४. ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ॐ
- चतुर्थोऽध्याय: ज्ञानकर्मसन्यासयोग ॐ
श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
इस अविनाशी योग का, दिया सूर्य को ज्ञान ।
रवि कहे मनु–पुत्र से, मनु इक्ष्वाकु जान॥4-1॥
__________________________________________
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप ॥
परम्परासे योग बढ़ा,बना राजॠषि ज्ञान ।
लुप्त प्राय फिर हो गया, कई काल तक ज्ञान ॥4-2॥
__________________________________________
स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन:।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम ॥
भक्त सखा तू है मेरा, दिया पुरातन ज्ञान ।
सबसे उत्तम ज्ञान यही, राज़ ये उम्दा जान ॥4-3॥
__________________________________________
अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वत: ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥
आदिकाल से है रवि, जन्मा तू इस काल ।
क्यों मानूँ इस बात को, सूर्य तुम्हारा बाल ॥4-4॥
__________________________________________
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
मैं तू आये जगत में, लेकर जन्म अनेक ।
तुम्हें नहीं कुछ याद अब, याद मुझे हर एक ॥4-5॥
__________________________________________
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥
अविनाशी अजन्मा हूँ, जीवों का भगवान ।
स्थिर होता निज शक्ति में, बन जाता इंसान ॥4-6॥
__________________________________________
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
हो अधर्म का जब प्रचार, होय धर्म का नाश ।
धरता हूँ मैं रूप स्वयं,करूँ जगत में वास ॥4-7॥
__________________________________________
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
साधु जनों को तारना, पापी मन का नास ।
धर्म स्थापना के लिये, धरती करूँ निवास ॥4-8॥
__________________________________________
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
जन्म कर्म अलौकिक मम, समझे जो यह ज्ञान ।
फिर ना लेता जन्म वो, मिलता मुझको आन ॥4-9॥
__________________________________________
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता: ॥
राग रोष भय जब मिटे, मुझमें भक्त समाय ।
मुझ पर आश्रित भक्तगण, रूप मेरा ही पाय ॥4-10॥
__________________________________________
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वतर्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ॥
हे अर्जुन तू भज मुझे,मैं भी भजूँ समान ।
पालन करते हैं सभी, और करें गुणगान ॥4-11॥
__________________________________________
काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
चाह कर्म फल की रखें, जपें देव हर बार ।
उसको भी इसलोक में, फल मिलता तैयार ॥4-12॥
__________________________________________
तुर्वणर्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
चार वर्ण मैंने किये, गुण कर्मों को जान ।
सृष्टि रचयिता हूँ मगर, मुझे अकर्ता मान ॥4-13॥
__________________________________________
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
फलमेरी इच्छा नहीं, कर्म करूँ निष्काम ।
बँधें नहींजो कर्म से, ले तत्वों से काम ॥4-14॥
__________________________________________
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै:पूर्वतर ं कृतम् ॥
कर्म किये हैं इस तरह, सन्तों ने चिरकाल ।
कर ले तू भी अनुसरण , पूर्वज कर्म कमाल ॥4-15॥
__________________________________________
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥
कर्म और अकर्म क्या, ज्ञानी भी भरमाय ।
कर्मतत्व मुझसे समझ, कर्ममुक्त हो जाय॥4-16॥
__________________________________________
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:॥
कर्म क्या है जान लेे, ले अकर्म भी जान ।
समझे चलें विकर्म को, कर्म गहनता ज्ञान॥4-17॥
__________________________________________
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:|
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ॥
देखे कर्म अकर्म में, जो अकर्म में कर्म
बुद्धिमान मानव वही, योगी से है कर्म ॥4-18॥
__________________________________________
यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:|
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा:॥
बिन संकल्पित कामना, किये धर्म से कर्म ।
कर्म यज्ञ में भस्मकिये, पंडित का ये धर्म ॥4-19॥
__________________________________________
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रय: ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति स: ॥
कर्मफल में जो नहीं, या आश्रित संसार ।
ईश्वर में जो लीन है, कर्म न उसका भार॥4-20॥
__________________________________________
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
अंतर्मन जो जीत सका, किया भोग का त्याग ।
कर्म ऐसे मानव के, पाप नहीं है भाग ॥4-21॥
__________________________________________
यद़ृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर: ।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥
प्राप्ति से संतुष्ट जो, नहीं जलन का भाव ।
ध्यान जिसे सुख दु:ख नहीं, रहता कर्म अभाव ॥4-22॥
__________________________________________
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: ।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥
मोह – माया नहीं रहे,रहे ईश में ध्यान ।
ऐसा मानव यज्ञ करे, कर्म विलय हो जान ॥4-23॥
__________________________________________
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
द्रव्य अर्पण और हवन, तीनों भी हो ब्रह्म ।
क्रिया ब्रम्ह स्वरूप संग, फल योगी का ब्रह्म ॥4-24॥
__________________________________________
दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥
पूजेयोगीदेव को, करके यज्ञ विधान ।
कुछ पूजे परब्रह्म को, दे खुद का बलिदान ॥4-25॥
__________________________________________
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥
भस्म इन्द्रियों को करें, संयम में कुछ लोग ।
कुछ इन्द्रियों की आग में जलते कर उपभोग ॥4-26॥
__________________________________________
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥
सकल क्रियाएँ प्राण की, करें प्रकाशित ज्ञान ।
आत्म संयम योगसहित, करें अग्नि को दान ॥4-27॥
__________________________________________
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता: ॥
अर्पित करते यज्ञ में, लोग द्रव्य तप योग ।
व्रत धारक ऐसे मिले, तजे ज्ञान भी लोग ॥4-28॥
__________________________________________
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा: ॥
लगकर प्राणायाम में, हवन प्राण का जान ।
लेन देन यह साँस का, इक दूजे को दान ॥4-29॥
__________________________________________
अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा: ॥
हवन प्राण का प्राण में, कर नियमित आहार ।
पाप यज्ञ से नाश कर, समझ यज्ञ का सार॥4-30॥
__________________________________________
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम ॥
यज्ञ शेष का भोग करे, मोक्ष ज्ञानी पाय ।
जन जो करते यज्ञ नहीं, दुख सर्वत्र समाय॥4-31॥
__________________________________________
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥
यज्ञ कई इस जगत में, मिले ब्रह्म की ओर।
कर्म से उत्पन्न हो, मिले मोक्ष का छोर ॥4-32॥
__________________________________________
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परन्तप ।
सवर्ं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
ज्ञान यज्ञ ही श्रेष्ठ है, द्रव्य यज्ञ से पार्थ ।
ज्ञान यज्ञ की अग्नि में, भस्म कर्म के स्वार्थ ॥4-33॥
__________________________________________
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
ज्ञानी की जाओ शरण, जो लेना हो ज्ञान ।
प्रश्न मनन और चरण से, मिले तत्व का ज्ञान ॥4-34॥
__________________________________________
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
मिले ज्ञान ऐसा हमें, करे मोह का अंत ।
मिटे भेद सब जीव में, हो जाये मन सन्त ॥4-35॥
__________________________________________
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पाप.त्तम: ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
चाहे तू पापी परम, हो जायेगा पार ।
पकड़े नौका ज्ञान की, तर जाये संसार ॥4-36॥
__________________________________________
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
हे अर्जुन! ज्यों अग्नि से, ईंधन का हो नाश ।
ज्ञानाग्नि से उसी तरह, दुष्कर्मों का ह्रास॥4-37॥
__________________________________________
न हि ज्ञानेन स.शं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति ॥
नहीं मिले संसार में, कारक ज्ञान समान ।
पावन करता आत्मा, कर्मयोग का ध्यान॥4-38॥
__________________________________________
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
वश में जिसके इंद्रियाँ, मन में श्रध्दा भाव ।
वो ज्ञानी तत्पर बनें, रहे न साथ अभाव ॥4-39॥
__________________________________________
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन: ॥
अज्ञानी श्रद्धा बिना, संशय से भरपूर ।
ऐसे मानव नष्ट हों, है हर लोक सुदूर ॥4-40॥
__________________________________________
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥
अर्जुन कर्म विवेक से, कर संशय का नाश ।
अर्जुन वश ना करम के, मानव का विश्वास ॥4-41॥
__________________________________________
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन: ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
हे अर्जुन संशय सदा, करो ज्ञान से दूर ।
कर्मयोग में थिर रहो, चलो न रण से दूर॥4-42॥
__________________________________________
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्याय: ॥
॥ ॐ ॐ ॐ ॥