१२. अहिंसासूत्र
एयं खु णाणिणो सारं, जं ण हिंसइ कंचणं ।
अहिंसा समयं चेव, एयावंतं वियाणिया ॥1॥
एतत् खलु ज्ञानिनः सारं, यत् न हिनस्ति कञ्चन्।
अहिंसा समतां चैव, एतावतीं विजानीयात् ॥1॥
ज्ञानी का है अर्थ यही, हिंसा हो नहीं जान ।
समता धर्म अहिंसकता, यही एक विज्ञान ॥1.12.1.147॥
ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न हो । अहिंसामूलक समता ही धर्म है और यही अहिंसा का विज्ञान है।
It is the essential trait of a wise man that he does not kill any living being. Certainly, one has to understand just two principles namely nonviolence and equality of all living beings. (147)
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सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं।
तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥2॥
सर्वे जीवाः अपि इच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम्।
तस्मात्प्राणवधं घोरं, निर्ग्रन्थाः वर्जयन्ति तम् ॥2॥
जीना चाहे जीव सब, मरना कभी न चाह ।
हत्या ही है पाप बड़ा, साधु वर्जित राह ॥1.12.2.148॥
सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिये जीव हत्या को मुनि वर्जित मानते हैं।
All the living beings want to live they do not want to die. That is why possessionless saints prohibit the killing of living beings. (148)
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जावंति जोए पाणा, तसा अदुव थावरा ।
ते जाण–मजाणं वा, ण हणे णो वि घायए ॥3॥
यावन्तो लोके प्राणा–सत्रसा अथवा स्थावराः।
तान् जानन्नजानन्वा, न हन्यात् नोऽपि घातयेत् ॥3॥
दो तरह जीव लोक में, चल व अचल प्रकार ।
करे कराये या नहीं, हिंसा जीव विचार ॥1.12.3.149॥
लोक में त्रस और स्थावर जीव है, साधु उनकी जाने या अनजाने में हत्या न करे न करवाये।
Whether knowingly or unknowingly one should not kill living beings, mobile or immobile, in this world, nor should cause them to be killed by others. (149)
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जह ते न पियं दुकखं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं।
सव्वायरमुवउत्तो अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥4॥
यथा ते न प्रियं दुःखं, ज्ञात्वैवमेव सर्वजीवानाम् ।
सर्वादरमुपयुक्तः, आत्मौपम्येन कुरु दयाम् ॥4॥
ज्यूँ दुख प्रिय तुमको नहीं, किसी जीव ना भाय।
आदर हो सब जीव का, दया भाव मन आय ॥1.12.4.150॥
जैसे तुम्हें दुख अच्छा नही लगता वैसे ही सब जीवों को दुख अच्छा नही लगता इसलिये सब जीवों के प्रति आदर व दया का भाव रखे।
Just as you do not cherish pain similarly all the living beings also do not cherish pain. Knowing this principle of equality treat other with respect and compassion. (150)
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जीववहो, अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ ।
ता सव्वजीवहिंसा, परिचत्ता अत्तकामेहिं ॥5॥
जीववध आत्मवधो,जीवदयाऽऽत्मनो दया भवति।
तस्मात् सर्वजीवहिंसा, परित्यक्ताऽऽत्मकामैः ॥5॥
जीव वध है वध अपना, दया स्वयं पर जान ।
सब हिंसा परित्याग हो, तभी आत्महित मान ॥1.12.5.151॥
जीव वध अपना वध है। जीव दया अपनी ही दया है। इसलिये आत्महितैषी पुरुषों ने सब जीवों की हिंसा का परित्याग किया है।
Killing a living being is killing one’s own self; showing compassion to a living being is showing compassion to oneself. He who desires his own good, should avoid causing any harm to a living being. (151)
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तुमं सि नाम स चेव, जं हंतव्व ति मन्नसि ।
तुमं सि नाम स चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि ॥6॥
त्वम् असि नाम स एव, यं, हन्तव्यमिति मन्यसे।
त्वम् असि नाम स एव, यमाज्ञापयितव्यमिति मन्यसे ॥6॥
हनन योग्य समझे जिसे, ख़ुद को तू पहचान ।
आज्ञा में समझे जिसे, तू ख़ुद है यह मान ॥1.12.6.152॥
जिसे तू हनन योग्य मानता है वो तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है वो भी तू ही है।
The being whom you want to kill is the very same as you are yourself, the being whom you want to be kept under obedience is the very same as you yourself.(152)
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रागादीणमणुप्पाओ, अहिंसकत्त त्ति देसियं समए ।
तेसिं चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिद्दिट्ठा ॥7॥
रागादीनामनुत्पादः, अहिंसकत्वमिति देशितं समये।
तेषां चेद् उत्पत्तिः, ‘हिंसा’ इति जिनैर्निर्दिष्टा ॥7॥
राग अगर जो हो नहीं, हिंसा रहे न शेष ।
राग रहे हिंसा रहे, जिन का यह निर्देश ॥1.12.7.153॥
जिनेश्वर देव ने कहा है कि राग न होना अहिंसा है और राग होना हिंसा है।
It is said by Lord Jina that absence of attachment etc. is ahimsa (nonviolence) while their presence is himsa (violence). (153)
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अज्झवसिएण बंधो, सत्ते मारेज्ज मा थ मारेज्ज।
एसो बंधसमासो, जीवाणं णिच्छयणयस्स ॥8॥
अध्यवसितेन बन्धः, सत्यान् मारयेद् मा अथ मारयेत्।
एष बन्धसमासो, जीवानां निश्चयनयस्य ॥8॥
विचार करे बंधन बँधे, मरे न चाहे जीव।
कर्म बंध का रूप यही, निश्चयनय की नींव ॥1.12.8.154॥
जीव हत्या का विचार करने से ही बंधन बंध जाते हैं चाहे वास्तविकता में हत्या हो या नहीं। निश्चयनय के अनुसार कर्म बंधन का यही स्वरूप हैै।
Even an intention of killing is the cause of the bondage of Karma, whether you actually kill or not; from the real point of view, this is the nature of the bondage of Karma.(154)
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हिंसादो अविरमणं वहपरिणामो य होइ हिंसा हु।
तम्हा पमत्तजोगो, पाणव्वरोवओ णिच्चं ॥9॥
हिंसातोऽविरमणं, वधपरिणामः च भवति हिंसा हि।
तस्मात् प्रमत्तयोगे, प्राणव्यपरोपतः नित्यम् ॥9॥
विरक्त नहीं जो हिंसा से, या रखता परिणाम।
या मद में उलझा रहे, हिंसा का ही काम ॥1.12.9.155॥
हिंसा से विरक्त न होना या हिंसा का परिणाम रखना ही हिंसा है इसलिये जहाँ प्रमाद है वही नित्य हिंसा है।
Nourishing the thoughts and attitudes of violence in mind and not renouncing violence amounts to committing violence. He who is passionless (Apramatta/careless) is non violent; and on the contrary he who is passionate (pramatta) is violent. (155)
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णाणी कम्मस्स खयत्थ–मुट्ठिदो णोट्ठिदो य हिंसाए।
अददि असढं अहिंसत्थं अप्पमत्तो अवधगो सो ॥10॥
ज्ञानी कर्मणःक्षयार्थ–मुत्थितो नोत्थितः च हिंसायै।
यतति अशठम् अहिंसार्थम् अप्रमत्तः अवधकः सः ॥10॥
सतत कर्म क्षय में रहे, रखे ना हिंसा भाव।
ज्ञानी उसको मानिये, अहिंसक धर्म प्रभाव ॥1.12.10.156॥
जो निरंतर कर्म क्षय में लगा रहता है और हिंसा का भाव नही रखता है वह अप्रमत्त मुनि अहिंसक होता है।
The wise has started endeavouring (Udyat) for of karmas (Karma-kshaya); while not committing violence. He sincerely endeavours for non-violence. Such a careful (cautious/Apramatta/passionless) saint is definitely nonviolent. (156)
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अत्ता चेव अहिंसा, अत्ता हिंसत्ति णिच्छओ समये।
जो होदि अप्पमत्तो, अहिंसगो हिंसगो इदरो ॥11॥
आत्मैवाहिंसाऽऽत्मा, हिंसेति निश्चयः समये ।
यो भवति अप्रमत्तोऽहिंसकः, हिंसकः इतरः ॥11॥
अहिंसा–हिंसा आत्म की, निश्चय नय यह जान।
प्रमत्त नहीं, अहिंसक है, प्रमत्त हिंसक मान॥1.12.11.157॥
आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है। यह सिद्धान्त निश्चय है। जो अप्रमत्त है वो अहिंसक है और जो प्रमत्त है वो हिंसक है।
As per scriptures the soul is both violent and nonviolent. He who is careful is non-violent and who is careless is violent. (157)
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तंगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि।
जह तह जयंमि जाणसु, धम्महिंसासमं नत्थि ॥12॥
तुङ्गं न मन्दरात्, आकाशाद्विशालकं नास्ति।
यथा तथा जगति जानीहि, धर्मोऽहिंसासमो नास्ति ॥12॥
मेरु से कोई उच्च नहीं, नभ से नहीं विशाल।
धरम अहिंसा ही बड़ा, सकल जगत सब काल॥1.12.12.158॥
जैसे जगत में मेरु पर्वत से कोई ऊँचा नहीं है और आकाश से विशाल और कुछ भी नहीं है वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।
No mountain is higher than the Meru; nothing is more expansive than the sky; similarly know that there is no religion equal to the religion of ahimsa in this world why do you indulge. (158)
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अभय पत्थिवो–तुब्भं, अभयदाया भवाहि य।
अणिच्चे जीव–लोगम्मि, किं हिंसाए पज्जसि? ॥13॥
अभयं पार्थिव! तुभ्यम् अभयदाता भव च।
तमेवमेवं लालप्यमानं, हरा हरन्तीति कथं प्रमादः?॥13॥
हे संसारी हो निर्भय, करो अभय का दान।
हिंसा में आसक्त क्यूँ, लोक अनित्य सुजान ॥1.12.13.159॥
हे संसारी निर्भय बनो और अभयदान दो। इस अनित्य काल में हिंसा में क्यों आसक्त हो रहा है।
Oh: Mortal being! be free from fear and you let others be free from fear. In this transitory world, why do you indulge in violence? (159)
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