औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च॥२.१॥
औपशमिक व क्षायिक है, मिश्र भी है निज भाव।
औदयिक व पारिणामिक, आत्मा का स्वभाव॥२.१.३४॥
जीव के पाँच भाव निज भाव है जो और द्रव्य में नहीं होते। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक।
Soul have 5 distinctive characteristics. Subsidence, destruction, destruction cum subsidence, fruition and inherent nature.
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द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम्॥२.२॥
जीव भाव के भेद है, क्रम से उनको जान।
दो नौ अठारह समझो, इक्कीस तीन विधान॥२.२.३५॥
उपरोक्त पाँच भाव क्रमश: दो, नौ, अट्ठारह, इक्कीस व तीन भेद वाले है।
These though activities (bhava) are of two, nine, eighteen, twenty one and three types respectively.
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सम्यक्त्वचारित्रे ॥२.३॥
औपशमिक सम्यग्दर्शन, कहे चारित्रिक भेद।
सात और अट्ठाईस है, क्रम से रहे प्रभेद ॥२.३.३६॥
औपशमिक चारित्र है, भेद दूसरा भाव
औपशमिक भाव के दो भेद है। औपशमिक सम्यक्त्व व औपशमिक चारित्र।
Subsidence disposition is of two types. Subsidence belief and subsidence conduct.
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ज्ञानदर्शनदानलाभभेगोपभोगवीर्याणि च॥२.४॥
दान ज्ञान दर्शन यही, लाभ भोग उपभोग।
बल चारित्र सम्यक्त्व भी, नव है क्षायिक योग॥२.४.३७॥
क्षायिक भाव के नौ भेद है। क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग, क्षायिकवीर्य, क्षायिकसम्यक्त्व व क्षायिकचारित्र।
Destructional disposition is of 9 kind. Perfect knowledge, Perfect perception, Pure state of charity, Full beneficial state, Perfect state of consumption, Perfect state of enjoyment, Perfect energy, Perfect belief and Perfect conduct.
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ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदा: सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥२.५॥
चार ज्ञान अज्ञान दर्शन, लब्धि सम्यक्त्व स्वभाव।
चारित्र संयमासंयम, क्षायोपशमिक भाव॥२.५.३८॥
क्षायोपशमिकभाव के १८ भेद है।
१। मतिज्ञान
२। श्रुतज्ञान
३। अवधिज्ञान
४। मन:पर्ययज्ञान
५। कुमति अज्ञान
६। कुश्रुत अज्ञान
७। कुअवधि ज्ञान
८। चक्षु दर्शन
९। अचक्षु दर्शन
१०। अवधि दर्शन
११-१५। क्षायोपशमिक दान लाभ भोग उपभोग वीर्य
१६। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व
१७। क्षायोपशमिक चारित्र
१८। संयमासंयम
The destructional cum subsidential disposition is of 18 kinds:
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गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्ध-लेश्याश्र्चतुश्र्चतुस्त्रयेकैकैकैकषड्भेदा: ॥२.६॥
गति कषाय लिंग कुदर्शन, अज्ञान असंयम भाव।
लेश्या व असिद्धत्व भी, इक्कीस औदयिक भाव॥२.६.३९॥
औदयिक भाव के २१ भेद इस प्रकार है। गति (नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव), कषाय (क्रोध, मान, माया व लोभ), लिंग (स्त्रीवेद, पुरुषवेद व नपुंसकवेद), मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व व लेश्यायें (कृष्ण, नील, कपोत, पीत, पद्म और शुक्ल)।
4 Existence, 4 passions, 3 sex, wrong belief, wrong knowledge, non-restraint, imperfect disposition and 6 coloration of soul are total 21 types of rise of karmas.
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जीवभव्याभव्यत्वानि च॥७॥
जीवत्व और भव्यत्व, अभव्यत्व आत्म भाव।
अन्य द्रव्य में है नहीं, पारिणामिक स्वभाव॥२.७.४०॥
पारिणामिक भाव के तीन भेद है। जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व।
Consciousness, capacity of salvation and incapacity of salvation are inherent nature of soul.
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उपयोगो लक्षणम् ॥८॥
आत्मा का चैतन्यपना, कहलाता उपयोग।
लक्षण है यह जीव का, मन वचन काय योग॥२.८.४१॥
जीव का लक्षण उपयोग है।
Consciousness is distinctive characteristic of soul.
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स द्विविधोऽष्टचतुर्भेद:॥९॥
दो प्रकार उपयोग का, ज्ञान, दर्शन उपयोग।
आठ तरह का ज्ञान है, चार दर्शनोपयोग॥२.९.४२॥
उपयोग दो प्रकार का है। ज्ञानोपयोग के ८ भेद है व दर्शनोपयोग के ४ भेद है।
Consciousness is of 2 kinds. Knowledge and Faith. Knowledge of 8 types and darshan is of 4 types.
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संसारिणो मुक्ताश्च॥१०॥
दो प्रकार के जीव है, इक भटके संसार।
मुक्त हुआ जो कर्म से, सिद्ध शिला आधार॥२.१०.४३॥
जीव दो प्रकार के है। संसारी और मुक्त।
Souls are of 2 types. With karm bondage (sansari) and without karm bondage (Mukta).
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समनस्काऽमनस्का:॥११॥
रहता जो संसार में, उसके दो परकार।
संज्ञी मन के साथ है, असंज्ञी शेष विचार॥२.११.४४॥
संसारी जीव दो प्रकार के है। मनसहित व मनरहित।
Transmigrating souls are of two types. With and without mind.
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संसारिणस्त्रसस्थावरा:॥१२॥
संसारी के भेद दो, त्रस व स्थावर जान।
स्थितपना स्थावरा, बाक़ी को त्रस मान॥२.१२.४५॥
संसारी जीव के दो और भेद है। त्रस व स्थावर।
Transmigrating souls have two more types. Sort of immobile and have mobility.
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पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावरा:॥१३॥
पृथ्वी जल और अग्नि भी, वायु वनस्पति जीव।
काया स्थावर की यही, पाँच तरह के जीव॥२.१३.४६॥
स्थावर जीव पाँच प्रकार के है। पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय व वनस्पतिकाय। ये एकइन्द्रिय होते है।
Immobile beings (sthavar) souls adapt body of earth, water, fire, air and plants.
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द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:॥१४॥
ये त्रस जीव विशेषता, इंद्रि दो तीन चार।
पाँच इन्द्रिय भी त्रस कहे, जैन आगम विचार॥२.१४.४७॥
दो से पाँच इन्द्रिय जीव त्रस जीव कहलाते है।
The mobile beings are from two sense onwards.
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पञ्चेन्द्रियाणि ॥१५॥
एक पाँच तक इन्द्रियाँ, होती है हर जीव।
त्रस रहे स्थावर रहे, इन्द्रिय बिना ना जीव॥२.१५.४८॥
इन्द्रियाँ पाँच है।
The senses are five.
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द्विविधानि॥१६॥
इन्द्रियों के भी समझ लो, होते दोय प्रकार।
द्रव्य और है भाव इन्द्रि, जिन धर्म का विचार॥२.१६.४९॥
इन्द्रियाँ दो प्रकार की है। द्रव्येन्द्रि व भावेन्द्रि।
Senses are of 2 types. Physical and psychic.
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निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥१७॥
निर्वृत्ति और उपकरण, द्रव्य इन्द्रिय प्रकार।
बाह्य और आभ्यन्तर, नाम कर्म का भार॥२.१७.५०॥
द्रव्येन्द्रि के दो भेद है। निर्वृत्ति व उपकरण।
The physical sense consist of internal and external organ.
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लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्॥१८॥
भावेन्द्रि दो भेद है, लब्धि और उपयोग।
लाभ को लब्धि कहते, आत्म ज्ञान उपयोग॥२.१८.५१॥
भावेन्द्रि के दो भेद है। लब्धि व उपयोग।
Psychic sense consist of 2 types. Attainment and consciousness.
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स्पर्शनरसनघ्राणचक्षु:श्रोत्राणि॥१९॥
इन्द्रियाँ पाँच प्रकार की, स्पर्शन रसना जान।
घ्राण, चक्षु व श्रोत्र भी, लेता इनसे ज्ञान॥२.१९.५२॥
इन्द्रियाँ पाँच प्रकार की है। स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु व श्रोत्र।
Physical sense are of 5 types. Touch, taste, smell, sight and hearing.
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स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्था:॥२०॥
पंच इन्द्रियों को क्रम से, पाँच विषय को जान।
इस वर्ष रस और गंध है, वर्ण शब्द का ज्ञान॥२.२०.५३॥
पाँच इन्द्रियों के क्रमश: पाँच विषय है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण व शब्द।
Touch, taste, smell, colour and sound are the objects of the senses.
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श्रुतमनिन्द्रियस्य॥२१॥
अनिन्द्रिय मन को कहा, होता है श्रुत ज्ञान।
श्रुत विषय नहीं कर्ण का, ले लो यह संज्ञान॥२.२१.५४॥
मन का प्रयोजन श्रुतज्ञान है।
Spiritual knowledge is the subject of mind.
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वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥२२॥
एक इन्द्रिय जीव सभी, पृथ्वीकाय, जलकाय।
अग्निकाय वायुकाय भी, और वनस्पतिकाय॥२.२२.५५॥
वनस्पति जिस के अन्त मे आती है जैसे पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय व वनस्पतिकाय इनके एक इन्द्रिय होती है।
Upto plants all living beings have one sense only.
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कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिनामेकैकवृद्धानि॥२३॥
कीड़ा पिपीलिका बढ़े, भँवरा मानव जात।
कृम इक इक इन्द्रि बढ़े, जिनवाणी की बात॥२.२३.५६॥
कृमि अर्थात् कीड़ा आदि के दो, पिपीलिका अर्थात् चींटि आदि के तीन, भंवरा आदि के चार व मनुष्य आदि के पांच, एक एक इन्द्रिय बढती जाती है।
The worm etc. 2 sense, the ant etc 3 sense, the bee etc 4 sense and human is example of 5 sense.
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संज्ञिन: समनस्का: ॥२४॥
पाँच इन्द्रिय जीव जो, मन हो जिसके जान।
संज्ञी पंचेन्द्रिय कहे, हित व अहित का भान॥२.२४.५७॥
मनसहित जीवो का संज्ञी अथवा सैनी कहते है।
Five sense Living being with mind is called SANGHYEE PANCHENDRIYA.
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विग्रहगतौ कर्मयोग: ॥२५॥
मरण जन्म के मध्य को, विग्रह गति का नाम।
चले कार्मणकाय संग, बाक़ी का क्या काम॥२.२५.५८॥
विग्रहगति अर्थात् नये शरीर के लिये गमन में कार्मणकाय योग होता है।
In transit from one body to another body soul travels with karma. This is called vigraha gati.
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अनुश्रेणि गति: ॥२६॥
जब इक गति से दूसरी, जीव चलेगा चाल।
पंक्ति में ही जीव चले, गज शतरंज की चाल॥२.२६.५९॥
विग्रहगति आकाश प्रदेशो की श्रेणि (पंक्ति) के अनुसार ही होती है।
Transition of soul take place in straight lines in universe.
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अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥
सिद्धशिला जाना रहे, मुक्त जीव की राह।
सीधा ऊपर को गमन, मुड़ने की ना चाह॥२.२७.६०॥
मुक्तजीव की गति विग्रहरहित अर्थात् सीधी होती है।
Liberated soul travels straight upward till siddha shila.
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विग्रहवती च संसारिण: प्राक् चतुर्भ्य: ॥२८॥
चार समय के पूर्व ही, नव शरीर को थाम।
विग्रहगति संसार में, अधिक नहीं है काम॥२.२८.६१॥
संसारी जीव की गति विग्रहवाली (मोड़) व विग्रहरहित होती है। विग्रहवाली गति चार समय के पहले अर्थात् तीन समय तक होती है।
Before 4th instant (samay ), transmigrating soul takes next body.
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एकसमयाऽविग्रहा ॥२९॥
मोड़ नहीं हो राह में, विग्रहरहित प्रवाह।
एक पल का काम रहे, विध्नरहित है राह॥२.२९.६२॥
विग्रहरहित गति एक समयमात्र ही होती है।
Movement without bend takes only one instant.
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एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारक: ॥३०॥
समय एक दो तीन तक, आहारक ना जीव।
विग्रहगति जब गमन रहे, अनाहार वह जीव॥२.३०.६३॥
विग्रहगति मे (एक, दो या तीन समय तक) जीव अनाहारक रहता है।
During transmigration soul remain non-assimilative. M
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सम्मूर्च्छनगर्भोपपादा जन्म ॥३१॥
जन्म तीन प्रकार का, सम्मूर्च्छन, उपपाद।
मात पिता संयोग गर्भ, जिनवाणी रख याद॥२.३१.६४॥
जन्म तीन प्रकार का होता है। सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपाद।
There are 3 ways of birth. Spontaneous, uterus and special bed.
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सचित्तशीतसंवृता: सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनय:॥३२॥
सचित्त अचित्त शीत उष्ण, संवृत विवृत योनि।
सचिताचित शीतोष्ण भी, संवृतविवृत नव योनि॥२.३२.६५॥
सचित्त, शीत व संवृत अर्थात ढका हुआ व उसका उल्टा ( अचित्त, उष्ण व खुला हुआ) तथा मिश्र (सचित्तचित, शीतोष्ण और संवृतविवृत) ये नव जन्मयोनियाँ है।
Living matter, cold, covered, their opposites and their combinations are the nuclei severally.
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जरायुजाण्डजपोतानां गर्भ: ॥३३॥
त्रि प्रकार के गर्भ जन्म, मांस रक्त का जाल।
अण्डा श्वेत ये गोल सा, जन्मत ही हो चाल॥२.३३.६६॥
गर्भ जन्म तीन प्रकार का है। जरायुज, अण्डज और पोतज।
Birth through uterus is of 3 kinds. Umbilical, from egg and unumbilical.
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देवनारकाणामुपपाद: ॥३४॥
जन्म देव और नारकी, शय्या या उपपाद।
अपना अपना स्थान है, जिनवाणी रख याद॥२.३४.६७॥
देव और नारकी जीवों के उपपाद (शय्या या विशेष स्थान) जन्म होता है।
The birth of deva and Narakiya is by instantaneous in special beds.
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शेषाणां सम्मूर्च्छनम् ॥३५॥
बाक़ी सबका जन्म हो, सम्मूर्च्छन आधार।
चार इन्द्रिय तक सभी, सम्मूर्च्छन संसार॥२.३५.६८॥
गर्भ व उपपाद के अलावा शेष जीवों का जन्म सम्मूर्च्छन जन्म होता है।
The birth of rest is by spontaneous generation.
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औदारिकवैक्रियिकाहारिकतैजसकार्मणानि शराराणि ॥३६॥
औदारिक, वैक्रियिक ये, होते देह प्रकार।
आहारिक व तैजस भी, कार्मण करो विचार॥२.३६.६९॥
शरीर पाँच प्रकार का है। औदारिक, वैक्रियिक, आहारिक, तैजस, कार्मण।
Bodies are of 5 types. Gross body, transformable, assimilative, luminous and karmic.
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परं परं सूक्ष्मम् ॥३७॥
आौदारिक वैक्रियिक ये, आहारिक को जान।
तेजस कार्मण साथ में, सूक्ष्म सूक्ष्म पहचान॥२.३७.७०॥
पहले कहे गये शरीरो की अपेक्षा क्रम से सूक्ष्म सू्क्ष्म होते है।
The bodies are more and more subtle respectively.
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प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात्॥३८॥
औदारिक से वैक्रियिक, गुण प्रदेश असंख्यात।
आहारक वैक्रियिक से, गुण प्रदेश असंख्यात॥२.३८.७१॥
प्रदेशो कि अपेक्षा से तैजस शरीर के पहले तक क्रमसे बढते हुए असंख्यातगुणे है।
Prior to the luminous body, space atoms are innumerable more than previous body.
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अनन्तगुणे परे॥३९॥
अनन्तगुणे प्रदेश से, तैजस तन के जान।
तैजस से कार्मण गणे, अनन्तगुणे पहचान॥२.३९.७२॥
आहारक से तैजस व तैजस से कार्मण शरीर अनन्तगुणे प्रदेश वाले है।
The last two (tejas and karman) have infinite space points.
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अप्रतीघाते॥४०॥
तैजस कार्मण को कभी, कोई सके न रोक।
अप्रतीघात गुण यही, करता भ्रमण त्रिलोक॥२.४०.७३॥
तैजस व कार्मण शरीर बाधारहित है।
Tejas and karman body is unpreventable. They can pass through any hurdle.
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अनादिसम्बन्धे च॥४१॥
तैजस और कार्मण भी, रहते अनादि साथ।
भ्रमण करे सह जीव के, छुटे मोक्ष में हाथ॥२.४१.७४॥
तैजस व कार्मण शरीर आत्मा के साथ अनादिकाल से सम्बन्ध वाले है।
Tejas and karman body have beginning less association with soul.
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सर्वस्य॥४२॥
तैजस कार्मण संग चले, जीव रहे संसार।
सब जीवो के संग रहे, भवसागर ना पार॥२.४२.७५॥
तैजस व कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों के होते है।
These two bodies are associated with all samsari souls.
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तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्य:॥४३॥
तैजस कार्मण संग में, तन संभव है चार।
वैक्रियिक आहारक में, संभव एक विचार॥२.४३.७६॥
तैजस व कार्मण शरीर लेकर एक जीव के चार शरीर तक हो सकते है। वैक्रियक व आहारक मे से एक ही शरीर हो सकता है।
With tejas and karman there can be maximum 4 bodies together.
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निरुपभोगमन्त्यम्॥४४॥
अंतिम शरीर कार्मण है, करता ना उपभोग।
तेजस तो निमित्त नहीं, प्रश्न नहीं उपभोग॥२.४४.७७॥
अन्त का कार्मण शरीर उपभोगरहित होता है।
The last body karman don’t consume any thing.
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गर्भसम्मूर्च्छनजमाद्यम्॥४५॥
औदारिक है तन प्रथम, उत्पत्ति पथ जान।
सम्मूर्च्छन और गर्भ ही, इनकी है पहचान॥२.४५.७८॥
गर्भ और सम्मूर्च्छन से जन्म होने वाला शरीर पहला अर्थात् औदारिक है।
Audarik body is gained through uterus or spontaneous only.
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औपपादिकं वैक्रियकम्॥४६॥
जन्म देव और नारकी, शय्या या उपपाद।
वैक्रियिक धारण करे, बात रखो यह याद॥२.३४.६७॥
उपपाद जन्म वाले देव व नारकिय शरीर वैक्रियक होते है।
The transformable body originated by birth in special beds in swarga and naraka.
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लब्धिप्रत्ययं च॥४७॥
वैक्रियिक शरीर मिले, ऋद्धि निमित्त भी जान।
उपपाद निश्चित रहते, लब्धि भी पहचान॥२.४७.८०॥
वैक्रियक शरीर ऋद्धिनिमित्तक भी होता है।
Transformable body can also be gained by attainment (Riddhi).
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तैजसमपि॥४८॥
तैजस भी संभव यहाँ, ऋद्धि निमित्त सुजान।
वैसे तो हर जीव के, लब्धि को पहचान॥२.४७.८१॥
तैजस शरीर भी लब्धिप्रत्यय होता है।
Luminous body can also be attained by Riddhi.
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शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव॥४९॥
शुभ, विशुद्ध बाधारहित, आहारक को जान।
छठवें गुण मुनि स्थान है, प्रमत्तसंयत पहचान॥२.४९.८२॥
आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध, बाधारहित तथा प्रमत्तसंयत मुनि (छठवेगुण स्थान) के ही होता है।
The projectable (Aharak) body is auspicious, pure, unstoppable and originates only to the saint of sixth stage (pramatta sanyat).
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ना स्त्री ना पुरुष ही, नपुंसक उसको जान।
नारकी व सम्मूर्च्छन, नपुंसकता पहचान॥२.५०.८३॥
नारकी और सम्मूर्च्छन वाले नपुंसक होते है।
The infernal beings (Naraki) and spontaneously generated (sammurchchan) are of neutral sex.
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न देवा:॥५१॥
स्त्री पुरुष सुख भोगते, देवों की पहचान।
जनम नपुंसक ले नहीं, देवों में यह मान॥२.५१.८४॥
देव नपुंसक नहीं होते।
The celestial beings (Deva) are not neutral sex. They are males or females.
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शेषात्रिवेदा:॥५२॥
स्त्री पुरुष नपुंसक भी, तीन शेष के वेद।
नारक देव सम्मूर्च्छन, बाक़ी के त्री भेद॥२.५२.८५॥
शेष (गर्भज मनुष्य और तिर्यंच) तीनो वेद वाले होते हैं।
The rest are of three sexes.
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औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवत्यार्युष: ॥५३॥
देव नारकी सेज जन्म, असंभव मरण अकाल।
चरमोत्तम है देह जहाँ, उम्र असंख्यात साल॥२.५३.८६॥
उपपाद जन्म वाले देव और नारकी, उसी भव में मोक्ष जाने वाले चरम उत्तम देहधारी तथा असंख्यात वर्ष वाले भोगभूमि जीव की आयु अपवर्तन रहित होती है।
Followings can’t die before their time for natural death has come. Dev and naraki who born in special beds, who has superior bodies and those of innumerable years of age.
॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे द्वितीयोऽध्याय:॥
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