Sammar Suttam 3
प्रकरण 29 – ध्यानसूत्र
शीश श्रेष्ठ शरीर में, जड़ पेड़ का मूल।
मुनि धरम बस ध्यान में, साधु कभी ना भूल॥2.29.1.484॥
सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य ।
सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥1॥
शीर्षं यथा शरीरस्य यथा मूलं द्रुमस्य च।
सर्वस्य साधुधर्मस्य तथा ध्यानं विधीयते ॥1॥
जैसे मनुष्य शरीर में सिर श्रेष्ठ और वृक्ष में जड़ उत्कृष्ट है वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है।
ये मन की एकाग्रता, होती सदा सुध्यान।
चित्त भावना चंचलता, अनुप्रेक्षा प्रधान ॥2.29.2.485॥
जं थिरमज्झवसाणं, तं झाणं जं चलंतयं चित्तं।
तं होज्ज भावणा वा, अणुपेहा वा अहव चिंता ॥2॥
यत् स्थिरमध्यवसानं, तद् ध्यानं यत् चलत्कं चिंत्तम्।
तद् भवेद् भावना वा, अनुप्रेक्षा वाऽथवा चिन्ता ॥2॥
मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है। चित्त की चंचलता के तीन रूप हैं। भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता।
घुले नीर में लवण सम, चित्त विलय हो ध्यान।
शुभ-अशुभ हो कर्म दहन, आत्म प्रकाश महान ॥2.29.3.486॥
लवण-व्व सलिल-जोए, झाणे चित्तं विलीयए जस्स ।
तस्स सुहा-सुह-डहणो, अप्पा-अणलो पयासेइ ॥3॥
लवणमिव सलिलयोगे, ध्याने चित्तं विलीयते यस्य।
तस्य शुभाशुभदहनो, आत्मानलः प्रकाशयति ॥3॥
जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है उसकी चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करने वाली आत्मरूप अग्नि प्रकट होती है।
राग द्वेष व मोह नहीं, नहीं योग संपन्न ।
शुभ-अशुभ हो कर्म दहन, अग्नी हो उत्पन्न ॥2.29.4.487॥
जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो ।
तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी ॥4॥
यस्य न विद्यते रागो, द्वेषो मोहो वा योगपरिकर्म।
तस्य शुभाशुभदहनो, ध्यानमयो जायते अग्निः ॥4॥
जिसके राग द्वेष और मोह नहीं है तथा मन वचन काय रूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है।
पूरब, उत्तर मुख करे, आसन शुद्ध आचार।
ध्यान समाधि में धरे, मन में शुद्ध विचार ॥2.29.5.488॥
पुव्वाभिुहो, उत्तरमुहो व, होऊण सुइ-समायारो ।
झाया समाहिजुत्तो, सहासणत्थो सुइसरीरो ॥5॥
पूर्वाभिमुखः उत्तरमुखो वा भूत्वा शुचिसमाचारः ।
ध्याता समाधियुक्तः सुखासनस्थः शुचिशरीरः ॥5॥
पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख होकर बैठने वाला ध्याता सुखासन से स्थित हो समाधि में लीन होता है।
पल्यंकासन में रहें, रोक योग व्यापार।
दृष्टि नासिका पर रहे, मंद श्वास हर बार ॥2.29.6.489॥
पलियंकं बंधेउं, निसिद्धमण-वयणकायवावारो ।
नासग्गनिमियनयणो, मंदीकयसासनीसासो ॥6॥
पल्यङ्कं बद्ध्वा निषिद्धमनोवचनकायव्यापारः ।
न्यासग्रनिमित्तनयनः मन्दीकृतश्वासनिःश्वासः ॥6॥
वह ध्याता पल्यंकासन बाँधकर और मन वचन काय के व्यापार को रोक कर दृष्टि को नासिकाग्र पर स्थिर करके मन्द मन्द श्वाच्छोवास ले।
स्व आलोचन कर्म बुरे, क्षमा न भाव प्रमाद।
चित्त निश्चल ध्यान धरे, कर्म न हो बरबाद ॥2.29.7.490॥
गरहियनियदुच्चरिओ, खामियसत्तो नियत्तियपमाओे ।
निच्चलचित्तो ता झाहि, जाव पुरओव्व पडिहाइ ॥7॥
गर्हितनिजदुश्चरितः क्षमितसत्त्वः निवर्तिततप्रमादः ।
निश्चलचित्तः तावद् ध्याय यावत् पुरतः इव प्रतिभाति ॥7॥
वह अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की आलोचना करे, सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे, प्रमाद को दूर करे और चित्त को निश्चल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाय।
स्थिर रहे हो योग में, निश्चलमन हो ध्यान।
हो अरण्य या गांव हो, सब है एक समान ॥2.29.8.491॥
थिरकयजोगाणं पुण, मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं ।
मागम्मि जणाइण्णे, सुण्णे रण्णे व ण विसेसो ॥8॥
स्थिरकृतयोगानां पुनः, मुनीनां ध्याने सुनिश्चलमनसाम् ।
ग्रामे जनाकीर्णे, शून्येऽरण्ये वा न विशेषः ॥8॥
जिन्होंने अपने योग अर्थात् मन-वचन-काय को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों को ध्यान के लिये घनी आबादी के गाँव अथवा जंगल में कोई अंतर नहीं रह जाता।
समाधिकारी तपस्वी, मनोज्ञ पर करे न राग।
अमनोज्ञ विषयों के प्रति, भी रहे वीतराग ॥2.29.9.492॥
जे इंदियाणं विसया मणुण्णा, न तेसु पावं निसिरि कयाइ ।
न याऽमणुण्णेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥9॥
य इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञाः, न तेषु भावं निसृजेत् कदापि।
न चामनोज्ञेषु मनोऽपि कुर्यात्, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी॥9॥
समाधि की भावना वाला तपस्वी इन्द्रियों के अनुकूल विषयों में कभी रागभाव न करे और प्रतिकूल विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे।
जगस्वभाव से परिचित, असंग अभय न आस ।
वैराग्यपूरित सुचित्त, सुध्यान उसके पास॥2.29.10.493॥
सुविदियजगस्सभावो, निस्संगो निब्भओ निरासो य ।
वेरग्गभावियमणो, झाणंमि सुनिच्चलो होइ ॥10॥
सुविदितजगत्स्वभावः, निस्संगः निर्भयः निराशश्च।
वैराग्य भावितमनाः, ध्याने सुनिश्चलो भवति ॥10॥
जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है, निःसंग, निर्भय तथा आशारहित है तथा जिसका मन वैराग्यभाव से युक्त है, वही ध्यान में स्थित होता है।
जो ध्यावे पुरुषाकार, आत्मा जो निष्पाप।
अनन्तज्ञानादि संपन्न, सो अद्वन्द्व अपाप ॥2.29.11.494॥
पुरिसायारो अप्पा, जोई वर-णाण-दंसण-समग्गो ।
जो झायदि सो जो, पाव-हरो भवदि णिछंदो ॥11॥
पुरुषकार आत्मा, योगी वरज्ञानदर्शनसमग्र।
यः ध्यायति सः योगी, पापहरः भवति निर्द्वन्द्वः ॥11॥
जो योगी पुरुष के आकारवाली तथा केवलज्ञान व केवलदर्शन से पूर्ण आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मबन्धन को नष्ट करके निर्द्वन्द्व हो जाता है।
देखता है आत्मा को, देहादिसंग भिन्न ।
वह देह से असंग हो, होता आत्म अभिन्न ॥2.29.12.495॥
देहविवित्तिं पेच्छई, अप्पाणं तह ये सव्वसंजोगे।
देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ ॥12॥
देहविविक्तं प्रेक्षते आत्मानं तथा च सर्वसंयोगान्।
देहोपधिव्युत्सर्ग, निस्संगः सर्वथा करोति ॥12॥
ध्यान योगी अपनी आत्मा को शरीर से भिन्न देखता है अर्थात् देह का सर्वथा त्याग करके निःसंग हो जाता है।
न मैं पर का, न परमेश मेरा, मैं हूँज्ञायक रूप ।
यह जो ध्यावे ध्यान में, ध्याता वही अनूप ॥2.29.13.496॥
णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को ।
इदि जो झायदि झाणे, सो अप्पाणं हवदि झादा ॥13॥
नाहं भवामि परेषां, न मे परे सन्ति ज्ञानमहमेकः।
इति यो ध्यायति ध्याने, स आत्मा भवति ध्याता ॥13॥
वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान में चिन्तन करता है कि “मैं न पर का हूँ न पर मेरे हैं”। मैं तो एक शुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूँ।
ध्यानस्थित योगी यदि न, करे आत्मानुभूति।
पाये नहीं शुद्धात्मा, ज्यों अभागा विभूति॥2.28.14.497॥
झाण-ट्ठिओ हु जोइ, जइणो संवेइ णियय-अप्पाणं ।
तो ण लहइ तं सुद्धं, भग्ग-विहीणो जहा रयणं ॥14॥
ध्यानस्थितो खलु योगी यदि नो संवेत्ति निजात्मानम्।
सो न लभते तं शुद्धं भाग्यविहीनो यथा रत्नम् ॥14॥
ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवेदन नही करता है तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नही कर सकता। जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नही कर सकता।
पिण्डपदस्थरूपातीत ये, ध्यान कहे त्रि रूप।
देहप्रेक्षा, पदचिन्तन, विषय आत्मस्वरूप ॥2.29.15.498॥
भावेज्ज अवत्थत्तियं, पिंडत्थ-पयत्थ-रूवरहियत्तं ।
छउमत्थ-केवलित्तं, सिद्धत्तं चेव तस्सत्थो ॥15॥
भावयेत् अवस्थात्रिकं पिण्डस्थ-पदस्थ-रूपरहितत्वम् ।
छद्मस्थ-केवलित्वंसिद्धत्वं चैव तस्यार्थः ॥15॥
साधक तीन अवस्थाओं की भावना करे। पिण्डस्थध्यान-देह विपश्यत्व। पदस्थध्यान-केवलि द्वारा बताये गये अर्थ का चिंतन। रूपातीतध्यान-सिद्धत्व शुद्ध आत्मा का ज्ञान।
महावीर का ध्यान ज्यूँ, उंकडू आसन ध्यान।
ऊँचे नीचे लोक के, आत्म समाधिज्ञान॥2.29.16.499॥
अवि झइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं ।
उड्ढमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ॥16॥
अपि ध्यायति सः महावीरः, आसनस्थः अकौत्कुचः ध्यानम्।
ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च, प्रेक्षमाणः समाधिम् अप्रतिज्ञः ॥16॥
भगवान ऊंकडू आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे उँचे नीचे व तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्म समाधि पर टिकी थी। वे संकल्प मुक्त थे।
विगत भविष्य देखे नहीं, वर्तमान में ध्यान।
वीर करे तन क्षीण सा, कल्पक मुक्त महान ॥2.29.17.500॥
णातीत-मट्ठे ण य आगमिस्सं, अट्ठं नियच्दंति तहागया उ।
विधूत-कप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी ॥17॥
नातीतमर्थ न च आगमिष्यन्तम् अर्थ निगच्छन्ति तथा गतास्तु ।
विधूतकल्पः णजउपूदर्शी निर्सोषयिता क्षपकः महर्षि ॥17॥
तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नही देखते। कल्पना मुक्त महर्षि वर्तमान को देखते हुए कर्म शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।
त्रियोगनिरोध हो सही, होता है स्थिर ध्यान।
आत्मलीन आत्मा रहे, ध्यान परम यह जान ॥2.29.18.501॥
मा चिट्ठह मा जंपह, मा चिन्तह किं वे जेण होइ थिरी।
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥18॥
मा चेष्टध्वम् मा जल्पत, मा चिन्तयत किमपि येन भवति स्थिरः।
आत्मा आत्मनि रतः, इदमेव परं भवेद् ध्यानम् ॥18॥
हे ध्याता! तू न तो शरीर से चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल, न मन से चिन्तन कर। इस प्रकार योग का निरोध करने से तू स्थिर हो जायेगा। यही परम ध्यान है।
मुक्त कषायों से रहे, दुख मानस ना होय।
जलन शोक संताप नहीं, ध्यान चित्त जो खोय॥2.29.19.502॥
न कसायसमुत्थेहि य, वहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहिं।
श्रसा-विसाय-सोगा-इएहिं, झाणोवगयचित्तो ॥19॥
न कषायसमुत्थैश्च, बाध्यते मानसैर्दुःखैः ।
ईर्ष्या-विषाद-शोक-दिभिः ध्यानोपगतचित्तः ॥19॥
जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुखों से पीड़ित नही होता।
परीषह या उपसर्ग से विचलित ना भयभीत।
मया, सूक्ष्मतम भाव का, धीर पुरुष ना मीत ॥2.29.20.503॥
चालिज्जइ बीभेइ य, धीरो न परीसहोवसग्गेहिं।
सुहमेसु न संमुच्छइ, भावेसु न देवमायासु ॥20॥
चाल्यते विभेति च, धीरः न परीषहोपसर्गैः।
सूक्ष्मेषफ न संमुह्यति, भावेषु न देवमायासु ॥20॥
वह धीर पुरुष न तो परीषह से न उपसर्ग से विचलित और भयभीत होता है तथा न ही सूक्ष्म भावों से मायाजाल में मुग्ध होता है।
संचित ईंधन जल उठे, जब भी चले बयार।
कर्मबंधन भस्म हुआ, अग्नि ध्यान आहार ॥2.29.21.504॥
जह चिर-संचिय-मिंधण-मणलो पवणस-हदो दुयंं डहदि।
तह कम्मिं-धण-महियं खणेण झाणा-णलो दहइ ॥21॥
यथा चिरसंचितमिन्द्यन-मनलः पवनसहितः द्रुतं दहति।
तथा कर्मेन्धनममितं, क्षणेन ध्यानानलः दहति ॥21॥
जैसे चिरसंचित ईंधन को वायु सहित लगी आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यानरूपी अग्नि अपरिमित कर्म ईंधन को क्षण भर में भस्म कर डालती है।
प्रकरण 30 – अनुप्रेक्षासूत्र
धर्म ध्यान ही परम है, सर्वप्रथम हो भाव।
धर्म ध्यान परिपूर्ण हो, आदि अनित्य सुभाव ॥2.30.1.505॥
झाणोवरमेऽवि मुणी, णिच्चमणिच्चाइभावणापरमो ।
होइ सुभावियचित्तो, धम्मज्झाणेण जो पुव्विं ॥1॥
ध्यानोपरमेऽपि मुनिः, नित्यमनित्यादिभावनापरमः।
भवति सुभावितचित्तः, धर्मध्यानेन यः पूर्वम् ॥1॥
मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म ध्यान द्वारा अपने चित्त को भावपूर्ण करे। बाद में सदा अनित्य, अशरण आदि भावनाओं के चिन्तन में लीन रहे।
अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्य, अपवित्र, लोक, संसार ।
आस्रव, संवर, धर्म, निर्जरा, बारह बोधि प्रकार ॥2.30.2.506॥
अद्धुव-मसरण-मेगत्त-मण्ण-संसार-लाय-मसुइत्तं।
आसव-संवर-णिज्जर-धम्मं बोधिं च चिंतिज्ज ॥2॥
अध्रुवमशरणमेकत्व-मन्यत्वसंसार-लोकमशुचित्वं।
आस्रवसंवरनिर्जर, धर्मं बोधि च चिन्तयेत् ॥2॥
अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, अपवित्र, लोक, संसार, आस्रव, संवर, धर्म, निर्जरा, बोधि इन बारह भावनाओं का चिन्तन करना चाहिये।
जन्म मरण का संग है, वृद्ध अपि यौवन यार।
लक्ष्मी संग विनाश है, क्षण भंगुर संसार ॥2.30.3.507॥
जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जोव्वणं जरा-सहियं ।
लच्छी विणास-सहिया इय सव्वं भंगुरं मुणह ॥3॥
जन्म मरणेन समं, सम्पद्यते यौवनं जरासहितम्।
लक्ष्मीः विनाशसहिता, इति सर्वं भङ्गुरं जानीत ॥3॥
जन्म मरण केे साथ जुड़ा हुआ है और यौवन वृद्धावस्था के साथ। लक्ष्मी चंचला है। इस प्रकार संसार में सब कुछ अनित्य है।
इन्द्रिय विषयक मोह तजे, क्षण भंगुर सब जान ।
विषयरहित मन को रखें, उत्तम सुख का भान ॥2.30.4.508॥
चउऊण महामोहं सिए मुणिऊण भंगुरे सव्वे ।
णिव्वसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तम लहह ॥4॥
त्शक्त्वा महामोहं, विषयान् ज्ञात्वा भङ्गुरान् सर्वान्।
निर्विषयं कुरुत मनः, येन सुखमुत्तमं लभध्वम् ॥4॥
महामोह को तज कर तथा सब इन्द्रिय विषयों को अनित्य जानकर मन को निर्विषय बनाओ ताकि उत्तम सुख प्राप्त हो।
जो धन पशु की शरण ले, ज्ञानशून्य अंजान।
ये मेरे मैं आपका, शरणागत ना मान ॥2.30.5.509॥
वित्तं पसवो य णाइओ, तं बालं सरणं त्ति मण्णई ।
एए मम तेसिं वा अहं णो ताणं सरणं ण विज्जई ॥5॥
वित्तं पशवश्च ज्ञातयः, तद् वालः शरणमिति मन्यते ।
एते मम तेष्वप्यहं, नो त्राणं शरणं न विद्यते ॥5॥
अज्ञानी जीव, धन, पशु तथा जातिबन्धु को अपना रक्षक या शरण मानता है कि ये मेरे हैं और मैं इनका हूँ।
तजूं परिग्रह, मायादि, तजता त्रिविध शल्य।
गुप्ति और समितियाँ हैं, मेरी रक्षक शरण्य ॥2.30.6.510॥
संगं परिजाणमि, सल्लं पि य उद्धरामि तिविहेणं ।
गुत्तीओ समिईओ, मज्झं ताणं च सरणं च ॥6॥
संगं परिजानामि, शल्यमपि चोद्धरामि त्रिविधेन ।
गुप्तयः समितयः, मम त्राणं च शरणं च ॥6॥
मै परिग्रह को समझ बूझकर छोड़ता हूँ। माया, मिथ्यात्व व निदान इन तीन शल्यों को भी मन-वचन-काय से दूर करता हूँ। तीन गुप्तियाँ और पाँच समितियाँ ही मेरे लिये रक्षक और शरण हैं।
अति सुन्दर गर्वित युवा, मृत्यु बाद विचार।
कीट बने उसी तन मेें, जग को है धिक्कार ॥2.30.7.511॥
धी संसारो जहियं, जुवाणओ परमरूवगव्व्यिओ ।
मरिऊण जायइ, किमी तत्थेव कलेवरे नियए ॥7॥
धिक् संसारं यत्र, युवा परमरूपगर्वितकः ।
मृत्वा जायते, कृमिस्तत्रैव कलेवरे निजके ॥7॥
इस संसार को धिक्कार है जहाँ अति सुन्दर युवक मृत्यु पश्चात उसी शरीर में कीट के रुप में उत्पन्न हो जाता है।
बाल – नोक बराबर भी, नहीं जगत में स्थान।
पड़ा भोगना कष्ट जहाँ, जन्म-मरण श्रीमान ॥2.30.8.512॥
सो नत्थि इहोगासो, लोए वालग्गकोडिमित्तोऽवि ।
जम्मण मरणाबाहा, अणेगसो जत्थ न य पत्ता ॥8॥
स नास्तीहावकाशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि ।
जन्ममरणाबाधा, अनेकशो यत्र न च प्राप्ताः ॥8॥
इस संसार में बाल की नोक जितना भी स्थान ऐसा नही है जहाँ इस जीव ने अनेक बार जन्म-मरण का कष्ट न भोगा हो।
ज्वर बुढापा और मरण, मगरमच्छ कर पार।
सतत जन्म जलराशि है, भवसागर व्यापार ॥2.30.9.513॥
बाहिजरमरणमयरो निरंतरुप्पत्तिनीरनिकुरुंबो ।
परिणामदारुणदुहो, अहो दुरंतो भवसमुद्दो॥9॥
व्याधिजरामरणमकरो, निरन्तरोत्पत्ति-नीरनिकुरुम्बः।
परिणामदारुणदुःखः, आहे! दुरन्तो भवसमुद्रः॥9॥
अहो! इस भव सागर का अन्त बड़े कष्ट से होता है। इसमें व्याधि, बुढ़ापा, मरणरूपी अनेक मगरमच्छ है। निरन्तर जन्म ही जलराशि है। इसका परिणाम दारुण दुख है।
त्रिरत्न संयुक्त जीव ये, उत्तम तीर्थ समान।
पार करे संसार की, नाव त्रिरत्न महान॥2.30.10.514॥
रयणत्तय-संजुत्तो,जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं ।
संसारं तरइ जदो, रयणत्तय-दिव्व-णावाए ॥10॥
रत्नत्रयसंयुक्तः, जीवः अपि भवति उत्तमं तीर्थम्।
संसारं तरति यतः, रत्नत्रयदिव्यनावा ॥10॥
रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन, ज्ञान व चारित्र) से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ है क्योंकि वह रत्नत्रय रूपी दिव्य नौका द्वारा संसार सागर पार कर लेता है।
प्रत्येक जीव स्वतंत्र है, करे कर्मफल भोग ।
कौन अपना या-पर-जन कौन बताये लोग ॥515॥
पत्तेयं पत्तेयं नियगं, कम्मफलमणुहवंताणं ।
को कस्स जए सयणो? को कस्स व परजणो भणिओ? ॥11॥
प्रत्येक प्रत्येकं निजकं, कर्मफलमनुभवताम्।
कः कस्य जगति स्वजनः? कः कस्य वा परजनो भणितः ॥11॥
यहाँ प्रत्येक जीव अपने अपने कर्म फल को अकेला ही भोगता है। ऐसी स्थिति में यहाँ कौन किसका स्वजन है और कौन किसका पर जन?
शाश्वत केवल आत्मा, ज्ञान दर्शन योग ।
देह राग है अन्य सभी, मात्र रहे संयोग ॥2.30.12.516॥
एगो मे सासदो अप्पा, णाण-दंसण-लक्खणोे।
सेसा मे बाहिरा-भावा, सव्वे संजोग-लक्खणा ॥12॥
एको मे शाश्वत आत्मा, ज्ञानदर्शनसंयुतः।
शेषा मे बाह्या भावाः, सर्वे संयोगलक्षणाः ॥12॥
ज्ञान और दर्शन से युक्त मेरी एक आत्मा ही शाश्वत है शेष सब अर्थात देह तथा रागादि भाव तो संयोगलक्षण वाले है। उनके साथ मेरा संयोग संबंध मात्र है। वे मुझसे अन्य ही है।
दुख मूल संयोग सदा, एक सनातन राग ।
करूँ मेल संयोग का, पूर्ण भाव से त्याग ॥2.30.13.517॥
संजोगमूला जीवेणं, पत्ता दुक्खपरंपरा।
तम्हा ंजोगसंबंधं, सव्वभावेण वोसिरे ॥13॥
संयोगमूला जीवेन, प्राप्ता दुःखपरम्परा।
तस्मात्संयोगसम्बन्धं, सर्वभावेन व्युत्सृजामि ॥13॥
इस संयोग के कारण ही जीव दुखों की परम्परा को प्राप्त हुआ है। अतः सम्पूर्ण भाव से मैं इस संयोग सम्बंध का त्याग करता हूँ।
मृतक जनों पर दुख करें, कहलाता अज्ञान।
आत्मा की चिंता नहीं, भवसागर में जान॥2.30.14.518॥
अणुसोअइ अन्न जणं अन्नभवंतरगयं तु बालजणो ।
नवि सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुद्दे ॥14॥
अनुशोचत्यन्यजन-मन्यभावान्तरगतं तु बालजनः।
नैव शोचत्यात्मानं, क्लिश्यमानं भवसमुद्रे ॥14॥
अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गये हुए दूसरे लोगों के लिये तो शोक करता है किन्तु भव सागर में कष्ट भोगने वाली अपनी आत्मा की चिन्ता नही करता।
मैं शरीर दोनों अलग, बंधु अन्य समान।
कुशल जन आसक्त नहीं, हो जो ऐसा ज्ञान ॥2.30.15.519॥
अन्नं इमं सरीरं, अन्नोऽहं बंधवाविमे अन्ने ।
एवं ज्ञात्वा क्षमं, कुशलस्य न तत् क्षमं कर्तुम् ॥15॥
अन्यदिदं शरीरम्, अन्योऽहं बान्धवा अपीमेऽन्ये ।
एवं ज्ञात्वा क्षमं, कुशलस्य न तत् क्षमं कर्तुम् ॥15॥
यह शरीर अन्य है, मैं अन्य हूँ, बन्धु बान्धव भी मुझसे अन्य है। ऐसा जानकर कुशल व्यक्ति उनमें आसक्त न हो।
रूप समझ तन-जीव को, भिन्न तत्व का ज्ञान।
आत्मा का अनुचिंतन हो, अन्यत्व भाव संज्ञान॥2.30.16.520॥
जो जाणिऊए देहं, जीवसरूवादु तच्चदो भिण्णं ।
अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरंं स्स अण्णत्तं ॥16॥
यः ज्ञात्वा देहं, जीवस्वरूपात् तत्त्वतः भिन्नम्।
आत्मानमपि च सेवते, कार्यकरं तस्य अन्यत्वम् ॥16॥
जो शरीर को जीव के स्वरूप से तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्मा का अनुचिन्तन करता है, उनकी अन्यत्व भावना कार्यकारी है।
माँस हड्डियों से बना, मैल भरे नौ छेद।
तन है नाली गंदगी, सुख का कैसा वेद ॥2.30.17.521॥
मंसट्ठियसंघाए, मुत्तपुरीसभरिए नवच्छिद्दे।
असुइं परिस्सवंते, सुहं सरीरग्मि किं अत्थि?॥17॥
मांसास्थिकसंघाते, मूत्रपुरीषभृते नवच्छिद्रे।
अशुचि परिस्रवति, शुभं शरीरे किमस्ति? ॥17॥
माँस और हड्डी के मेल से निर्मित, मल-मूत्र से भरे, नौ छिद्रों के द्वारा अशुचि पदार्थों को बहाने वाले शरीर में क्या सुख हो सकता है?
भाव उदय हो मोह के, साधु करता त्याग।
आस्रव इसको मानना, अनुप्रेक्षा का भाग ॥2.30.18.522॥
एदे मोहय-भावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो।
हेयं ति मण्णमाणो आसव-अणुवेहणं तस्स ॥18॥
एतान् मोहजभावान् यः परिवर्जयति उपशमे लीनः।
हेयम् इति मन्यमानः, आस्रवानुप्रेक्षणं तस्य ॥18॥
मोह के उदय से उत्पन्न होने वाले इन सब भावों को त्यागने योग्य जानकर उपशम भाव में लीन मुनि इनका त्याग कर देता है। यह उसकी आस्रव अनुप्रेक्षा है।
काय मन वचन गुप्ति का, शुद्ध समिति पहचान।
बंद आस्रव द्वार रहे, संवर अनुप्रेक्षा ज्ञान॥2.30.19.523॥
मण-वयण-काय-गुत्तिंदियस्स समिदीसु अप्पमत्तस्स।
आसव-दार-णिरोहे, णव-कम्म-रया-सवो ण हवे ॥19॥
मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियस्य समितिषु अप्रमत्तस्य ।
आस्रवदारनिरोधे, नवकर्मरजआस्रवो न भवेत् ॥19॥
तीन गुप्तियों के द्वारा इन्द्रियों को वश में करनेवाला तथा पाँच समितियों के पालन में अप्रमत्त मुनि के आस्रव द्वारों का निरोध हो जाने पर नवीन कर्म रज का आस्रव नही होता है। वह संवर अनुप्रेक्षा है।
सार नहीं इस लोक में, दीर्घ गमन संसार।
ध्यान करे सर्वोच्च का, सिद्ध चले जिस पार ॥2.30.20.524॥
णाऊण लोगसारं, णिस्सारं दीहगमणसंसारं।
लोयग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सुहवासं ॥20॥
ज्ञात्वा लोकसारं, निःसारं दीर्घगमनसंसारम्।
लोकाग्रशिखरवासं, ध्याय प्रयत्नेन सुखवासम् ॥20॥
लोक को निःसार तथा संसार को दीर्घ गमनरूप जानकर मुनि प्रयत्नपूर्वक लोक के सर्वोच्च अग्रभाग में स्थित मुक्तिपद का ध्यान करता है, जहाँ मुक्त (सिद्ध जीव) सुखपूर्वक सदा निवास करते हैं।
जरा मरण में डूबते, जीवन तेज बहाव।
द्वीप-प्रतिष्ठा और गति, शरण धर्म की नाव ॥2.30.21.525॥
जरा-मरण-वेगेणं, वुज्झमणाण पाणिणं।
धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरण-मुत्तमं ॥21॥
जरामरणेवेगेन, डह्यमानानां प्राणिनाम्।
धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम् ॥21॥
जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते-डूबते हुए प्राणियों के लिये धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है।
दुर्लभ जन्म मनुष्य का, दुर्लभतर श्रुत ज्ञान।
लेय नियम में जानकर, दया क्षमा का दान॥2.30.22.526॥
माणुस्सं विग्गहं लद्धूं, सुई धम्मस्स दुल्लहा।
जं सोच्चा पडिवज्जन्ति, तवं खन्ति-महिंसयं ॥22॥
मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिर्धर्मस्य दुर्लभा।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिमहिंस्रताम् ॥22॥
प्रथम तो चतुर्गतियों में भ्रमण करने वाले जीव को मनुष्य शरीर मिलना ही दुर्लभ है फिर ऐसे धर्म का श्रवण तो और भी कठिन है जिसे सुनकर तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त किया जाय॥
लाभ श्रवण शायद मिले, श्रद्धा ना आसान ।
न्याय मार्ग की बात सुन, विचलित होता ध्यान ॥2.30.23.527॥
आहच्च सवणं लद्धूं, सद्धा परमदुल्लहा।
सोच्चा ने आउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई॥23॥
आहत्य श्रवणं लब्ध्वा, श्रद्धापरमदुर्लभ ।
श्रुत्वा नैयायिकं मार्ग वहवः परिभ्रश्यन्ति ॥23॥
कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाये तो उस पर श्रद्धा होना महा कठिन है। क्योंकि बहुत से लोग न्यायसंगत मोक्षमार्ग को सुनकर भी उससे विचलित हो जाते है।
श्रुति श्रद्धा अरु लाभ भी, दुर्लभ संयम भार।
रुचि संयम के साथ रख, सम्यक् नहीं स्वीकार ॥2.30.24.528॥
सुइं च लद्धं सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं।
बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए ॥24॥
श्रुतिं च लब्ध्वाश्रद्धां च, वीर्य पुनर्दुर्लभम् ।
बहवो रोचमाना अपि, नो च तत् प्रतिपद्यन्ते ॥24॥
धर्म के प्रति श्रद्धा हो जाने पर भी संयम में पुरुषार्थ होना अत्यन्त दुर्लभ है। बहुत से लोग संयम में रुचि रखते हुए भी उसे सम्यक् रूपेण स्वीकार नही कर पाते।
भाव योग शुद्ध-आत्मा, जल में नाव समान।
तट पर पहुँचे नाव तो, अंत दुखो का जान ॥2.30.25.529॥
भावणा-जोग-सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया।
णावा व तीर-संपण्णा, सव्व-दुक्खा तिउट्टइ ॥25॥
भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिव आख्यातः।
नौरिव तीरसंपन्ना, सर्वदुःखात् त्रुट्यति ॥25॥
भावना योग से शुद्ध आत्मा को जल में नौका के समान कहा गया है। जैसे अनुकूल पवन का सहारा पाकर नौका किनारे पर पहुँच जाती है वैसे ही शुद्ध आत्मा संसार के पार पहुँचती है जहाँ उसके समस्त दुखों का अन्त हो जाता है।
भाव बारह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान बखान।
समाधिसह आलोचना, सतत चिन्तवन ध्यान ॥2.30.26.530॥
बारस-अणुवेक्खाओ, पच्चक्खाणं तहेव पडिक्कमणं।
आलोयणं समाहिं, तम्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ॥26॥
द्वादशानुप्रेक्षाः, प्रत्याख्यानं तथैव प्रतिक्रमणम् ।
आलोचनं समाधिः, तस्मात् भावयेत् अनुप्रेक्षाम् ॥26॥
अतः बारह अनुप्रेक्षाओं का तथा प्रत्याख्यान (निरोध करना), प्रतिक्रमण, आलोचना एवं समाधि का बारम्बार चिन्तवन करते रहना चाहिए।
प्रकरण 31 – लेश्यासूत्र
शुभ तीन लेश्या मुनि की, पीली पद्म स़फेद।
धर्म ध्यान से युक्त मुनि, तीव्र-मन्द से भेद ॥2.31.1.531॥
होंति कमविसुद्धाओ, लेसाओ पीयपम्हसुक्काओ ।
धम्मज्झाणोवगयस्स, तिव्व-मंदाइभेयाओ ॥1॥
भवन्ति क्रमविशुद्धाः, लेश्याः पीतपद्मशुक्लाः।
धर्मध्यानोपगतस्य, तीव्रमन्दादि-भेदाः ॥1॥
धर्म ध्यान से युक्त मुनि के क्रमशः विशुद्ध पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं होती है। इन लेश्याओें के तीव्र मन्द के रुप में अनेक प्रकार होते हैं।
योग प्रवृत्ति कषाय उदय इसे लेश्या मान ।
कषाय योग का काम है चार बंधु यह जान ॥2.31.2.532॥
होंति कमविसुद्धाओ, लेसाओ पीयपम्हसुक्काओ ।
धम्मज्झाणोवगयस्स, तिव्व-मंदाइभेयाओ ॥2॥
योगप्रवृत्तिर्लेश्या, कषायोदयानुरञ्जिता भवति।
ततः द्वयोः कार्य, बन्धचतुष्कं समुद्दिष्टम् ॥2॥
कषाय के उदय से अनुरंजित मन-वचन-काय की योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इन दोनों अर्थात कषाय और योग का कार्य है चार प्रकार का कर्म बंध। कषाय से कर्मों के स्थित और अनुभाग बन्ध होते हैं और योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध।
काली नील कबूतरी, पीली पद्म स़फेद।
छह तरह की लेश्या, रंगो में है भेद ॥2.31.3.533॥
किण्हा णीला काऊ, तेऊ पम्मा य सुक्क-लेस्सा य ।
लेस्सां णिद्देसा, छचचेव हवंति णियमेण ॥3॥
कृष्णा नीला कापोता, तेजः पद्मा च शुक्ललेश्या च।
लेश्यानां निर्देशात्, षट् चैव भवन्ति नियमेन ॥3॥
लेश्याऐं छह प्रकार की है- कृष्णलेश्या, नील, कपोत (कबूतरी), पीली, पद्म और शुक्ल।
काली नील कबूतरी, अशुभ लेश्या तीन ।
दुर्गति संयुक्त सदा पाय जीव गति हीन ॥2.31.4.534॥
किण्हा नीला काऊ, तिण्णि वि एयाओ अहम्मलेसाओ ।
एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववज्जई बहसो ॥4॥
कृष्णाननीलाकापोता, तिस्रोऽप्येता अधर्मलेश्याः।
एताभिस्तिसृभिरपि जीवो, दुर्गतिमुपपद्यते बहुशः ॥4॥
कृष्ण, नील और कपोत ये तीनों अधर्म या अशुभ लेश्याऐं है। इनके कारण जीव विविध दुर्गतियों में उत्पन्न होता है।
पीली, पद्म, स़फेद है, धर्म लेश्या तीन।
इन तीनों से जीव सब, सुगति पावे नवीन ॥2.31.5.535॥
तेऊ पम्हा सुक्का, तिण्णि वि एयाओ धम्मलेसाओ ।
एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई बहुसो ॥5॥
तेजः पद्मा शुक्ला, तिस्रोऽप्येता धर्मलेश्याः ।
एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, सुगतिमुपपद्यते बहुशः ॥5॥
पीत (पीली), पद्म और शुक्ल ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याऐं है। इनके कारण जीव विविध सुगतियों में उत्पन्न होता है।
तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, अशुभ लेश्या भेद।
मन्द, मन्दतर, मन्दतम, शुभ लेश्या के भेद ॥2.31.6.536॥
तिव्वतमा तिव्वतरा, तिव्वा असुहा सुहातहा मंदा ।
मंदतरा मंदतमा, छट्ठाण-गया हु पत्तेयं ॥6॥
तीव्रतमास्तीच्रतरा-स्तीव्रा अशुभाः शुभास्तथा मन्दः ।
मन्दतरा, मन्दतमाः, षट्स्थानगता हि प्रत्येकम् ॥6॥
कृष्ण, नील और कपोत प्रत्येक के तीव्रतम, तीव्रतर व तीव्र ये तीन भेद होते है। शुभ लेश्याओं के मन्द, मन्दतर व मन्दतम ये तीन भेद होते है। तीव्र और मन्द प्रत्येक में छह वृद्धियाँ और छह हानियाँ होती है। अनन्त-भाग, असंख्यात-भाग, संख्यात-भाग, अनन्त-गुण, असंख्यात-गुण, संख्यात-गुण। इसी कारण लेश्याओं के भेदों में भी उतार चढ़ाव होता रहता है।
छह पथिक घर से चले, भटके जंगल यार।
फल लदा इक वृक्ष मिला, करने लगे विचार ॥2.31.7.537॥
मूल तना शाखा सभी, फल का होत विचार।
टपका फल खाऊँ पका, कर्म मनन संसार ॥2.31.8.538॥
पहिया जे छप्पुरिसा, परि-भट्ठा-रण्ण-मज्झ-देसम्हि ।
फल-भरिय-रुक्ख-मेगं, पेक्खित्ता ते विंचंतंति ॥7॥
णिम्मूलखंधसाहु-वसाहं छित्तुं चिणित्तु पडिदाइं ।
खाउं फलाइं इदि, जं मणेण वयणं हवे कम्मं ॥8॥
पथिका ये षट् पुरुषाः, परिभ्रष्टा अरण्यमध्यदेशे ।
फलभरितवृक्षमेकं, प्रेक्ष्य ते विचिन्तयन्ति ॥7॥
निर्मूलस्कन्धशाखोपशाखं छित्वा चित्वा पतितानि ।
खादितुं फलानि इति, यन्मनसा वचनं भवेत् कर्म॥8॥
छह पथिक जंगल में भटक गये। भूख लगने पर उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखा। वे मन ही मन विचार करने लगे। एक ने सोचा की पेड़ को जड़-मूल से काटकर फल खाये। दूसरे ने सोचा केवल तने से काटा जाय। तीसरे ने सोचा शाखा ही तोड़ना ठीक रहेगा। चौथे ने विचार किया कि छोटी डाल ही तोड़ी जाय। पाँचवाँ चाहता था कि फल ही तोड़े जाय। छटे ने विचार किया कि वृक्ष से टपककर नीचे गिरे फल ही चुनकर क्यों न खाये जाय। इन छहों पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म क्रमशः छहो लेश्याओं के उदाहरण है।
क्रोध बैर झगड़ा करे, दया धर्म ना भाव।
दुष्ट और वश में नहीं, कृष्ण लेश्य स्वभाव ॥2.31.9.539॥
चंडो ण मुचइ वेरं, भंडण-सीलो य धरम-दय-रहिओ।
दुट्ठो ण य एदि वसं, लक्खण-मेयं तु किण्हस्स॥ 9॥
चण्डो न मुञ्चति वैरं, भण्डनशीलाश्च धर्मदयारहितः।
दुष्टो न चैति वशं, लक्षणमेतत्तु कृष्णस्य॥9॥
स्वभाव की प्रचण्डता, बैर की मज़बूत गाँठ, झगड़ालू वृत्ति, धर्म और दया से शून्यता, दुष्टता, समझाने से भी नही मानना ये कृष्ण लेश्या के लक्षण हैं।
मंद, अज्ञानी, बुद्धि नहीं, लोलुप भोग स्वभाव ।
लक्षण है उस जीव के, नील लेश्या भाव॥2.31.10.540॥
मंदो बुद्धि-विहीणो, णिव्विणाणी य विसय-लोलो य ।
लक्खण-मेयं भणियं, समासदो णील-लेस्सस्स ॥10॥
मन्दो बुद्धिविहीनो निर्विज्ञानी च विषयलोलश्च ।
लक्षणमेतद् भणितं, समासतो नीललेश्यस्य ॥10॥
मन्दता, बुद्धिहीनता, अज्ञान और विषयलोलुपता- ये संक्षेप में नीललेश्या के लक्षण है।
रुष्ट हो, निन्दा, दोष मढ़े, शोकाकुल भयभीत ।
ऐसे जिसके काम वो, कपोत लेश्या रीत ॥2.31.11.541॥
रूसइ णिंदइ अण्णे, दूसइ बहुसो य सोय-भय-बहुलो ।
ण गणइ कज्जा-कज्जं, लक्खण-मेयं तु काउस्स ॥11॥
रुष्यति निन्दति अन्यान् दूषयति बहुशश्च शोकभयबहुलः।
न गणयति कार्याकार्य, लक्षणमेत् तु कापोस्य ॥11॥
जल्दी रुष्ट हो जाना, दूसरों की निन्दा करना, दोष लगाना, अति शोकाकुल होना, अत्यन्त भयभीत होना ये कपोत लेश्या के लक्षण है।
कार्य अकार्य ज्ञान हो, हो विवेक समभाव।
दया दान मृदु वृत्ति हो, पीत लेश्या भाव॥2.31.12.542॥
जाणइ कज्जाकज्जं, सेयमसेयं च सव्व-सम-पासी।
दय-दाण-रदो य मिदू, लक्खण-मेयं तु तेउस्स ॥12॥
जानाति कार्याकार्य, श्रेयः अश्रेयः च सर्वसमदर्शी।
दयादानरतश्च मृदुः, लक्षणमेत् तु तेजसः ॥12॥
कार्य-अकार्य का ज्ञान, उचित-अनुचित का विवेक, समभाव, दया-दान में प्रवृत्ति ये पीत या तेजो लेश्या के लक्षण हैं।
भद्र त्यागी और खरा, रखे क्षमा का भाव ।
गुरु साधु पूजित हरदम लेश्या पद्म स्वभाव ॥2.31.13.543॥
चागी भद्दी चोक्खो, उज्जव कम्मो य खमदि बहुगं पि।
साहु-गुरु-पूजन-रदो, लक्खण-मेयं तु पम्मस्स ॥13॥
त्यागी भद्रः चोक्षः, आर्जवकर्मा च क्षमते बहुकमपि।
साधुगुरुपूजरतो, लक्षणमेत् तु पद्मस्य ॥13॥
त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता, व्यवहार में प्रामाणिकता, कार्य में शुद्धता, अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता, साधु-गुरुजनों की पूजा सेवा में तत्परता ये पद्म लेश्या के लक्षण हैं।
पक्षपात, उम्मीद नहीं, समदर्शी समभाव।
राग द्वेष से दूर रहे, लेश्य शुक्ल स्वभाव॥2.31.14.544॥
णयकुणइ पक्खवायं, ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसिं ।
णत्थि य राय-द्दोसा, णेहो वि य सुक्क-लेस्सस्स ॥14॥
न च करोति पक्षपातं, नापि च निदानं समश्च सर्वेषाम्।
न स्तः च रागद्वेषो, स्नेहोऽपि च शुक्ललेश्यस्य ॥14॥
पक्षपात न करना, भोगों की आकांक्षा न करना, सब ने समदर्शी रहना, सब में राग द्वेष तथा प्रणय से दूर रहना – शुक्ल लेश्या के लक्षण है।
आत्मा शुद्धि जीव की, लेश्या शुद्ध हो जाय।
मन्द करे कषाय को, विशुद्ध लेश्या भाय ॥2.31.15.545॥
लेस्सासोधी अज्झवसाण-विसोधीए होइ जीवस्स ।
अज्झवसाण-विसोधी मंदकसायस्स णादव्वा ॥15॥
लेश्याशुद्धिः अध्यवससानविशुया भवति जीवस्य ।
अध्यवसानविशुद्धिः, मन्दकषायस्य ज्ञातव्या ॥15॥
आत्मपरिणामों में विशुद्ध आने से लेश्या भी विशुद्ध होती है और कषायों की मन्दता से परिणाम विशुद्ध होते हैं।
प्रकरण 32 – आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान)
कर्म उदय परिणाम से, जीवों की पहचान।
जिन देव कहते उसको, जीव के गुणस्थान ॥2.32.1.546॥
जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं ।
जीवा ते गुण-सण्णा, णिद्दिट्ठा सव्व-दरिसीहिं ॥1॥
यैस्तु लक्ष्यन्ते, उदयादिषु सम्भवैर्भावैः।
जीवास्ते गुणसंज्ञा, निर्दिष्टाः सर्वदर्शिभिः ॥1॥
कर्मों के उदय से होनेवाले परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते है उन्हे जिनेन्द्रदेव ने ‘गुणस्थान’ संज्ञा दी है।
सासादन मिथ्यात्व मिश्र, अविरत-सम्यक् देशान ।
प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्व भी, लघु अनिवृत्ति, गुणान ॥2.32.2.547॥
क्षीणमोह उपशांत भी, सयोगि-अयोगि ज्ञान ।
क्रम ये चौदह मात्र ही, सिद्ध नहीं गुण जान ॥2.32.3.548॥
मिच्छो सासण मिस्सो, अविरद-सम्मो य देस-विरदो य ।
विरदो पमत्त इयरो, अपुव्व अणियट्टि सुहुमो य ॥2॥
उवसंत-खीण-मोहो, सजोति केवलि-जणो अजोगी य ।
चोद्दस गुणट्ठाणाणि य, कमेण सिद्धा य णायव्वा ॥3॥
मिथ्यात्वं सास्वादनः मिश्रः, अविरतसम्यक्त्वः च देशविरतश्च।
विरतः प्रमत्तंः इतरः, अपूर्वः अनिवृत्तिः सूक्ष्मश्च ॥2॥
उपशान्तः क्षीणमोहः, संयोगिकेवलिजिनः अयोगी च ।
चतुर्दश गुणस्थानानि च, क्रमेण सिद्धाः च ज्ञातव्याः ॥3॥
गुणस्थान चौदह है। मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत-सम्यक्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म-साम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवलिजिन भी, अयोगिकेवलिजिन। सिद्ध गुण स्थान से परे है।
श्रद्धा ना तत्वार्थ पे, हो ना मिथ्या भाव ।
संशयित, अभिग्रहित भी, अनभिग्रहित स्वभाव ॥2.32.4.549॥
तं मिच्छत्तं जम-सद्दहणं, तच्चाण होदि अत्थाणं ।
संसइद-मभिग्गहियं, अणभिग्गहियं तु तं तिविहं ॥4॥
तद् मिथ्यात्वं यदश्रद्धानं, तत्त्वानां भवति अर्थानाम्।
संशयितमभिगृहीतम-नभिगृहीतं तु तत् त्रिविधम् ॥4॥
तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धा का अभाव मिथ्यात्व है।यह तीन प्रकार का है। संशयीत, अभिग्रहित और अनभिग्रहित।
गिर सम्यक्त्वशिखर से, पहुँच न पाया स्थान।
अधर लटकते जीव का, सासादन गुणस्थान ॥2.32.5.550॥
सम्मत्त-रय-पव्वय-सिहरादो, मिच्छ-भूमि समभिमुहो ।
णासिय-सम्मत्तो सो, सासण-णामो मुणेयव्वो ॥5॥
सम्यक्त्वरत्नपर्वत-शिखरात् मिथ्याभावसमभिमुखः ।
नाशितसम्यक्त्वः सः, सासस्वादननामा मन्तव्यः ॥5॥
सम्यक्त्व के अभाव में जो मिथ्यात्व की ओर मुड़ गया हैलेकिन मिथ्यात्व में प्रवेश नही किया है उस मध्यवर्ती अवस्था को सासादन गुणस्थान कहा है।
गुड़ दही जिस तरह मिले, अलग नहीं कर पाय।
सम्यक् मिथ्या जब मिले, स्थान मिश्र कहलाय ॥2.32.6.551॥
दहि-गुड-मिव वा-मिस्सं, पिहु-भावं णेव कारिदुं सक्कं ।
एवं मिस्सय-भावो, सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो ॥6॥
दधिगुडमिव व्यामिश्रं, पृथग्भावं नैव कर्तुं शक्यम् ।
एवं मिश्रकभावः, सम्यक्मिथ्यात्वमिति ज्ञातव्यम् ॥6॥
दही और गुड़ के मेल के स्वाद की तरह सम्यकत्व और मिथ्यात्व का मिश्रित भाव जिसे अलग नहीं किया जा सकता, मिश्र गुण स्थान कहलाता है।
इन्द्रिय विषय विरक्त नहीं, जीव न हिंसा त्याग।
श्रद्धा हो तत्त्वार्थ में , अविरत सम्यक् जाग ॥2.32.7.552॥
णों इंदिएसु विरदो, णो जीवे थावरे चावि ।
जो सद्दहइ जिणत्तं, सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥7॥
नो इन्द्रियेषुविरतो, नो जीवे स्थावरे त्रसे चापि ।
यः श्रद्दधाति जिनोक्तं, सम्यग्दृष्टिरविरतः सः ॥7॥
जो इन्द्रिय विषयों व हिंसा से अनुरक्त नहीं है पर तत्वार्थ पर श्रद्धा रखता है वह व्यक्ति अविरतसम्यकदृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
त्रस हिंसा से हो अलग, स्थावर का ना त्याग।
जिन-शासन श्रद्धा रहे, देशविरत गुण जाग ॥2.32.8.553॥
जो तस- वहाउ-विरदो, णो विरओ अक्ख-थावर-वहाओ ।
पडि-समयं जो जीवो, विरया-विरओ जिणेक्कमई ॥8॥
यस्त्रसवधाद्विरतः, नो विरतः अत्र स्थावरबधात् ।
प्रतिसमयं सः जीवों, विरताविरतो जिनैकमतिः ॥8॥
जो त्रस जीवों की हिंसा से तो विरत हो गया है परन्तु एकेन्द्रिय स्थावर (वनस्पति, जल, भूमि, अग्नि, वायु) की हिंसा से विरत नही हुआ है तथा एकमात्र जिन भगवान में ही श्रद्धा रखता है वह श्रावक देशविरत गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
सकल शील गुण समत्वित, महाव्रती हो जान ।
व्यक्त-अव्यक्त प्रमाद बचा, प्रमत्त संयत स्थान ॥2.32.9.554॥
वत्ता-वत्त-पमाएल जो वसइ पमत्त-संजओ होइ ।
सयल-गुण-सील-कलिओ, महव्वई चित्तला-यरणो ॥9॥
व्यक्ताव्यक्तप्रमादे, यो वसति प्रमत्तसंयतो भवति।
सकलगुणशीलकलितो, महाव्रती चित्रलाचरणः ॥9॥
जिसने महाव्रत धारण कर लिये हैं, सकल शील-गुण से समन्वित हो गया है लेकिन जिसमें व्यक्त-अव्यक्तरूप में प्रमाद शेष है वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
पंडित व्रतगुणशील हो, प्रमाद नष्ट हो जाय ।
मोहनीय बाकी रहे, अप्रमत्तसंयत कहलाय॥2.32.10.555॥
णट्ठा-सेस-पमाओ,वय-गुण-सीलोलि-मंडिओ णाणी ।
अणुवसमओ अखवओ, झाण-णिलीणो हु अप्पमत्तो सो ॥10॥
नष्टशेषप्रमादो, व्रतगुणशीलावलिमण्डितो ज्ञानी ।
अनुपशमकः अक्षपको, ध्याननिलीनो हि अप्रमत्तः सः॥10॥
जो ज्ञानी होने के साथ व्रत, शील और गुण की माला से सुशोभित है व सम्पूर्ण प्रमाद समाप्त हो गया है, आत्मध्यान में लीन रहता है लेकिन मोहनीय कर्म का उपशम व क्षय करना शेष है वह अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कलहाता है।
भिन्न काल स्थित जीव के अपूर्व भाव संज्ञान ।
पहले ना धारण किये, अष्टम गुण का स्थान ॥2.32.11.556॥
एयम्मि गुणट्ठाणे, विसरिस-समय-ट्ठिएहि जीवेहिं ।
पुव्व-मपत्ता जम्हा, होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥11॥
एतस्मिन् गुणस्थाने, विसदृशसमयस्थितैर्जीवैः।
पूर्वमप्राप्ता यस्मात्, भवन्ति अपूर्वा हि परिणामाः ॥11॥
आठवें गुणस्थान में जीव विभिन्न समय में स्थित अपूर्व भावों को धारण करते है जो पहले कभी नही हो पाये थे, वह अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती है।
जीव अपूर्व सगुण रहे, कह जिनेन्द्र यह ज्ञान ।
क्षय उपशम तत्पर रहे, कर्म मोहनीय जान ॥2.32.12.557॥
तारिस-परिणाम-ट्ठि-जीवा, हु जिणेहिं गलिय-तिमिरेेहिं ।
मोहस्स-पुव्वकरणा, खवणु-वसम-णुज्जया भणिया ॥12॥
तादृशपरिणामस्थितजीवाः, हि जिनैर्गलिततिमिरैः ।
मोहस्यापूर्वकरणाः,क्षपणोपशमनोद्यताः भणिताः ॥12॥
जिनेन्द्रदेव ने उन अपूर्वपरिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने में तत्पर कहा है। मोहनीय कर्म का उपशम व क्षय नौवें व दसवें गुणस्थान में होता है लेकिन उसकी तैयारी आठवें स्थान से शुरू हो जाती है
सतत एक परिणाम हो, अनिवृत्ति गुणस्थान ।
ध्यान ये निर्मल अग्नि शिखा, भस्म कर्म वन जान ॥2.32.13.558॥
होंति अणिट्टिणो ते, पडिसमयं जेसि-मेक्क-परिणामा।
विमल-यर-झाण-हुयवह-सिहाहिं णिद्दड्ढ-कम्म-वणा ॥13॥
भवन्ति अनिवर्तिनस्ते, प्रतिसमयं येषामेकपरिणामाः।
विमलतरध्यानहुतवह-शिखाभिर्निर्दग्धकर्मवनाः ॥13॥
जिनके निरंतर एक ही भाव होता है वे जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थान (नौवाँ) वाले होते है। ये जीव निर्मलतर ध्यानरूपी अग्निशिखाओं से कर्म-वन को भस्म कर देते है।
क्षीण रंग सा शेष रहा, सूक्ष्म सदा मन-राग।
सूक्ष्म शेष कषाय सा, ‘सूक्ष्मकषाय’ प्रभाग॥2.32.14.559॥
कोसुंभो जिह राओ, अब्भंतरदो य सुहुम-रत्तो य ।
एवं सुहुम-सराओ, सुहुम-कसाओ त्ति णायव्वो ॥14॥
कौसुम्भः यथा रागः, अभ्यन्तरतः च सूक्ष्मरक्तः च।
एवं सूक्ष्मसरागः, सूक्ष्मकषाय इति ज्ञातव्यः ॥14॥
कुसुम्भ के हल्के रंग की तरह जिनके अंतरंग में केवल सूक्ष्म राग शेष रह गया है, उन मुनियों को सूक्ष्म-सराग या सूक्ष्म-कषाय गुणवर्ती (दसवाँ) जानना चाहिये।
ज्यों निर्मल फल युक्त जल, शरद सरोवर जान।
मोह समस्त निशांत हुआ उपशान्त कषाय स्थान ॥2.32.15.560॥
कदक-फल-जुद जलं वा, सरए सरवाणियं व णिम्मलय ।
सयलो-वसंत-मोहो, उवसंत-कसायओ होदि ॥15॥
कतकफलयुतजलं वा, शरदि सरः पानीयम् इव निर्मलकम् ।
सकलोपशान्तमोहः, उपशान्तकषायतो भवति ॥15॥
जैसे मिट्टी के बैठ जाने से जल निर्मल हो जाता हैलेकिन जल थोड़ा भी हिल जाने से मिट्टी ऊपर आ जाती है वैसे ही मोह के उदय से उपशान्तकषाय श्रमण (ग्यारहवाँ) स्थानच्युत होकर सूक्ष्मसराग (दसवाँ) स्थान में पहुँच जाता है।
सकल मोहनीय कर्म जहां हो जाते अवसान।
अल्प मोह क्षण भाव कटु, शेष न इस गुणस्थान ॥2.32.16.561॥
णिस्सेस-खीण-मोहो, फलिहा-मल भायणुदय-समचित्तो ।
खीण-कसाओ भण्णइ,णिग्गंथो वीयराएहिं ॥16॥
निःशेषक्षीणमोहः स्फटिकामल-भाजनोदक-समचित्तः।
क्षीणकषाो भण्यते, निर्ग्रन्थो वीतरागैः ॥16॥
सम्पूर्ण मोह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाता हैउन्हें वीतराग ने क्षीणकषाय निर्ग्रन्थ (बारहवाँ) गुणस्थान कहा है ।
केवल ज्ञानरविकिरणोंसे नष्ट किया अज्ञान ।
प्रकटी नौ लब्धियाँ तब, परमात्मा संज्ञान ॥2.32.17.562॥
केवल ज्ञानदर्शनयुत, पर शेष काय योग।
जिन का यही गुणस्थान है, केवली सयोग ॥2.32.18.563॥
केवल-णाण-दिवायर-किरण-कलाव-प्पणासि-अण्णाओ।
णव-केवल-लद्धुग्गम-सुजविय परमप्प-ववएसो ॥17॥
असहाय-णाण-दंसण-सहिओ वि हु केवली हु जोएण।
जुत्तो त्ति सजोगो इदि, अणाइ-णिहणा-रिसे उत्तो ॥18॥
केवलज्ञानदिवाकर-किरणकलाप-प्रणाशिताज्ञानः।
नवकेवललब्ध्युद्गम-प्रापितपरमात्मव्यपदेशः ॥17॥
असहायज्ञानदर्शन-सहितोऽपि हि केवली हि योगेन ।
युक्त इति सयोगिजिन ः, अनादिनिधन आर्षे उक्तः ॥18॥
केवल ज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से जिनका अज्ञान अंधकार सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा नौ केवल लब्धियों के प्रकट हो जाने से जिन्हें परम आत्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे केवली और काय योग ये युक्त हो जाने के कारण सयोगी केवली (तेरहवाँ गुणस्थान) जिन कहलाते है। (नौ उपलब्धियाँ-सम्यकत्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग)
जो है स्वामी शील के, किए आस्रव बंद जान।
सम्पूर्ण कर्मरहित को, अयोग केवलीजान॥2.32.19.564॥
सेलेसिं संपत्तो, णिरुद्ध-णिस्सेस-आसवो जीवो।
कम्म-रय-विप्प-मुक्को, गय-जोगो केवली होइ॥19॥
जो शील के स्वामी हैं, जिनके सभी नवीन कर्मों का आस्रव अवरुद्ध हो गया है तथा जो पूर्वसंचित कर्मों से सर्वथा मुक्त हो चुके हैं वे अयोगीकेवली (चौदहवाँ गुण स्थान) कहलाते हैं ।
स्थान अयोगी जब मिले, ऊर्ध्वगमन स्वभाव ।
अदेह आठ गुण सहित, सिद्ध लोक ठहराव ॥2.32.20.565॥
सो तम्मि चेव समये, लोयग्गे उड्ढागमणसब्भाओ ।
संचिट्ठइ असरीरो पवरट्ठ गुणप्पओ णिच्चं ॥20॥
सो तस्म्नि् चैव समये, लोकाग्रे ऊर्ध्वगमनस्वभावः।
संचेष्टते अशरीरः प्रवराष्टगुणात्मको नित्यम् ॥20॥
इस चौदहवें केवलस्थान को प्राप्त कर लेने के बाद उसी समय ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला वह अयोगीकेवली अशरीरी तथा उत्कृष्ट आठ गुण सहित सदा के लिये लोक के अग्रभाग में चले जाते हैं उसे सिद्ध कहते हैं।
आठ कर्मों से रहित, नित्य निरंजन आस।
आठ गुण कृतार्थ सह, सिद्ध लोक निवास ॥2.32.21.566॥
अट्ठ-विह-कम्म-वियडा सीदीभूता णिरंजणा णिच्चा।
अट्ठगुणा कय-किच्चा, लोयग्ग-णिवासिणो सिद्धा ॥21॥
अष्टविधकर्मविकलाः, शीतीभूता निरञ्जना नित्याः ।
अष्टगुणाःकृतकृत्याः, लोकाग्रनिवासिनः सिद्धाः ॥21॥
सिद्ध जीव अष्टकर्मो से रहित, सुखमय, निरंजन, नित्य, अष्टुणसहित तथा कृतकृत्य होते है और सदैव लोक के अग्रभाग में निवास करते है।
प्रकरण 33 – संलेखनासूत्र
नाव इस तन को समझें, नाविक समझे जीव।
श्रमण इस भवसागर को, पार करें सदीव ॥2.33.1.567॥
सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥1॥
शरीरमाहुर्नौरति, जीव उच्यते नाविकः।
संसारोऽर्णव उक्तः, यं तरन्ति महर्षयः ॥1॥
देह को नाव कहा गया हैऔर जीव को नाविक। यह संसार समुन्दर है जिसे महर्षि तैर जाते हैं। (जीव को तारते नहीं/तरते हैं।)
विषयों की आशा नहीं, होय मुक्ति की चाह ।
पूर्व कर्म क्षय के लिये, मिली देह की राह ॥2.33.2.568॥
बहिया उड्ढामादाय नावकंखे कयाइ वि ।
पुव्वकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे ॥2॥
बाह्यमूर्ध्वमादाय, नावकाङ्क्षेत् कदाचिद् अपि।
पूर्वकर्मक्षयार्थाय, इमं देहं समुद्धरेत् ॥2॥
मुक्ति का लक्ष्य रखने वाला साधक कभी भी बाह्य विषयों की आकांक्षा न रखे। पूर्वकर्मों का क्षय करने के लिये ही इस शरीर को धारण करें।
मरना सबको एक दिन, कायर हो या धीर।
अवश्यंभावी है यदि, स्वीकारो घर धीर ॥2.33.3.569॥
धीरेण वि मरियव्वं काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं ।
तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तेण मरिउं ॥3॥
धीरेणापि मर्त्तव्य, कापुरुषेणाप्यवश्यमर्तव्यम्।
तस्मात् अवश्यमरणे, वरं खलु धीरत्वे मर्त्तुम् ॥3॥
धैर्यवान को भी मरना है और कायर पुरुष को भी मरना है। जब मरना अवश्यम्भावी है तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उत्तम है।
ज्ञानपूर्वक जब मरे, हो जन्मों का नाश ।
पंडित मरता इस तरह, हो सुमरण विश्वास ॥2.33.4.570॥
इक्कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि ।
तं मरणं मरयिव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ ॥4॥
एकं पण्डितमरणं, छिनत्ति जातिशतानि बहुकानि।
तद् मरणे मर्त्तव्यं, येन मृतः सुमृतः भवति ॥4॥
ज्ञानपूर्वक मरण सैकड़ों जन्मों का नाश कर देता है। अतः इस तरह से मरना चाहिए जिससे मरण सुमरण हो जाय।
धैर्यवान सत्पुरुष का, पंडित मरण महान।
एक मरण ही शीघ्र करे, अनन्तजन्म का हान ॥2.33.5.571॥
इक्कं पंडियमरणं, पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो ।
खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं ॥5॥
एकं पण्डितमरणं, प्रतिपद्यते सुपुरुषः असम्भ्रान्तः ।
क्षिप्रं सः मरणानां, करिष्यति अन्तम् अनन्तानाम् ॥5॥
निर्भय सत्पुरुष एक पण्डितमरण को प्राप्त होता है और बार बार मरण का अन्त कर देता है।
पग पग संभव दोष का, साधक रखता ध्यान।
लाभ देह से मिले नहीं, तब ही त्याग विधान ॥2.33.6.572॥
चरे पयाइं परिसंकमाणो जं किंचि पासं इह मण्णमाणो ।
लाभन्तरे जीविय वूहइता, पच्छा परिन्न्य मलावधंसी ॥6॥
चरेत्पदानि परिशङ्कमानः, यत्किंचित्पाशमिह मन्यमानः ।
लाभान्तरे जीवितं बृंहयित्वा, पश्चात्परिज्ञाय मलावध्वंसी ॥6॥
साधक पग पग पर दोषों की संभावनाओं को ध्यान में रख कर चले। छोटे से छोटे दोषों को भी बंधन समझकर सावधान रहे। नये नये लाभ के लिये जीवन को सुरक्षित रखे। जब देह से लाभ होता दिखाई न दे तो ज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे।
भोज त्याग अनुचित सदा, देह स्वस्थ सुजान।
मरण चाह फिर भी रहे, विरक्त मुनित्व सा मान ॥2.33.7.573॥
तस्स ण कप्पादि भत्तपइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो ।
सो मरणं पेच्छंतो होदि हु सामण्ण-णिव्विण्णो ॥7॥
तस्य न कल्पते भक्त-प्रतिज्ञा अनुपस्थिते भयं पुरतः ।
सो मरणं प्रेक्षमाणः, भवति हि श्रामण्यनिर्विष्णः ॥7॥
जिसके सामने संयम तप आदि साधना की क्षति की आशंका नहीं है उसके लिए भोजन का त्याग उचित नहीं। यदि फिर भी भोजन का त्याग करना चाहता है तो कहना होगा की वह मुनित्व से ही विरक्त हो गया है।
दो प्रकार संलेखना, बाहर अंदर जान।
नाश देह बाहर करे, कृश-पाप अंतर ज्ञान ॥2.33.8.574॥
संलेहणा य दुविहा, अब्भिंतरिया य बाहिरा चेव।
अब्भिंतरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे ॥8॥
संलेखना च द्विविधा, अभ्यन्तरिका च बाह्य चैव ।
अभ्यन्तरिका कषाये, बाह्या भवति च शरीरे ॥8॥
संलेखना दो प्रकार की है। बाह्य और आभ्यंतर। कषायों को मिटाना आभ्यंतर संलेखना है और देह को नष्ट करना बाह्य संलेखना है।
कृश कषाय करता रहे, कम कर ले आहार ।
क्षीण हुई जब देह तो, पूरन त्याग विचार ॥2.33.9.575॥
कसाए पयणुए किच्चा अप्पाहारो तितिक्खए ।
अह भिक्खू गिलाएज्जा, आहारसेव अंतियं ॥9॥
कषायान् प्रतनून् कृत्वा, अल्पाहारः तितिक्षते।
अथ भिक्षुग्लीयेत्, आहारस्येव अन्तिकम् ॥9॥
अंतर के कषायों को नष्ट करते हुए धीरे धीरे आहार की मात्रा घटाएँ। यदि वह रोगी है और शरीर अत्यंत क्षीण हो गया है तो आहार का सर्वथा त्याग कर दे।
संस्तारक तृणमय नहीं, भूमि न प्रासुक जान ।
आत्मा ही संस्तारक है, मन विशुद्ध संज्ञान॥2.33.10.576॥
न वि कारणं तणमओ संथारो, न वि य फासुया भूमि ।
अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मणो जस्स ॥10॥
नापि कारणं तृणमयः संस्तारः, नापि च प्रासुका भूमिः ।
आत्मा खलु संस्तारो भवति, विशुद्धं मनो यस्य ॥10॥
जिसका मन विशुद्ध है उसका बिछौना न तो घास है और नही प्रासुक भूमि है।उसकी आत्मा ही उसका बिछौना है।
नहीं प्रमादी का करे, अनिष्ट दुष्ट वेताल।
दुष्प्रयुक्त हो यंत्र या, क्रुद्ध सर्प सा काल ॥2.33.11.577॥
मगर समाधि काल में, माया मिथक विचार
बोधि में बाधा बने, अंत न हो संसार ॥2.33.12.578॥
न वि तं सत्थं च विसं च, दुप्पउतु व्व कुणइ वेयालो ।
जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पु व्व पमाइणो कुद्धो ॥11॥
जं कुणइ भावा सल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि ।
दुल्लहबोहीयत्तं, अणंतसंसारियत्तं च ॥12॥
तत् शस्त्रं च विषं च, दुष्प्रयुक्तो वा करोति वैतालः।
यन्त्रं वा दुष्प्रयुक्तं, सर्पो वा प्रमादिनः क्रुद्ध ॥11॥
यत् करोति भावशल्य-मनुद्धृतमुत्तमार्थकाले ।
दुर्लभबोधिकत्वम्, अनन्तसंसारिकत्वं च ॥12॥
शस्त्र, विष, भूत, दुष्प्रयुक्त यन्त्र तथा क्रुद्धसर्प आदि प्रमादी का उतना अनिष्ट नही करते जितना अनिष्ट समाधिकाल में मन में रहे हुए माया, निथ्यात्व व निदान शल्य करते है। इससे ज्ञान की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है तथा संसार का अंत नही होता।
साधु की अभिमानरहित, समूल नष्ट भव चाल ।
मिथ माया निदान शल्य, अंतरा देत निकाल॥2.33.13.579॥
तो उद्धरंति गारवरहिया, मूलं पुणब्भवलयाणं।
मिच्छादंसणसल्लं, मायासल्लं नियाणं च ॥13॥
तदुद्द्धरन्ति गौरवरहिता, मूलं पुनर्भवलतानाम्।
मिथ्यादर्शनशल्यं, मायाशल्यं निदानं च ॥13॥
अतः अभिमान रहित साधक पुनर्जन्मरूपी मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य व निदानशल्य को अन्तरंग से निकाल फेंकते हैं।
मिथ्यादर्शन अनुरक्त रहे, कृष्ण लेश्या भार।
मरण मिले जब इस तरह, दुर्लभ बोधि विचार॥2.33.14.580॥
मिच्छा-दंसण रत्ता, सणिदाणा किण्ह-लेस-मोगाढा ।
इय जे मरंति जीवा तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥14॥
मिथ्यादर्शनरक्तः, सनिदानाः कृष्णलेश्यामवगाढाः।
इतिये भ्र्रियन्ते जीवा-स्तेषां दुर्लभा भवेद् बोधिः ॥14॥
इस संसार में जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त होकर निदानपूर्वक तथा कृष्णलेश्या की प्रगाढ़तासहित मरण को प्राप्त होते हैं उनके लिये बोधि लाभ दुर्लभ है।
सम्यग्दर्शन अनुराग हो, शुक्ल लेश्य आचार।
सुलभ रहे उस जीव को, बोधि भाव विचार ॥2.33.15.581॥
सम्म-द्दंसण-रत्ता अणिदाणा सुक्क-लेस-मोगाढा ।
इय जे मरंति जीवा तेसिं सुलहा हवे-बोही ॥15॥
सम्यग्दर्शनरक्ताः, सनिदानाः कृष्णलेश्यामवगाढा ।
इतिये भ्र्रियन्ते जीवा-स्तेषां दुर्लभा भवेद् बोधिः ॥15॥
जो जीव सम्यग्दर्शन के अनुरागी होकर, निदानरहित तथा शुक्ल लेेश्यापूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं उनके लिए बोधि की प्राप्ति सुलभ होती है।
रहे सतत आराधना, कर्तव्य निष्ठता भाव।
सतत करे अभ्यास जो, पूजन सुखद प्रभाव ॥2.332.16.582॥
आराहणाए कज्जे परियम्मं सव्वदा वि कायव्वं ।
परियम्म-भाविदस्स हु, सुह-सज्झा-राहणा होइ ॥16॥
आराधनायाः कार्ये, परिकर्म सर्वदा अपि कर्त्तव्यम्।
परिकर्मभावितस्य खलु, सुखसाध्या आराधना भवति ॥16॥
मरणकाल में रत्नत्रय की सिद्धि अभिलाषी साधक को चाहिये कि व पहले से ही सम्यक्तवादी का अनुष्ठान करता रहे क्योंकि अभ्यास करने वाले की आराधना सुखपूर्वक होती है ।
राजपुत्र जैसे करता, सतत शस्त्र अभ्यास।
युद्ध विजय निश्चित करें, हो समर्थ विश्वास ॥2.33.17.583॥
समभावी इस ही तरह, करे ध्यान अभ्यास।
मरण समय मन वश रहे, ध्यान योग्य विश्वास ॥2.33.18.584॥
जहरायकुल-पसूओ जोग्गं णिच्चमवि कुणइ परियम्म।
तो जिदकरणो जुद्धे कम्मसमत्थो भविस्सदि हि ॥17॥
इय सामण्णं साधू वि कुणदि णिच्चमवि जोग-परियम्मं।
तो जिदकरणो मरणे झाणसमत्थो भविस्सहदि ॥18॥
यथा राजकुलप्रसूत योग्यं नित्यमपिप करोति परिकर्म्म ।
ततः जितकरणो युद्धे, कर्मसमर्थो भविष्यति हि ॥17॥
एवं श्रामण्यधुरपि, करोति नित्यमपि योगपरिकर्म्म ।
ततः जितकरणः मरणे, ध्यानसमर्थो भविष्यति हि ॥18॥
राजकुल में उत्पन्न राजपुत्र निरन्तर शस्त्र अभ्यास करते हुए दक्षता हासिल कर युद्ध में विजयी होता है वैसे ही समभावी साधु नित्य ध्यानाभ्यास करते हुए चित्त वश में कर लेते हैं और मरणकाल में ध्यान करने में समर्थ हो जाते है।
मुक्ति मार्ग स्थापित करे, आत्मा में ही ध्यान।
हरपल आत्मा में रहे, अन्य द्रव्य नहीं भान॥2.33.19.585॥
मोक्ख-पहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेव।
तत्थेव विहर णिच्चं, मा विहरसु अण्णदव्वेसु ॥19॥
मोक्षपथे आत्मनं, स्थापय त चैव ध्याय त चैव ।
तत्रैव विहर नित्यं, मा विहरस्व अन्यद्रव्येषु ॥19॥
हे भव्य! तू मोक्ष मार्ग में ही आत्मा को स्थापित कर। उसी का ध्यान कर। उसी का अनुभव तथा उसी में विहार कर। अन्य द्रव्यों में विहार मत कर।
चाह लोक सुख की नहीं, जन्म चक्र का त्याग ।
दृष्टि में रखे जगत को, सतत अशुभ परिणाम ॥2.33.20.586॥
इह-पर-लोगा-संस-प्पओग, तह जीव-मरण-भोगेसु ।
वज्जिज्जा भाविज्ज य, असुहं संसार-परिणामं ॥20॥
इहपरलोकाशंसा-प्रयोगो तथा जीवितमरणभोगेषु।
वर्जयेद् भावयेत् च अशुभ संसारपरिणामम् ॥20॥
संलेखनारत साधक को मरण काल में इस लोक और परलोक में सुखादि के प्राप्त करने की इच्छा का तथा जीने और मरने की इच्छा का तथा जीने और मरने की इच्छा का त्याग करके अन्तिम साँस तक संसार के अशुभ परिणाम का चिन्तन करना चाहिये।
परद्रव्य भाव दुर्गति मिले, सुगति आत्म स्वभाव।
लीन रहे निज द्रव्य में, अलग न होय प्रभाव ॥2.33.21.587॥
पर-दव्वादो दुगई, सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ।
इय णाऊण सदव्वे कुणइ रई विरइ इयरम्मि ॥21॥
परद्रव्यात् दुर्गतिः, स्वद्रव्यात् खलु सुगतिः भवति ।
इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये, कुरुत रतिं विरतिम् इतरस्मिन् ॥21॥
पर-द्रव्य अर्थात् धन-धान्य, परिवार व देहादि में अनुरक्त होने से दुर्गति होती है और स्व-द्रव्य अर्थात् अपनी आत्मा में लीन होने से सुगति होती है।
प्रकरण 34 – तत्त्वसूत्र
अज्ञानी सब है दुखी, दुख उत्पादक मान।
मूढ़ विवेकी लुप्त हुये, जग अनन्त अज्ञान ॥3.34.1.588॥
जावन्तऽविज्जा-पुरिसा, सव्वे ते दुक्ख-संभवा ।
लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणन्तए ॥1॥
यावन्तोऽविद्यापुरुषाः, सर्वे ते दुःखसम्भवाः।
लुप्यन्ते बहुशो मूढाः, संसारेऽनन्तके ॥1॥
समस्त अज्ञानी पुरुष दुःखी हैं। वे विवेकमूढ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं।
पण्डित परख कर जाते, बन्धनरूप सम्बन्ध ।
खोजे स्वयं सत्य को, बाँधे मैत्री-बन्ध ॥3.34.2.589॥
समिक्ख पंडिए तम्हा, पास-जाइ-पहे बहू ।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्तिं भूएसु कप्पए ॥2॥
समीक्ष्य पण्डितस्तस्मात्, पाशजातिपथान, ब्रहून् ।
आत्मना सत्यमेषयेत् मैत्रीं भूतेषु कल्पयेत् ॥2॥
इसलिए पंडित पुरुष अनेकविध बंधनरूप स्त्री-पुत्रादि के सम्बन्धों की, जो कि जन्म-मरण के कारण है, समीक्षा करके स्वयं सत्य की खोज करे और सब प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखे।
तत्त्व वा द्रव्यस्वभाव, शुद्ध अथवा परमार्थ ।
परम व परापरध्येय, हैं नाम सब एकार्थ ॥3.34.3.590॥
तच्चं तह परमट्ठं, दव्वसहावं तहेव परमपरं ।
धेयं सुद्धं परमं, एयट्ठा हुंति अभिहाणा ॥3॥
तत्त्वं तथा परमार्थः, द्रव्यस्वभावस्तथैव परमपरम्।
ध्येयं शुद्धं परमम्, एकार्थानि भवन्त्यभिधानानि ॥3॥
तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर-अपर ध्येय, शुद्ध, परम-ये सब शब्द एकार्थवाची है।
जीव-अजीव आस्रव, बन्ध पुण्य पाप अर्थ।
संवर, निर्जरा व मोक्ष, कुल नौ कहे पदार्थ ॥3.34.4.591॥
जीवाऽजीवा य बन्धो य, पुण्णं पावाऽऽसवो तहा ।
संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव॥4॥
जीवा अजीवाश्च बन्धश्च, पुण्यं पापास्रवः तथा।
सवंरो निर्जरा मोक्षः, सन्त्येते तथ्या नव ॥4॥
जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष-ये नौ तत्त्व या पदार्थ हैं।
अनादिनिधन, चेतनमय, देह भिन्न है जीव।
कर्ता भोक्ता कर्म का, रूपादिरहित जीव ॥3.34.5.592॥
उवओगलक्खणमणाइ-निहणमत्थंतरं सरीराओ ।
जीवमरूविं कारिं, भोयं च सयस्स कम्मस्स ॥5॥
उपयोगलक्षणमनाद्य-निधनमर्थान्तरं शरीरात् ।
जीवमरूपिणं कारिणं, भोगे च स्वकस्य कर्मणः ॥5॥
जीव का लक्षण उपयोग है। यह अनादि-निधन है। शरीर से भिन्न है। अरूपी है। अपने कर्म का कर्ता भोक्ता है।
सुख-दुख का ज्ञान नहीं, अचेतन है सदीव ।
हि-अहित का भय नहीं, श्रमण कहे अजीव ॥3.34.6.593॥
सुह-दुक्ख-जाणणा वा, हिद परियम्मं च अहिद भीरुत्तं ।
जस्स ण विज्जदि णिच्चं तं समणा विंति अज्जीवं ॥6॥
सुखदुःख ज्ञानं वा, हितपरिकर्म चाहितभीरुत्वम् ।
यस्य न विद्यते नित्यं, तं श्रमणा ब्रुवते अजीवम् ॥6॥
श्रमण जन उसे अजीव कहते हैं जिसे सुख दुख का ज्ञान नही होता।हित के प्रति उद्यम और अहित का भय नही होता।
पुद्गल, धर्म, अधर्म द्रव्य, अजीव नभ संग काल।
पुद्गल मूर्त रूप गुण, शेष अमूर्त विशाल ॥3.34.7.594॥
अज्जीवो पुण णेओ, पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं ।
कालो पुग्गल मुत्तो, रूवादि गुणो अमुत्ति सेसा हु ॥7॥
अजीवः पुनः ज्ञेयः पुद्गलः धर्मः अधर्मः आकाशः ।
कालः पुुद्गलः मूर्तः रूपादिगुणः, अमूर्तयः शेषाः खलु ॥7॥
अजीव द्रव्य पाँच प्रकार का है – पुद्गल, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश और काल। इनमें से पुद्गल रूपादि गुण युक्त होने से मूर्तिक है। शेष चारों अमूर्तिक है।
इन्द्रियाँ जाने नहीं, नित अमूर्त गुण सार।
बंधें आत्मा राग से, बंधन ही संसार ॥3.34.8.595॥
नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो ।
अज्झत्थेहेउं निययऽस्स बन्धो, संसारहेउं च वयन्ति बन्धं ॥8॥
नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात्, अमूर्त्तभावादपि च भवति नित्यः ।
अध्यात्महेतुर्नियतः अस्य बन्धः, संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम् ॥8॥
आत्मा अमूर्त है अतः वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नही है । तथा अमूर्त पदार्थ नित्य होता है। आत्मा के आन्तरिक रागादि भाव ही निश्चयतः बन्ध के कारण है और बन्ध को संसार का हेतु कहा गया है
रागादिभाव बन्ध के कारण, संसार कारण बन्ध ।
निश्चयनय संक्षेप से, यही है जीवबन्ध ॥3.34.9.596॥
रत्तो बंधदि कम्मं, मुंच्चदि कम्मेहिं राग-रहिवप्पा।
एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥9॥
रक्तो बध्नाति कर्मं, मुच्यते कर्मभी रागरहितात्मा।
एष बन्धसमासो, जीवानां जानीहि निश्चयतः ॥9॥
रागयुक्त ही कर्म बंधन करता है। रागरहित आत्मा कर्मों से मुक्त होती है। यह निश्चय नय से संक्षेप में जीवों के बन्ध का कथन है।
अभिलाषी हो मोक्ष का, करे न किंचित राग ।
भवसागर को पार करे, जीव बने वीतराग ॥3.34.10.597॥
तम्हा णिव्वुदिकामो रागं सव्वत्थ कुणदि मा किंचि।
सो तेण वीदरागो भवियो भवसायरं तरदि ॥10॥
तस्मात् निर्वृत्तिकामो, रागंसर्वत्र करोतु मा किंचित्।
स तेन वीतरागो, भव्यो भवसागरं तरति॥10॥
इसलिये मोक्षअभिलाषी को तनिक भी राग नही करना चाहिये। ऐसा करने से वह वीतराग होकर भवसागर को तार जाता है।
पाप पुण्य है कर्म दो, शुभम अशुभ हैं भाव ।
मंद-कषाय ये हैं शुभ, शुभ ना तीव्र स्वभाव ॥3.34.11.598॥
कम्मं पुण्णं पावं, हेदउं तेसिं च होंति सच्छिदरा।
मंद-कसाया सच्छा, तिव्व-कसाया असच्छा हु ॥11॥
कर्म पुण्यं पापं, हेतवः तेषां च भवन्ति स्वेच्छेतराः।
मन्दकषायाः स्वच्छाः, तीव्रकषायाः अस्वच्छाः खलु ॥11॥
कर्म दो प्रकार के है। पुण्यरूप व पापरूप। पुण्यकर्म का हेतु शुभभाव है व पापकर्म का हेतु अशुभ भाव है। मन्दकषायी जीव स्वच्छभाव वाले होते हैं। तीव्कषायी वाले जीव अस्वच्छ भाववाले होते हैं।
बोल वचन सर्वत्र प्रिय, क्षमा दुर्वचन पाय ।
ग्रहण करे गुण जगत के, लक्षण मन्द कषाय॥3.34.12.599॥
सव्वत्थ वि पिय-वचणं, दुव्वयणे दुज्जणे वि खम-करणं।
सव्वेसिं गुण-गहणं, मंद-कसायाण दिट्ठंता ॥12॥
सर्वत्र अपि प्रियवचनं, दुर्वचने अपि क्षमाकरणम्।
सर्वेषां गुणग्रहणं, मन्दकषायाणां दृष्टान्ताः ॥12॥
सर्वत्र ही प्रिय वचन बोलना, दुर्वचन वाले को भी क्षमाभाव तथा सबके गुणों को ग्रहण करना – ये मन्दकषायी जीवों के लक्षण है।
आत्म प्रशंसा लीन जो, पूज्य पुरुष में दोष ।
दीर्घ काल तक बैर हो, तीव्र पाप का कोष ॥3.34.13.600॥
अप्प-पसंसण-करणं, पुज्जेसु वि दोस-गहण-सीलत्तं।
वेर धरणं च सुइरं, तिव्व-कसायाण लिंगाणि॥13॥
आत्मप्रशंसनकरणं, पूज्यषु अपि दोषग्रहणशीलत्वम्।
वैरधारणं च सुचिरं, तीव्रकषायाणां लिङ्गानि ॥13॥
अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना, दीर्घकाल तक बैर की गाँठ बाँधे रखना – ये तीव्र कषाय वाले जीव के लक्षण है।
राग द्वेष हो इन्द्रियवश, कर्मों में मदहोश ।
खुले द्वार आस्रव रहे, कर्म निरन्तर जोश ॥3.34.14.601॥
रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माइं ।
आसवदारेहिं अवि-गुहेहिं तिविहे करणेणं ॥14॥
रागद्वेषप्रमत्तः, इन्द्रियवशगः करोति कर्माणि।
आस्रवद्वारै रविगूहितैस्त्रिविधेन करणेन ॥14॥
रागद्वेष से प्रमत्त जीव इन्द्रियाँधीन होकर मन-वचन-काय के द्वारा उसके आस्रव द्वार खुले रहने के कारण निरन्तर कर्म करता रहता है।
खुले आस्रव द्वार हों, होता सतत प्रवाह ।
छेद रहे जब नाव में, मिलती जल को राह ॥3.34.15.602॥
आसवदारेहिं सया, हिंसाई एहिं कम्ममासवइ।
जह नावाइ विणासो, छिद्दहि जलं उयहिमज्झे ॥15॥
आस्रवद्वारैः सदा, हिसादिकैः कर्मस्रवति।
यथा नावो विनाश-श्छिद्रैः जलम् उदधिमध्ये ॥15॥
हिंसा आदि कर्मों से निरन्तर आस्रव होता रहता है, जैसे कि जल के आने से सछिद्र नौका समुद्र में डूब जाती है।
काय मन वचन साथ ही, जीव वीर्य परिणाम ।
प्रदेश-परिस्पन्दनस्वरूप, प्राणयोग के काम ॥3.34.16.603॥
मणसा वाया कायेण, का वि जुत्तरस विरि-परिणामो ।
जीवस्स-प्पणिओगे, जोगो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठो ॥16॥
मनसा वाचा कायेन, वापि युक्तस्य वीर्यपरिणामः।
जीवस्य प्रणियोगः, योग इति जिनै-र्निर्दिष्ट ॥16॥
योग भी आस्रव द्वार है। मन वचन व काय से युक्त जीव का जो वीर्य परिणाम होता है उसे योग कहते है। प्रदेश-परिस्पन्दनस्वरूप को भी प्रणियोग कहते हैं।
योग अल्पतर होत ज्यूँ, बंध अल्प हो जाय ।
योग निरोधक बंध रुके, बंद छिद्र जल नाय ॥3.34.17.604॥
जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो।
निरुद्धजोगिस्सव से ण होति, अछिद्द पोतस्स व अंबुणाथे ॥17॥
यथा यथा अल्पतरः तस्य योगः, तथा तथा अल्पतरः तस्य बन्धः।
निरुद्धयोगिनः वा सः न भवति, अछिद्रपोतस्येव अम्बुनाथे ॥17॥
जैसे जैसे योग अल्पतर होता हैवैसे वैसे बन्ध या आस्रव भी अल्पतर होता है। योग का निरोध हो जाने पर बन्ध नही होता। जैसे छेद रहित जहाज़ में जल प्रवेश नहीं करता ।
आस्रव जिनका मूल है, अविरति कषाय योग ।
अयोग विराग संयम ये, दर्शन संवरही योग ॥3.34.18.605॥
मिचछत्ताविरदीविय, कसाय जोगाय आसवा होंति।
संजम-विराय-दंसण-जोगाभावो य संवरओ ॥18॥
मिथ्यात्वाऽविरतिः अपि च कषाया योगाश्च आस्रवा भवन्ति।
संयम-विराग-दर्शन-योगाभावश्च संवरकः ॥18॥
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग- ये आस्रव के कारण है। संयम, विराग, दर्शन और योग का अभाव- ये संवर के हेतु है।
छेद बंद जलयान में, पानी घुस ना पाय ।
मिथ्यात्वादिक दूर हों, तब संवर हो जाय ॥3.34.19.606॥
रुंधिय-छिद्द-सहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि।
मिच्छत्ताइ-अभावे, तह जीवे संवरो होई ॥19॥
रुद्धछिद्रसहस्रे, जलयाने यथा जलं तु नास्रवति।
मिथ्यात्वाद्यभावे, तथा जीवे संवरों भवति ॥19॥
जैसे जलयान के हज़ारों छेद बंद कर देने पर उसमें पानी नही घुसता वैसे ही मिथ्यात्व आदि के दूर हो जाने पर जीव में संवर होता है।
देखे आत्मा जीव में, बन्द कर्म के द्वार ।
पाप कर्म बंधन नहीं, संयमी आस्रव पार ॥3.34.20.607॥
सव्व-भूय-प्पभूयस्स, सम्मं भूयाइ पासओ।
पिहियावस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई ॥20॥
सर्वभूतात्मभूतस्य, सम्यक् भूतानि पश्यतः।
पिहितास्रवस्य दान्तस्य, पापं कर्म न बध्यते ॥20॥
जो समस्त प्राणियों को आत्मवत देखता है और जिसने कर्म आस्रव के सारे द्वार बन्द कर दिये हैं, उस संयमी को पाप करम का बंध नहीं होता।
मिथ्या आस्रव द्वार रुके, सम्यक ठोस कपाट ।
हिंसा दृढ व्रत से रुके, मिले मोक्ष का ठाट ॥3.34.21.608॥
मिच्छत्ता-सव-दारं, रुंभइ समत्त-दिड-कवाडेण।
हिंसादि दुवाराणि वि, दिढ-वय-फलिहहिं रुंभंति ॥21॥
मिथ्यात्वस्रवद्वारं रुध्यते सम्यक्त्वद़ृढ़कपाटेन।
हिंसादिद्वाराणि अपि दृढ़व्रतपरिघैः रुध्यन्ते ॥21॥
सम्यक्त्वरूपी जीव दृढ़ कपाटों से मिथ्यात्वरूपी आस्रव द्वार को रोकता है तथा द़ृढ व्रतरूपी कपाटों में हिंसा आदि द्वारों को रोकता है।
हो जैसे तालाब बड़ा, करे बंद जल द्वार ।
ताप सूर्य का ज्यूँ बढ़े, पानी का संहार ॥3.34.22.609॥
कर्म बंधन संयम से, बंद हो आस्रव द्वार।
नष्ट हो संचित कर्म सभी, तप निर्जरा अपार ॥3.34.23.610॥
जहा महातलायस्स, सन्निरुद्धे जलागमे।
उस्सिंचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे ॥22॥
एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे।
भवकोडीसंचियं कम्मं, तक्सा निज्जरिज्जइ ॥23॥
यथा महातडागस्य, सन्निरुद्धे जलागमे।
उत्सिञ्चनया तपनया, क्रमेण शोषणा भवेत् ॥22॥
एवं तु संयतस्यापि पापकर्मनिरास्रवे।
भव कोटिसंचितं कर्म, तपसा निपर्जीर्यते ॥23॥
जैसे किसी बड़े तालाब का जल, जल के मार्ग को बन्द करने से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है वैसे ही संयमी का करोड़ों भावों से संचित कर्म, पाप कर्म के प्रवेश मार्ग को रोकने से तथा तप से निर्जरा को प्राप्त होता है।
स़िर्फ तप से मोक्ष नहीं, हो यदि संवरहीन ।
पानी जब आता रहे, ताल न नीर विहीन ॥3.34.24.611॥
तवसा चेव ण मोक्खो, संवर-हीणस्स होइ जिण-वयणे।
ण हु सोत्ते णविसंते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं ॥24॥
तपसा चैव न मोक्षः, संवरहीनस्य भवति जिनवचने ।
न हि स्रोतसि प्रविशति, कृत्स्नं परिशुष्यति तडागम् ॥24॥
जिनवचन का कहना हैकि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नही मिलता; जैसे की पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नही सूखता।
अज्ञानी क्षय कर्म का, तपे करोड़ों साल ।
ज्ञानी क्षय त्रिगुप्ति से, एक श्वास कर डाल ॥3.34.5.612॥
जं अण्णानी कम्म खवेइ, बहुआहिं वासकोडीहिं।
तं नाणी तह जुत्ता, अवेइ उस्सास मेत्तेण ॥25॥
यद् अज्ञानी कर्म, क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः।
तद् ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः, क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण ॥25॥
अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्म में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा एक साँस में सहज कर डालता है।
सेनापति हो कालवश, सेना होती नाश ।
मोहनीय यदि नष्ट हों, कर्मों का तब नाश ॥3.34.26.613॥
सेणावइम्मि णिहए, जहा सेणा पणस्सई।
एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए ॥26॥
सेनापती निहते, यथा सेना प्रणश्यति।
एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये क्षयं गते ॥26॥
जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती हैवैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं।
कर्म मलसे विमुक्त हो, गमन करे लोकान्त ।
सर्वदर्शी सर्वज्ञ लहें, आत्मिक सुखद अनन्त ॥3.34.27.614॥
कम्ममल-विप्पमुक्कोउड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता।
सो सव्वणाण-दरिसी, लहदि सुह-मणिंदिय-मण्ंतं ॥27॥
कर्ममलविप्रमुक्त, उर्ध्वं लोकस्यान्तमधिगम्य।
स सर्वज्ञानदर्शी, लभते सुखमनिन्द्रियमनन्तम् ॥27॥
कर्मफल से विमुक्त जीव ऊपर लोकान्त तक जाता है और वहाँ वह सर्वज्ञ व सर्वदर्शी के रूप में अतीन्द्रिय अनन्तसुख भोगता है।
चक्री भोगभूमिजीव, फणीश या नाकेश ।
सुख पाए जितना उससे, अनंत सुख लोकेश ॥3.34.28.615॥
चक्कि-कुरु-फणि-सुरंदेसु, अहमिंदे जं सुहं तिकालभवं।
तत्तो अणंतगुणिदं, सिद्धाणं खणसुहं होदि ॥28॥
चक्रिकुरुफणिसुरेन्द्रषु, अहमिन्द्रे यत् सुखं त्रिकालभवम्।
तत् अनन्तगुणितं, सिद्धानां क्षणसुखं भवति ॥28॥
चक्रवर्तियों को, उत्तरकुरु, दक्षिणकुरु आदि भोगभूमिवाले जीवों को तथा फणीन्द्र, सुरेन्द्र एवं अहमिन्द्रों को त्रिकाल में जितना सुख मिलता है उस सबसे भी अनन्तगुना सुख सिद्धों को एक क्षण में अनुभव होता है।
वर्णन शब्द ना कर सके, नहीं तर्क का काम ।
मानस का व्यापार नहीं, खेद न होत मुक़ाम ॥3.34.29.616॥
सव्वे सरा णियट्ठंति, तक्का जत्थ ण विज्जइ।
मई तथ ण गाहिया, ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेयण्णे ॥29॥
सर्वे स्वराः निवर्त्तन्ते, तर्को यत्र न विद्यते।
मतिस्तत्र न गाहिका, ओजः अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः ॥29॥
मोक्ष की अवस्था का शब्दों और तर्कों में वर्णन संभव नही है। मोक्ष अवस्था संकल्प-विकल्पातीत है, मलकलंक से रहित होने से वहाँ ओज भी नहीं है। रागातीत होने के कारण सातवें नर्क का ज्ञान होने पर भी किसी प्रकार का खेद नही है।
जहाँ नहीं सुख-दुख रहे, पीड़ा बाधा भान ।
मरण-जनम का चक्र नहीं, रहता केवल ज्ञान ॥3.34.30.617॥
णवि दुक्खं णवि सुक्खं, णवि पीडा णेव विज्जे बाहा।
णवि मरणं णवि जण्णं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥30॥
नापि दुःखं नापि सौख्यं, नापि पीडा नैव विद्यते बाधा।
नापि मरणं नापि जननं, तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥30॥
जहाँ न दुख है न सुख, न पीड़ा है न बाधा, न मरण है न जन्म, वही निर्वाण है।
इन्द्रिय, उपसर्ग नहीं, नींद न विस्मय, मोह ।
भूख प्यास रहती नहीं, निर्वाणी आरोह ॥3.34.31.618॥
णवि इंदिय उवसग्गा, णवि मोहो विम्हियो ण णिद्दा य ।
ण य तिण्हा णेव छुहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥31॥
नापि इन्द्रियाणि उपसर्गाः, नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च।
न च तृष्णा नैव क्षुधा, तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥31॥
जहाँ न इन्द्रियाँ है न उपसर्ग, न मोह है न विस्मय, न निन्द्रा हैन तृष्णा और न भूख, वहीं निर्वाण है।
नहीं कर्म, नोकर्म ना, चिंता नहीं दुर्ध्यान ।
धर्म, शुक्ल और ध्यान नहीं, वहीं होय निर्वाण ॥3.34.32.619॥
णवि कम्मं णोकम्म, णविं चिंता णेव अट्टरुद्दाणि।
णवि धम्म-सुक्क-झाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥32॥
नापि कर्म्म नोकर्म्म, नापि चिन्ता नैवार्तरौद्रे।
नापि धर्म्मराक्लध्याने, तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥32॥
जहाँ कर्म ना अकर्म है, न चिन्ता है न आर्तरौद्र ध्यान, न धर्म ध्यान है और न शुक्ल ध्यान, वही निर्वाण है।
केवल दर्शन ज्ञान रहे, सुख और वीर्य अनन्त ।
अरूप प्रदेशत्व गुण अस्तित्ववादि अनन्त ॥3.34.33.620॥
विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलं विरियं।
केवलदिट्ठि अमुत्तं, अत्थित्तं सप्पदेसत्तं ॥33॥
विद्यते केवलज्ञानं, केवलसौख्यं च केवलं वीर्यम्।
केवलदृष्टिरमूर्तत्व-मस्तित्वं सप्रदेयत्वम् ॥33॥
वहाँ केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख, केवलवीर्य, केवलदृष्टि, अरूपता, अस्तित्व और सप्रदेशत्व ये गुण होते हैं।
महर्षि को निर्वाण हो, सिद्ध लोक अबाध ।
मंगल भी लोकाग्र है, शिव रहे अनाबाध ॥3.34.34.621॥
निव्वाणं ति अबांद्ध ति, सिद्धी लोग्गमेव य ।
खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरन्ति महेसिणो ॥34॥
निर्वाणमित्यबाधमिति, सिद्धीर्लोकाग्रमेव च।
क्षेमं शिवमनाबाधं, यत् चरन्ति महर्षयः ॥34॥
जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं वह स्थान निर्वाण है, अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध है।
तुम्बी, अगन एरण्ड हो, बाण चले आकाश ।
सिद्ध ऊपर को बढ़त, करलो यह विश्वास ॥3.34.35.622॥
लाउ य एरंड-फले, अग्गीधूमे उसु धणु-विमुक्के ।
गई पुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गई तु ॥35॥
अलाबु च एरण्डफल-मग्निधूम इषुर्धनुर्विप्रमुक्तः ।
गतिः पूर्वप्रयोगेणैव, सिद्धानामपि गतिस्तु ॥35॥
जैसे मिट्टी से लिप्त तुम्बी डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही तैरने लग जाता है अथवा जैसे एरण्ड का फल धूप से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को ही जाते है, जैसेअग्नि की गति स्वभावतः ऊपर की ओर ही होती है अथवा जैसे धनुष से छूटा हुआ बाण पूर्व प्रयोग से मतिमान होता है, वैसे ही सिद्ध जीवों की गति भी स्वभावतः ऊपर की ओर होती है।
अव्याबाध अतीन्द्रिय, अनुपम पुण्य न पाप।
पुनर्जन्म का चक्र नहीं, नित्य अचल प्रताप ॥3.34.36.623॥
अव्वाबाह-मणिंत्थि-मणोवमं पुण्ण-पाव-णिम्मुक्कं।
पुण-रागमण-वरहियं, णिच्चं अचलं अणालंबं ॥36॥
अव्याबाधमनिन्द्रिय-मनुपमं पुण्यपापनिर्म्मुक्तम्।
पुनरागमनविरहितं, नित्यमचलमनालम्बम् ॥36॥
परमात्म-तत्व, अव्याबाध, अतीन्द्रिय, पुण्य-पापरहित, पुनरागमनरहित, नित्य, अचल और निरालम्ब होता है।