देशावकाशिकं वा, सामयिकं प्रोषधोपवासो वा।
वैयावृत्त्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि॥९१॥
देशव्रत सामायिक है, शिक्षाव्रत है चार।
प्रोषध, वैयावृत्य भी, शिक्षाव्रत विचार॥५.१.९१॥
चार शिक्षाव्रत कहे गये हैं। देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य।
There are four Shikshavrat: Deshavkashik, Samayik, Proshadhopvas and Vaiyavrutya.
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देशावकाशिकं स्यात् कालपरिच्छेदनेन देशस्य।
प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य॥९२॥
दिग्व्रत में श्रावक करता, निश्चित सीमा काल।
देशव्रत सीमा कड़ी, दिग्व्रत काल विशाल॥५.२.९२॥
अणुव्रतपालक श्रावकों का दिग्व्रत में की गई मर्यादा का समय के विभाग से संकुचित करना देशावकाशिक या देशव्रत कहलाता हैं।
Minor vow holders further restrict themselves for a certain time period is called deshavkashikvrat.
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गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च।
देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धा:॥९३॥
प्रसिद्ध घर, ग्राम, गली, क्षेत्र, नदी, की पाल।
सीमा जंगल योजन की, देशव्रत की चाल॥५.३.९३॥
प्रसिद्ध घर, गली, ग्राम, क्षेत्र, नदी, जंगल व योजन की मर्यादा के नियम को तपस्वी साधुओं ने देशावकाशिक व्रत कहा हैं।
Restricting self to specific house, lane, village, area, river, forest or distance is called deshavkashikvrat by wise saints.
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संवत्सरमृतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च।
देशावकाशिकस्य प्राहु: कालावधिं प्राज्ञा:॥९४॥
एक वर्ष, माह, ऋतु व पक्ष, दिन नक्षत्र काल।
देशव्रत ज्ञानी कहे, काल मर्यादा पाल॥५.४.९४॥
ज्ञानी संत देशावकाशिक व्रत की काल मर्यादा को एक वर्ष, छह माह, एक ऋतु, एक माह, चार माह, पन्द्रह दिन और एक दिन या एक नक्षत्र तक कहते है।
Time period for deshavkashikvrat may an year, six months, a season, one month, four months, fortnight or a day or star cycles.
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सीमानतानां परत: स्थूलेतरपंचपापसन्त्यागात्।
देशावकाशिकेन च महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते॥९५॥
सीमा के बाहर देशव्रत में, पाँच पाप का त्याग।
सिद्ध होते महाव्रत से, देशव्रत का मार्ग॥५.५.९५॥
सीमाओं के बाहर स्थूल और सूक्ष्म पाँच पापों का पूर्ण त्याग हो जाने से देशावकाशिक द्वारा महाव्रत सिद्ध किये जाते हैं।
The observer of Deshavakashikvrat are also termed as observer of mahavrat within limits set because they renunciate five kinds of gross as well subtle sins.
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प्रेषणशब्दानयनं रूपाभिव्यक्तिपुद्गलक्षेपौ।
देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्तेऽत्यया: पंच॥९६॥
सीमा बाहर भेजना, बोले, माँग दिखाय।
देशव्रत अतिचार है, पत्थर फेंक बुलाय॥५.६.९६॥
देशावकाशिकव्रत के पाँच अतिचार: नियमित मर्यादा के बाहर भेजना, बोलना, मँगाना, शरीर दिखाना व पत्थर आदि फेंकना।
Five violations of deshavkashikvrat: breaching the limits by sending someone, speaking, calling, showing gestures and throwing stones etc.
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आसमयमुक्ति मुक्तं पंचाघाना मशेषभावेन।
सर्वत्र च सामयिका: सामयिकं नाम शंसन्ति॥९७॥
भाव पूर्ण त्याग करे, पंच पाप नियत काल।
गणधर देव इसे कहे, सामायिक हर हाल॥५.७.९७॥
निश्चित समय तक पूर्ण भाव (मन, वचन व काया) से पाँचो पापो के सर्वत्र त्याग को गणधर देवों ने सामायिक कहा हैं।
Gandhardev has defined samayik as complete renunciation of all five sins by mind, speech and body for a certain time.
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मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्धं पर्य्यंकबंधनं चापि।
स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञा:॥९८॥
केश, मुष्टि, वस्त्र बंधन, पद्मासन कुछ काल।
कायोत्सर्ग में खड़े रहे, सामायिक वो पाल॥५.८.९८॥
आगम के ज्ञाता केशबंधन, मुष्टिबंधन, वस्त्रबंधन, पद्मासन, कायोत्सर्ग में खड़े रहना या बैठने को भी सामायिक कहते हैं।
Knowers of agam called Samayik as tying hairs, fist, garment, padmasan and kayotsarga for a certain time.
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एकान्ते सामयिकं निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च।
चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया॥९९॥
एकान्त, वन, घर, या मंदिर, गुफा जैसा स्थान।
प्रसन्नचित्त सामायिक हो, बढ़ता जाये ज्ञान॥५.९.९९॥
एकान्त में प्रसन्नचित्त भाव से उपद्रवरहित होकर वन में, एकान्त घर में, मंदिर में, गुफा या वृक्ष की कोटर में सामायिक बढाना चाहिये।
In seclusion and with cheerful mood one shall increase the period of samayik while in lonely house or temple or cave or under the tree.
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व्यापार वैमनस्याद्विनिवृत्त्यामन्तरात्म विनिवृत्त्या।
सामयिकं बध्नीयादुपवासे चैकभुक्ते वा॥१००॥
निवृत हो काम झंझट से, मन विकल्प को छोड़।
उपवास व एकासन में, सामायिक मन मोड़॥५.१०.१००॥
व्यापार की कलुषता से निवृत्त होकर, मन के विकल्पो से निवृत्त होकर उपवास व एकासन के दिन सामायिक को बढाना चाहिए।
By withdrawing mind from all sorts of worldly activities, removing all sorts of alternatives, by doing fasting or one time food one shall increase the Samayik.
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सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यं।
व्रतपंचकपरिपूरण कारणमवधानयुक्तेन॥१०१॥
आलस व व्यवधान रहित, सामायिक में ध्यान।
पाँचों व्रत पालन हो, जैन धर्म का ज्ञान॥५.११.१०१॥
आलस्य व व्यवधान रहित प्रतिदिन विधिपूर्वक सामायिक करने से पाँचों व्रतों का पालन होता हैं।
By doing daily samayik, without laziness and disturbance, it helps in observing five vows.
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सामयिके सारम्भा: परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि।
चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम्॥१०२॥
आरम्भ परिग्रह हो नहीं, सामायिक के भाव।|
गृहस्थ पर वस्त्र भार लगे, मुनि समान स्वभाव॥५.१२.१०२॥
सामायिक में आरम्भ व परिग्रह का अभाव होने से गृहस्थ ऐसा प्रतित होता है जैसे मुनि पर वस्त्र का उपसर्ग किया हो।
Due to absence of any beginning or possessions in samayik, householder appear as ascetic who is afflicted by cloth.
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शीतोष्णदंशमशकपरीषहमुपसर्गमपि च मऔनधरा:।
सामयिकं प्रतिपन्ना अधिकुर्वीरन्नचलयोगा:॥१०३॥
सर्दी गर्मी काटे मच्छर, मौन अटल व्यवहार।
परीषह या उपसर्ग हो, करता नहीं विचार॥५.१३.१०३॥
सामायिक में मौन व निश्चलता के साथ शीत, उष्ण, मच्छर का काटना, डंसना व अन्य परीषह व उपसर्ग को सहन करता हैं।
In samayik one ignores parishah ( troubles of nature) such as cold and heat and upsarg (troubles caused by others) such as mosquito bites etc.
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अशरणमशुभमनित्यं दु:खमनात्मानमावसामि भवम्।
मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके॥१०४॥
अशरण, अशुभ अनित्य है, दुख भरा संसार।
मोक्ष को विपरीत कहा, सामायिक में सार५.१४.१०४॥
सामयिक में यह ध्यान करे कि मेरा आवास इस संसार में अशरण, अशुभ, अनित्य, दुख से भरा व आत्मस्वरूप रहित है व मोक्ष इसके विपरीत स्वभाव वाला अर्थात शरण, शुभ, नित्य, सुखकारी व आत्मस्वरूप हैं।
In samayik one shall meditate that in this world there is no protection to soul, world is inauspicious, impermanent and full of sufferings where as moksha is opposite of samsara.
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वाक्कायमानसानां दु:प्रणिधानान्यनादरास्मरणे।
सामयिकस्यातिगमा व्यज्यन्ते पंच भावेन॥१०५॥
खोट मन वचन काय में, सामायिक अतिचार।
अनादर व अस्मरण हो, अच्छे नहीं विचार॥५.१५.१०५॥
सामायिक के पाँच अतिचार- मन, वचन व काय की खोटी प्रवृत्तियाँ, अनादर व अस्मरण।
Five violations of samayik- activities of mind, speech and body, disrespect to meditation and forgetting that I am in meditation.
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पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्य: प्रोषधोववासस्तु।
चतुरभ्यवहार्य्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभि:॥१०६॥
अष्टमी और चतुर्दशी, प्रोषध व उपवास।
चार आहर त्याग हो, शिक्षा व्रत है ख़ास॥५.१६.१०६॥
अष्टमी व चतुर्दशी के दिन सद्भावना से सदा के लिए चारो प्रकार के आहार (खाद्य, स्वाद्य, लेह्य व पेय) का त्याग करना प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत जानना चाहिये।
Abstaining from four kinds of food on 8th and 14th tithi of hindi calendar every fortnight is called Proshdhopvas shiksha vrat.
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पंचानां पापानामलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम्।
स्नानांजननस्यानामुपवासे परिह्रतिं कुर्य्यात्॥१०७॥
पाप, आरंभ श्रंगार का, कर देता है त्याग।
उपवास दिन श्रावक जन, रखते नहीं है राग॥५.१७.१०७॥
उपवास के दिन पाँचों पापों का त्याग और अलंकार, आरंभ, खूशबू, पुष्प, स्नान, अंजन, सूंघना आदि का परित्याग करना चाहिये।
On the day of fasting one shall give up all five sins, jewellery, beginning of any activity, flowers, bath, surma and fragrance.
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धर्मामृतं सतृष्ण: श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान्।
ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालु:॥१०८॥
उत्साहित व आलस्य रहित, जब करता उपवास।
ज्ञान ध्यान में लीन हो, धर्म का अमृत पास॥५.१८.१०८॥
उपवास करने वाला आलस्य रहित व उत्साहित होकर धर्मरूपी अमृत का पान सुनते भी है और सुनाते भी है और ज्ञान ध्यान में लीन रहते हैं।
Fasting person, without laziness and with enthusiasm, listens nectar of scriptures and help others in drinking nectar of wisdom.
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चतुर्हारविसर्जनमुपवास: प्रोषध: सकृद्भुक्ति:।
स प्रोषधोपवासो यदु पोष्यारम्भमाचरति॥१०९॥
एक बार प्रोषध कहा , न आहार उपवास।
प्रोषध धारण, पारणा, हो प्रोषधोपवास॥५.१९.१०९॥
चारो आहार का सर्वथा त्याग उपवास हैं। दिन में एक बार भोजन करना प्रोषध है। उपवास की धारणा और पारणा के दिन एकासन करने से प्रोषधोपवास कहलाता है।
Completing abstaining of food is fasting. Eating once in a day is Prosadh. Prior and after the day of fasting doing prosadh is Prosadhopavas.
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ग्रहणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यादरास्मरणे।
यत्प्रोषधोपवासव्यतिलिंघनपंचकं तदिदम्॥११०॥
ग्रहण विसर्जन ध्यान नहीं, बिछाया ना विचार।
अनादर या विस्मरण हो, प्रोषध में अतिचार॥५.२०.११०॥
प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार: बिना देखे और बिना शोधे ग्रहण करना, विसर्जन करना, बिछाना तथा आवश्यक में अनादर करना और योग्य क्रियाओं को भूल जाना।
There are five violations of Prosadhopavasshikshavrat. Carelessly and without checking receiving, releasing, spreading, disrespecting or forgetting.
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दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये।
अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन॥१११॥
वैयावृत्य शिक्षाव्रत है, धर्म वृद्धि के लिए दान।
तपस्वी व गुणी संत को, विधिपूर्वक सम्मान॥५.२१.१११॥
तपस्वी, गुणधारी संतो के लिए विधिपूर्वक बिना किसी अपेक्षा के धर्म की वृद्धि के लिये दान देना वैयावृत्य नाम का शिक्षाव्रत कहा जाता हैं।
Doing charity to wise saints with proper system and for increasing dharma is called vaiyavrat shikshavrat.
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व्यापत्तिव्यपनोद: पदयो: संवाहनं च गुणरागात्।
वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम्॥११२॥
सेवा हो गुणी संयमी, श्रावक का उपकार।
आपत्ति को दूर करे, वैयावृत्य विचार॥५.२२.११२॥
गुणधारक संयमियों की आपत्ति को दूर करना पैरो को दबाना इत्यादि उपकार वैयावृत्य कहा जाता हैं।
Removing troubles of ascetics and serving them is called vaiyavrat.
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नवपुण्यै: प्रतिपत्ति: सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन।
अपसूनारम्भाणा मार्याणा मिष्यते दानम्॥११३॥
सप्तगुणी पंचसून रहित, मुनि न आरम्भ मान।
आहार नवधाभक्ति से, कहते उत्तम दान॥५.२३.११३॥
नवधाभक्तिपूर्वक, सप्तगुणों (श्रद्धा, संतोष, भक्ति, विज्ञान, निर्लोभता, क्षमा, सत्य) सहित शुद्धरुप से पंच सूनों (कूटना, पीसना, झाड़ना, पानी भरना, चूल्हा जलाना) रहित व आरम्भों से रहित गुणी मुनियों को आहार आदि देने को दान कहा हैं।
Giving of food to ascetics who abstain from any activities and devoid of five householder work such as crushing, grinding, cleaning, water filling and kindling of fire) , shall be With navadhabhakti and With seven virtues (faith, satisfaction, devotion, system, no greed, forgiveness and truth)
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गृहकर्मणापि निचितं कर्म कर्म विमार्ष्टि खलु गृहविमुक्तानाम्।
अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि॥११४॥
घररहित अतिथि की करे, जो सेवा और दान।
कर्म धुलते उसी तरह, लहू मिले जल जान॥५.२४.११४॥
घररहित अतिथि की दान सेवा से गृहस्थ के उपार्जित कर्म उसी तरह धुल जाते है जैसे जल से खून धुल जाता हैं।
Giving to ascetics cleanses karma as we clean blood with water.
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उच्चैर्गौत्रं प्रणतेर्भोगो, दानादुपासनात्पूज्या।
भक्ते: सुन्दररुपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु॥११५॥
उच्च गौत्र मुनि सम्मान से, भोग आहार का दान।
स्तुति से यश रुप भक्ति से, पूजे मिले सम्मान॥५.२५.११५॥
तपस्वी मुनियों को प्रणाम करने से उच्च गौत्र, आहारादि का दान देने से भोग, उपासना करने से सम्मान, भक्ति करने से सुन्दर रुप और स्तुति करने से यश प्राप्त होता हैं।
Bowing to ascetics leads to higher status, giving food will returned in form of consumptions, worship will lead to getting respect, devotion will lead to beauty and fame by praising their virtues.
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क्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगतं दानमल्पमति काले।
फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम्॥११६॥
दीर्घ काल छाया मिले, वटवृक्ष बीज सुजान।
उत्तम फल मिलता रहे, श्रावक करता दान॥५.२६.११६॥
जिस प्रकार वटवृक्ष का बीज बहुत काल के पश्चात भी छाया की प्रचुरता व वैभव वाला फल देता है उसी प्रकार उत्तम दान भी इष्ट फल देता हैं।
Just as small seed of fig tree gives magnificent shade for many years, same way right charity gives good fruits over a period.
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आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन।
वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्त्रा:॥११७॥
ज्ञानी गणधर ने कहा, दान चार प्रकार।
आवास और उपकरण, दे औषधि आहार॥५.२७.११७॥
चार ज्ञानधारी गणधर देव ने चार प्रकार के दान को वैयावृत्य कहा है। आहार, औषधि, उपकरण व आवास।
As per Jindev, Vaiyavrutya is of four types. Food, medicine, means of knowledge and shelter.
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श्रीषेणवृषभसेने कौणडेश: सूकरश्च दृष्टान्ता:।
वैयावृत्यस्यैते चतुर्विकल्पस्य मनतव्या:॥११८॥
श्रीशेण वृषभसेन भी, कौण्डेश का नाम।
कथा सूकर महान की, वैयावृत्य पहचान॥५.२८.११८॥
श्रीशेण, वृषभसेना, कौण्डेश और सूकर के दृष्टान्त चार वैयावृत्य में प्रसिद्ध मानना।
Shrishen, Vrushabhsen, Kondesh and Sukar became famous in four kind of Vaiyavrutya respectively.
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देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदु:खनिर्हरणम्।
कामदुहि कामदाहिनि परिचिननयादादृतो नित्यम्॥११९॥
सब दु:ख श्रावक के हरे, वन्दन अरिहन्त धाम।
काम नष्ट व चाह मिटे, नित्य देव प्रणाम॥५.२९.११९॥
प्रतिदिन अरिहन्तादि देव के चरणों में वन्दन करने से श्रावक की मनोकामना पूर्ण होती है व काम को भस्म करती हैं।
Worshipping in the feet of Tirthankars everyday, one can fulfill his/her desires and also helps in destroying all desires.
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अर्हच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत्।
भेक: प्रमोदमत्त: कुसुमेनैकेन राजगृहे॥१२०॥
राजगृह के मेंढक ने, पूजन हर्ष विभोर।
फूल चढ़ाया अरिहन्त को, मन में नाचा मोर॥५.३०.१२०॥
राजगृहनगर में हर्षविभोर मेंढ़क ने एकफूल के द्वारा भव्यजीवों के समक्ष अरिहन्त भगवान की पूजा की महिमा को प्रकट किया।
A joyous frog demonstrated the glory of worshipping Tirthankara by simply offering a flower.
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हरितपिधाननिधाने, ह्यनादरास्मरणमत्सरत्वानि।
वैयावृत्यस्यैते व्यतिक्रमा: पंच कथ्यनते॥१२१॥
रखे ढके पत्ते हरे, वैयावृत्य अतिचार।
अनादर व अस्मरण हो, अच्छे नहीं विचार॥५.३१.१२१॥
वैयवृत्य के पाँच अतिचार: देने योग्य वस्तु को हरे पत्तों से ढकना, हरे पत्तों पर रखना, देते समय अनादर का भाव होना, भूल जाना व दूसरे के द्वारा देने पर आदर का भाव न होना।
Five violations of Vaiyavratya : giving food on green leaves, covering food by green leaves, disrespecting, forgetting, jealousy towards rival donor.
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