दिग्व्रतमनर्थदण्ड व्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम्।
अनुबृंहणाद्गुणाना माख्यान्ति गुणव्रतान्यार्या:॥६७॥
दिग्व्रत व अनर्थदण्डव्रत, भोगोपभोग नाप।
मूल गुण में वृद्धि करे, गुरुदेव आलाप॥४.१.६७॥
दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत व भोगोपभोगपरिमाणव्रत आचार्यदेव के अनुसार मूलगुणों में वृद्धि करते हैं।
As per holy saints digvrat, anarthdantyagvrat and bhogopabhogparimanvrat increases the merits of five vows hence it is called gunvrat.
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दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न याय्यामि।
इति संकल्पो दिग्व्रत मामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै॥६८॥
दसों दिशा सीमा करे, जीवनभर का नाप।
दिग्व्रत का संकल्प यही, छूटे सूक्ष्म पाप॥४.२.६८॥
जीवनपर्यन्त सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिए दिशाओं की मर्यादा करके उसके बाहर न जाने का संकल्प करना दिग्व्रत हैं।
Taking vow for life time to live within limits as decided is called digvrat.
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मकराकरसरिदटवी गिरी जनपदयोजनानि मर्यादा:।
प्राहुर्दिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि॥६९॥
प्रसिद्ध समुन्द्र या नदी, पहाड़ जंगल मान।
सीमा योजन या शहर, दस दिशा को जान॥४.३.६९॥
प्रसिद्ध समुन्द्र, नदी, पहाड़ी, जंगल, पर्वत, शहर और योजन को दशों दिशाओं में अपने गमन की सीमा बनाना।
Limits in digvrat are set according to famous oceans, rivers, mountains, cities, distance etc.
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अवधेर्बहिरणुपाप प्रतिविरतेर्दिग्व्रतानि धारयताम्।
पंचमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते॥७०॥
सूक्ष्म पाप की निवृत्ति, सीमा बाहर जान।
है दिग्व्रत की धारणा, हो महाव्रत समान॥४.४.७०॥
दिग्व्रत को धारण करने वाले के अणुव्रत की मर्यादा के बाहर सूक्ष्म पापों की निवृत्ति हो जाने से पाँच महाव्रतों की समानता को प्राप्त होते हैं।
By the avoidance of subtle sins beyond the determined limits, the minor vows of householder are able to rank as the unqualified vows of asceticism.
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प्रत्याख्यानतनुत्वान् मन्दतराश्चरणमोहपरिणामा:।
सत्त्वेन दुरवधारा, महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते॥७१॥
प्रत्याख्यानावरण रहे, क्रोध आदि कषाय।
चारित्र मोह मंद अवस्था, महाव्रत को पाय॥४.५.७१॥
प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया लोभ का मन्द उदय होने से अत्यन्त मंद अवस्था को प्राप्त जिनका अस्तित्वरुप से निर्धारण करना भी कठिन है ऐसे चारित्रमोह के परिणाम महाव्रत के व्यवहार के लिए कल्पना किए जाते हैं।
In Pratyakhanvarna stage anger, ego, deceit and greed are so low that it gives an indication of asceticism as if one is following mahavrat.
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पंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवच:कायै:।
कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम्॥७२॥
हिंसा आदि पंच पाप को, मन वचन और काय।
कृत, कारित, अनुमोदना, प्रमत्तविरत कहलाय॥४.६.७२॥
हिंसादिक पाँचो पापो का मन, वचन और काय से तथा कृत, कारित और अनुमोदना से त्याग करना प्रमत्तविरत आदि गुणस्थानर्ती महापुरुषों का महाव्रत होता हैं।
Abstaining from five sins like himsa etc. in all the three ways of krit, karit and anumodana with mind, speech and conduct is called mahavrat of great ascetics.
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ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्वयतिपाता: क्षेत्रवृद्धि रवधीनां।
विस्मरणं दिगविरते रत्याशा: पंच मन्यन्ते॥७३॥
ऊपर नीचे या दिशा, दिग्व्रत पंच अतिचार।
क्षेत्र बढ़ा व भूल करे, सीमा कर ना पार॥४.७.७३॥
दिग्व्रत के पाँच अतिचार हैं – ऊपर, नीचे तथा दिशाओं की मर्यादा का उल्लंघन करना, क्षेत्र की मर्यादा बढा लेना और मर्यादाओं को भूल जाना।
Five violations of digvrat are as follow: exceeding the limits in up, down or side directions, extending the limits set or forgetting the limits determined.
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अभ्यंतरं दिगवधे रपार्थकेभ्य: सपापयोगेभ्य:।
विरमणमनर्थदण्ड व्रतं विदुर्व्रतधराग्रण्य:॥७४॥
सब दिशाएँ बांध मुनि, बाहर कदम न जाय।
अनर्थदण्डत्यागव्रत है, मन वचन और काय॥४.८.७४॥
व्रतधारण करने वाले मुनि दिशाओं के भीतर प्रयोजनरहित पापबंध के कारण मन वचन काय की प्रवृत्तियों से विरक्त होने को अनर्थदण्डत्यागव्रत कहते हैं।
The best of ascetics call refraining from purposeless activity by mind, words and conduct as anarthdandtyagvrat.
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पापोपदेश हिंसादानापध्यान दु:श्रुती: पंच।
प्राहु: प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधरा:॥७५॥
पंच अतिचार अनर्थदण्ड, पापवचन हिंसादान।
प्रमादचर्या व दु:श्रुति, या फिर हो अपध्यान॥४.९.७५॥
अनर्थदण्ड के पाँच प्रकार बताये- पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, प्रमादचर्या, तथा दु:श्रुति।
There are five kinds of anarthdand (penalising for purposeless activity) – papopadesh (words leads to sins), himsadaan (giving things which leads to violence), apdhyan (purposeless thinking), pramadcharya (careless actions), and duhshruti (purposeless listening).
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तिर्यक्क्लेशवाणिज्या, हिंसारम्भप्रलभ्भनादीनाम्।
कथाप्रसंग: प्रसव: स्मर्त्तवय: पापउपदेश:॥७६॥
पशुक्लेश, व्यापार हिंसा, आरम्भ या छल घात।
चाह उत्पत्ति, कथा कहे, पाप अनर्थदण्ड बात॥४.१०.७६॥
पशुओं को क्लेश, व्यापार हिंसा, आरम्भ और छलने आदि की हिंसा, कथाओं का प्रसंग, उत्पन्न करना आदि का उपदेश देना पापोपदेश नामक अनर्थदण्ड हैं।
Advising about cruelty to animals, trade violence, deceiving, narrating such stories, advising about creations etc are papopdesh anarthdand.
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परशुकृपाणखनित्रज्वलनायुधश्रंगिश्रंखलादीनाम्।
वधहेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधा:॥७७॥
फरसा, कृपाण, फावड़ा, अग्नि छुरी व कटार।
हिंसादान अनर्थदण्ड है, विष सांकल हथियार॥४.११.७७॥
फरसा, तलवार, कुदाली, फावड़ा, अग्नि, छुरी कटार आदि हथियार, सींगी या विष और सांकल आदि हिंसा की वस्तुएँ दान करना ज्ञानी संत के अनुसार हिंसा दान अनर्थदण्ड है।
Giving as donation axe, sword, pickaxe, grub ax, fire, knife, dagger, poision, chain etc. is himsadaan anarthdand as per wise saints.
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वधबंधच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादे:।
आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदा:॥७८॥
मारे बांधे द्वेष से, छेदन करता जान।
राग प्रवक्ता करे, अनर्थदण्ड अपध्यान॥४.१२.७८॥
द्वेष से मारने, बाँधने, छेदने, पर स्त्री से राग आदि का चिन्तन करना जिनशासन के अनुसार अपध्यान नामक अनर्थदण्ड हैं।
Thinking about killing, binding, piercing, attachment with other women etc are apdhyaan anarthdand as per Jinvaani.
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आरम्भसंगसाहस, मिथ्यात्व द्वेष राग मद मदनै:।
चेत: कलुषयतां श्रुति रवधीनां दु:श्रुतिर्भवति॥७९॥
आरम्भ, साहस व परिग्रह, मिथ्यात्व, द्वेष व राग।
अहं, विषय, चित्त मलिन कथा, दु:श्रुति अनर्थदण्ड जाग॥४.१३.७९॥
आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, घमण्ड, विषयभोग, चित्त को मलिन करने वाली कथाएँ सुनना दु:श्रुति नामक अनर्थदण्ड है।
Listening about beginning of ventures, possessions, daring crimes, false doctrines, hatred, love, pride, passions which disturbs the mind is duhshruti anarthdand.
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क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिछेदं।
सरणं सारणमपि च, प्रमादचर्यां प्रभाषन्ते॥८०॥
भू, जल, अग्नि व वायु का, अपव्यय बिना बात।
प्रमादचर्या का अनर्थदण्ड, वनस्पति का घात॥४.१४.८०॥
बिना प्रयोजन के पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु का आरम्भ या अपव्यय करना, वनस्पति का छेदन, घूमना इन सबको प्रमादचर्या का अनर्थदण्ड कहा हैं।
Without purpose digging earth, water, putting fire or handling air or wasting natural resources, destroying plants, purposeless movements are called pramadcharya anarthdand.
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कन्दर्पं कौत्कुच्यं मौखर्य मतिप्रसाधनं पंच।
असमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरते:॥८१॥
अनिष्ट वचन, कुचेष्टा, कृत्य बिना विचार।
बकबक, संग्रह अनावश्यक, अनर्थदण्ड पंच अतिचार॥४.१५.८१॥
अशिष्ट वचन कहना, कुचेष्टा करना, बकवास करना, भोगोपभोग सामग्री का अनावश्यक संग्रह करना, बिना विचार किये कार्य करना ये अनर्थदण्ड के पाँच अतिचार हैं।
Five violations of anarthdand are as follow: disrespectful speech, ridiculous attitude, rubbish talks, unnecessary possession of things and actions without proper thoughts.
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अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम्।
अर्थवतामप्यवधौ रागरतीनांतनूकृतये॥८२॥
इन्द्रिय विषय सीमा करे, भोगोपभोग परिमाण।|
परिग्रह सीमा से कड़ी, राग नियंत्रण जाण ॥४.१६.८२॥
राग से होने वाली विषयों की लालसा को घटाने के लिए परिग्रह परिमाणव्रत में की हुई परिग्रह की मर्यादा में भी प्रयोजनभूत इन्द्रियों के विषयों का परिमाण करना भोगोपभोग परिमाण व्रत हैं।
Putting limitations within the limits allowed by parigrahparimanvrat with a view to reducing sense of attachment with the objects is called bhogopabhogparimanvrat.
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भुक्तवापरिहातव्यो भोगो भुक्तवा पुनश्च भोक्तव्य:।
उपभोगोऽशनवसन प्रभृति: पांचेन्द्रियो विषय:॥८३॥
पाँच इन्द्रिय विषय हैं, भोग और उपभोग।
एक बार को भोग कहा, बारंबार उपभोग॥४.१७.८३॥
पाँचों इन्द्रियों सम्बंधी विषय जैसे भोजन आदि भोग करके छोड़ देने योग्य है वो भोग है और वस्त्र आदि बारबार भोगने योग्य है वह उपभोग हैं।
Items which are consumed once such as food is called bhog and those things which are reused such as clothes are called upabhog.
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त्रसहतिपरिहरणार्थं क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरह्रतये।
मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातै:॥८४॥
जिन चरण में श्रावक जन, दूर रहे प्रमाद।
मधु, मांस और मदिरा, चखते नहीं स्वाद॥४.१८.८४॥
जिनेन्द्रदेव की चरणों में प्राप्त हुए श्रावकों द्वारा त्रस जीवों की हिंसा का प्रमाद दूर करने के लिेए मधु, मांस और मदिरा त्यागने योग्य हैं।
Those who seek refuge in jinendradev, shall give up honey, non-veg food and wine to escape from pramad or non-vigilance.
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अल्पफलबहुविघातान् मूलक माद्राणि श्रंगवेराणि।
नवनीत निम्बकुसुमं कैतकमित्येव मवहेयम्॥८५॥
सचित्त या जमीकंद रहे, मक्खन को भी त्याग।
नीम के फूल, केवड़ा, हिंसा की है आग॥४.१९.८५॥
इस व्रत में थोड़ा फल और अधिक हिंसा होने से हरी वस्तु (सचित्त), अदरक, मूली गाजर इत्यादि, मक्खन, नीम के फूल, केवड़ा के फूल इत्यादि वस्तुएँ छोड़ने योग्य हैं।
There will be little good but great violence in consuming green food, green ginger, roots, butter, buds and flowers so shall be given up.
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यदनिष्टं तद् व्रतयेद्यच्चानु पसेव्यमेतदपि जह्यात्।
अभिसन्धिकृता विरतिर्विषयाद्योग्याद्व्रतं भवति॥८६॥
अहितकर व अयोग्य वस्तु, सेवन का हो ज्ञान।
त्यागना ही श्रेष्ठ है, निवृत्ति व्रत पहचान॥४.२०.८६॥
इस व्रत में जो वस्तु अहितकर और अयोग्य है उसे छोड़े क्योंकि योग्य विषय से अभिप्रायपूर्वक की हुई निवृत्ति व्रत होती हैं।
Any thing which is useless and not usable given up with purpose is called vow.
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नियमो यमश्च विहितौ द्वैधा भोगोपभोगसंहारात्।
नियम: परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते॥८७॥
यम होते जीवनपर्यन्त, नियम का निश्चित काल।
भोगोपभोग कम रहे, जैन धर्म की चाल॥४.२१.८७॥
यम और नियम दो तरह से भोग व उपभोग का त्याग धारण किया जाता हैं। नियत काल के लिए नियम व जीवनपर्यन्त के लिए यम।
Renunciation of bhog and upabhog is of two kinds. Yam and Niyam. Yam are for life time and Niyam are for definite time.
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भोजन वाहन शयन स्नान पवित्रांगराग कुसुमेषु।
ताम्बूल वसन भूषण मन्मथ संगीतगीतेषु॥८८॥
अद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथर्तुरयनं वा।
इति कालपरिच्छित्त्या प्रत्याख्यानं भवेन्नियम:॥८९॥
भोजन, वाहन या शयन, श्रंगार, स्नान, पान।
वस्त्र, अलंकार, काम या, गीत संगीत जान॥४.२२.८८॥
एक घड़ी, पहर, दिन रहे, रात्रि, पक्ष, या माह।
काल नियम त्याग करे, परिमाणव्रत राह॥४.२३.८९॥
भोजन, वाहन, शयन, स्नान, श्रंगार, पान, वस्त्र, अलंकार, कामभोग, संगीत और गीत के विषय में एक घड़ी, एक पहर, एक दिन, एक रात्रि, एक पक्ष, एक माह, दो माह अथवा छह माह इस प्रकार काल के नियम से त्याग करना भोगोपभोगपरिमाणव्रत में नियम होता हैं।
Abstaining for an hour, a day, a night, a fortnight, a month, a quarter or a half year anything such as food, vehicle, couch, bathing, makeup, clothes, jewellery, sex, music is called niyam as per bhogopabhogparimanvrat.
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विषयविषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवौ।
भोगोपभोगपरिमा व्यतिक्रमा: पंच कथ्यन्ते॥९०॥
विषय विष आसक्ति हो, भूत भविष्य वर्तमान।
पंच अतिचार इस व्रत के, भोगोपभोग परिमाण॥४.२४.९०॥
भोगोपभोग परिमाण व्रत के पाँच अतिचार ये कहे: विषयरुपी विष में आनन्द आना, भोगे हुए विषयों का बारबार स्मरण करना, वर्तमान विषयों में लम्पटता रखना, आगामी भोगोपभोग विषयों की तृष्णा रखना तथा वर्तमान विषय का अत्यन्त आसक्तिपूर्वक अनुभव करना।
There are five violations of bhogopabhogparimanvrat: craving for sensual enjoyments, remebering pleasurable experiences, indulging in sensual pleasures, planning for sensual pleasure and too much attachment with present sensual pleasures.
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