१६. मोक्षमार्गसूत्र
मग्गो मग्गफलं ति य, दुविहं जिणसासणे समक्खादं ।
मग्गो खलु सम्मत्तं, मग्गफलं होइ णिव्वाणं ॥1॥
मार्गः मार्गफलम् इति च द्विविध जिनशासने समाख्यातम्।
मार्गः खलु सम्यक्त्वं मार्गफलं भवतिनिवार्वणम् ॥1॥
‘फल’ व ‘मार्ग’ दो अलग हैं, जिनशासन बतलाय ।
सम्यक् पथ पर जो चले, मोक्ष फल वो पाय ॥2.16.1.192॥
जिनशासन में ‘मार्ग’ व ‘मोक्ष’ का उपाय है। सम्यक् मार्ग का फल मोक्ष है।
“The path” and the “result of follwing the path” these two things have been proclaimed in the discipline preached by the Jinas. ‘Right faith’ is the path and liberation is the result. (192)
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दंसण–णाण–चरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्तिसेविदव्वाणि ।
साधूहि इदं भणिदं, तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा ॥2॥
दर्शनज्ञानचारित्राणि, मोक्षमार्ग इति सेवितव्यानि।
साधुभिरिदं भणितं, तैस्तु बन्धो वा मोक्षो वा ॥2॥
दर्शन, ज्ञान, चरित्र सब, मोक्ष मार्ग स्वभाव ।
बंधन समझो मोक्ष के, शुभ व अशुभ के भाव ॥2.16.2.193॥
सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप को जिनदेव ने मोक्ष का मार्ग कहा है। वह निश्चय व व्यवहार दो प्रकार का है। शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं है। इन भावों से तो कर्म बंधन होता है।
The right faith, the right knowledge and the right conduct together constitute the path of liberation; this is the path to be followed. The Jinendra Dev have said that if it is followed in the right way it will lead to liberation and otherwise it will lead to bondage. (193)
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अण्णाणादो णाणी, जदि मण्णदि सुद्ध– संपओगादो ।
हवदि त्ति–दुक्खमोक्खं, परसमयरदो हवदि जीवो ॥3॥
अज्ञानात् ज्ञानी, यदि मन्यते शुद्धसम्प्रयोगात्।
भवतीति दुःखमोक्षः, परसमयरतो भवति जीवः ॥3॥
शुभ भावों से मान ले, ज्ञानी भी यदि मोक्ष।
समझ यही अज्ञान है, दूर अभी है मोक्ष ॥2.16.3.194॥
अज्ञानवश अगर ज्ञानी भी ऐसा मान ले कि शुभ कर्म व भक्ति आदि शुभ भाव से दुखमुक्ति होती है तो यह राग का अंश है और त्रुटिपूर्ण ज्ञान है।
If a wise person ignorantly considers that by doing pure (i.e., religious) performance he will be free from sorrow then he is the follower of wrong faith. (194)
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वद–समिदी–गुत्तीओ, सीलतवं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
कुव्वंतो वि अभव्वोअणाणी मिच्छदिट्ठीओ ॥4॥
व्रतसमितिगुप्तीः शीलतपः जिनवरैः प्रज्ञाप्तम्।
कुर्वन् अपि अभव्यः अज्ञानी मिथ्यादृष्टिस्तु ॥4॥
समिति, शील, व्रत, गुप्ति सभी, तप जिनवर प्रज्ञप्त ।
अनपढ़ बन इस पथ चले, द्रष्टा मिथक समस्त ॥2.16.4.195॥
व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप का पालन करते हुए भी अभव्य (अज्ञानी) जीव मिथ्या द्रष्टा है।
An abhavya Jiva (a soul inherently incapable of attaining liberation), even if he observes the five vows, the five types of vigilance, the three fold self-control, the code of morality and the various modes of austerities as laid down by the Jina, lacks right understanding and possesses wrong faith. (195)
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णिच्छय–ववहार–सरूवं, जो रयणत्तयं ण जाणइ सो ।
ज कीरइ तं मिच्छा–रूवं, सव्वं जिणुद्दिट्ठं ॥5॥
निश्चयव्यवहारस्वरूपं, यो रत्नत्रयं न जानाति सः ।
यत् करोति तन्मिथ्या–रूपं सर्वजिनोद्दिष्टम् ॥5॥
निश्चय ही व्यवहार रूप, तीनरत्न नहीं ज्ञान ।
मिथ्या सब कुछ मानिये, जिनवर कहते जान ॥2.16.5.196॥
जिनदेव का उपदेश है कि निश्चय और व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) को नही जानता उसका सबकुछ मिथ्यारुप है।
All the religionsobservances by those, who do not know the real and practical implications of three jewels (Rightfaith, right knowledge and right conduct), are erroneous/false/wrong (mithyarupa). This is the commandment of Shri Jin-Deva. (196)
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सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो वि फासेदिय ।
धम्मं भोग–णिमित्तं, ण दु सो कम्म–क्खय–णिमित्तं ॥6॥
श्रद्दधाति च प्रत्येति च, रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति ।
धर्म भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षनिमित्तम् ॥6॥
श्रद्धा–निष्ठा भी रखे, पले धार्मिक चाह ।
भोग धर्म समझो निमित्त, कर्म नहीं क्षय राह ॥2.16.6.197॥
अभव्य जीव धर्म में श्रद्धा रखता है, पालन करता है किन्तु वह धर्म को भोग का निमित्त समझ कर करता है कर्मक्षय का कारण समझ कर नहीं करता।
The Abhavya souls do repose faith in Dharma (religiousconduct): do believe in it: and do follow it: yet this do so considering Dharma as the instrument (cause) of enjoyment and not considering it as the instrument (cause) of destruction of karmas. (197)
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सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पाव त्ति भणियन्नेसु।
परिणामो णन्नगदो, दुक्खक्खयकारणं समये ॥7॥
शुभपरिणामः पुण्यं अशुभः पापमिति भणितमन्येषु।
परिणामो नान्यगतो, दुःखक्षयकारणं समये ॥7॥
पुण्य शुभ परिणाम कहे, अशुभ जानिये पाप।
आत्मलीन जो मगन हो, दुख क्षय कारण आप ॥2.16.7.198॥
वह नहीं जानता कि परद्रव्य में प्रवृत्त शुभ-परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। धर्म स्वद्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है जो यथासमय दुखों के क्षय का कारण होता है।
An auspicious disposition towards worldly gain secures merit (punya) while an inauspicious disposition towards worldly gain acquires sin (papa) but one, who remains undisturbed by alien things and enjoys one’s own pure nature, can put an end to one’s misery. (198)
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पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि।
पुण्णं सुगई–हेदुं, पुण्ण–खएणेव णिव्वाणं ॥8॥
पुण्यमति यः समिच्छति, संसारः तेन ईहितः भवति।
पुण्यं सुगतिहेतुः, पुण्यक्षयेण एव निर्वाणम् ॥8॥
पुण्य की यदि इच्छा रहे, चाहे तबसंसार ।
पुण्य है सुगति के लिए, पुण्य क्षरण जग पार ॥2.16.8.199॥
जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु है किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है।
He who desires for well being, aspires for life in this mundane world; merit (punya) is capable of securing a pleasant state of existence; but it is cessation of merits (punya Karma) only that leads to liberation. (199)
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कम्म–मसुहं कुसीलं, सुह–कम्मं चावि जाणह सुसीलं।
किह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि ॥9॥
कर्म अशुभं कुशीलं,शुभकर्म चापि जानीहि वा सुशीलम् ,
कथं तद् भवति सुशीलं, यत् संसार प्रवेशयति। ॥9॥
करम अशुभ सुशील नहीं, सात्विक सुशील विचार।
शुभ सुशील पर क्या कहूँ, पुनः प्रवेश संसार ॥2.16.9.200॥
अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सुशील जानो। किन्तु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में फिर से प्रविष्ट कराता है।
Know that an inauspicious Karma results in misery while an auspicious Karma in worldly happiness; but how can it be said that auspicious Karma results in happiness when it leads to mundane existence? (200)
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सोवण्णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं।
बंधति एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥10॥
सौवर्णिकमपि निगलं, बध्नाति कालायसमपि यथा पुरुषम्।
बध्नात्येवं जीवं, शुभमशुभं वा कृतं कर्म ॥10॥
कनक लोह में फ़र्क नहीं बेड़ी बाँधे जीव।
शुभ अशुभ में, पक्की जीव की नींव ॥2.16.10.201॥
बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, दोनों ही बेड़ियाँ बाँधती है। इसी प्रकार जीव को शुभ-अशुभ दोनों ही कर्म बाँधते है।
Just as fetter whether made of iron or gold binds a person similarly Karma whether auspicious (punya) or inauspicious (Papa) binds the soul. (201)
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तम्हा दु कुसीलेहि य, रायं मा कुणह मा व संसग्गं ।
साधीणो हि विणासो, कुसील–संसग्ग–रायेण ॥11॥
तस्मात्तु कुशीलैश्च, रागं मा कुरुत मा वा संसर्गम् ।
स्वाधीनो हि विनाशः कुशीलसंसर्गरागेण ॥11॥
कुशील जानकर कर्म को, नहीं संग और राग।
करता राग सुशील से, स्वतन्त्रता वीतराग॥2.16.11.202॥
अतः शुभ-अशुभ दोनों कर्मों को कुशील जानकर न उनके साथ राग करना चाहिये और न उनका संसर्ग। क्योंकि कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है।
Hence having understood both kinds of Karmas as bad from real stand point. We should either get our-selves not attached with/not associated with either of the two. The attachment with or the association of Karmas with soul destroy its independence.(202)
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वरं वय–तवेहि सग्गो दुक्खं होउ निरइ इयरेहिं।
छाया–तव–ट्ठिणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ॥12॥
वरं व्रततपोभिः स्वर्गः, मा दुःखं भवतु निरये इतरैः।
छाया़ऽऽतपस्थितानां, प्रतिपालयतां गुरुभेदः ॥12॥
तप व्रत से ही स्वर्ग है, नर्क से उत्तम जान ।
खड़ा धूप में क्यों रहे, छाया उत्तम मान॥2.16.12.203॥
तथापि नर्क के दुख भोगने से तो उत्तम है कि व्रत व तप आदि कर स्वर्ग पाया जाय। धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं अच्छा है।
However it is better to attain heaven by observing vows and penances than to suffer misery in hell by doing evil. There is great difference between one who stands in shade and the other standing in the sun. (203)
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खयरा–मर–मणुय–करंजलि–मालाहिं च संथुया विउला।
चक्क–हरराय–लच्छी, लब्भइ बोही सुभावेण ॥13॥
खचरामरमनुज–कराञ्जलि–मलाभिश्च संस्तुता विपुला।
चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधिः न भव्यनुता ॥13॥
देव सम्मुख प्रज्ञ, जन, हाथ जोड़ कर जान।
विपुल चक्रधर धन मिले, मिले न केवल ज्ञान ॥2.16.13.204॥
इसमें संदेह नही की शुभभाव से विद्याधरों, देवों तथा मनुष्यों की स्तुति से चक्रवर्ती सम्राट की विपुल लक्ष्मी तो प्राप्त हो सकती है लेकिन केवल ज्ञान नहीं।
Through merit (punya karma) one may attain cakravarti-hood (i.e. supreme kingship) where great honour is bestowed on one by the Vidyadharas (demigods), gods and men through praising with folded hands and offering of garlands, but certainly he will not attain the right understanding raised by a soul fit for salvation (204)
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तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया।
उवेन्ति माणुसं जोणिं, से दसंगेऽभिजायई ॥14॥
तत्र स्थित्वा यथास्थानंं, यक्षा आयुःक्षशे च्युताः।
उपयान्ति मानुषींयोनिम् स दशाङ्गोऽभिजायते ॥14॥
देवलोक में भी रहे, आयु क्षय का रोग।
मनुष्य योनि फिर मिले, दशांग द्रव्य का भोग ॥2.16.14.205॥
देवलोक में भी आयु समाप्त होने पर जीव मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं। वहाँ वे दशांग भोग सामग्री से युक्त होते हैं।
The men of merit (punyatma) after enjoying his divine status in heaven at the end of his life span will be born as a human being with ten types of worldly enjoyment. (205)
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भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं ।
पुव्वं विःशुद्ध सद्धम्मे, केवलं बोहि बुज्झिया ॥15॥
चउरंगं दुल्लहं मत्ता, संजमं पडिवज्जिया ।
तवसा धुयकम्मंसे, सिद्धे हवइ सासए ॥16॥
भुक्त्वा मानुष्कान् भोगान्, अप्रतिरूपान् यथायुष्कम्।
पूर्वविशुद्धसद्धर्मा, केवलां बोधिं बुद्ध्वा ॥15॥
चतुरङ्गं दुर्लभं ज्ञात्वा, संयमं प्रतिपद्य।
तपसा घूतकर्मांशः, सिद्धो भवति शाश्वतः ॥16॥
मनुष्य भोगता भोग को, जीवन नहीं विरोध।
कर्म पुरातन हो विशुद्ध, होवे निर्मल बोध ॥2.16.15.206॥
वीर्य श्रुति श्रद्धा मनुज दुर्लभ चार स्वीकार।
तप कर संयम धर्म सेे, शाश्वत सिद्ध आकार ॥2.16.16.207॥
जीवनपर्यन्त अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर पूर्वजन्मों में धर्म आराधना के कारण निर्मल बोधि का अनुभव करते है और चार अंगों (मनुष्य, श्रुति, श्रद्धा तथा वीर्य) को दुर्लभ जानकर वे संयम-धर्म स्वीकार करते है और फिर तपश्चर्या से कर्मों का नाश कर के शाश्वत सिद्धपद को प्राप्त करते हैं।
After having experienced for the entire life incomparable enjoyments appropriate to human beings one attains the rightunderstanding that leads to emancipation on account of the religious performances undertaken by one in one’s earlier births. Having realised that four things (viz. human birth, listening to scriptures, having faith in scriptures, appropriate practical endeavour) are difficult to attain, one observes self-restraint and having annihilated one’s past karmans through penance, one becomes for ever a soul emancipated. (206 & 207)
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