Sammar Suttam 2
प्रकरण 24 – श्रमणधर्म सूत्र
श्रमण, संयत, ऋषि कहे, मुनि साधु वीतराग ।
या अनगार भदन्त कहे, होय शास्त्र अनुराग ॥2.24.1.336॥
समणोत्ति संजदो त्ति य, रिसि मुणि साधुत्ति वीदरागो त्ति ।
णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतो त्ति ॥1॥
श्रमण इति संयत इति च, ऋषिर्मुनिः साधुः इति वीतराग इति।
नामानि सुविहितानाम् अनगारो भदन्तः दान्तः इति ॥1॥
श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त ये सब शास्त्र अनुसार आचरण करने वालों के नाम है।
सिंह गज वृष मृग पशु सिंधु, मेरु, सूर्य समान।
चन्द्र मणि नभ सर्प धरा, लक्ष्य मोक्ष ही मान ॥2.24.2.337॥
सीह-गय-वसह-मिय-पसु, मारुद-सूरुवहि-मंदरिंदु-मणी ।
खिदि-उरगंवर-सरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू ॥2॥
सिंह-गज-वृषभ-मृग-पशु, मारुत-सूर्योदधि-मन्दरेन्दु-मणयः।
क्षिति-उरगाम्बरसदृशाः, परमपद-विमार्गकाः साधवः ॥2॥
सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्ब साधु परमपद मोक्ष की खोज में रहते हैं ।
साधु ना, जग साधु कहे, साधु समझे लोक ।
साधु को ही साधु कहो, मिले नहीं परलोक ॥2.24.3.338॥
बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो ।
न लवे असाहुं साहुत्ति, साहुं साहु त्ति आलवे ॥3॥
बहवः इमें असाधवः, लोके उच्यन्ते साधवः।
नलपेदसाधुं साधुः इति साधुं साधुः इति आलपेत् ॥3॥
ऐसे भी बहुत से असाधु है जिन्हें संसार में साधु कहा जाता है। लेकिन असाधु को साधु नही कहना चाहिये। साधु को ही साधु कहना चाहिये।
ज्ञान दर्शन से संपन्न, संयम तप संलीन ।
ऐसे गुण से युक्त हो, साधु उसको चीन ॥2.24.4.339॥
नाणं-दंसण-संपन्न, संजमे य तवे रयं ।
एवं गुण-समाउत्तं, संजयं साहु-मालवे ॥4॥
ज्ञानदर्शनसम्पन्नं, संयमे च तपसि रतम्।
एवंगुणसमायुक्तं, संयतं साधुमालपेत् ॥4॥
ज्ञान और दर्शन से संपन्न, संयम और तप में लीन संयमी को ही साधु कहना चाहिये।
सिर मुंडावे श्रमण नहीं, ब्राह्मण ना ओंकार ।
वन बसने से मुनि नहीं, तापस न कुशचीर ॥2.24.5.340॥
न वि मुण्डिएण समणो, न आंकारेण बम्भणो ।
न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥5॥
नाऽपि मुण्डितेन श्रमणः, न ओंकारेण ब्राह्मणः ।
न मुनिररण्यवासेन, कुशचीरेण न तापसः ॥5॥
केवल सिर मुंडाने से कोई साधु नही हो जाता। ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नही हो जाता। अरण्य में रहने से कोई मुनि नही होता। भेष बदलने से कोई तपस्वी नही होता।
समता से बनते श्रमण, ब्राह्मण ब्रह्म आचार ।
ज्ञान से वह मुनि बने, तपस्वी तप से पार॥2.24.6.341॥
समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्भणो ।
नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥6॥
समतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः ।
ज्ञानेन च मुनिर्भवति, तपसा भवति तापसः ॥6॥
समता से साधु, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है।
साधु, न साधु-गुण कहे, साधु गुण स्वीकार ।
राग द्वेष सम, पूज्य वही, करता आत्म विचार ॥2.24.7.342॥
गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिणहाहि साहूगुण मुंचऽसाहू ।
वियाणिया अप्पग-मप्पएणं, जो राग-दोसेहिं समो स पुज्जो ॥7॥
गुणैःसाधुरगुणैरसाधुः, गृहाण साधुगुणान् मुञ्चाऽसाधु (गुणान्) ।
विजानीयात् आत्मानमात्मना, यः रागद्वेषयोः समः स पूज्यः ॥7॥
गुणों से साधु और अगुणों से असाधु होता है। अतः साधु के गुणों को ग्रहण करो और असाधुता का त्याग करो। आत्मा को आत्मा के द्वारा जानते हुए जो राग द्वेष में समभाव रखता है वही पूज्य है।
देह विषय अनुरक्त रहे, छूटे नहीं कषाय ।
सुप्त हो साधु आत्म से, सम्यक्त्व नहीं पाय ॥2.24.8.343॥
देहादिसु अणुरत्ता विसयासत्ता कसाय-संजुत्ता।
अप्प-सहावे सुत्ता, ते साहू सम्म-परिचत्ता ॥8॥
देहादिषु अनुरक्ता, विषयासक्ताः कषायसंयुक्ताः ।
आत्मस्वभावे सुप्ता, ते साधवः सम्यक्त्वपरित्यक्ताः ॥8॥
देहादि में अनुरक्त, विषय व कषाय से युक्त तथा आत्मस्वभाव से सुप्त साधु सम्यक्त्व से शून्य होते हैं।
बातें कानों से सुने, देख़े बात अनेक।
मगर भिक्षु सब देख-सुन, भाव नहीं अतिरेक ॥2.24.9.344॥
बहुं सुणेई कण्णेहिं, बहुं अच्छीहिं पेच्छइ।
न य दिट्ठं सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥9॥
बहु श्रृणोति कर्णाभ्यां, बहु अक्षिभ्यां प्रेक्षते।
न च दृष्टं श्रुतं सर्व, भिक्षुराख्यातुमर्हति ॥9॥
भिक्षा के लिये निकला साधु बहुत सी बातें सुनता है और देखता है पर सब कुछ देख सुन कर भी उदासीन रहता है।
नींद जरा सी रात को, ज्ञान ध्यान तल्लीन।
सूत्रों का चिंतन करे, ना हो नींद अधीन ॥2.24.10.345॥
सज्झाय-झाण-जुत्ता रत्तिं ण सुवंति ते पयामं तु।
सुत्तत्थं चिंतता णिद्दाय वसं ण गच्छंति ॥10॥
स्वाध्यायध्यानयुक्ताः, रात्रौ न स्वपन्ति ते प्रकामं तु।
सूत्रार्थ चिन्तयन्तो, निद्राया वशं न गच्छन्ति ॥10॥
स्वाध्याय और ध्यान में लीन साधु रात में बहुत नहीं सोते हैं। सूत्र और अर्थ का चिन्तन करते रहने के कारण वे निन्द्रा के वश नही होते।
निरहंकारी नहीं ममत्व, निस्संग गारव त्याग।
सर्व जीव सम भाव हो, रखे न साधु राग॥2.24.11.346॥
निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो ।
समो य सव्वभूएसू, तसेसु थावरेसु य ॥11॥
निर्ममो निरहंकारः, निःसंगस्त्यक्तगौरवः।
समश्च सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च ॥11॥
साधु ममतारहित, निरहंकारी, निस्संग, गारव का त्यागी तथा सभी जीवों के प्रति समदृष्टि रखता है।
लाभ हानि सुख दुख सदा, जिये-मरे सम जान ।
हो निंदा या प्रशंसा, नहीं मान अपमान ॥2.24.12.347॥
लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा ।
समो निन्दा-पसंसासु, तहा माणा-वमाणओ ॥12॥
लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा।
समो निन्दाप्रशंसयोः, तथा मानापमानयोः ॥12॥
साधु लाभ और हानि में, सुख और दुख में, जीवन और मरण में तथा मान और अपमान में समभाव रखता है।
निदातबन्धन रहित वहीं, गारवकषाय मुक्त ।
दण्ड, शल्य भय रहित हो,हास्य शोक निवृत्त ॥2.24.13.348॥
गारवेसु कसाएसु, दंड-सल्ल-भएसु य।
नियत्तोहास-सोगाओ, अनियाणो अबन्धणो ॥13॥
गौरवेभ्यः कषायेभ्यः, दण्डशल्य भयेभ्यश्च।
निवृत्तो हासशोात्, अनिदानो अबन्धनः॥13॥
साधु गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त तथा निदान और बन्धन से रहित होता है।
आसक्ति इस लोक नहीं, अनासक्त परलोक।
लेप चंदन, शूल लगे, राग रहे ना शोक ॥2.24.14.349॥
अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ ।
वासी चन्दण-कप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥14॥
अनिश्रित इहलोके, परलोकेऽनिश्रितः।
वासीचन्दकल्पश्च, अशनेऽनशने तथा ॥14॥
वह लोक और परलोक दोनों से अनासक्त होता है। काँटेसे छीले या चंदन का लेप लगे, आहार मिले या न मिले, सम भाव रहता है
है अनेक आस्रव दर, साधु करें निरोध।
अध्यात्मध्यान योग से, करे प्रशस्त सुबोध॥2.24.15.350॥
अप्पसत्थेहिं दारेहिं, सव्वओ पिहियासवे।
अज्झप्प-ज्झाण-जोगेहिं, पसत्थ-दम-सासणे ॥15॥
अप्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः, सर्वतः पिहितास्रवः ।
अध्यात्मध्यानयोगैः, प्रशस्तदमशासनः ॥15॥
ऐसे साधु किसी भी तरी़के से आने वाले आस्रवों का निरोध करते हैं। अध्यात्म संबंधी ध्यान और योगों से प्रशस्त संयम शासन में लीन हो जाते हैं।
भूख प्यास सर्दी गर्मी, भय, सेज, अरतिभाव।
महाफलदायक देहदुख, साधु सहें समभाव॥2.24.16.351॥
खुह पिवा दुस्सेज्जं, सीउण्हं अरई भयं।
एहियासे अव्वहिओ, देहे दुक्खं महाफलं ॥16॥
क्षुधं पिपासां दुःशय्यां, शीतोष्णं अरतिं भयम् ।
अतिसहेत अव्यथितः देहदुःखं महाफलम् ॥16॥
भूख-प्यास, पथरीली शय्या, ठंडी-गर्मी, भय आदि को बिना दुखी हुए सहन करता है। दैहिक दुखोें को समभावपूर्वक सहन करना महाफलदायी होता है।
सतत तपश्चर्या रहे, निज संयम यदि इष्ट।
एकमुक्ति का मार्ग, वह ज्ञानीजन उपदिष्ट॥2.24.17.352॥
अहो निच्चं तवोकम्मं, सव्वबुद्धेहिं वण्णियं ।
जाय लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोयणं ॥17॥
अहो नित्यं तपःकर्म, सर्वबुद्धैर्वर्णितम्।
यावल्लज्जासमा वृत्तिः, एकभक्तं च भोजनम् ॥17॥
सभी ज्ञानियों ने ऐसे तप का उपदेश दिया है कि साधु संयम के साथ दिन में केवल एक बार भोजन करे।
काम क्लेष सब व्यर्थ है और कठिन उपवास ।
मौन अध्ययन व्यर्थ सभी, समता का ना वास ॥2.23.18.353॥
किं काहदि वणवासो, काय-किलेसो विचित्त-उववासो।
अज्झयण-मोण-पहुदी, समदा-रहियस्स समणस्स ॥18॥
किं करिष्यति वनवासः, कायक्लेशो विचित्रोपवासः ।
अध्ययनमौनप्रभृतयः, समतारहितस्य श्रमणस्य ॥18॥
समतारहित श्रमण का वनवास, कायाक्लेश, तप, उपवास, अध्ययन और मौन बेकार है।
प्रबुद्ध शांति से करे, ग्राम नगर संवाद।
शांतिमार्ग की वृद्धि कर, गौतम छोड़ प्रमाद ॥2.23.19.354॥
बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गाम गए नगरे व संजए ।
सन्तिमग्गं च बहए, समयं गोयम! मा पमायए ॥19॥
बुद्धः परिनिर्वृतश्चरेः, ग्रामे गतो नगरे वा संयतः ।
शाान्तिमार्ग च बृंहयेः, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥19॥
हे गौतम क्षण मात्र भी प्रमाद मत कर। प्रबुद्ध और उपशान्त होकर संयतभाव से गाँव और नगर में विचरण कर। शान्ति का मार्ग बढ़ा।
‘जिन’ होंगे कल जब नहीं, होंगे विभिन्न वाद।
न्याय मार्ग उपलब्ध है, गौतम छोड़ प्रमाद ॥2.24.20.355॥
न हु जिणे अ़ज़्ज दिस्सई बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए।
संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥20॥
न खलु जिनोऽद्य दृश्यते, बहुमतो दृश्यते मार्गदर्शितः।
सम्प्रति नैयायिके पथि, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥20॥
भविष्य में लोग कहेंगे कि आजकल ‘जिन’ दिखाई नही देते और जो मार्गदर्शन है वे भी एकमत के नही है। किन्तु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है अतः गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।
वेश नहीं प्रमाण है, संयमहीन भी पाय।
बदले वेश मरे नहीं? जो जन विष को खाय ॥2.24.21.356॥
वेसो वि अप्पमाणी, असंजमपएसु वट्टमाणस्स।
किं परियत्तिवेसं, विसं न मारेइ खज्जंतं ॥21॥
वेषोऽपि अप्रमाणः, असंयमपदेषु वर्तमानस्य।
किं परिवर्तितवेषं, विषं न मारयति खादन्तम् ॥21॥
संयम मार्ग में वेश प्रमाण नही हैवो तो असंयम लोगों में भी पाया जाता है। क्या वेश बदलने वाले व्यक्ति को खाया हुआ विष नही मारता?
लोक में जो साधु लगे, विकल्प चिन्ह अनेक।
संयम यात्रा के लिये, लोक-विश्वास प्रत्येक ॥2.24.22.357॥
पच्चयत्थंच लोगस्स, नाणाविह-विगप्पणं।
जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगो लिंगप्पओयणं ॥22॥
प्रत्ययार्थं च लोकस्य, नानाविधविकल्पनम्।
यात्रार्थं ग्रहणार्थं च, लोके लिङ्गप्रयोजनम्॥22॥
लोक में बताने के लिये वेश आदि की परिकल्पना की गई है। संयम यात्रा के निर्वाह के लिये और “मैं साधु हूँ” इसका बोध रहने के लिये लोक में लिंग (चिन्ह) का प्रयोजन है।
साधु हो या हो गृहस्थ, वेश अनेक प्रकार ।
मूर्ख करे धारण, कहे वेश मोक्ष का द्वार ॥2.24.23.358॥
पासंडी-लिगाणि व, गिहि-लिंगाणि व बहुप्पयाराणि।
घित्तं वदंति मूढा, लिंग-मिणं मोक्ख-मग्गो त्ति॥23॥
पाषंडिलिङ्गानि वा, गृहिलिङ्गानि वा बहुप्रकाराणि ।
गृहीत्वा वदन्ति मूढा, लिङ्गमिदं मोक्षमार्ग इति॥23॥
लोक में साधुओं तथा गृहस्थों के लिये तरह तरह के चिन्ह प्रचलित हैं। जिन्हें धारण कर अज्ञानी कहते हैं कि यह चिन्ह मोक्ष का प्रतीक है।
पोली मुट्ठी और सिक्का, खोटापन आधार।
कांच चमके नीलमसा, ज्ञानी कहे निस्सार ॥2.24.24.359॥
पुल्लेव मुट्ठी जह से असारे, अयन्तिए कूडकहावणे वा ।
राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होई य जाणएसु ॥24॥
शुषिरा इव मुष्टिर्यथा स असारः, अयन्त्रितः कूटकार्षापणो वा ।
राढामणिर्वैडूर्यप्रकाशः, अमहार्घकोभवति च ज्ञायकेषु ज्ञेषु ॥24॥
जानकारों की दृष्टि में पोली मुट्ठी का, खोटे सिक्के का या हिरे की तरह चमकिली काँच की मणि का कोई मोल नही।
भावलिंग ही प्रमुख है, द्रव्यलिंग अपरमार्थ।
मूल भाव गुण दोष का, जिन का ये मथितार्थ॥2.24.25.360॥
भावो हि पढम-लिंगं, ण दव्व-लिंग च जाण परमत्थं।
भावो कारण-भूदो, गुण-दोसाणं जिणा बिंति ॥25॥
भावो हि प्रथमलिङ्गं, न द्रव्यलिङ्गंच जानीहि परमार्थम्।
भावः कारणभूतः, गुणदोषाणां जिना ब्रुवन्ति ॥25॥
भाव ही मुख्य चिन्ह है। द्रव्य लिंग परम अर्थ नही है। भाव को ही जिनदेव ने गुण दोषों का कारण कहा है।
भाव शुद्धता के लिये, बाह्य परिग्रह त्याग।
परिग्रही मन में बसा, हो न सफल परित्याग ॥2.24.26.361॥
भाव-विसुद्धि-णिमित्तं, बाहिर-गंथस्स कीरए चाओ।
बहिर-चाओ विहलो, अब्भंतर-गंथ-जुत्तस्स ॥26॥
भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः।
बाह्यत्यागः विफलः, अभ्यन्तरग्रन्थयुक्तस्य ॥26॥
भावों की शुद्धि के लिये ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है उसका बाह्य त्याग निष्फल है।
बाह्य परिग्रह त्याग करे, पर अशुद्ध परिणाम।
त्याग नही हित कर सके, भाव शून्य हो काम॥2.24.27.362॥
परिणामम्मि असुद्धे, गंथे मुंचेइ बाहिरे य जई ।
बांहिर-गंथ-च्चाओ, भाव-विहूणस्स किं कुणइ ॥27॥
परिणामे अशुद्धे, ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् च यतिः ।
बाह्यग्रन्थत्यागः, भावविहीनस्य कं करोति? ॥27॥
बाह्य परिग्रह का त्याग कर के अशुद्ध परिणामों में रहता है तो आत्मा भावना से शून्य ऐसे साधु का बाह्य त्याग क्या हित कर सकता है?
ममता ना हो देह की, कण भी रहे न मान।
स्वयंलीन आत्मा रहे, साधु भावलिंग जान ॥2.24.28.363॥
देहादि-संग-रहिओ,माण-कसाएहिं सयल-परिचत्तो।
अप्पा-अप्पम्मि रओ स भाव-लिंगी हवे साहू ॥28॥
देहादिसंगरहितः, मानकषायैः सकलपरित्यक्तः।
आत्मा आत्मनि रतः, स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ॥28॥
जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है तथा जो अपनी आत्मा में ही लीन है, वही साधु भाव लिंगी है।
प्रकरण 25 – व्रतसूत्र
सत्य अहिंसा ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह व अस्तेय।
पाँच महाव्रत ग्रहण हो, जिन धरम का ध्येय ॥2.25.1.364॥
अहिंसा सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गह च ।
पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विउ ॥1॥
अहिंसा सत्यं चास्तेनकं च, ततश्चाब्रह्मापरिग्रहं च।
प्रतिपद्य पञ्चमहाव्रतानि, चरति धर्म जिनदेशितं विदः ॥1॥
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार करके विद्वान मुनि जिन उपदेश अनुसार धर्म का आचरण करे।
तीन शूल व्रत घात करे, मिथ्या मोह निदान।
शूल हटे महाव्रत रहे, जिन का धरम विधान ॥2.25.2.365॥
णिस्सल्लस्सेव पुणो, महव्वदाइं हवंति सव्वाइं ।
ंवदमुवहम्मदि तीहिं दु, णिदाणमिच्छत्तमायाहिं ॥2॥
निःशल्यस्यैव पुनः, महाव्रतानि भवन्ति सर्वाणि।
व्रतमुपहन्यते तिसृभिस्तु, निदान-मिथ्यात्व-मायाभिः ॥2॥
निदान (पाने की इच्छा), मिथ्यात्व (ग़लत धारणा) और माया, इन तीन कारणों से ही व्रत निष्फल होते है। इन तीन शूलों को निकालने से ही महाव्रत का पालन होगा।
मोक्षसुख को त्याग, तुच्छ, सुख का करे निदान।
लेकर टुकडे काँच के, माणिक का प्रतिदान ॥2.25.3.366॥
अगिणअ जो मुक्खसुहं, कुणइ निआणं असारसुहहेउं ।
सो कायमणिकएणं, वेरुलियमणिं पणासेइ ॥3॥
अगणयित्वा यो मोक्षसुखं, करोति निदानमसारसुखहेतोः।
स काचमणिकृते, वैडूर्यमणिं प्रणाशयतिं ॥3॥
जो व्रती मोक्ष सुख की उपेक्षा करके भौतिक सुख प्राप्ति की अभिलाषा करता है वो काँच के टुकड़े के लिये असली मणि गँवाता है।
कुल योनि जीव मार्गणा, जीवों को पहचान ।
रहे निवृत आरम्भ से, व्रत अहिंसा जान ॥2.25.4.367॥
कुल-जोणि-जीव-मग्गण-ठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं ।
तस्सा-रंभ-णियत्तण-परिणामो होइ पढम-वदं ॥4॥
कुलयोनिजीवमार्गणा-स्थानादिषु ज्ञात्वा जीवानाम्।
तस्यारम्भनिवर्तनपरिणामोभवति प्रथमव्रतम् ॥4॥
कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि में जीवों को जानकर उनसे सम्बन्धित आरम्भ से निवृत्तिरूप परिणाम प्रथम अहिंसाव्रत है।
सब आश्रम की जान हैं, सब शास्त्रों का सार।
व्रतों गुणों का पिण्ड है, अहिंसा मुख्य विचार ॥2.25.5.368॥
सव्वेसि-मासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं ।
सव्वेसिं वदगुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु ॥5॥
सर्वेषामाश्रमाणां, हृदयं गर्भो वा सर्वशास्त्राणाम् ।
सर्वेषां व्रतगुणानां, पिण्डः सारः अहिंसा हि ॥5॥
अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य, सब व्रतों और गुणों का पिण्डभूत सार है।
खुद या औरों के लिये, भय या क्रोध विचार ।
हिंसक मिथ्या वचन नहीं, यही सत्यव्रत सार॥2.25.6.369॥
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जई वा भया ।
हिंसगं न मुसं बूया नो वि अन्नं वयावए ॥6॥
आत्मार्थ परार्थं वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयात् ।
हिंसकं न मृषा ब्रूयात्, नाप्यन्यं वदापयेत् ॥6॥
स्वयं अपने लिये या दूसरों के लिये क्रोध या भय आदि के वश में होकर हिंसात्मक असत्यवचन न तो स्वयं बोलना चाहिये और न दूसरों से बुलवाना चाहिये। यह दूसरा व्रत ‘सत्यव्रत’ है॥
गाँव नगर या जंगल में दूजे का हो माल ।
ग्रहण भाव रखना नहीं, तीजे..व्रत की चाल ॥2.25.7.370॥
गामे वा णयरे वा रण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
जो मुयादि गहण-भाव, तिदिय-वदै होदि तस्सेव ॥7॥
ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा प्रेक्षित्वा परमार्थम् ।
यो मुञ्चति ग्रहणभावं, तृतीयव्रतं भवति तस्यैव ॥7॥
ग्राम, नगर या वन में दूसरे की वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव त्याग देनेवाले साधु के तीसरा अचौर्य व्रत होता है।
चेतन रहे अचेतना, अल्प-अधिक उपहार ।
दाँत साफ़ की सींक भी, संत न करे स्वीकार ॥2.25.8.371॥
चित्तमंत-मचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं।
दंत-सोहण-मेत्तं पि, ओग्गहंसि अजाइया ॥8॥
चित्तवदचित्तवद्वा, अल्पं वा यदि वा बहु (मूल्यतः) ।
दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा ( न गृह्णान्ति) ॥8॥
सचेतन या अचेतन, अल्प अथवा बहुत, यहाँ तक की दाँत साफ़ करने की सींक तक भी साधु बिना दिये ग्रहण नही करते।
वर्जित भूमि भ्रमण नहीं, मुनि भिक्षा प्रस्थान।
कुल भूमि का ज्ञान रहे, मित भूमिही स्थान॥2.254.9.372॥
अइभूमिं न गच्छेज्जा, गोयरग्गगओ मुणी।
कुलस्स भूमिं जाणिता, मियं भूमिं परक्कमे ॥9॥
अतिभूमिं न गच्छेद् गोचराग्रगतो मुनिः।
कुलस्य भूमिं ज्ञात्वा, मितां भूमिं पराक्रमेत् ॥9॥
गोचरी लिए जाने वाले मुनि को वर्जित भूमि में प्रवेश नहीं करना चाहिये। कुल की भूमि को जानकर मितभूमि तक ही सीमित रहना चाहिये।
सम्भोग मूल अधर्म का, दोष भयंकर जान।
वर्जन इस संसर्ग का, ब्रह्मचर्य सम्मान ॥2.25.10.373॥
मूल-मेय-महम्मस्स, महा-दोस-समुस्सयं।
तम्हा मेहुण-संसग्ंगि, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥10॥
मूलम् एतद् अधर्मस्य, महादोषसमुच्छयम्।
तस्मात् मैथुनसंसर्गं, निर्ग्रन्थाः वर्जयन्ति णम् ॥10॥
मैथुन-संसर्ग अधर्म का मूल है, महान दोषों का समूह है। इसलिये ब्रह्मचर्य व्रती निर्ग्रन्थ साधु मैथुन सेवन का सर्वथा त्याग करते है ।
माता पुत्री बहन हैं, स्त्री का हर इक रूप।
वर्जित है नारी कथा, ब्रह्मचर्य प्रारूप॥2.25.11.374॥
मादु-सदा-भगिणीव य, दट्ठणित्थि-त्तियं च पडिरूवं ।
इत्थि-कहादि-णियत्ति, तिलोय-पुज्जं हवे बंभं ॥11॥
मसतृसुताभगिनीमिव च, दृष्टवा स्त्रीत्रिकं च प्रतिरूपम्।
स्त्रीकथादिनिवृत्ति-स्त्रिलोकपूज्यं भवेद् ब्रह्म ॥11॥
वृद्धा, बालिका और युवती स्त्री के इन तीन प्रतिरुपों को देखकर उन्हें माता, पुत्री और बहन के समान मानना तथा स्त्री कथा से निवृत्त होना ब्रह्मचर्य व्रत है। यह व्रत तीनों लोकों में पूज्य है।
सभी वस्तुएँ त्याग कर, निरपेक्ष मन भाव ।
अंदर बाहर हर तरह, अपरिग्रह व्रत स्वभाव ॥2.25.12.375॥
सव्वेसिं गंथाणं चागो णिरवेक्ख-भावणा-पुव्वं।
पंचम-वद-मिदि भणिदं, चारित्त-भरं वहंतस्स ॥12॥
सर्वेषां ग्रन्थानां, त्यागो निरपेक्षभावनापूर्व्वम्।
पंचमव्रतमिति भणितं, चारित्रभरं वहतः ॥12॥
निरपेक्षतापूर्वक चारित्र का भारवहन करने वाले साधु का बाह्यभ्यंतर, सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना, पाँचवा परिग्रह-त्याग नामक महाव्रत कहा जाता है।
परिग्रह है यह देह भी, कहे देव अरहन्त ।
फिर तो परिग्रह अन्य के, संदेहों का अन्त ॥2.25.13.376॥
किं किंचण त्ति तक्कं, अपुणब्भव-कामिणोध देहे वि ।
संग त्ति जिणवरिंदा, णिप्पडिकम्मत्त-मुद्दिट्ठा ॥13॥
किं किंचनमिति तर्कः, अपुनर्भवकामिनोऽथ देहेऽपि।
संग इति जिनवरेन्द्रा, निष्प्रतिकर्मत्वमुद्दिष्टवन्तः ॥13॥
जब भगवान अरहंतदेव ने मोक्ष के अभिलाषी को ‘शरीर भी परिग्रह है’ कहकर देह की उपेक्षा करने का उपदेश दिया है, तब अन्य परिग्रह की तो बात ही क्या है।
जो वस्तु अनिवार्य है, जनता को ना ग्राह्य।
उत्पन्न रके न मोह को, वस्तू वही है ग्राह्य॥2.25.14.377॥
अप्पडिकुट्ठं उवधिं, अपत्थ-णिज्जं-असंजद-जणेहिं ।
मुच्छादि-जणण-रहिदं, गेण्हुदु समणो जदि वि अप्पं ॥14॥
अप्रतिक्रुष्टमुपधि-मप्रार्थनीयमसंयतजनैः।
मूर्च्छादिजननरहितं, गृह्णातु श्रमणो यद्यप्यल्पम् ॥14॥
फिर भी जो अनिवार्य है, दूसरों के काम की नही है, ममत्व पैदा करने वाली नही है ऐसी वस्तु ही साधु के लेने योग्य है। इससे विपरीत अल्पतम परिग्रह भी उनके लिये उचित नही है।
देश, काल, श्रम, शक्ति, पद या आहार-विहार।
ध्यान श्रमण इसका रखे, अल्प बंध का भार ॥2.25.15.378॥
आहारेव विहारे, देसं कालं समं खमं उवधि।
जाणित्ता ते समणो, वट्ठदि जदि अप्पलेवी सो ॥15॥
आहारे वा विहारे, देशं कालं श्रमं क्षमम् उपधिम् ।
ज्ञात्वा तान् श्रमणः, वर्तते यदि अल्पलेपी सः ॥15॥
आहार अथवा विहार में देश, काल, श्रम, अपनी सामर्थ्य तथा उपाधि को जानकर श्रमण यदि अपना बर्ताव रखता है तो उसे अल्प बंधन ही होता है।
परिग्रह सत् परिग्रह नहीं, महावीर का ज्ञान।
परिग्रह से जब मोह हो, असल परिग्रह मान ॥2.25.16.379॥
न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइण।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ॥16॥
न सः परिग्रह उक्तो, ज्ञातपुत्रेण तायिना ।
मूर्च्छा परिग्रह उक्तः, इति उक्तं महर्षिणा ॥16॥
भगवान महावीर ने वस्तुगत परिग्रह को ही परिग्रह नहीं कहा है। उन महर्षि ने परिग्रह से मोह की मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा है।
पास नहीं कुछ भी रखे, लेशमात्र भी माल।
पक्षी सा निरपेक्ष रहे, संयम संग्रह पाल ॥2.25.17.380॥
सन्निहिं च न कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए ।
पक्खी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्वए ॥17॥
सन्निधिं च न कुर्वीत, लेपमात्रया संयतः।
पक्षी पत्रं समादाय, निरपेक्षः परिव्रजेत् ॥17॥
साधु लेशमात्र भी संग्रह न करे। पक्षी की तरह संग्रह से निरपेक्ष रहते हुए केवल संयमोपकरण के साथ विचरण करे।
शय्यासन आहार की, इच्छा नहि श्रीमान ।
ग्रहण अधिक करता नहीं, उसी मुनि का मान ॥2.25.18.381॥
संथार-सेज्जासण-भत्तपाणे, अप्पिछया अइलाभे विसंते ।
जो एव-मप्पाण-भितोसएज्जा, संतोसपाहन्न-रए स पुज्जो ॥18॥
संस्तारकशय्यासनभक्तपानानि, अल्पेच्छता अतिलाभेऽपि सति ।
एवमात्मानमभितोषयति, सन्तोषप्राधान्यरतः स पूज्यः ॥18॥
शय्या, आसन और आहार का अति लाभ होने पर भी जो अल्प इच्छा रखते हुए अल्प से अपने को संतुष्ट रखता है वह साधु पूज्य है।
सूर्योदय के पूर्व या, सूर्य गमन पश्चात।
साधु न भोजन भावना, हो सम्मुख जब रात ॥2.25.19.382॥
अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था अ अणुग्गए।
आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि ण पत्थए ॥19॥
अस्तंगते आदित्ये, पुरस्ताच्चानुद्गते।
आहारमादिकं सर्वं, मनसापि न प्रार्थयेत् ॥19॥
परिग्रहरहित समरसी साधु को सूर्यास्त के पश्चात व सूर्योदय के पूर्व किसी भी प्रकार के आहार की इच्छा मन में नही लानी चाहिये।
त्रस अथवा हो स्थावरा, जीवन सूक्ष्म हज़ार।
अंधकार में दिखे नहीं, करे न मुनि आहार ॥2.25.20.383॥
संतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा।
जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे? ॥20॥
सन्ति इमे सूक्ष्माः प्राणिनः, त्रससा अथवा स्थावराः।
यान् रात्रावपश्यन्, कथम् एषणीयं चरेत् ॥20॥
इस धरती पर ऐसे त्रस और स्थावर सूक्ष्म जीव सदैव व्याप्त रहते है जो रात्रि को अंधकार में दीख नही पड़ते। अतः ऐसे समय में साधु के द्वारा शुद्ध आहार की कल्पना कैसे हो सकती है?
प्रकरण 26 – समिति-गुप्तिसूत्र
गमनागमन, भाषा, भिक्षा, रखरखाव, उत्सर्ग।
काय वचन मन गुप्तियाँ, आठ गुप्ति समिति वर्ग ॥2.26.1.384॥
इरिया-भासे-सणा-दाणे, उच्चारे समिई इय ।
मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा ॥1॥
ईर्याभाषैषणाऽऽदाने-उच्चारे समितय इति।
मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः, कायगुप्तिश्चाष्टमी ॥1॥
ईर्या (गमनागमन), भाषा, एषणा (आहार), आदान-प्रदान और उत्सर्ग (मल-मूत्र त्याग) – ये पाँच समितियाँ है। मन, वचन व काया ये तीन गुप्तियाँ है।
प्रवचन माता आठ हैं, रक्षा पुत्र समान ।
हरपल मुनि रक्षा करे, चरित्र दर्शन ज्ञान ॥2.26.2.385॥
एदाओ अट्ठ पवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं ।
रक्खंति सदा मुणिणो, मादा पुत्तं व पयदाओ ॥2॥
एता अष्ट प्रवचन-मातरः ज्ञानदर्शनचारित्राणि।
रक्षन्ति सदा मुनीन्, मातरः पुत्रमिव प्रयताः ॥2॥
ये आठ प्रवचन माताएँ है। ये माता की तरह मुनि के सम्यक् दर्शन ज्ञान व चारित्र का रक्षण करती हैं।
करें नियंत्रित आचरण, ये समितियाँ पाँच ।
गुप्तियाँ निवृत्त करे, अशुभ करे ना आँच ॥2.26.3.386॥
एयाओ पंच समिई ओ, चरणस्स य पवत्तणे ।
गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो ॥3॥
एताः पञ्च समितयः, चरणस्य च प्रवर्तने।
गुप्तयो निवर्तने उक्ताः, अशुभार्थेभ्यः सर्वशः॥3॥
ये पाँच समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिये है और तीन गुप्तियाँ सभी अशुभ विषयों से निवृत्ति के लिये है।
गुप्ति समिति पालन हो, गमनागमन न दोष ।
गुप्ति समिति त्रुटि रोकती, चेष्टाएँ निर्दोष ॥2.26.4.387॥
जह गुत्तस्सिरियाई, न होंति दोसा तहेव समियस्स ।
गुत्तीट्ठिय प्पमायं, रुंभइ समिई सचेट्ठस्स ॥4॥
यथा गुप्तस्य ईर्यादि (जन्या) न भवन्ति दोषाः, तथैव समितस्य।
गुप्तिस्थितो प्रमादं, रुणद्धि समिति (स्थितः) सचेष्टस्य ॥4॥
जैसे गुप्ति का पालन करने वाले को अनुचित गमनागमन मूलक दोष नही लगते, वैसे ही समिति का पालन करने वाले को भी दोष नही लगते।
जीव जिये अथवा मरे, लापरवाही दोष।
समितियों में जो रहे, ना बंधन निर्दोष ॥2.26.5.388॥
मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥5॥
म्रियतां वा जीवतु वा जीवः अयताचारस्य निश्चिता हिंसा ।
प्रयतस्य नास्ति बन्धो, हिंसामात्रेण समितिषु ॥5॥
जीव मरे या जीये, लापरवाह (अयतनाचारी) को हिंसा का दोष अवश्य लगता है। किन्तु जो समितियों में प्रयत्नशील है उस से बाह्य हिंसा हो जाने पर भी उसे कर्म बंध नही होता।
समिति पालन में हिंसा, द्रव्य है, नहीं भाव ।
हिंसा भाव असंयत का, दोष बड़ा प्रभाव ॥2.26.6.389॥
प्राणी का जब घात हो, द्रव्य-भाव का दोष ।
संत मन से घात नहीं, द्रव्य-भाव निर्दोष ॥2.26.7.390॥
आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, सा दव्वतो होति ण भावति उ ।
भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्तेण सदा वधेति ॥6॥
संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, सा दव्वहिंसा खलु भावतो य ।
अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होज्जा, वधेण जोगो दुहतो वऽहिंसा ॥7॥
आहत्य हिंसा समितस्य या तु, सा द्रव्यतो भवति न भावतः तु ।
भावेन हिंसा तु असंयतस्य, यान् वा अपि सत्त्वान् न सदा हन्ति ॥6॥
सम्प्राप्तिर्तस्येव यदा भवति, सा द्रव्यहिंसा खलु भावतो च ।
अध्यात्मशुद्धस्य यदा न भवति, वधेन योगः द्विधाऽपि च अहिंसा ॥7॥
इसका कारण यह है कि समिति का पालन करते हुए जो अंजाने में हिंसा होती है वो द्रव्य हिंसा है भाव हिंसा नही। असंयमी को जाने अंजाने में गई द्रव्य व भाव दोनों हिंसा का दोष लगता है।
ईर्यासमिति सम्मत चले, कुचल मरे जब जीव।
दोष लगे ना साधु को, अहिंसक है वो जीव॥2.26.8.391॥
ज्यूँ मूर्च्छा अध्यात्म में, परिग्रह की पहचान।
घमंड में जो जन रहे, हिंसक उसको मान॥2.26.9.392॥
उच्चालियम्हि-पाए, इरिया-समिदस्स णिग्गमत्थाए ।
आबाधेज्ज कुहिगहँ मरिज्ज तं जोगमासेज्ज॥8॥
ण हितस्स तण्णिमित्तोबंधोसुहुमो य देसिदो समये ।
मुच्छा परिग्गहो च्चिह, अज्झप्प पमाणदो दिट्ठो ॥9॥
उच्चालिते पादे, ईर्यासमितस्य निर्गमनार्थाय।
अबाधे कुलिङ्गी, म्रियेत तं योगमासाद्य ॥8॥
न हि तद्घातनिमित्तो, बन्धो सूक्ष्मोऽपि देशितः समये।
मूर्च्छा परिग्रहो इति च, अध्यात्मप्रमाणतो भणितः ॥9॥
ईर्यासमिति पूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे अचानक कोई छोटा सा जीव आ जावे और कुचल कर मर जाये तो आगम के अनुसार इससे साधु को लेश मात्र भी बंध नही होता। जैसे शास्त्रों में मूर्छा को ही परिग्रह कहा गया है वैसे ही प्रमाद को हिंसा कहा गया है ।
लिप्त नहीं ज्यूँ कमलिनी, सगुणा स्नेह अपार।
समिति पूर्वक साधु चले, रहे न बंध विचार॥2.26.10.393॥
पउमणि-पंत व जहा उदयेण ण लिप्पदि सिणेह-गुण-जुत्तं ।
तह समिदीहिं ण लिप्पई साधू काएसु इरियंतो ॥10॥
पद्मिनीपत्रं वा यथा, उदकेन न लिप्यते स्नेहगुणयुक्तम्।
तथा समितिभिर्न लिप्यते, साधुः कायेषु ईर्यन् ॥10॥
जैसे स्नेहगुण से युक्त कमलिनी का पत्र जल से लिप्त नही होता, वैसे ही समितिपूर्वक जीवों के बीच विचरण करने वाला साधु पाप से लिप्त नही होता।
यत्न चरित जननी धरम, यत्न ही पालनहार ।
यत्न चरित बढ़ता धरम, यत्न ही सुख का द्वार ॥2.26.11.394॥
जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव।
तव्वुड्डीकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥11॥
यतना तु धर्मजननी, यतना धर्मस्य पालनी चैव।
तद्वृद्धिकरी यतना, एकान्तसुखावहा यतना ॥11॥
यत्नाचारिता धर्म की जननी है। यत्नाचारिता धर्म की पालनहार है। यत्नाचारिता धर्म को बढ़ाती है। यत्नाचारिता एकान्त सुखावह है।
सोये बैठे चल रहे, खान-पान संवाद ।
साथ विवेकी आचरण, पाप न बंधन बाद ॥2.26.12.395॥
जयं चरे जयंचिट्ठे, जयमासे जयं सए ।
जयं भुंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई ॥12॥
यत चरेत् यतं तिष्ठेत्, यतमासीत यतं शयीत।
यतं भुञ्जानः भाषमाणः, पाप कर्मं न बध्वाति ॥12॥
यत्नाचारपूर्वक चलने, बैठने, सोने, खाने और बोलने में साधु को पाप कर्म का बंध नही होता।
चार हाथ तक देख के, पथ चलता जब काम।
ध्यान जीव हिंसा रहे, ईर्या समिति अंजाम॥2.26.13.396॥
फासुय-मग्गेण दिवा, जुगंतर-प्पेहिणा सकज्जेण ।
जंतूणि परिहरंते-णिरिया-समिदी हवे गमणं ॥13॥
प्रासुकमार्गेण दिवा, युगान्तरप्रेक्षिणा सकार्येण।
जन्तून् परिहरता, ईर्यासमितिः भवेद् गमनम् ॥13॥
कार्यवश दिन में प्रासुक मार्ग (जिस पर पहले से आवागमन है) पर चार हाथ भूमि को आगे देखते हुए जीवों को बचाते हुए चलना ईर्या समिति है।
रहती वश में इंद्रियाँ, स्वाध्याय नही नाम।
हो तन्मयता गमन में ईर्या समिति अंजाम ॥2.26.14.397॥
इन्दियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा।
तम्मुत्ती तप्पुक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए ॥14॥
इन्द्रियार्थान् विवर्ज्य, स्वाध्यायं चैव पञ्चधा ।
तन्मूर्तिः (सन्) तत्पुरस्कारः, उपयुक्त ईर्यां रीयेत ॥14॥
इन्द्रियों के विषय तथा पाँच प्रकार के स्वाध्याय का कार्य छोड़कर केवल गमन क्रिया में लीन हो, उसी को महत्व देकर जागृतिपूर्वक चलना चाहिये।
जीव जन्तु जब राह में, भोजन लेकर चाह।
पास कभी ना जाइये, भय से वो गुमराह ॥2.26.15.398॥
तहेवुच्चावया पाणा, भत्ताट्ठाए समागया।
त-उज्जुयं न गच्छेज्जा, जयमेव परक्कमे ॥15॥
तथैवुच्चावचाः प्राणिनः, भक्तार्थं समागताः ।
तदृजुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत् ॥15॥
नाना प्रकार के जीव-जन्तु चारा दाने के लिये राह में होते है, साधु को उनके सामने भी नही जाना चाहिये ताकि वे भयग्रस्त न हो।
पाप वचन या निरर्थक, ना दुख भेदी वाद।
भाषा समिति यही कहे, कर ना वाद विवाद ॥2.26.16.399॥
न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं न निरट्ठं न मम्मयं ।
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा ॥16॥
न लपेत् पृष्टः सावद्यं, न निरर्थं न मर्मगम्।
आत्मार्थं परार्थं वा, उभयस्यान्तेण वा ॥16॥
जो स्वयं व अन्य के लिये पाप वचन, निरर्थक वचन और कटु वचन का प्रयोग न करे वो भाषा समिति परायण साधु है।
कटु वचन बोले नहीं, लगे जीव अपघात ।
सत्य वचन पापी बड़ा, जो करता आघात ॥2.26.17.400॥
तहेव करुसा भासा गुरु भूओ-वघाइणी ।
सच्चा विसा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥17॥
तथैव परुषा भाषा, गुरुभूतोपघातिनी।
सत्यापि सा न वक्तव्या, यतो पापस्य आगमः ॥17॥
कटु वचन या प्राणियों के चोट पहुँचाने वाली भाषा भी न बोले। ऐसा सत्य वचन भी न बोले जिससे पाप का बंध होता है।
काने को काना नहीं, नही नपुंसक बोल।
रोगी को रोगी नहीं, चोर चोर ना बोल ॥2.26.18.401॥
तहेव काणं काणे त्तिल पंडगं पंडगे त्ति वा।
वाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए ॥18॥
तथैव काणं काण इति, पण्डकं पण्डक्र इति वा।
व्याि वाऽपि रोगी इति, स्तेनं चौर इति नो वदेत् ॥18॥
काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर भी न कहे।
चुग़ली, हास्य, कर्कश, निन्दा, आत्म प्रशंसा त्याग।
करे निरर्थक बात नहीं, भाष समिति वीतराग ॥2.26.19.402॥
पेसुण्ण-हास-कक्स-पर-णिंदा-प्यप्पसंस विकहादी।
वज्जिा स-परहियं, भासा-समिदी हवे कहणं ॥19॥
पैशुन्यहासकर्कश-परनिन्दाऽऽत्मप्रशंसा-विकथादीन्।
वर्जयित्वा स्वपरहित्तं, भाषासमितिः भवेत् कथनम् ॥19॥
चुग़ली, हास्य, कर्कश वचन, पर निन्दा, आत्म प्रशंसा, रसवर्धक या विकारवर्धक कथा का त्याग करके स्व-पर हितकारी वचन बोलना ही भाषा समिति है।
असंदिग्ध, देखी भली, पूर्ण व्यक्त हो बात।
उद्वेगरहित व सहज हो, आत्मवान मुनि जात ॥2.26.20.403॥
दिट्ठं मियं असंदिद्धं, पडिपुन्न वियं जियं।
अयंपिरम-णुव्विवग्गं, भासं निसिर अत्तवं ॥20॥
दृष्टां मिताम् असन्दिग्धां, प्रतिपूर्णां व्यक्ताम्।
अजल्पनशीलां अनुद्विग्नां, भाषां निसृज आत्मवान् ॥20॥
आत्मवान मुनि ऐसी भाषा बोले जो आँखों देखी बात को कहती हो, संक्षिप्त हो, संदेहास्पद न हो, स्वर-व्यंजन आदि से पूर्ण हो, व्यक्त हो, सहज और उद्वेगरहित हो।
निष्प्रयोजन देन दुर्लभ, दुर्लभ भिक्षा पान।
दोनों को शुभ गति मिले, बढ़े मोक्ष की शान ॥2.26.21.404॥
दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवो वि दुल्लहा।
मुहादाई मुहाजीवो, दो वि गच्छंति सोग्गइं ॥21॥
दुर्लभा तु मुधादायिनः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभः।
धादायिनः मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छत सुगतिम् ॥21॥
बिना स्वार्थ के देने वाले भी दुर्लभ है और भिक्षा पर जीवन बिताने वाले भी दुर्लभ है। दोनों तरह के व्यक्ति परम्परा से सुगति या मोक्ष प्राप्त करते है।
उद्ग़म, उत्पादन, अशन, दोष रहित हो भोज ।
शुद्ध न जिनकी शायिका, एषणा व्रत मुनि रोज़ ॥2.26.22.405॥
उग्गम-उप्पादण-एसणेहिं पिंड च उवधि सज्जं च।
सोधंतस्स य मुणिणो, परिसुज्झइ एसणा-समिदी॥22॥
उद्गमोत्पादनैषणैः, पिण्डं च उपथिं शय्यां वा ।
शोधयतश्च मुनेः, परिशुद्ध्यति एषणा समितिः॥22॥
आहार उगाने, बनाने व ग्रहण करते समय लगने वाले दोषों का ध्यान रखना और शय्या आदि शुद्ध रखना एषणा समिति है।
बल, आयु व स्वाद, नही, नहीं तेज-उपचार।
ज्ञान संयम ध्यान मिले, मुनि करता आहार ॥2.26.23.406॥
णबलाउ-साउअट्ठं, ण सरीरस्सु-वचयट्ठ तेजट्ठं ।
णाणट्ठ-संजमट्ठं, झाणट्ठं चेव भंजेज्जा ॥23॥
न बलायुः स्वादार्थं, न शरीरस्योपचयार्थंतेजो अर्थम् ।
ज्ञानार्थं संयमार्थं, ध्यानार्थं चैव भुञ्जीत ॥23॥
मुनि बल, आयु, स्वाद या तेज बढ़ाने के लिये आहार नहीं करते। वे ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिये ही आहार करते हैं।
पुष्प को पीड़ा नहीं, भ्रमर करे रस पान।
पुष्प मुरझाता नहीं, रहे तृप्ति का भान॥2.26.24.407॥
साधु मुक्त बस इसी तरह, विचरण करता जाय।
दाता को भी कष्ट नहीं, समिति एषणा भाय॥2.26.25.408॥
जहा दुम्स्स पुप्फेसु, भमरो आवियई रसं।
न य पुप्फं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥24॥
उमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो।
विंहगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया ॥25॥
यथाद्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमरः आपिबति रसम्।
न च पुष्पं क्लामयति, स च प्रीणात्यात्मानम् ॥24॥
एवमेते श्रमणाः मुक्ता, ये लोके सन्ति साधवः।
विहंगमा इव पुष्पेषु, दानभक्तैषणारताः ॥25॥
जैसे भ्रमर पुष्पोंको तनिक भी पीड़ा पहुँचाये बिना रस ग्रहण करता है और अपने को तृप्त करता है, वैसे ही लोक में विचरण करने वाले परिग्रहण से रहित साधु दाता को किसी प्रकार का कष्ट दिये बिना उसके द्वारा दिया गया शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। यही उनकी एषणा समिति है।
हिंसा से भोजन बने, प्रासुक भोजी दोष।
मन में शुद्ध हो भावना, हिंसक भोज निर्दोष॥2.26.26.409॥
आहाकम्म-परिणओ, फासुयभोई वि बंधओ होई।
सुद्धं गवे माणो, आहाकम्मे वि सो सुद्धो ॥26॥
आधाकर्मपरिणतः, प्रासुकभोजी अपि बन्धको भवति ।
शुद्धं गवेषयन्, आधाकर्मण्यपि स शुद्धः ॥26॥
यदि साधु दोषयुक्त अपने उद्देश्य से बनाया गया भोजन करता है तो वह दोष का भागी हो जाता है। किन्तु यदि वह उद्गम आदि दोषों से रहित शुद्ध भोजन की आशा रखते हुए अशुद्ध भोजन भी कर लेता है तो भावों से शुद्ध होने के कारण वह शुद्ध है।
आँखों से चौकस रहे, रखे या वस्तु उठाय।
निक्षेपण आदान समिति मुनि को यही बताय ॥2.26.27.410॥
चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई।
आइए निक्खिवेज्जा वा, दुहओ वि समिए सया ॥27॥
देहादिसंगरहितः, मानकषायैः सकलपरित्यक्तः।
आत्मा आत्मनि रतः, स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ॥28॥
विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला मुनि अपने उपकरणों को आँखों से देखकर तथा साफ़ करते हुए उठाये और रखे। यही आदान निक्षेपण समिति है।
दूर, एकान्त, जीव ना, अवरोधक ना भान।
मल या मूत्र विसर्जन को, उत्सर्ग समिति जान ॥2.26.28.411॥
एगंते अचित्ते दूरे, गूढे विसाल-मविरोहे।
उच्चारदिच्चाओ, पदिठाणिया हवे समिदी ॥28॥
एकान्ते अचित्ते दूरे, गूढे विशाले अविरोधे।
उच्चारादित्यागः, प्रतिष्ठापनिका भवेत् समितिः ॥28॥
साधु को मलमूत्र का विसर्जन ऐसे स्थान पर करना चाहिये जहाँ एकान्त हो, गीली वनस्पति तथा त्रस जीवों से रहित हो, गाँव आदि से दूर हो, कोई विरोध न करता हो। यह उत्सर्ग समिति है।
समारम्भ या हो सरम्भ या आरम्भ हो काम।
रोके मुनि मन को सदा, रहता खुद निष्काम ॥2.26.29.412॥
संरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव य।
मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥29॥
संरम्भे समारम्भे, आरम्भे च तथैव च।
मनः प्रवर्तमानं तु, निवर्त्तयेद् यतं यतिः ॥29॥
जागरुक साधु सरम्भ (हिंसा का विचार), समारम्भ (हिंसा के लिये सामग्री जुटाना) व आरम्भ (हिंसा आरम्भ करना) करने से प्रवृत्त मन को रोके ।
समारम्भ या हो सरम्भ या आरम्भ हो काम।
साधु वचन को रोकता, रहता खुद निष्काम॥2.26.30.413॥
संरंमसमारंभे, आरंभे य तहेव य ।
वयं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥30॥
संरम्भे समारम्भे, आरम्भे च तथव च।
वचः प्रवर्तमानं तु, निवर्त्तयेद् यतं यतिः ॥30॥
जागरुक साधु सरम्भ (हिंसा का विचार), समारम्भ (हिंसा के लिये सामग्री जुटाना) व आरम्भ (हिंसा आरम्भ करना) करने से प्रवृत्त वचन को रोके ।
समारम्भ या हो सरम्भ या आरम्भ हो काम।
काया को मुनि रोकता, रहता खुद निष्काम ॥2.26.31.414॥
संरंभसमारंभे, आरंभम्मि तहेव य।
कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥31॥
संरम्भे समारम्भे, आरम्भेतथैव च।
कायं प्रवर्तमानं तु, निवर्त्तयेद् यतं यतिः ॥31॥
जागरुक साधु सरम्भ (हिंसा का विचार), समारम्भ (हिंसा के लिये सामग्री जुटाना) व आरम्भ (हिंसा आरम्भ करना) करने से प्रवृत्त काया को रोके।
बाड़ खेत, खाई, नगर, रक्षा करे दीवार।
पाप का होता निरोध, साधु गुप्ति विचार ॥2.26.32.415॥
खेखत्तस्स वई णयरस्स, खाइया अहव होइ पायारो।
तह पावस्स णिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहुस्स ॥32॥
क्षेत्रस्य वृत्तिर्नगरस्य, खातिकाऽथवा भवति प्राकारः।
तथा पापस्य निरोधः, ताः गुप्तयः साधोः ॥32॥
जैसे खेत की बाड़ और नगर की खाई या दीवार उसकी रक्षा करते है वैसे ही पाप निरोधक गुप्तियाँ साधु के संयम की रक्षा करती है।
प्रवचन माता आठ हो, सम्यक् आचरण जान।
मुक्त भये संसार से, साधु का यह ज्ञान ॥2.26.33.416॥
एया पवयणमाया, जे सम्मं आयरे मुणी।
से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए ॥33॥
एताः प्रवचनमातॄः, यः सम्यगाचरेन्मुनिः।
स क्षिप्रं सर्वसंसारात्, विप्रमुच्यते पण्डितः ॥33॥
जो मुनि आठ प्रवचन माताओं का सम्यक् आचरण करता है वह ज्ञानी शीघ्र इस संसार से मुक्त हो जाता है।
प्रकरण 27 – आवश्यक सूत्र
भेद-ज्ञान अभ्यास से, समता जीव सुजान ।
करना जो है दृढ़ इसे, प्रतिक्रमण बखान ॥2.27.1.417॥
एरिस-भेद-ब्भासे, मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं ।
तं दढ-करण-णिमित्तं, पडिक्कमणादी यवक्खामि ॥1॥
ईदृग्भेदाभ्यासे, मध्यस्थो भवति तेन चारित्रम्।
तद् दृढीकरणनिमित्तं, प्रत्रिमणादीन् प्रवक्ष्यामि ॥1॥
इस प्रकार के भेद-ज्ञान का अभ्यास हो जाने पर जीव माध्यस्थ भावयुक्त हो जाता है और इससे चारित्र होता है। इसी को द़ृढ़ करने के लिये प्रतिक्रमण का कथन करता हूँ।
तज ध्यावे पदभाव को, आत्मा विमल सुभाव ।
आत्मवशी का कर्म ही, है आवश्यक भाव॥2.27.2.418॥
परिचता परभावं, अप्पाणं झादि णिम्मल-सहावं।
अप्पवसो सो होदि हु, तस्स दु कम्मं भणंति आवासं ॥2॥
परित्यक्त्वा परभावं, आत्मानं ध्यायति निर्मलस्वभावम्।
आत्मवशः सभवति खलु, तस्य तु कर्म्म भणन्ति आवश्यकम् ॥2॥
पर-भाव का त्याग करके निर्मल स्वभावी आत्मा का ध्याता आत्मवशी होता है। उसके कर्म को आवश्यक कहा जाता है।
कर्म आवश्यक रख इच्छा, स्थिर आत्मस्वभाव ।
गुण सामयिक पूर्ण रहे, आवे समता भाव ॥2.27.3.419॥
आवासं जइ इच्छसि, अप्प-सहावेसु कुणदि थिर-भावं ।
तेणदु सामण्ण-गुणं, संपुण्णं होदि जीवस्स ॥3॥
आवश्यकं यदीच्छसि, आत्मस्वभावेषु करोति स्थिरभावम्।
तेन तु श्रामण्य गुणं, सम्पूर्णं भवति जीवस्य ॥3॥
यदि तू प्रतिक्रमण आदि आवश्यक कर्मों की इच्छा रखता है तो अपने को आत्मस्वभाव में स्थिर कर। इसमें जीव का सामायिक गुण पूर्ण होता है। उसमें समता आती है।
करम न आवश्यक करे, भ्रष्ट चरित्र स्वभाव ।
पूर्वोक्त क्रम करे श्रमण, कर्म आवश्यक भाव ॥2.27.4.420॥
आवासएण हीणो, पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो ।
पुव्वुत्त-कमेण पुणो, तम्हा आवासयं कुज्जा ॥4॥
आवश्यकेन हीनः, प्रभ्रष्टो भवति चरणतः श्रमणः।
पूर्वोक्तक्रमेण पुनः, तस्मादावश्यक कुर्यात् ॥4॥
जो श्रमण आवश्यक कर्म नही करता, वह चारित्र से भ्रष्ट है। अतः पूर्वोक्त क्रम से आवश्यक कर्म अवश्य करना चाहिए।
प्रतिक्रमण जब युक्तरहे, चरित्र निश्चित जान।
श्रमण चरित वीतराग का, शुरू हुआ उत्थान ॥2.27.5.421॥
पडिकमण-पहुडि-किरियं, कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं ।
तेण दु विराग-चरिए, समणो अब्भुट्ठिदो होदि ॥5॥
प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां, कुर्व्वन् निश्चयस्य चारित्रम् ।
तेनु तु विरागचरिते, श्रमणोऽभ्युत्थितो भवति ॥5॥
जो निश्चयचारित्रस्वरूप प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करता है वह श्रमण वीतराग-चारित्र में आरुढ होता है।
मात्र वचनमय प्रतिक्रमण, नियम या प्रत्याखान।
वचनमयी आलोचना, स्वाध्याय पहचान ॥2.27.6.422॥
वयण-मयं पडिकमणं, वयण-मयं पच्चखाण णियमं च ।
आलोयण वयणमयं, तं सव्वं जाण सज्झायं ॥6॥
वचनमयं प्रतिक्रमणं, वचनमयं प्रत्याख्यानं नियमश्च ।
आलोचनं वचनमयं, तत्सर्वं जानीहि स्वाध्यायम् ॥6॥
परन्तु वचनमय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, नियम, आलोचना ये सब तो केवल स्वाध्याय है चारित्र नही है।
यदि शक्ति संभाव्य रहे, प्रतिक्रमण कर ध्यान।
नहीं समय ना शक्ति हो, श्रद्धा श्रेष्ठ ही जान ॥2.27.7.423॥
जदि सक्कदि कादुं जे, पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं ।
सत्ति-विहीणो जा जइ, सद्दहणं चेव कायव्वं ॥7॥
यदि शक्यते कर्त्तुम्, प्रतिक्रमणादिकं कुर्याद् ध्यानमयम् ।
शक्तिविहीनो यावद्यदि, श्रद्धानं चैव कर्तव्यम् ॥7॥
यदि करने की शक्ति हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि कर। इस समय यदि शक्ति नही है तो उनकी श्रद्धा करना ही श्रेयष्कर कर्तव्य है।
सामयिक जिनेशस्तुति, छह आवश्यक जान।
काम-वंदन प्रतिक्रमण, अमोह, प्रत्याखान ॥2.27.8.424॥
सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणयं ।
पडिक्कमणं काउस्सग्गो पंचक्खाणं ॥8॥
सामायिकम् चतुर्विंशतिस्तवः वन्दनकम् ।
प्रतिक्रमणम् कार्योत्सर्गः प्रत्याख्यानम् ॥8॥
सामायिक, चतुर्विशति जिन-स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याखान – ये छह आवश्यक है।
शत्रु-मित्र तृण-कंचन में, सामायिक समभाव।
राग-द्वेष में चित्त नहीं, उचित प्रवृत्ति स्वभाव॥2.27.9.425॥
समभावो सामइयं, तणकंचन-सत्तुमित्तविसओ त्ति ।
निरभिस्संगं चित्तं, उचितयपवित्तिप्पहाणं च ॥9॥
समभावो सामायिकं, तृणकाञ्चनशत्रुमित्रविषयः इति।
निरभिष्वङ्गं चित्तं, उचितप्रवृत्तिप्रधानं च ॥9॥
तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना ही सामायिक है। अर्थात् रागद्वेषरहित, ध्यानमग्न, उचित प्रवृत्तिप्रधान चित्त को सामायिक कहते है ।
तज वचनोच्चारण सभी, वीतराग हो भाव।
ध्यान आत्मा में रहे, परम समाधि प्रभाव॥2.27.10.426॥
वयणो-च्चारण-किरियं, परिचत्ता वीयराय-भावेण।
जो झायदि अप्पाणं, परम-समाही हवे तस्स ॥10॥
वचनोच्चारणक्रियां, परित्यक्त्वा वीतरागभावेन।
यो ध्यायत्यात्मा, परमसमाधिर्भवेत् तस्य ॥10॥
जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतरागभाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसके परमसमाधि या सामायिक होती है ।
विरत सर्वसावद्य से, त्रिगुप्त जितेन्द्रिय सार।
हो हरदम ही सामयिक, केवलिशासन द्वार ॥2.27.11.427॥
विरदो सव्व-सावज्जे, तिगुत्तो पिहिदिंदिओ ।
तस्स सामइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥11॥
विरतः सर्वसावद्ये, त्रिगुप्तः पिहितेन्द्रियः।
तस्य सामायिकंस्थायि, इति केवलिशासने ॥11॥
जो आरम्भ से विरत है, त्रिगुप्तिुक्त है, इन्द्रियोें को जीत लिया है, उसके सामायिक स्थायी होती है, ऐसा केवलि शासन में कहा गया है।
स्थावर या हो जीव त्रस में, रखता है समभाव ।
सदा-सदा हो सामायिक, केवलिशासन भाव ॥2.27.12.428॥
जो समो सव्वभूदेसु, थावरेसु तसेसु वा।
तस्य सामइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥12॥
यः समः सर्वभूतेषु, स्थावरेषु त्रसेषु वा।
तस्य सामायिकं स्थायि, इति केवलिशासने ॥12॥
जो स्थावर व त्रस जीवों के प्रति समभाव रखता है उसके सामायिक स्थायी होती है, ऐसा केवलि शासन में कहा गया है।
ऋषभ आदि तीर्थंकरों, नाम ग्रहण गुणगान ।
त्रिशुद्धि ये अर्चन मनन, जिनेशस्तवन जान ॥2.27.13.429॥
उसहादि-जिणवराणं, णाम-णिरुत्तिं गुणाणुकित्तिं च ।
काऊण अच्चिदूण य, तिसुद्धि-पणामो थवो णेओ ॥13॥
ऋषभादिजिनवराणां, नामनिरुक्ति गुणानुकीर्तिं च।
कृत्वा अर्चित्वा च, त्रिशुद्धि प्रणामः स्तवो ज्ञेयः ॥13॥
ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के नामो की स्तुति तथा उनके गुणों का कीर्तन करना, गंध-पुष्प-अक्षतादि से पूजा अर्चना करना, मन वचन काया से शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना, चतुर्विशतिस्तव नामक दूसरा आवश्यक है।
काल भाव और क्षेत्र द्रव्य, निज निन्दा मन पाप।
काय वचन मन से करे, प्रतिक्रमण का जाप॥2.27.14.430॥
दव्वे खेत्ते काले, भावे य कया-वराह-सोहणयं ।
णिंदण-गरहण-जुत्तो मण-वच-कायेण पडिक्कमणं ॥14॥
द्रव्ये क्षेत्रे काले, भावे च कृतापराधशोधनकम्।
निन्दनगर्हणशयुक्तो, मनोवचःकायेन प्रतिक्रमणम् ॥14॥
निन्दा से युक्त मन वचन काया द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के दोषों की आचार्य के समक्ष आलोचनापूर्वक शुद्धि करना प्रतिक्रमण कहलाता है।
आलोचनादि कर फिर न, करने का संकल्प।
भाव प्रतिक्रमण यही, शेष द्रव्य के विकल्प ॥2.276.15.431॥
अलोचनण-णिंदण-गरहणाहिं अब्भुट्ठिओ अकरणाए।
तं भाव-पडिक्कमणं, सेसं पुण दव्वदो भणिअं ॥15॥
आलोचननिन्दनगर्हणाभिः अभ्युत्थितश्चाऽकरणाय ।
तद् भावप्रतिक्रमणं, शेषं पुनर्द्रव्यतो भणितम् ॥15॥
स्व आलोचना के द्वारा प्रतिक्रमण करने में तथा पुनः दोष न करने में उद्यत साधु के भाव-प्रतिक्रमण होता है। शेष सब तो द्रव्य-प्रतिक्रमण है।
शाब्दिक रचना छोड़, कषायादि कर त्याग।
आत्मध्यान करता वही, ले प्रतिक्रमण विराग ॥2.27.16.432॥
मोत्तूण वयण-रयणं, रागादी भाव-वारणं किच्चा।
अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ॥16॥
मुक्त्वा वचनरचनां, रागादिभाववारणं कृत्वा।
आत्मानं यो ध्यायति, तस्य तु भवतीति प्रतिक्रमणम् ॥16॥
वचन-रचना मात्र को त्याग कर जो साधु रागादि भावों को दूर कर आत्मा को ध्याता है, उसी के पारमार्थिक प्रतिक्रमण होता है।
ध्यानलीन साधु रहे, सब दोषों को मार।
ध्यान वही सर्वोच्च है, अतिचार प्रतिकार ॥2.27.17.433॥
झाण-णिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्व-दोसाणं ।
तम्हा दु झाण- मेव हि, सव्व-दिचारस्स पडिकमणं ॥17॥
ध्याननिलीनः साधुः, परित्यागंक करोतिसर्वदोषाणाम्।
तस्मात् तु ध्यानमेव हि, सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणम् ॥17॥
ध्यान मे लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है। इसलिये ध्यान ही समस्त दोषों का प्रतिक्रमण है।
जिनगुण का चिन्तन करे, उपयुक्त समय तक ध्यान ।
तन मोह का त्याग करे, कायोत्सर्ग महान ॥2.27.18.434॥
देविस्सियणियमादिसु, जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि ।
जिणगुणचिंतणजुत्तो, काउसग्गो तणुवसिग्गो॥18॥
उैवसिकनियमादिषु, यथोक्तमानेन उक्तकाले।
जिनगुणचिन्तनयुक्तः, कायोत्सर्गस्तपनुविसर्गः ॥18॥
उपयुक्त काल (27 श्वासोच्छवास ) तक जिनेन्द्र भगवान के गुणों का चिन्तन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना कायोत्सर्ग नामक आवश्यक है।
चेतन या अचेतन कृत, हो कोई उपसर्ग।
हर बाधा सहता श्रमण, जो स्थित कायोत्सर्ग ॥2.27.19.435॥
जे केइ उवसग्गा, देव-माणुस-तिरिक्खऽचेदणिया।
ते सव्वे अधिआसे, काओसग्गे ठिदो संतो ॥19॥
ये केचनोपसर्गा, देवमानुष-तिर्यगचेतनिकाः।
तान्सर्वानध्यासे, कायोत्सर्गे स्थितः सन् ॥19॥
कायोत्सर्ग में स्थित साधु देवकृत, मनुष्यकृत,तिर्थञ्चकृत तथा अचेतनकृत होने वाले समस्त उपसर्गो (आपत्तियों) को समभावपूर्वक सहन करता है।
तज कर वचन विकल्प सब, शुभो-अशुभ अंजान।
आत्मा को ध्याता रहे, अवश्य प्रत्याखान ॥2.27.20.436॥
मोत्तूण-सयल-जप्प-मणागय-सुह-मसुह-वारणं किच्चा।
अप्पाणं जो झायदि, पंचक्खाणं हवे तस्स ॥20॥
मुक्त्वा सकलजल्पम-नागतशुभाशुभनिवारणं कृत्वा।
आत्मानं यो ध्यायति, प्रत्याख्यानं भवेत् तस्य ॥20॥
समस्त वाचनिक विकल्पों को त्याग करके तथा अज्ञात शुभ-अशुभ का निवारण करके जो साधु आत्मा को ध्याता है, उसके प्रत्याख्यान नामक आवश्यक होता है।
नहीं छोड़ निज भाव को, पर-भाविक अंजान।
“मैं” ही ज्ञाता मैं दृष्टा, आत्मज्ञान का ध्यान ॥2.27.21.437॥
णिय-भावं णवि मुच्चइ, परभावं णेव गण्हए केइं।
जाणदि पस्सदि सव्वं, सोहं इदि चिंतए णाणी॥21॥
निजभावं नापि, मुञ्चति, परभावं नैव गृह्णाति कमपि।
जानाति पश्यति सर्वं, सोऽहम् इति चिन्तयेद् ज्ञानी ॥21॥
जो निज भाव को नही छोड़ता और किसी भी पर भाव को ग्रहण नही करता तथा जो सबका ज्ञाता-द्रष्टा है, वह परम तत्त्व “मैं” ही हूँ। आत्मध्यान में लीन ज्ञानी ऐसा चिंतन करता है।
मेरा जो दुश्चरित्र है, त्रिविध करता त्याग।
निर्विकल्प हो सामयिक, सबसे मिटता राग ॥2.27.22.438॥
जं किंचि मे दुच्चरितं सव्वं तिविहेण वोसरे।
सामाइयं तु तिविहं, करेमि सव्वं णिरायारं ॥22॥
यत्किंचिन्मे दुश्चरित्रं, सर्वं त्रिविधेन विसृजामि।
सामायिकं तु त्रिविधं, करोमि सर्वं निराकारम् ॥22॥
वह ऐसा भी विचार करता है कि जो कुछ भी मेरा दुश्चरित्र है, उस सबको मैं मन वचन कायपूर्वक तजता हूँ और निर्विकल्प होकर त्रिविध सामायिक करता हूँ।
प्रकरण 28 – तपसूत्र
कषायरोध ब्रह्मचर्य, जिनपूजन उपवास।
ये सब तप के भाग है, भक्तों का विश्वास ॥2.28.1.439॥
जत्थ कसायणिरोहो, बंभं जिणपूयणं अणसणं च ।
सो सव्वो चेव तवो, विससेओ मुद्धलोयंमि ॥1॥
यत्र कषायनिरोधो, ब्रह्म जिनपूजनम् अनशनं च।
तत् सर्वं चैव तपो, विशेषतः मुग्धलोके ॥1॥
जहाँ कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजन तथा उपवास आत्मलाभ के लिये किया जाता है, वह सब तप है।
आभ्यंतर व बाह्य हैं, तप के दोय प्रकार ।
दोनों के छह भाग हैं, अंतर बाह्य विचार ॥2.28.2.440॥
सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरब्भंतरो तह।
बाहिरो छव्विहो वुत्तो, एवमब्भन्तरो तवो ॥2॥
तत् तपो द्विविधं उक्तं, बाह्यमाभ्यन्तरं तथा।
बाह्यं षड्विधं उक्तं, एवमाभ्यन्तरं तपः ॥2॥
तप दो प्रकार का है। बाह्य और आभ्यंतर। बाह्य व आभ्यअंतर तप छह-छह प्रकार के है।
ऊनोदरिका व अनशन, भिक्षा, रस-परित्याग।
कायक्लेश संलीनता, बाह्य तप के भाग ॥2.28.3.441॥
अणसण-मूणोयरिया, भिक्खा-यरिय य रस-परिच्चाओ ।
काय-किलेसो संलीणया य, बज्झो तवो होइ ॥3॥
अनशनमूनादेरिकाभिक्षाचर्या च रसपरित्यागः।
कायक्लेशः संलीनता च, बाह्यं तपो भवति ॥3॥
अनशन, ऊनोदरिका, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश और संलीनता- इस तरह बाह्य तप छह प्रकार के है।
कर्मों का करना क्षय हो, त्याग करे आहार ।
यथाशक्ति दिन तय करे, अनशन तप आचार ॥2.28.4.442॥
कम्माण णिज्जरट्ठं आहारं परिहरेइ लीलाए ।
एग-दिणादि पमाणं तस्स तवं अणसणं होदि ॥4॥
कर्मणां निर्जरार्थम्, आहारं परिहरति लीलया।
एकदिनादिप्रमाणं, तस्य तपः अनशनं भवति ॥4॥
जो कर्मों की निर्जरा के लिये एक-दो दिन आदि का यथाशक्ति प्रमाण तय करके आहार का त्याग करता है, उनके अनशन तप होता है।
वही तपस्वी आगम में, ज्ञान हेतु आहार।
श्रुतविहीन तप जो करे, भूख मृत्यु बेकार ॥2.28.5.443॥
जे पयणुभत्तपाणा, सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए ।
जो अ तवो सुयहीणो, बाहिरयो सो छुहाहारो ॥5॥
ये प्रतनुभक्तपानाः, श्रुतहेतोस्ते तपस्विनः समये ।
यच्च तपः श्रुतहीनं, बाह्यः स क्षुदाधार ॥5॥
जो स्वाध्याय के लिये अल्प आहार करते है वे ही आगम में तपस्वी माने गये है। श्रुतविहीन तप तो भूखे मरने जैसा है।
अनशन तप सब है वही, अचिन्त अमंगल जान।
शिथिल नहीं हों इंद्रियाँ, बचे योग में जान ॥2.28.6.444॥
सो नाम अणसणतवो, जेण मणोऽमंगुलं न चिंतेइ ।
जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥6॥
तद् नाम अनशनतपो, येन मनोऽमङ्गलं न चिन्तयति ।
येन नेन्द्रियहानि-र्येन च योगा न हीयन्ते ॥6॥
वास्तव में वही अनशन तप है जिसमें अमंगल की चिंता न हो, इन्द्रियों की शिथिलता न हो तथा मन वचन काय रूप योगों में गिरावट न हो।
बल तेज़ श्रद्धा परखे, लेए रोग संज्ञान।
क्षेत्र काल को जान, करेें उपवास प्रतिज्ञान ॥2.28.7.445॥
बलं थामं च पेहाए, सद्धामारोग्गमप्पणो ।
खेत्तं कालं च विन्न्य, तहप्पाणं निजुंजए ॥7॥
बलं स्थाम च प्रेक्ष्य श्रद्धाम् आरोग्यम् आत्मनः ।
क्षेत्रं कालं च विज्ञाय तथा आत्मानं नियुञ्जीत ॥7॥
अपने बल, तेज, श्रद्धा तथा आरोग्य का निरीक्षण करके तथा क्षेत्र और काल को जानकर अपने को उपवास में नियुक्त करना चाहिये।
इन्द्रियों का उपशमन, कहलाता उपवास।
भोज करे जितेन्द्रिय भी, अनशन तप का वास ॥2.28.8.446॥
उवसमणो अक्खाणं उववासो वण्णिदो समासेण ।
तम्हा भुंजंता वि य जिदिंदिया होंति उववासा ॥8॥
उपशमनम् अक्षाणाम्, उपवासः वर्णितः समासेन ।
तस्मात् भुञ्जानाः अपि च, जितेन्द्रियाः भवन्ति उपवासाः॥8॥
संक्षेप में इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है। अतः जितेन्द्रिय भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते हैं।
अज्ञानी का शुद्धीकरण, व्रत करके दो चार।
ज्ञानी चाहे नित्य चखे, निर्मल अधिक विचार॥2.28.9.447॥
छट्ठ-ट्ठम-दसम-दुवालसेंहं अबहुसुयस्स जा सोही ।
तत्तो बहुतर-गुणिया, हविज्ज जिमियस्स णाणिस्स ॥9॥
षष्ठाष्टमदशमद्वादशै-रबहुश्रुतस्य या शुद्धिः।
ततो बहुतरगुणिता, भवेत् जिमितस्य ज्ञानिनः ॥9॥
अज्ञानी तपस्वी की जितनी शुद्धि दो-चार दिनों के उपवास से होती है उससे बहुत अधिक शुद्धि नित्य भोजन करने वाले ज्ञानी की होती है ।
भोजन जितना कर सके, थोड़ा कम आहार।
द्रव्यरूप ऊणोदरी, बाह्य तप आकार॥2.28.10.448॥
जो जस्स उ आहारो, तत्तो ओमं तु जो करे ।
जहन्नेणेग-सित्थाई, एवं दव्वेण ऊ भवे ॥10॥
यो यस्य त्वाहारः, ततोऽवमं तु यः कुर्यात्।
जघन्येनैकसिक्थादि, एवं द्रव्येण तु भवेत् ॥10॥
जो जितना भोजन कर सकता है उससे कम भोजन करना द्रव्यरूपेण ऊनोदरी तप है।
नियम समय आहार ले, हो भिक्षा का भाव।
विविध वृत्तिपरिसंख्य ये तप को होत प्रभाव॥2.28.11.449॥
गोयर-पमाण-दायग-भायण-माणा-विहाण जं गहणं ।
तह एसणस्स गहणं, विविहस्स य वुत्ति परिसंखा ॥11॥
गोचरप्रमाणदायक-भाजननानाविधानं यद् ग्रहणम्।
तथा एषणीयस्य ग्रहणं, विविधस्यच वृत्तिपरिसंख्या ॥11॥
सीमा तय कर भोजन ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप है।
घी दूध या हो दही, पौष्टिक भोजन त्याग ।
साधु ऐसा जो करते, व्रत से रस परित्याग ॥2.28.12.450॥
खीर-दहि-सप्पिमाई, पणीतं पाणभोयणं।
परिवज्जणं रसाणं तु, भणियं रसविज्जणं ॥12॥
क्षीरदधिसर्पिरादि, प्रणीतं पानभोजनम्।
परिवर्जनं रसानां तु, भणितं रसविवर्जनम्॥12॥
दूध दही घी आदि पौष्टिक भोजन के त्याग को रस परित्याग नाम तप कहा गया है।
स्थान चुने एकान्त सा, वर्जित नर और नार ।
शयनासन करके ग्रहण, प्रतिसंलीनता सार ॥2.28.13.451॥
एगंत-मणावाए, इत्थी-पसु-विवज्जिए ।
सयणासण-सेवणया, विवित्त-सयणासणं ॥13॥
एकान्तेऽनापाते, स्त्रीपशुविवर्जिते।
शयनासनसेवनता, विविक्तशयनासनम् ॥13॥
एकान्त तथा स्त्री-पुरुषादि से रहित स्थान में शयन व आसन ग्रहण करना विविक्त-शयनासन (प्रतिसंलीनता) नामक तप है।
वीरासनादि मांडकर सुतप तपें भयकार।
कायक्लेश तप ये कहे, आत्मा को सुखकार॥2.28.14.452॥
ठाणा वीरासणाईया, जीवस्सउ सुहावहा ।
उग्गा जहा धरिज्जन्ति, कायकिलेसं तमाहियं ॥14॥
स्थानानि वीरासनादीनि, जीवस्य तु सुखावहानि।
उग्राणि यथा धार्यन्ते, कायक्लेशः स आख्यातः ॥14॥
पहाड़ गुफा आदि भयंकर स्थानों में आत्मा के सुख के लिये विविध आसनों का अभ्यास करना काया क्लेश नामक तप है।
ज्ञान जब सुख से मिले, दुख आने से नाश।
कायक्लेश से तप करे, मिलता ज्ञान प्रकाश ॥2.28.15.453॥
सुहेण-भाविंद णाणं, दुहे जादे विणस्सादि।
तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए ॥15॥
सुखेन भावितं ज्ञानं, दुःखे जाते विनश्यति ।
तस्मात् यथाबलं योगी, आत्मानं दुःखैः भावयेत् ॥15॥
सुखपूर्वक प्राप्त ज्ञान दुख आने पर नष्ट हो जाता है। योगी को अपनी शक्ति अनुसार कायक्लेशपूर्वक आत्मचिन्तन करना चाहिये।
सुख व दुख हेतु नहीं, चिकित्सा करते रोग।
होगा सुख या दुख भले, चिकित्सा है ये योग ॥2.28.16.454॥
मोह क्षय भी इसी तरह, सुख या दुख तो नाम।
मोह क्षय भी हेतु नहीं, सुख या दुख परिणाम ॥2.28.17.455॥
ण दुक्खं ण सुखं वा वि, जहाहेतु तिगिच्छिति।
तिगिच्छिए सुजुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं ॥16॥
मोहक्खए उ जुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं।
मोहक्खए जहाहेउ, न दुक्खं न वि वा सुहं ॥17॥
न दुःखं न सुखं वाऽपि यथाहेतु चिकित्सति।
चिकित्सते सुयुक्तस्य दुःखं वा यदि वा सुखम् ॥16॥
मोहक्षये तु युक्तस्य, दुःखं वा यदि वा सुखम्।
मोहक्षये यथाहेतु, न दुःखं नाऽपि वा सुखम् ॥17॥
चिकित्सा कराने पर रोगी को दुख भी हो सकता है और सुख भी उसी तरह मोह के क्षय में सुख और दुख दोनों हो सकते हैं।
प्रायश्चित और विनय सह, वैयावृत्य स्वाध्याय।
ध्यान और व्युत्सर्ग भी, आभ्यन्तर तप थाय ॥2.28.18.456॥
पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं।
झाणं च विउस्सग्गो, अब्भंतरओ तवो एसो ॥18॥
प्रायश्चित्तं विनयः, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः ।
ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः ॥18॥
आभ्यंतर तप भी छह प्रकार के हैं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग।
शील समिति संयम व्रत, इन्द्रियनिग्रह भाव।
प्रायश्चित तप है यही, कर्तव्य सतत स्वभाव ॥2.28.19.457॥
वद-समिदि-सील-संजम-परिणामो करण-णिग्गहो भावो।
सो हवदि पायच्छित्तं, अणवरयं चेव कायव्वो ॥19॥
व्रत-समिति-शील-संयम-परिणामः करणनिग्रहो भावः।
स भवति, प्रायश्चित्तम्, अनवरतं चैव कर्तव्यः ॥19॥
व्रत, समिति, शील, संयम तथा इंद्रिय निग्रह का भाव ये सब प्रायश्चित तप हैं, जो निरन्तर कर्तव्य नित्य करणीय है।
क्रोध आदि निज भाव में, क्षय का रखते ध्यान।
निजगुण चिंतन हो जहाँ, प्रायश्चित ही जान ॥2.28.20.458॥
कोहादि-सग-ब्भाव-क्खय-पहुदि-भावणाए णिग्गहणंं।
पायच्छित्तं भणिदं, णिय-गुण-चिंता य णिच्छयदो॥20॥
क्रोधादि-स्वकीयभाव-क्षयप्रभृति-भावनायां निग्रहणम्।
प्रायश्चित्तं भणितं, निजगुणचिन्ता च निश्चयतः ॥20॥
क्रोध आदि स्वकीय भावों के क्षय की भावना रखना तथा निजगुणो का चिंतन करना निश्चय प्रायश्चित तप है।
अनन्त भव, अर्जित करम, शुभ अशुभ का नाश।
मार्ग तपस्या ही करे, प्रायश्चित तप खास ॥2.28.21.459॥
णंता-णंत-भवेण, समज्जिअ-सुह-असुह-कम्म-संदोहो।
तव-चरणेण, विणस्सदि, पायच्छित्तं तवं तम्हा ॥21॥
अनन्तानन्तभवेन, समर्जित-शुभाशुभकर्म्मसन्दोहः।
तपश्चरणेन विनश्यति, प्रायश्चित्तं तपस्तस्मात् ॥21॥
अनन्तान्त भवों में उपर्जित शुभ-अशुभ कर्मों का नाश तपस्या से होता है। अतः तपस्या करना प्रायश्चित है।
आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, व्युत्सर्ग, विवेक ।
छेद, मूल, परिहार, तप, प्रायश्चित दस नेक ॥2.28.22.460॥
आलोयण पडिकमणं, उभयविवेगो तहा विउस्सगो।
तब छेदो मूलं वि य परिहारो चेव सद्दहणा॥22॥
अलोचना प्रतिक्रमणं, उभयविवेकः तथा व्युत्सर्गः ।
तपःछेदो मूलमपि च, परिहारः चैव श्रद्धानं ॥22॥
प्रायश्चित दस प्रकार का है। स्व-आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार तथा श्रद्धान।
अनाभोगकृत कर्म रहे सार्वजनिक या काम।
दोनो की आलोचना करना गुरु के धाम ॥2.28.23.461॥
अणाभोग-किदं कम्मं, जं किं वि मणसा कदं ।
तं सव्वं आलोचेज्ज हु, अव्वाखित्तेण चेदसा ॥23॥
अनाभोगकृतं कर्म, यत्किमपि मनसा कृतम् ।
तत्सर्वमालोचयेत् खलु अव्याक्षिप्तेन चेतसा ॥23॥
दूसरों द्वारा जाने गये कर्म आभोगकृत व न जाने गये कर्म अनाभोगकृत कर्म हैं। दोनों प्रकार के कर्मों की आलोचना अपने गुरु से करनी चाहिये।
बालक अपने काम को, माँ को देत बताय।
कर स्वदोष आलोचना, साधु सम्मुख आय॥2.28.24.462॥
जह बालो जपन्तो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ।
तं तह आलोइज्जा, माया-मय-विप्पमुक्को वि ॥24॥
यथा बालो जल्पन् कार्यमकार्यं च ॠजुकं भणति।
तत् तथाऽऽलोचेन्मायामदविप्रमुक्त एव ॥24॥
जैसे बालक अपने कार्य को माता के समक्ष व्यक्त कर देता हैवैसे ही साधु के समक्ष अपने दोषों की आलोचना माया व मद त्याग कर करनी चाहिये ।
काँटा चुभने पर जहाँ, पीड़ा का हो भान।
निकले काँटा देह से, लगता सब आसान॥2.28.25.463॥
प्रकट करे नहीं दोष को, मायावी दुख भोग।
गुरु से निज आलोचना, विशुद्ध सुखी सब रोग॥2.28.26.464॥
जह कंटएण विद्धो, सव्वंगे वेयणद्दिओ होइ।
तह चेव उद्धियम्मि उ, निस्सल्लो निव्वुओ होइ ॥25॥
एवमणुद्धिय दोसो, माइल्लो तेणं दुक्खिओ होइ।
सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वुओ होइ ॥26॥
यथा कण्टकेन विद्धः, सर्वाङ्गे वेदनार्दितो भवति।
तथैव उद्धृते तु निश्शल्यो निर्वृतो भवति ॥25॥
एवमनुददृतदोषो, मायावी तेन दुःखितो भवति।
स एव त्यक्तदोषः, सुविशुद्धो निर्वृतो भवति ॥26॥
जैसे काँटा चुभने पर पीड़ा निकलने पर सुख अनुभव होता है वैसे ही स्व आलोचना साधु के समक्ष कर देने पर शुद्धि प्राप्त होती है।
स्थापित हो परिणाम में, देख आत्म समभाव।
ज्ञान यही आलोचना, जिन उपदेश प्रभाव ॥2.28.27.465॥
जो पस्सदि अप्पाणं सम-भावे संठवित्तु परिणामं ।
आलोयण-मिदि जाणह, परम-जिणंदस्स उवएसं ॥27॥
यः पश्यत्यात्मानं, समभावे संस्थाप्य परिणामम्।
आलोचनमिति जानीत, परमजिनेन्द्रस्योपदेशम् ॥27॥
जिनदेव का कहना है कि अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है।
हाथ जोड़कर हो खड़े, उच्चासन बैठाय।
गुरु भक्ति सेवा करे, तप वो विनय कहाय ॥2.28.28.466॥
अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं।
गुरु-भत्ति-भाव-सुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ॥28॥
अभ्युत्थानमञ्जलिकरणं, तथैवासनदानम्।
गुरुभक्तिभावशुश्रूषा, विनय एष व्याख्यातः ॥28॥
गुरु व वृद्ध जनों के समक्ष आने पर खड़े होना, हाथ जोड़ना व उन्हें उच्च आसन देना, भक्ति करना व सेवा करना विनय तप है।
औपचारिक ज्ञान, तप, दर्शन, चरित्र, प्रकार।
पाँच भेद हैं विनय के, ले जाते भव पार॥2.28.29.467॥
दंसण-णाणे विणओ चरित्त-तव-ओवचारिओ विणओ ।
पंचविहो खलु विणओ पंचम-गइ-णायगो भणिओ ॥29॥
दर्शनज्ञाने विनय-श्चारित्रतप-औपचारिको विनयः।
पञ्चविधः खलु विनयः पञ्चमगतिनायको भणितः ॥29॥
दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय और औपचारिकविनय- ये विनय तप के पाँच भेद है जो मोक्ष की ओर ले जाते है।
तिरस्कार हो एक का, सब पर है यह वार।
करता पूजा एक की, सब पूजे संसार ॥2.28.30.468॥
एकम्मि हीलियम्मि, हीलिया हुंति ते सव्वे।
एकम्मि पूइयम्मि, पूइया हुंति सव्वे ॥30॥
एकस्मिन् हीलिते, हीलिता भवन्ति सर्वे।
एकस्मिन् पूजिते, पूजिता भवन्ति सर्वे ॥30॥
एक के तिरस्कार में सब का तिरस्कार होता है और एक की पूजा में सब की पूजा होती है।
जिन शासन की जड विनय, संयम तप के भाव।
विनय रहित को क्या कहे, तप और धर्म अभाव ॥2.28.31.469॥
विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे।
विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो? ॥31॥
विनयः शासने मूलं, विनीतः संयतः भवेत्।
विनयात् विप्रमुक्तस्य, कुतो धर्मः कुतः तपः? ॥31॥
विनय जिनशासन का मूल है। संयम तथा तप से विनीत बनना चाहिये। जो विनय से रहित है उसका कैसा धर्म और कैसा तप?
विनय मोक्ष का द्वार वो, संयम तप और ज्ञान।
विनीत गुरु आराधना, सकल संघ सम्मान ॥2.28.32.470॥
विणओ मोक्खद्दारं, विणयादो संजमो तवो णाणं।
विणएणा-राहिज्जइ, आयरिओ सव्वसंघो य ॥32॥
विनयो मोक्षद्वारं, विनयात् संयमस्तपो ज्ञानम् ।
विनयेनाराध्यते, आचार्यः सर्वसंघश्च ॥32॥
विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम, तप, तथा ज्ञान प्राप्त होता है। विनय से आचार्य तथा सर्वसंघ की आराधना होती है।
विनय से जो विद्या मिले, फलदायिनी त्रिलोक।
विनयविहीन सफल नहीं, जल बिन धान न लोक॥2.28.33.471॥
विणयाहीया विज्जा, देति फलं इह परे य लोगम्मि ।
न फलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाइं ॥33॥
विनयाधीताः विद्याः, ददति फलम् इह परत्र च लोके ।
न फलन्ति विनयहीनाः, सस्यानीव तोयहीनानि ॥33॥
विनयपूर्वक प्राप्त की गयी विद्या इस लोक तथा परलोक में फलदायिनी होती है और विनयविहीन विद्या फलप्रद नही होती जैसे बिना जल के धान्य नही उपजता।
विनय कभी ना छोड़िये, करें प्रयत्न हज़ार।
अल्पश्रुती भी विनय से, कर्म झराए अपार ॥2.28.34.472॥
तम्हा सव्व-पयत्तेण, विणयत्तं मा कदाइ छंडिज्जो।
अप्प-सुदो वि य पुरिसो खवेदि कम्माणि विणएण ॥34॥
तस्मात् सर्वप्रयत्ने, विनीतत्वं मा कदाचित् छर्दयेत् ।
अल्पश्रुतोऽ पि च पुरुषः, क्षपयति कर्माणि विनयेन ॥34॥
इसलिये हर तरह से विनय को कभी नही छोड़ना चाहिए। अल्पश्रुत का अभ्यासी पुरुष भी विनय के द्वारा कर्मों का नाश करता है।
शय्या, वसति, आसन धरे, सेवा संत प्रतिलेख।
भोजन, औषधि, वाचना,वैयावृत्य तप देख ॥2.28.35.473॥
सेज्जा-गास-णिसेज्जा उवधीपडिलेहणा उवग्गहिदे।
आहारो-सह-वायण- विकिंचणुव्वत्तणादीसु ॥35॥
शय्यावकाशनिषद्या, तथा उपधिप्रतिलेखनाभिःउपगृहीते।
आहारौषधवाचना-विकिंचन वन्दनादिभिः ॥35॥
शय्या, वसति, आसन तथा प्रतिलेखन से उपकृत साधुजनों की आहार, औषधि, वाचना, मल-मूल विसर्जन तथा वन्दना आदि से सेवा-सुश्रुषा करना वैयावृत्य तप है।
चोर व राजा पशु नदी, थके व रोगी लोग।
सेवा और रक्षा करे, वैयावृत्य तप योग ॥2.28.36.474॥
अद्धाण-तेण-सावद-रय-णदी-रोधणा-सिवे ओमे।
वेज्जावच्चं उत्तं, संगह-सारक्खणो-वेदं ॥36॥
अध्वस्तेनश्वापद-राजनदीरोधनाशिवे अवमे ।
वैयावृत्यमुक्तं, संग्रहसंरक्षणोपेतम् ॥36॥
जो मार्ग में चलने से थक गये हैं, चोर हिंसक पशु, राजा द्वारा व्यथित, नदी की रुकावट, मरी आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से रक्षा व सार-सम्हाल करना वैयावृत्य है।
परिवर्तन पूछे पढ़े, चिंतन, कथा विचार।
मंगलपूर्वक स्तुति करे, स्वाध्याय प्रकार॥2.28.37.475॥
परियट्टणा य वायण, पडिच्छणा- णुवेहणा य धम्मकहा ।
थुदि-मंगल-संजुत्तो, पंचविहो होइ सज्झाओ ॥37॥
परिवर्तना च वाचना, पृच्छानाऽपुनप्रेक्षणा च धर्मकथा ।
स्तुतिमङ्गलसंयुक्तः, पञ्चविधो भवति स्वाध्यायः ॥37॥
स्वाध्याय तप पाँच प्रकार का है। परिवर्तना, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और स्तुति मंगलपूर्वक धर्म कथा करना।
आदर की इच्छा नहीं, भक्तिपूर्वक ज्ञान।
कर्म रूपी मल शोधन को , श्रुतलाभ सुखद जान ॥2.28.38.476॥
पूयदिसु णिरवेक्खो, जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तीए।
कम्ममल-सोहणट्ठं, सुयलाहो सुहयरो तस्स ॥38॥
पूजादिषु निरपेक्षः, जिनशास्त्रं यः पठति भक्त्या ।
कर्ममलशोधनार्थं, श्रुतलाभः सुखकरः तस्य ॥38॥
आदर सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो कर्मरूपी मल को धोने के लिये भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रों को पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ स्व-पर सुखकारी होता है।
जानता स्वाध्याय को, पंचेन्द्रिय कमान।
त्रिगुप्तिमय एकाग्रमन, साधु विनय पहचान ॥2.28.39.477॥
सज्झायं जाणंतो, पंचिंदियसंवुडो तिुगुत्तो य।
होइ य एकग्गमणो, विणएण समाहिओ साहू ॥39॥
स्वाध्यायं जानानः, पञ्चेन्द्रियसंवृतः त्रिगुप्तः च।
भवति च एकाग्रमनाः, विनयेन समाहितः साधुः ॥39॥
स्वाध्यायी पाँचों इन्द्रियों से संयत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय से समाहित तथा एकाग्रमन होता है
ध्यान-सिद्धि है ज्ञान से, कर्म-ध्यानसे कर्मनाश।
निर्जराफल मोक्ष करे, सतत ज्ञान अभ्यास ॥2.28.40.478॥।
णाणेण-झाण-सिज्झी, झाणादो सव्व-कम्म-णिज्जरणं।
णिज्जरणफलं मोक्ख, णाणब्भासं तदो कुज्जा ॥40॥
ज्ञानेन ध्यानसिद्धिः ध्यानात् सर्वकर्मनिर्जरणम् ।
निर्जरणफलं मोक्षः ज्ञानाभ्यासं ततः कुर्यात् ॥40॥
ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है। अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिये।
अन्तर्बाह्य बारह तप, तप स्वाध्याय महान।
है, ना होगा, ना हुआ, महिमा इसकी जान॥2.28.41.479॥
बारसविहम्मि वि तवे, अब्भिंतरबाहिरे कुसलदिट्ठे।
न वि अत्थि वि होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥41॥
द्वादशविधेऽपि तपसि, साभ्यन्तरबाह्ये कुशलदृष्टे।
नापि अस्त्ि नापि च भविष्यति, स्वाध्यायसमं तपः कर्म ॥41॥
बाह्याभ्यंतर बारह तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है न होगा।
शयन आसन स्थान में, कायिक ना व्यापार।
कायोत्सर्ग है तप छठा, कर ले साधु विचार ॥2.28.42.480॥
सयणासण-ठाणे वा, जे उ भिक्खू न बावरे।
कायस्य विउस्सग्गो, छट्ठो सो परिकत्तिओ ॥42॥
शयनासनस्थाने वा, यस्तु भिक्षुर्न व्याप्रियते ।
कायस्य व्युत्सर्गः, षष्ठः स परिकीर्तितः ॥42॥
भिक्षु का शयन, आसन और खड़े होने में व्यर्थ का कायिक व्यापार न करना, काष्ठवत रहना, छठा कायोत्सर्ग तप है।
कायोत्सर्ग देहमति, जड़ता करे विनाश।
अनुप्रेक्षा, एकाग्रता व सहनशक्ति विकास॥2.28.43.481॥
देहमइजड्डसुद्धी सुहदुक्खतितिक्खया णुप्पेहा।
झायइ य सुहं झाण, एगग्गो काउसग्गम्मि ॥43॥
देहमति जाड्यशं सुखदुःख तितिक्षता अनुप्रेक्षा।
ध्यायति च शुभं ध्यानम् एकाग्रः कायोत्सर्ग ॥43॥
कायोत्सर्ग के लाभ ः 1. देह की जड़ता नष्ट होती है। 2. बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है। 3. सुख दुख सहने की शक्ति का विकास होता है। 4. भावनाओं का समुचित नियंत्रण होता है। 5. चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है।
महाकुल का तप अशुद्ध, इच्छा तप सत्कार।
नहीं ख़बर ना प्रशंसा, तप का नहीं प्रचार ॥2.28.44.482॥
तेसिं तु तवो ण सुद्धो निक्खंता जे महाकुला।
जं नेवन्नो वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जइ ॥44॥
तेषामपि तपो न शुद्धं, निष्क्रान्ताः ये महाकुलाः ।
यद् नैवाऽन्येविजानन्ति, न श्लोकं प्रवेदयेत् ॥44॥
पूजा सत्कार के लिये जो तप करते है वो व्यर्थ है।तप इस तरह से करना चाहिये की दूसरे लोगों को पता न चले। अपने तप की प्रशंसा नही करनी चाहिये।
ज्ञानवायु शील प्रज्वलित, तप की लगती आग।
कर्मबीज सारे जलें, घास जले वन आग॥2.28.45.483॥
नाणमयवायसहिओ, सीलुज्जलिओ तवो मओ अग्गी ।
ंसारकरणबीयं, दहइ दवग्गी व तणरासिं ॥45॥
ज्ञानमयवातसहिंत, शीलोज्ज्वलितं तपो मतोऽग्निः ।
संसारकरणबीजं, दहति दवाग्निरिव तृणराशिम् ॥45॥
ज्ञानमयी वायु तथा शील द्वारा प्रज्वलित अग्नि कर्म बीज को वैसे ही जला डालती है, जैसे वन में लगी आग घास को।