१८. अष्टावक्र महागीता
अष्टावक्र उवाच
यस्य बोधोदये तावत्-स्वप्नवद् भवति भ्रम:।
तस्मै सुखैकरूपाय नम: शान्ताय तेजसे॥
जब उदय हो ज्ञान का, यूँ सपने से जाग।
कर ले उस सुख को नमन, शांति तेज़ का राग॥18-1॥
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अर्जयित्वाखिलान् अर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान् ।
न हि सर्वपरित्याजम-न्तरेण सुखी भवेत् ॥
साधन अर्जित सब करें, भोगे जगत प्रताप ।
त्याग बिना इस भोग का, सुखी न होवे आप ॥18-2॥
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कर्तव्यदु:खमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मन: ।
कुत: प्रशमपीयूषधारा – सारमृते सुखम् ॥
कर्तव्य-दु:ख अति तेज अगन, अन्तर्मन जल जाय।
कैसे अमृत-धार मिले, कर्म त्याग सुख भाय ॥18-3॥
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भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित् परमर्थत: ।
नास्त्यभाव: स्वभावनां भावाभावविभाविनाम्॥
परमारथ कुछ भी नहीं, भाव-अभाव स्वभाव ।
स्थित पदार्थ का भी नहीं, कोई कहीं अभाव ॥18-4॥
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न दूरं न च संकोचाल्-लब्धमेवात्मन: पदं ।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम्॥
मिली हुई है आत्मा, नहीं दूर ना पास।
वास वहीं तेरा निर्मल, नहीं विकल्प प्रयास॥18-5॥
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व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रत:।
वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टय:॥
अज्ञान से पर्दा उठे, ज्ञान साक्षात्कार।
शोक रहित स्वराज करे, होते दूर विकार ॥18-6॥
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समस्तं कल्पनामात्र-मात्मा मुक्त: सनातन:।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत् ॥
सब कुछ कोरी कल्पना, मुक्त आत्मा जान।
धीर पुरुष जाने सदा, क्यूँ कर बाल समान ॥18- 7॥
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आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्काम: किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्॥
आत्मा निश्चित ब्रह्म है, मिथ्या भाव-अभाव।
फिर क्या जाने, क्या कहे, कर निष्काम स्वभाव॥18-8॥
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