१०.संयमसूत्र
अप्पा नई वेयरणी,, पपा मे कूट–सामली ।
अप्पाकामदुहा धेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥1॥
आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली।
आत्मा कामदुघा धेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम्॥1॥
आत्मा वैतरणी नदी, आत्म शाल्मली फूल ।
कामधेनु ही आत्मा, नन्दनवन का मूल ॥1.10.1.122॥
आत्मा ही वैतरणी नदी है। आत्म ही कूटशाल्मली (सिल्क का फूल) है। आत्मा ही कामधेनु है। आत्मा ही नन्दन वन है।
My soul is river “vailarini”; the soul is the “kutashalmali” tree; the soul is the kama-dhenu” cow; and the soul is Nandanavana forest. (122)
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अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्त–ममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ ॥2॥
आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च।
आत्मा मित्रममित्रम् च, दुष्प्रस्थितःसुप्रस्थितः॥2॥
कर्ता भोक्ता आत्मा, सुख–दुख एक समान ।
सत्य सुपथ पर मीत रहेे, कुपथ शत्रु सी जान ॥1.10.2.123॥
आत्मा ही सुख-दुख की कर्ता और भोक्ता है। आत्मा ही सत्य के पथ पर मित्र है और दुष्प्रवृति में आत्मा ही शत्रु है।
The soul is the doer (karta) and enjoyer (Bhokta) of pleasures and pains. The soul, engaged in good deeds is our friend and the soul engaged in bad deeds is our enemy. (123)
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एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणि य।
ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी ॥3॥
एक आत्माऽजितः शत्रुः, कषाया इन्द्रियाणि च ।
तान् जित्वा यथान्यायं, विहराम्यहं मुने ! ॥3॥
शत्रु आत्मा एक ही, अजितेन्द्रिय–कषाय।
जीत उन्हें विचरण करे, मुनि का यही उपाय ॥1.10.3.124॥
अविजित इन्द्रियाँ व कषाय ही शत्रु है। मुनि उन्हें जीतकर धर्म अनुसार विचरण करता है।
One’s unconquered self, unconquered passions and uncontrolled senseorgans are one’s own enemies. Oh: monk I freely wander in Just and appropriate manner as I have conquered them. (124)
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जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे ।
एयं जिणेज्ज अप्पाणं, एस मे परमो जओ ॥4॥
यः सहस्रं सहस्राणां, सङ्ग्रामे दुर्जये जयेत् ।
एकं जयेदात्मानम्, एष तस्य परमो जयः ॥4॥
युद्ध हज़ारों जीत के, अजय भले ही मान।
जीत लेना आत्म को, परम विजय सम्मान ॥1.10.4.125॥
हज़ारों युद्ध जीतने की अपेक्षा जो आत्मा को जीत लेता है वही परमविजय का सम्मान पाता है।
One may conquer thousands and thousands of enemies in an invincible battle; but the supreme victory consists in conquest over one’s self. (125)
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अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण वज्झाओ ?
अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥5॥
आत्मानमेव योधयस्व, कि ते युद्धेन बाह्यतः ।
आत्मानमेव आत्मनं, जित्वा सुखमेधते ॥5॥
युद्ध हो अपने–आप से, बाह्य युद्ध बेकार ।
जो आत्मा को जीत ले, सच्चे सुख की धार ॥1.10.5.126॥
बाहरी युद्धों से क्या? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। सच्चा सुख उसे ही मिलता है जो अपने को जीत ले।
Fight with thyself; what is the good in fighting against external foes? One can get supreme happiness by conquering one’s own self by one’s self. (126)
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अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो ।
अप्पा दंतो सुही होइ अस्सिं लोए परत्थ य ॥6॥
आत्मा चैव दमितव्यः, आत्मा एव खलु दुर्दमः।
आत्मा दान्तः सुखी भवति, अस्मिंल्लोके परत्र च ॥6॥
विजय आत्मा पर करो, यही कठिन है काम ।
आत्मजीत ही सुख बड़ा, सभी लोक में नाम ॥1.10.6.127॥
स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना चाहिये। ये ही सबसे कठिन काम है। आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है।
One must conquer one’s own self, because it is difficult to conquer it. One who has conquered one’s own self attains bliss in this world as well as in the next.(127)
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वरं मे अप्पा दन्तो, संजमो तवेण य ।
मा हं परेहि दम्मंतो, बंधतेहि वहेहि य ॥7॥
वरं मयात्मा दान्तः, संयमेलन तपसा च।
माऽहं परैर्दम्यमानः, बन्धनैर्वधश्च ॥7॥
जीत स्वयं की है उचित, संयम तप का द्वार ।
पर को क्यूँ अधिकार दूँ, बंधन, वध, संहार ॥1.10.7.128॥
संयम व तप द्वारा स्वयं को जीतना ही उचित है। दूसरे मुझे बंधन और वध द्वारा प्रतािंड़त करे यह उचित नही।
It is proper that I must conquer my self by self restrainst and penance. But it is not proper that I should be vanquished by others and made a prisoner or killed by them. (128)
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एगओ विरईं कुज्जा, एगओ य पवत्तणं।
असंजमे नियतिंच, संजमे य पवत्तणं ॥8॥
एकतो विरतिं कुर्यात्, एकतश्च प्रवर्तनम्।
असंयमान्निवृत्तिं च, संयमे च प्रवर्तनम् ॥8॥
इक से भागूँ दूर मैं, जाऊँ द्विक के पास।
त्याग असंयम का करूँ, संयम करूँ निवास ॥1.10.8.129॥
एक को छोड़ना है व दूसरे को अपनाना है। असंयम को छोड़ना है व संयम को अपनाना हैै।
One should desist from action in one direction and undertake action in another direction. One should avoid being incontinent and should practise self-restraint. (129)
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रागद्दोसे य दो पावे, पाव–कम्म–पवत्तणे।
जे भिक्खु रुम्भई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥9॥
रागो द्वेषः च द्वौ पापौ, पापकर्मप्रवर्तकौ।
यो भिक्षुः रुणद्धि नित्यं, स न आस्ते मण्डले ॥9॥
राग द्वेष दोनोें यहाँ, पाप कर्म से युक्त।
भिक्षुक इनसे दूर रहे, भवसागर से मुक्त ॥1.10.9.130॥
राग और द्वेष ये दो पाप हैं। भिक्षु जो इनसे दूर रहता है वह संसार से मुक्त हो जाता है
The two sins attachment and aversion lead one to commit sinful acts. That monk who always control them will not wander in this mundane existence. (130)
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नाणेण य झाणेण य, तवोबलेण य बला निरुभंति।
इन्दिय विसय कसाया, धरिया तुरगा व रज्जूंहिं ॥10॥
ज्ञानेन च ध्यानेन च, तपोबलेन च बलान्निरुध्यन्ते।
इन्द्रियविषयकषाया, धृतास्तुरगा इव रज्जूभिः ॥10॥
ज्ञान–ध्यान तप से करे, बल से रोके काम।
काम वासना त्यूँ रुके, घोड़ा रुके लगाम ॥1.10.10.131॥
ज्ञान, ध्यान और तप से इन्द्रिय विषयों व कषायों को बलपूर्वक रोकना चाहिये, जैसे कि लगाम के द्वारा घोड़ों को रोका जाता है।
Just as a horse can be controlled by a bridle, the sensual pleasures and passions can be forcefully kept under control by knowledge, meditation and power of penance. (131)
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उवसामं पुवणीता, गुणमहता जिण–चरित्त–सरिसं पि।
पिउवातंति कसाया, किं पुण सेसे सरागत्थे ॥11॥
उपशमम् अप्युपनीतं, गुणमहान्तं जिनचरित्रसदृशमपि ।
प्रतिपातयन्ति कषायाः, किं पुनः शेषान् सरागस्थान् ॥11॥
महामुनि जिनेश्वर से, जल कषाय की आग।
पद से अपने गिर पड़े, क्या फिर मुनि सराग ॥1.5.11.132॥
कषाय जिनेश्वर देव के समान चरित्र वाले मुनि को गिरा देती है तब मुनि जो रागयुक्त हो उसका तो कहना ही क्या?
When suppressed, passion can bring about the spiritual degeneration of even the most virtuous monk, who in his conduct is akin to Jina himself, what can we say of monks who are under the sway of attachment? (132)
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इह उवसंतकसाओ लहइ अणंतं पुणो वि पडिवायं।
न हु भे वीससियव्वं, थेवे वि कसायसेसम्मि ॥12॥
इह उपशान्तकषायो, लभतेऽनन्तं पुनरपि प्रतिपातम् ।
न हि युष्माभिर्विश्वसितव्यं स्तोकेऽपि कषायशेषे ॥12॥
जो कषाय उपशांत कर, गति अनंत खो जाय।
राग–द्वेष में जो फँसे, उनका नहीं उपाय ॥1.10.12.133॥
सब कषायों को उपशान्त करने वाला भी कभी कभी अनन्त गति में भ्रमण करता रहता है फिर उसका तो कहना ही क्या जिसमें थोड़ा राग द्वेष बचा है।
Even one who has subsided or repressed all his passions, once more experiences a terrible spiritual degeneration, hence one ought not to become complacent when some remnants of
passions still continue.(133)
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अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च।
न हु मे वीससियव्वं, थोवं पि हु तं बहु होइ ॥13॥
ऋणस्तोकं व्रणस्तोकम्, अग्निस्तौकं कषायस्तोकं च।
नहि भवद्भिर्विश्वसितव्यं, स्तोकमपि खलु तद् बहु भवति ॥13॥
ऋण, घाव या पाप हो, या फिर अल्प हो आग।
थोड़ा मत ये जानिये, बढ़ते रहे सुराग ॥1.10.13.134॥
ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक व कषाय को अल्प मान कर नही बैठना चाहिये क्योंकि ये थोड़े से ही बड़े हो जाते है।
One should not be complacent with a small debt, slight wound, spark of fire and slight passion, because what is small today may become bigger later. (134)
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कोहो पीइं पणासेइ माणो विणय–नासणो।
माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्व–विणासणो ॥14॥
क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः।
माया मित्राणि नाशयति, लोभः सर्वविनाशनः ॥14॥
क्रोध प्रेम विनाश करे, मान विनय का नाश।
माया मैत्री दूर कर, लोभ करे सब नाश ॥1.10.14.135॥
क्रोध प्रेम का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है। माया मैत्री को नष्ट करती है। लोभ सब कुछ नष्ट करता है।
Anger destroys love, pride destroys modesty, deceit destroys friendship; greed is destructive of everything. (135)
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उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे।
मायं चज्जवभाणेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥15॥
उपशमेन हन्यात् क्रोधं, मानं मार्दवेन जयेत्।
मायां च आर्जवभावेन, लोभं सन्तोषतो जयेत् ॥15॥
क्षमा–क्रोध को जीत ले, विनय हराये मान।
निर्मल वश माया रहे, तृप्ति ये लोभ कमान ॥1.10.15.136॥
क्षमा से क्रोध को जीता जा सकता है। नम्रता से मान को। सरलता से माया को और संतोष से लोभ को जीता जा सकता है।
Destroy anger with forgiveness; conquer pride with humility; conquer Deceit with straight forwardness (honesty); and conquer greed with contentment. (136)
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जहा कुम्भे सअंगाई, सए देहे समाहरे।
एवं पावेहिं अप्पाणं, अज्झप्पेण समाहरे ॥16॥
यथा कूर्मः स्वअङ्गानि, स्वके देहे समाहरेत्।
एवं पापानि मेधावी, अध्यात्मना समाहरेत् ॥16॥
कछुआ लेता अंग छुपा, देह में अपनी जान।
ज्ञानी अपने पाप मिटा, पढ़े आत्म का ज्ञान॥1.10.16.137॥
जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने कवच में समेट लेता है वैसे ही ज्ञानी पुरुष अध्यात्म द्वारा अपने पापों को समेट लेते हैं।
Just as a tortoise protects itself by withdrawing all its limbs within its own body, similarly a wise man protects himself from evil by withdrawing himself from sins and passions. (137)
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से जाण–मजाणं वा, कट्टुं आहम्मियं पयं।
संवरे खिप्प–मप्पाणं, बीयं तं न समायरे ॥17॥
स जानन् अजानन् वा, कृत्वा आधार्मिकं पदम्।
संवरेत् क्षिप्रमात्मानं, द्वितीयं तत् न समाचरेत् ॥17॥
जाने अनजाने भले, पाप भरे हो काम।
करें अलग ख़ुद को तुरंत, फिर ना दे अंजाम ॥1.10.17.138॥
जाने अंजाने में कोई अधर्म कार्य हो जाय तो अपनी आत्मा को तुरंत उससे हटा लेना चाहिये जिससे दुबारा वो कार्य न किया जाय।
When an unrighteous deed is committed, whether consciously or unconsciously, one should immediately control oneself so that such an act is not committed again. (138)
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धम्मारामे चरे भिक्खु, धिइमं धम्मसारही।
धम्माराम–रए दंते, बम्भचेर–समाहिए ॥18॥
धर्मारामे चरेद् भिक्षुः, धृतिमान् धर्मसारथिः।
धर्मारामरतो दान्तः, ब्रह्मचर्यसमाहितः ॥18॥
धर्म रथ पर भिक्षु चले, चालक धीरजवान।
धर्म में ही रमता रहे, ब्रह्मचर्य विधान ॥1.10.18.139॥
धैर्यवान, धर्म के रथ को चलानेवाला, जो धर्म में ही रमा रहे और ब्रह्मचर्य में लीन रहने वाला भिक्षु धर्म में विचरण करता है।
A monk who is a courageous driver of the chariot of religion, engrossed in the delight of religion, self-controlled and devoted to celibacy, wanders in the garden of religion. (139)
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