
One understands by his (right) knowledge the nature of substances, develops belief in them by his (right) faith and controls himself by his (right) conduct and purifies his soul by penance (i.e., austerities). (209)
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णाणं चरित्त–हीणं,लिंगग्गहणं च दंसण विहूणं ।
स्ंजम–हीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थंय सव्व ॥3॥
ज्ञान चरित्रहीनं, लिङ्गग्रहणंच दर्शनविहीनम्।
संयमविहीनं च तपः, यः चरति निरर्थकं तस्य ॥1॥
दर्शन बिन मुनि पद ग्रहण, बिनु चरित्र का ज्ञान ।
संयम बिन तप भी सदा, अर्थहीन पहचान ॥2.17.3.210॥
तीनों एक दुसरे के पूरक हैं इसलिये कहा है कि चारित्र के बिना ज्ञान व सम्यग्दर्शन के बिना मुनिलिंग का ग्रहण और संयमविहीन तप का आचरण करना निरर्थक है।
Knowledge without right conduct, acceptance of the asceticism without right faith and observance of austerities without selfcontrol are all futile. (210)
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नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो,नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥4॥
नादर्शनिनो ज्ञानं, ज्ञानेन विना न भवन्ति चरणगुणाः।
अगुणिनो नास्ति मोक्षः, नास्त्यमोक्षस्य निर्वाणम ॥4॥
बिन दर्शन के ज्ञान नहीं, चरित्र नहीं बिन ज्ञान ।
बिन चरित्र के मोक्ष नहीं, मोक्ष बिना निर्वाण ॥2.17.4.211॥
दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता। चारित्र के बिना मोक्ष नहीं होता। मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता।
Without right faith, there cannot be right knowledge; without right knowledge, there cannot be right conduct; without right conduct, there cannot be release from Karmas; without release of Karmas there cannot be nirvana (salvation). (211)
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हयं नाणं किया–हीणं, हया अन्नाणओ किया ।
पसंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ ॥5॥
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हताऽज्ञानतः क्रिया ।
पश्यन् पङ्गुलः दग्धो, धावमानश्च अन्धकः ॥5॥
ज्ञान व्यर्थ है बिन क्रिया, क्रिया व्यर्थ बिन ज्ञान ।
वन–अग्नि में पंगु बन, अंधा छोड़ प्राण ॥2.17.5.212॥
क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है बिना ज्ञान के क्रिया व्यर्थ है। जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने के कारण जल कर मर जाता है और अंधा व्यक्ति भागने में समर्थ होते हुए भी देख न पाने के कारण जल मर जाता है।
Right knowledge is of no use in the absence of right conduct, action is of no use in the absence of right knowledge. Certainly, in the case of conflagration the lame man burns down even if capable of seeing while the blind man burns down even if capable of running away. (212)
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संजोग–सिद्धीय फलं वयंति, न हु एग–चक्केण रहो पयाइ ।
अंधो या पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥6॥
संयोंसिद्धौ फलं वदन्ति, न खल्वेकचक्रेण रथः प्रयाति।
अन्धश्च पङ्गुश्च वने समेत्य, तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ॥6॥
संयोग सिद्धि से फल मिले, रथ इकं चक्र न सार ।
अंधे – पंगु को ही मिलन, चले नगर के द्वार ॥2.17.6.213॥
ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है। जैसे पंगु और अंधा साथ हो जाय तो वन से निकल कर नगर में आ सकते है। एक पहिये से रथ नही चलता।
The desired result is attained when there is a harmony between right knowledge and right conduct, for a chariot does not move by one wheel. This is like a lame man and a blind man come together in a forest and manage to reach the town with the help of one another. (213)
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सम्म–द्दंसण–णाणं, एदं लहदि त्ति णवरि ववदेसं।
सव्व–णय–पक्ख–रहिदो, भणिदो जे सो समयसारो ॥7॥
सम्यग्दर्शनज्ञानमेष लभते इति केवलं व्यपदेशम्।
सर्वनयपक्षरहितो, भणितो यः स समयसार ॥7॥
सम्यक् दर्शन–ज्ञान का, होता रहे प्रचार ।
सब य पक्ष रहित रहे, यही समय का सार ॥2.17.7.214॥
जो सब नय-पक्षों से रहित है वही समयसार है, उसी को सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान की संज्ञा प्राप्त होती है।
The quint-essence of the pure Soul (Samaya-sar) is to be free (devoid) of all stand points (Nayas) and aspects (paksh). The same is known as Right faith and Right-Knowledge. (214)
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दंसण–णाण–चरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥8॥
दर्शनज्ञानचारित्राणि, सेवितव्यानि साधुना नित्यम्।
तानि पुनर्जानीहि, त्रीण्यप्यात्मानं जानीहि निश्चयतः ॥8॥
दर्शन ज्ञान चरित्र को, साधु सदा स्वीकार ।
तीनों आत्मा रूप है, निश्चय नय का सार ॥2.17.8.215॥
साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चारित्र का पालन करना चाहिये। निश्चयनय से इन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिये।
From practical point of view faith, knowledge and conduct should always be cherished by saints. But they must know that from real point of view these three are the self (soul) only. (215)
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णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा।
ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति ॥9॥
निश्चययेन भणित–स्त्रिभिस्तैः, समाहितः खलु यः आत्मा
न करोति किंचिदप्यन्यं, न मुञ्चति स मोक्षमार्ग इति ॥9॥
आत्म समाहित तीन में, निश्चयनय का ज्ञान।
कुछ न करे, छोड़े नहीं, मोक्षमार्ग पहचान ॥2.17.9.216॥
जो आत्मा इन तीनों में समाहित हो जाता है और अन्य कुछ नहीं करता और न कुछ छोड़ता है उसी को निश्चयनय से मोक्षमार्ग कहा गया है।
It is said from the real point of view that, the soul who comprises all the three together; and does not act otherwise or depart from this even in the slightest degree, follows the path of Liberation. (216)
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अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।
जाणइ तं सण्णाणं चरदिह चारित्त–मग्गो त्ति ॥10॥
आत्मा आत्मनि रतः, सम्यग्दृष्टिः भवति स्फूब्टं जीवः ।
जानाति तत् संज्ञानं, चरतीह चारित्रमार्ग ॥10॥
आत्मलीन आत्मा रहे, सम्यगदृष्टि जीव।
आत्मज्ञान ही ज्ञान है, चारित मार्ग ही नींव ॥2.17.10.217॥
आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यग्दृष्टि होता है। जो आत्मा को यथार्थ रूप में जानता है वही सम्यग्ज्ञान है और उसमें स्थित रहना ही सम्यग चारित्र है।
Right faith means a soul engrossed in itself; Right knowledge is knowledge of the real (nature of) the soul; Right conduct consists in faithful pursuit of that path. (217)
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आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरित्तेय ।
आया पच्चखाणे, आया मे संजमे जोगे ॥11॥
आत्मा खलु मम ज्ञानं, आत्मा मे दर्शन चरित्रं च ।
आत्मा प्रत्याख्यानं, आत्मामे संयमो योगः ॥11॥
आत्मा मेरा ज्ञान है, चरित्र दर्शन जान।
संयम योग भी आत्मा, आत्मा प्रत्याखान॥2.17.11.218॥
आत्मा मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन और चारित्र है। आत्मा ही प्रत्यख्यान है और आत्म ही संयम और योग है। अर्थात ये सब आत्मरूप है।
My soul is my right knowledge, my right faith, my right conduct, my renunciation of evil acts, my self-restraint and my meditation. (218)
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