११. अपरिग्रहसूत्र
संगनिमित्तं मारइ, भणइ अलीअं करेइ चोरिक्कं ।
सेवइ मेहुण मुच्छं, अप्परिमाणं कुणइ जीवो॥1॥
संगनिमत्तं मारयति, भणत्यलीकं करोति चोरिकाम्।
सेवते मैथुनं मूर्च्छामपरिमाणां करोति जीवः ॥1॥
हिंसा, चोरी, झूठ ये, सब दोषों की खान ।
काम–वासना–मोह के, परिग्रह कारण मान ॥1.11.1.140॥
जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है। इस प्रकार परिग्रह सभी पापों की जड़ है।
Owing to attachment, a person commits violence, tells lies, commits theft, indulges in sex and develops a will for unlimited hoarding. Lust of possession constitutesthe root cause of all the five-vices (140)
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चित्त–मंत–मचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि।
अण्णं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चई ॥2॥
चित्तवन्तमचित्तं वा, परिगृह्य कृशमपि।
अन्यं वा अनुजानाति, एवं दुःखात् न मुच्यते ॥2॥
जीव या निर्जीव रहे, रखता अपने पास ।
या कभी देता अनुमति नहीं मुक्ति की आस ॥1.11.2.141॥
सजीव या निर्जीव, अल्प वस्तु का भी जो परिग्रह करता है या दूसरे को अनुमति देता है, वह दुख से मुक्त नही होता ।
A person who hoards even the slightest amount of an animate or inanimate thing or gives consent to some one for hoarding, will not escape escape from misery. (141)
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जे ममाइय मतिं जहाति, से जहाति ममाइयं ।
से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स नत्थि ममाइयं ॥3॥
यो ममायितमतिं जहाति,स त्यजति ममायितम् ।
स खलु द़ृष्टवथः मुनिः, यस्य नास्ति ममायितम् ॥3॥
लालच को जो त्याग दे, करे परिग्रह त्याग ।
ऐसे पथ पर जो चले, जानो मुनि बैराग ॥1.11.3.142॥
जो लालच का त्याग करता है वही परिग्रह का त्याग कर सकता है। जिसके पास परिग्रह नही वो ही मुनि मुक्ति के मार्ग पर चल सकता है।
He alone can renounce possession. Who renounces the mentality of possession. The posessionless saint alone knows the Right path. (142)
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मिच्छत–वेदरागा, तहेव हासादिया य छद्दोसा।
चत्तारि तह कसाया, चउदस अब्भंतरा गंथा ॥4॥
बाहिरसंगा खेत्तं वत्थुं धणधण्ण–कुप्पभंडाणि।
दुपय–चउप्पय जाणाणि चेव सयणा–सणे य तहा ॥5॥
मिथ्यात्ववेदरागाः, तथैव हासदिकाः च षड्दोषाः ।
चत्वारस्तथा कषायाः, चतुर्दश अभ्यन्तराः ग्रन्थाः ॥4॥
बाह्यसंगाः क्षेत्रं, वास्तुधनधान्यकुप्यभाण्डानि ।
द्विपदचतुष्पदानि यानानि, चैव शयनासनानि च तथा ॥4॥
वेद, राग, मिथ हास्य ये, एकाधिकहै दोष।
चार कषाय के साथ है, चौदह अन्तर कोष ॥1.11.4.143॥
बाहर है घर खेत संग, वस्त्र पात्र धन–धान।
दास पशु संग यान है, शय्या, आसन जान ॥1.11.5.144॥
परिग्रह दो प्रकार का है। आभ्यन्तर और बाह्य। आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार के है। मिथ्यातव, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ।
बाह्य परिग्रह दस प्रकार के है। भूमि, मकान, धन-धान्य, वस्त्र, बर्तन, दास-दासी, पशु, यान, शय्या, आसन।
Attachment of possessiveness is of two kinds; internal and external. The internal possessiveness is of fourteen kinds (1) wrong belief, (2) Sexual desire for women, (3) Sexual desire for man, (4) Sexual desire for both, (5) Laughter, (6) Liking, (7) Disliking, (8) Grief, ( 9) Fear, (10) Disgust, (11) Anger, (12) Pride, (13) Deceit and (14) Greed. The external possessions are ten: (1) Fields, (2) Houses, (3) Wealth and food-grains, (4) Stock of house-hold goods. (5) Utensils, (6) male or female slaves (7) Animals, (8) Vehicles, (9) Beddings and (10) Seats.(143-144)
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सव्वग्गंथविमुक्को सीदोभूदो, पसण्णचित्तो य ।
जं पावइ पीयिुहं ण चक्कवट्टी वि तं लहइ ॥6॥
सर्वग्रन्थविमुक्तः, शीतीभूतः प्रशान्तचित्तश्च।
यत्प्राप्नोति मुक्तिसुखं, न चक्रवर्त्यपि तल्लभते ॥6॥
सर्व परिग्रह मुक्त जोे, शीतल शांत प्रसन्न ।
चक्रवर्ती रहता नहीं, ऐसे सुख संपन्न ॥1.11.6.145॥
सम्पूर्ण परिग्रह से मुक्त प्रसन्नचित साधु जो मुक्तिसुख पाता है वो चक्रवर्ती राजा को भी नही मिलता है।
One who is completely free from all possessiveness, is calm and serene in his mind and attains bliss of emancipation which even an emperor cannot obtain. (145)
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गंथच्चाओ इन्दिय–णिवारणे अंकुसो व हत्थिस्स ।
णयरस्स खाइया वि य, इंदियगुत्ती असंगत्तं ॥7॥
ग्रन्थत्यागः इन्द्रिय–निवारणे अंकुश इव हस्तिनः।
नगरस्य खातिका इव च, इन्द्रियगुप्तिः असंगत्वम् ॥7॥
हाथी वश अंकुश करे, खाई नगर रक्षार्थ।
इन्द्रीयों को वश करने, परिग्रह तज बिन स्वार्थ ॥1.11.7.146॥
जैसे हाथी को वश करने के लिये अंकुश होता है और नगर की रक्षा के लिये खाई होती है वैसे ही इन्द्रिय वश करने के लिये परिग्रह का त्याग है।
Just as one controls the elephant by means of a hook or just as the moat around the city protects the city; similarly the renunciation of possession controls sense-organs. Nonpossession assists one in his endeavours for sense control. (146)
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