Nectar Of Wisdom

कायवाङ् मन: कर्म योग:॥१॥

क्रिया द्वारा कर्ता को, प्राप्त इष्ट सुहाय।
तन मन वचन की क्रिया, योग यही कहलाय॥६.१.२१०॥

शरीर, वचन और मन की क्रिया को योग कहते है।

The activity of the body, speech and mind is called union (Yog).

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स आस्रव:॥२॥

मन वचन और काय का, जब होता संयोग।
कर्म ग्रहण चलता रहे, आस्रव ही है योग॥६.२.२११॥

वह योग ही आस्रव है।

The yog is influx of karma.

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शुभ: पुणयस्याशुभ: पापस्य ॥३॥

अशुभयोग से आस्रव हो, पापकर्म को मान।
शुभयोग भी आस्रव है, पुण्य कर्म का जान॥६.३.२१२॥

शुभयोग से पुण्य कर्म का और अशुभयोग से पाप कर्म का आस्रव होता है।

Virtuous activity is cause of merit (punya) and evil activity is the cause of demerit (pap)

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सकषायाकषाययो: साम्परायिकोर्यापथयो:॥४॥

साम्परायिक आस्रव हो, जीव पीड़ित कषाय।
ईर्यापथ में आस्रव हो, जीव नहीं सकषाय ॥६.४.२१३॥

कषायसहित जीवों के साम्परायिक आस्रव होता है और कषाय रहित जीवों के ईर्यापथ आस्रव होता है।

There are two kinds of influx. Namely that of persons with passion which is cause of transmigration (samparayik). Another is of persons free from passions which shortens transmigration is called (Iryapath).

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इन्द्रियकषायव्रतक्रिया: पञ्चचतु:पञ्चपञ्चविशंति संख्या पूर्वस्य भेदा:॥५॥

चार कषाय पाँच इन्द्रियाँ, पच्चीस क्रिया जान।
सांपरायिक आस्रव है, पाँच अव्रत पहचान॥

इन्द्रियाँ पाँच, कषाय चार, अव्रत पाँच और पच्चीस क्रियायें ये सब सांपरायिक आस्रव के भेद है।

The subdivision of former (samparayik) are as follow.

  1. Senses (Indriya) five
  2. Passions (Kasay) four
  3. Non observance of vows (avrat) five
  4. Activities (kriya) twenty five.

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तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेष:॥६॥

भाव मंद या तीव्र हो, ज्ञात अज्ञात भाव।
अधिकरण व वीर्य भी, भेद आस्रव भाव॥६.६.२१५॥

तीव्र भाव, मंद भाव, ज्ञात भाव, अज्ञात भाव, अधिकरण और वीर्य इनकी विशेषता से आस्रव भाव में भेद पड़ जाता है।

Influx of karma is differentiated on the basis of intensity of emotions (bhav), fullness of emotions, knowledge or ignorance of thoughts, basis (adhikaran) or potency.

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अधिकरणं जीवाजीवा:॥७॥

आस्रव के आधार दो, अधिकरण प्रकार।
जीवाधिकरण जीव से, अजीव करो विचार॥६.७.२१६॥

आस्रव के आधार जीव और अजीव है। इस प्रकार अधिकरण दो प्रकार का है। जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण।

Basis of influx of karma is of two types. Living being and non-living things.

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आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैत्रित्रित्रिश्चतुश्चैकश:॥८॥

आरम्भ संरम्भ, समारम्भ, जीवाधिकरण जान।
कृत, कारित, अनुमोदना, योग व कषाय मान॥६.८.२१७॥

जीवाधिकरण संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ ये तीन, मन, वचन और काय ये तीन योग, कृत, कारित और अनुमोदना ये तीन और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायें और इनको गुणा (३*३*३*४) करने से १०८ प्रकार का है।

The basis influx of karma through living beings is of 108 types is as follow: planning, organising and beginning (3), mind, speech and body (yog) (3), doing, getting done one approving (3), passions – anger, pride, illusion and greed (4). Multiplication of 3x3x3x4 results to 108.

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निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्दित्रिभेदा: परम्॥९॥

आस्रव अजीवाधिकरण, निर्वर्तना दो विचार।
दो प्रकार संयोग के, निसर्ग तीन प्रकार॥६.९.२१८॥

अजीवाधिकरण आस्रव दो प्रकार की निर्वर्तना (रचना), चार प्रकार के निक्षेप (स्थापना), दो प्रकार के संयोग और तीन प्रकार के निसर्ग (प्रवृति) ऐसे कुल ११ भेद रुप है।

Creation of 2 types, placing of 4 types, combining of 2 types and activity of 3 types is basis of influx of karma through non living things.

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तत्प्रदोषनिन्हवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो:॥१०॥

आस्रव ज्ञान दर्शनावरण, निन्दा छुपाये बात।
घमण्ड व अन्तराय भी, निषेध हो उपघात॥६.१०.२१९॥

ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव कारण है, प्रदोष (निन्दा), निन्हव (छुपाना), मात्सर्य (घमण्ड), अन्तराय (बाधा), आसादन (निषेध) और उपघात।

The reasons for obscure of knowledge and faith are as follow. Spite or condemnation, concealment, non-imparting, causing impediment, disregard and derogation.

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दु:खशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभय- स्थानान्यसद्वेद्यस्य॥११॥

शोक, ताप, आक्रन्दन दु:ख, वध परिवेदन जान।
स्व, पर या दोनों करे, दु:ख वेदनीय मान॥६.११.२२०॥

दु:ख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिवेदन- इन्हें स्वयं को, पर को और दोनों को करने से असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।

Suffering, sorrow, agony, moaning, killing and lamentation in self or others or both lead to the influx of karmas pertaining to unpleasant feelings.

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भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोग: क्षान्ति: शौचमिति सद्वेद्यस्य॥१२॥

जीवों पर दया करना और व्रतियों को दान देना, राग सहित संयम पालना, एकदेश संयम पालना, क्षमाभाव और निर्लोभ भाव रखना- इन सबसे सातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।

जीव व्रती पर अनुकम्पा, सरागसंयम योग।
क्षमाभाव निर्लोभ रहे, सुखवेदन संयोग॥६.१२.२२१॥

Compassion, devout, charity, asceticism with attachment, involuntary dissociation of karmas, contemplation, equanimity, freedom from greed leads to the influx of karmas that cause pleasant feelings.

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केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य॥१३॥

केवली, शास्त्र, संघ, धर्म, देव का अवर्णवाद।
आस्रव दर्शन मोह रहे, होय नहीं अपवाद॥६.१३.२२२॥

केवली, शास्त्र, संघ, धर्म और देवों का अवर्णवाद करने से दर्शन मोह का आस्रव होता है।

Disrespecting omniscient, scriptures,sangha, true religion and celestial beings leads to influx of faith deluding karmas.

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कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य॥१४॥

कषाय का जब हो उदय, तीव्र हो परिणाम।
चारित्रमोहनीय कर्म का, आस्रव करता काम॥६.१४.२२३॥

कषाय के उदय से परिणामों में तीव्र कलुषित होने से चारित्रमोहनीय कर्म का आस्रव होता है।

Intense feelings induced by the rise of the passions cause the influx of karma called conduct deluding karmas.

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बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुष:॥१५॥

आरम्भिक हो बहुलता, परिग्रह का भंडार।
आसक्ति से आस्रव हो, नरक आयु का भार॥६.१५.२२४॥

बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह करने से नरकायु का आस्रव होता है।

Attachment to too many activities and possessions leads to life in the infernal regions.

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माया तैर्यग्योनस्य॥१६॥

सीधे जो ना रह सके, तिर्यंच करो विचार।
आयु जो हो बांधनी, आस्रव मायाचार॥६.१६.२२५॥

मायाचार से तिर्यंच आयु का आस्रव होता है।

Deceitfulness results into the influx of life karma which leads to animal and vegetable world.

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अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य॥१७॥

मनुज गति की चाह रहे, मोक्ष का है द्वार।
अल्प आरम्भों परिग्रह, मानव आयु विचार॥६.१७.२२६॥

अल्प आरम्भ करने और अल्प परिग्रह संग्रह से मनुष्य आयु का आस्रव होता है।

Attachment to activities and possessions cause in flux of karmas which leads to human life.

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स्वभावमार्दवं च॥१८॥

और कारण मनुष्य का, कोमलता स्वभाव।
देवगति भी संभव है, कोमल जिसके भाव॥६.१८.२२७॥

और स्वभाव की कोमलता भी मनुष्य के साथ देव आयु के आस्रव का कारण है।

Mildness in nature leads to human life as well celestial beings (dev).

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नि:शीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् ॥१९॥

सात शील जिसके नहीं, पाँच व्रत अभाव।
चारों गति का बंध हो, छेद पड़ी है नाव॥६.१९.२२८॥

सात शील और अहिंसादि पाँच व्रतों का अभाव सभी आयुओं के आस्रव का कारण है।

Non observance of moral and main vows causes the influx of life karmas which leads to all the four kinds of lives (gati).

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सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरा बालतपांसिदैवस्य॥२०॥

सराग या संयमासंयम, अकामनिर्जरा जान
।बालतप का आस्रव, देव आयु सम्मान॥६.२०.२२९॥

सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप भी देवायु के आस्रव के कारण है।

Restraint with attachment, restraint cum non-restraint, involuntary dissociation of karmas and austerities accompanied by perverted faith causes the influx of karmas leading to celestial birth.

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सम्यक्त्वं च॥२१॥

देव आयु आस्रव हो, श्रद्धा सम्यक सार।
देव वैमानिक संभव, सम्यक् हो संसार॥६.२१.२३०॥

सम्यक्त्व को भी देव आयु के आस्रव का कारण कहा है। (वैमानिक देवों की)

Right belief is also the cause of influx of karma leads to celestial birth.

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योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्न:॥२२॥

मन वचन और काय से, कुटिल जब व्यवहार।
वाद विवाद की प्रवृत्ति, अशुभ नाम की मार॥६.२२.२३१॥

योग (मन, वचन व काय) की कुटिलता और लड़ने झगड़ने की प्रवृत्ति से अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है।

Crooked activities and deception causes the influx of inauspicious physique making (Naam) karma.

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तद्विपरीतं शुभस्य॥२३॥

मन वचन और काय से, सरल जब व्यवहार।
वाद विवाद करे नहीं, शुभनाम कर्म विचार॥ ६.२३.२३२॥

अशुभ नाम कर्म के विपरीत योग की सरलता व विसंवाद नहीं होना, शुभ नाम कर्म के आस्रव का कारण है।

The opposites of these such as straightforward activity and honesty cause the influx of auspicious physique making karma.

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दर्शनविशुद्धिविर्नयसंपन्नता शीलव्रतेष्यनतिचारो

ऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिवैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचन

भक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य॥२४॥

तीर्थंकर नाम कर्म का, सोलहकरण स्वभाव।
दर्शनशुद्धि, विनयसहित, शीलव्रत का भाव॥

ज्ञानोपयोग निरंतरता, संवेग, शक्तित:त्याग।शक्तित: तप, समाधि रहे, वैयावृत्य की आग॥भक्ति अरिहंत, आचार्य की, श्रुत, प्रवचन ज्ञान।

आवश्यक व प्रभावना, प्रवचनवत्सलत्व जान॥६.२४.२३३॥
दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, निरतिचार शीलव्रत,

अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तित:त्याग, शक्तित: तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हदभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्व ये सोलह भावनायें तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण है।

The influx of tirthankar name karma is caused by following 16 observances.

  1. Purity of right faith
  2. Reverence
  3. Observance of vows without any transgressions
  4. Ceaseless pursuit of knowledge
  5. Perpetual fear of cycle of birth and rebirth
  6. Renunciation as possible
  7. Practising austerities as per capacity
  8. Thoughtlessness of saint
  9. Selfless service to ascetics
  10. Devotion to omniscient lords
  11. Devotion to head of congregation
  12. Devotion to perceptors
  13. Devotion to scriptures
  14. Practising essential duties
  15. Propagation of teaching of omniscients
  16. Selfless affection to sermons

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परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचार्गोत्रस्य॥२५॥

परनिंदा स्व प्रशंसा, ‘पर’ गुण का न बखान।
गुण कहे जो है नहीं, नीच गोत्र हो जान॥६.२५.२३४॥

दूसरों की निन्दा, अपनी प्रशंसा, दूसरों के गुणों को ढंकना और अपने में जो गुण नहीं है उसको प्रकट करना ऐसे भावों से नीच गोत्र का आस्रव होता है।

Criticising others and praising self, concealing good qualities of others and highlighting good qualities which are absent in self, causes the influx of karmas which lead to lower status.

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तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य॥२६॥

स्व निन्दा ‘पर’ प्रशंसा, ‘पर’ गुण करे बखान।
अवगुण को देखे नहीं, उच्च गोत्र का मान॥६.२६.२३५॥

इसके विपरीत कारणों से अर्थात् दूसरों की प्रशंसा, अपनी निन्दा, दूसरों के गुणों को प्रकट करना अवगुणों को ढाँकना, स्वयं के गुणों को प्रकट न करना व दोषों को उजागर करना , गुणीजनों के सामने विनम्र रहना, गुणों के होने पर भी अभिमान न करना ये सब उच्च गोत्र के आस्रव के कारण है।

The opposite of those mentioned in previous sutra leads to higher status.

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विध्नकरणमन्तरायस्य॥२७॥

विध्न करे जो दान में, लाभ भोग उपभोग।
बस में भी बाधा करे, अन्तराय का योग॥६.२७.२३६॥

दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विध्न डालने से अन्तराय कर्म का आस्रव होता है।

Laying the obstacles in charity, profitability, consumption, utilisation and potency leads to influx of obstructing karmas.

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