९. अष्टावक्र महागीता
अष्टावक्र उवाच
क्रिताकृ ते च द्वन्द्वानि कदा शान्तानि कस्य वा।
एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद् भव त्यागपरोऽव्रती॥
करूँ ना करूँ द्वन्द बड़ा, शांति मिले ना जान।
त्याग सभी वैराग्य ले, ऐसे नियम न मान ॥9-1॥
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कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात्।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गता: ॥
व्यर्थ चेष्टा लोक की, धन्य पुरुष ही जान ।
चाहत जीवन की मिटे, भोज-भोग ना भान ॥9-2॥
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अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रयदूषितं ।
असारं निन्दितं हेयमि-ति निश्चित्य शाम्यति ॥
कुछ भी है टिकता नहीं, सब दोषों का जाल।
सारहीन, निंदा करें, शांति धर्म को पाल ॥9-3॥
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कोऽसौ कालो वय: किं वा यत्र द्वन्द्वानि नो नृणां ।
तान्युपेक्ष्य यथाप्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात् ॥
उम्र, समय वह कौन सा, नहीं संशय का नाम ।
रखे उपेक्षित भाव जो, मिले सिद्ध का धाम ॥9-4॥
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नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा।
दृष्ट्वा निर्वेदमापन्न: को न शाम्यति मानव:॥
ऋषि साधु योगी कई, मत है जहाँ अनेक ।
कैसे वैरागी न हो, शांत मनस्वी नेक ॥9-5॥
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कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरु:।
निर्वेदसमतायुक्त्या यस्तारयति संसृते: ॥
ज्ञान चित्त का हो जिसे, गुरु है ऐसा कौन ।
करे मुक्त बंधन से जो, समता युक्त है मौन ॥9-6॥
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पश्य भूतविकारांस्त्वं भूतमात्रान् यथार्थत:।
तत्क्षणाद् बन्धनिर्मुक्त: स्वरूपस्थो भविष्यसि॥
बदले मात्रा तत्व की, पैदा होत विकार।
मुक्त ज्ञान ऐसा करे, होवे बेड़ा पार॥9-7॥
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वासना एव संसार इति सर्वा विमुंच ता: ।
तत्त्यागो वासनात्यागा-तित्थितिरद्य यथा तथा॥
इच्छा ही संसार है, कर लो उसका त्याग।
सब त्यागो इच्छा तजे, स्थापित होकर जाग॥9-8॥
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