८. अष्टावक्र महागीता
अष्टावक्र उवाच
तदा बन्धो यदा चित्तं किन्चिद् वांछति शोचति।
किंचिन् मुंचति गृण्हाति किंचिद् हृष्यति कुप्यति ॥
शोक करे इच्छा करे, करे ग्रहण या त्याग ।
दुखी बने या सुख मिले, मन बन्धन का भाग ॥8-1॥
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तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति ।
न मुंचति न गृण्हाति न हृष्यति न कुप्यति॥
मन की मुक्ति मान तभी, ना इच्छा ना शोक।
ग्रहण-त्याग करता नहीं, हर्ष-क्रोध नहीं लोक॥8-2॥
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तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं काश्वपि दृष्टिषु ।
तदा मोक्षो यदा चित्तम-सक्तं सर्वदृष्टिषु ॥
बंधन है जब मन फँसा, जो देखा हो प्यार।
आसक्ति जब हो नहीं, समझ मोक्ष का द्वार ॥8-3॥
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यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा।
मत्वेति हेलया किंचिन्-मा गृहाण विमुंच मा ॥
मैं नहीं तो मोक्ष है, मैं में बंधन जान ।
ना त्यागो न ग्रहण करो, ले लो ऐसा ज्ञान ॥8-4॥
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