१४. शिक्षासूत्र
विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणीयस्स य ।
अस्सेयं दुहओ नाय, सिक्खं से अभिगच्छइ ॥1॥
विपत्तिरविनीतस्य, संपत्तिविनीतस्य च।
यस्यैतद् द्विधा ज्ञातं, शिक्षां सः अधिगच्छति॥1॥
अविनय साथ विपत्तियाँ, विनय गुणों की खान ।
जो यह बातें जान ले, मिले ज्ञान परिधान ॥1.14.1.170॥
जिसमें विनय/नम्रता नहीं है उसके ज्ञान आदि गुण नष्ट हो जाते हैं और विपत्तियाँ आती हैं। विनयशील व्यक्ति ही ज्ञान ले सकता हैं।
He who is modest and respectful gains knowledge and he who is arrogant and disrespectful fails to gain knowledge. He who is aware of these two facts acquires education. (170)
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अह पंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्ख न लब्भई ।
थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽलस्सएण य ॥2॥
अथ पञ्चभिः स्थानैः, यैः शिक्षा न लभ्यते।
स्तम्भात् क्रोधात् प्रमादेन, रोगेणालस्यके च ॥2॥
पाँच कारण जान लो, मिले न जिससे ज्ञान ।
रोग, क्रोध, प्रमाद हो, आलस या अभिमान ॥1.14.2.171॥
निम्न पाँच कारणों से शिक्षा प्राप्त नही होती। अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य।
Education is hampered by the following five obstacles :- 1. Pride; 2. Anger; 3. Carelessness; 4. Disease; 5. Idleness(171)
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अह अट्ठहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चई।
अहस्सिरे सया दंते, न य मम्मुदाहरे ॥3॥
नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए।
अकोहणे सच्चरए, सिक्खसीले त्ति वुच्चई ॥4॥
अथाष्टभिः स्थानैः, शिक्षाशील इत्युच्यते।
अहसनशीलः सदा दान्तः, न च मर्म उदाहरेत् ॥3॥
नाशीलो न विशीलः, न स्यादतिलोलुपः।
अक्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते ॥4॥
आठ बातें जान ले, शिक्षित बने समाज ।
मन रोके हँसना नहीं, रखे भेद को राज ॥1.14.3.172॥
शीलवान दूषित नहीें, अति रस नहीं सुहाय ।
सत्यवान क्रोधित नहीं, ज्ञानशील कहलाय ॥1.14.4.173॥
निम्न आठ कारणों से मनुष्य शिक्षाशील कहा जाता है। 1. हँसी मज़ाक नही करना। 2. इन्द्रियों का दमन करना। 3. किसी का रहस्य नही खोलना। 4. शीलवान। 5. दोषरहित। 6. रसलोलुप न होना। 7. क्रोध नही करना। 8. सत्यवान रहना।
A man is said to be educated if the following eight circumstances or attributes are met :
1. To abstain from cutting jokes;
2. To control five senses and mind;
3. not revealing the secrets of others;
4. not lacking good manners,
5. not exhibiting bad manners
6. not being passionate;
7. Not being angry; and
8. To be truthful (172 & 173)
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नाण–मेग्ग–चित्ते य, ठिओ ठावयई परं ।
सुयाणि य अहिज्जित्ता, रओ सुय–समाहिए ॥5॥
ज्ञानमेकाग्रचित्तश्च, स्थितः च स्थापयति परम्।
श्रुतानि च अधीत्य, रतः श्रुतसमाधी ॥5॥
ललक ज्ञान की जो रखे, अटल परम हो स्थान ।
शिक्षा ग्रहण अनेक करें, पढ़ने में हो ध्यान॥1.14.5.174॥
अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। वह स्वयं धर्म में स्थित होता है और दूसरों को भी करता है। अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर वह ज्ञान में लीन हो जाता है।
A person acquires knowledge and concentration of mind by studying scriptures. He becomes firm in religion and helps others to acquire that firmness. Thus through the studies of scriptures he becomes absorbed in the contemplation of what is expounded therein. (174)
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वसे गुरुकुले निच्चं, जोगवं उवहाणवं ।
पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लद्धुमरिहई ॥6॥
वसेद् गुरुकुले नित्यं, योगवानुपधानवान् ।
प्रियंकरः प्रियवादी, स शिक्षां लब्धुमर्हति ॥6॥
गुरुकुल में रहकर सतत, करता हो जो ध्यान ।
काम सुखद कह प्रिय वचन, पाता हर पल ज्ञान ॥1.14.6.175॥
जो सदा गुरुकुल में वास करता है वो समाधियुक्त होता है। जो ज्ञान ग्रहण करते समय तप करता है, प्रिय बोलता है वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
He who always resides in gurukul, practising meditation and austerities, is pleasant in action and sweet in speech such a person is fit to receive education. (175)
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जह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो।
दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति ॥7॥
यथा दीपात् दीपशतं, प्रदीप्यते स च दीप्यते दीपः ।
दीपसमा आचार्याः, दीप्यन्ते परं च दीपयन्ति ॥7॥
कई दीप इक दीप से, पाते खूब प्रकाश।
दीपक जैसे गुरु रहे, रौशन हो आकाश ॥1.14.7.176॥
एक दीप से सैकड़ों दीप जल सकते हैं और स्वयं भी दीप्तमान रहता है। आचार्य दीपक के समान होते हैं। वे स्वयं भी प्रकाशमान रहते है और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।
The head of the order (Acharya/preceptor) is like and lamp. Just as an lamp illuminates itself and enkindles hundred of other lamps; similarly the head of the order is himself manifested with knowledge and makes others manifested with knowledge likewise. (176)
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