१८. मोक्षसंन्यासयोग ॐ
- अष्टादशोऽध्याय: मोक्षसन्यासयोग ॐ
अर्जुन उवाच
सन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥
सन्यास का तत्व क्या, केशव कह दो ज्ञान ।
हृषिकेश है तजना क्या, लेना चाहूँ जान 18-1॥
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श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु:।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:॥
कर्म काम के त्याग को, कहते हैं सन्यास।
कर्म फल के त्याग को, ज्ञानी कहते न्यास॥18-2॥
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त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण:।
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यमिति चापरे॥
त्यागो सभी सकाम कर्म, जन कुछ कहे महान ।
यज्ञ दान तप त्यागिये, ज्ञानी जन का मान॥18-3॥
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निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविध: संप्रकीर्तित:॥
भरतश्रेष्ठ मुझसे सुनो, त्याग विषय का ज्ञान ।
त्याग तीन प्रकार के, सिंह-पुरुष तू जान ॥18-4॥
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यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥
यज्ञ दान तप कर्म का, करो कभी ना त्याग।
यज्ञ दान तप ही सदा, ज्ञानी का भी राग ॥18-5॥
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एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥
पूर्ण करो सब कर्म ये, फल इच्छा को नोच ।
पार्थ भाव कर्तव्य रहे, ऐसी मेरी सोच॥18-6॥
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नियतस्य तु संन्यास: कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामस: परिकीर्तित:॥
नियत काम को त्याग मत, ऐसा ले तू जान ।
त्याग मोहवश जो करे, तमोगुणी तू मान॥18-7॥
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दु:खमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥
करें त्याग दुख को समझ, भय काया या क्लेश ।
ऐसा त्याग रजोगुणी, त्याग लाभ ना शेष॥18-8॥
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कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चौव स त्याग: सात्त्विको मत:॥
नियत कर्म कर्तव्य समझ, अर्जुन करता काम।
फल आसक्ति त्याग कर, सतगुण का यह काम॥18-9॥
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न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय:॥
घृणा अशुभ कर्मठ नहीं, शुभ में नहीं लगाव ।
ज्ञानी त्यागी सतगुणी, संशय का नहीं भाव ॥18-10॥
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न हि देहभृता शक्यं त्यक्तु कर्माण्यशेषत:।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥
पूर्ण त्याग संभव नहीं, काम देह की चाह ।
कर्मफल का त्याग करे, त्यागी की यह राह ॥18-11॥
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अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ॥
मिश्रण निष्ट अनिष्ट या, तीन कर्म फल जान ।
संसारी छूटे नहीं, त्यागी ईश्वरवान ॥18-12॥
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पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥
कारण पाँच महाबली, मुझसे ले तू जान।
सांख्य भी माने इन्हें, कर्म सिद्धि तू मान॥18-13॥
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अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥
देह कर्ता स्थान अरु, इन्द्रिय कई प्रकार।
तरह तरह की चेष्टा, दैवीय चमत्कार॥18-14॥
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शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर:।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चौते तस्य हेतव:॥
देह वचन मन करम कर, मानव करता काम ।
उचित संग अनुचित रहे, पाँच करण का काम ॥18-15॥
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तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु य: ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति:॥
जो कर्ता खुद को कहे, कारण पाँच न मान।
बुद्धि उसकी भ्रष्ट रहे, खुद से ही अनजान॥18-16॥
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यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
बुद्धि से जो लिप्त नहीं, अहंकार नही भाव ।
मारे पर मारे नहीं, बंधन नहीं प्रभाव ॥18-17॥
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ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविध: कर्मसंग्रह:॥
ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता बने, कर्म प्रेरणा तीन।
कर्म, कर्ता इन्द्रियाँ, रहते कर्म अधीन॥18-18॥
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ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदत: ।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥
ज्ञान, कर्म कर्ता सदा, तीन तरह के भेद ।
भिन्न सगुण अनुरूप है, सुन मुझसे ये वेद ॥18-19॥
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सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
सब जीवों को एक सा, हो अविनाशी भाव।
अलग अलग पर है नहीं, वो है सत्य स्वभाव॥18-20॥
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पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ॥
भिन्न भिन्न जो जीव में, लिये भिन्नता ज्ञान।
रजोगुणी उसको समझ, जिसको ऐसा ज्ञान ॥18-21॥
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यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्॥
पूर्ण रूप जो लिप्त हो, बिना हेतु का काम।
सब कुछ समझे तुच्छ को, तमोगुणी है नाम॥18-22॥
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नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषत: कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥
राग द्वेष का त्याग करे, सदा करे जो काम ।
फल की इच्छा ना करे, सतोगुणी का काम॥18-23॥
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यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन:।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥
रहे सदा फल कामना, अहंकार का भाव।
काम करे भरपूर जो, रजोगुणी कहलाव ॥18-24॥
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अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥
हिंसा फल सोचे नहीं, करता है जो काम ।
कर्म मोहवश जो करे, तमोगुणी है नाम॥18-25॥
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मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥
अहंकार से मुक्त रहे, जोश भरा भरपूर ।
हार जीत चिंता नहीं, सतोगुणी वह शूर ॥18-26॥
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रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचि: ।
हर्षशोकान्वित: कर्ता राजस: परिकीर्तित:॥
कर्म-फलों का लोभ रखे, अशुद्ध ईर्ष्यावान ।
सुखदुख जब विचलित करे, रजग्ाुण हो बलवान॥18-27॥
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अयुक्त: प्राकृत: स्तब्ध: शठो नैष्कृतिकोऽलस: ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥
कपटी विद्रोही हठी, आलस कर अपमान ।
खिन्न मना करते विलम्ब, तमोग्ाुणी तू मान॥18-28॥
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बुद्धेर्भेदं धृतेश्चौव गुणतस्त्रिविधं शृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ॥
धैर्य, बुद्धि भी तीन गुणी, अर्जुन मुझसे जान ।
मैं कहता विस्तार से, अलग अलग गुण ज्ञान॥18-29॥
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प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी ॥
क्या करें क्या नहीं करें, भय व अभय का ज्ञान ।
समझे बंधन मोक्ष का, सतोगुणी तू जान॥18-30॥
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यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी॥
धर्म अधर्म का भेद नहीं, नहीं कर्म का ज्ञान।
बुद्धि न ये समझे कभी, रजोगुणी पहचान॥18-31॥
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अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी॥
अधर्म को ही धर्म कहे, अंधकार को ज्ञान।
बुद्धि जहाँ उल्टी चले, तमोगुणी पहचान॥18-32॥
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धृत्या यया धारयते मन:प्राणेन्द्रियक्रिया:।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृति: सा पार्थ सात्त्विकी ॥
संकल्पों का धारण कर, वश मे मन सह प्राण ।
योग निरंतर भी करे, पार्थ सात्विक बाण ॥18-33॥
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यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन ।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृति: सा पार्थ राजसी॥
धर्म काम और अर्थ में, लिप्त हुआ कौन्तेय ।
फल की आशा में बँधा, रज ही उसका ध्येय॥18-34॥
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यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृति: सा पार्थ तामसी ॥
सपना, शोक, विषाद, भय, लिप्त मोह में जान ।
दुर्बुद्धि त्यागे नहीं, उसे तामसी मान ॥18-35॥
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सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दु:खान्तं च निगच्छति॥
तीन तरह का सुख सुनो, भरत ऋषभ यह ज्ञान ।
रमता जो अभ्यास से, दुख का अंत हो जान ॥18-36॥
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यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥
पहले जो विष सा लगे, अंत हो सुधा समान।
उसे सतगुणी सुख कहो, प्रखर बुद्धि संतान ॥18-37॥
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विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥
इंद्रिय विषयक योग जो, अमृत लगे समान ।
जहर मिले परिणाम में, रजसुख उसको मान ॥18-38॥
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यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन: ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥
अंत या आरंभ रहे, मोहभरा सुख पाय।
नींद मोह आलस मिले, यही तमस कहलाय ॥18-39॥
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न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन: ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै: ॥
नहीं किसी भी लोक में, देव दिव्य आलोक ।
तीन गुणों से मुक्त रहे, कोई नहीं है लोक ॥18-40॥
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ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:॥
क्षत्रिय ब्राह्मण वैश्य या, रहे शूद्र का भाव ।
करम विभाजित ही करे, गुण की तरह स्वभाव ॥18-41॥
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शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
शांत संयम तप निर्मल, सत्य सहिष्णु स्वभाव ।
ज्ञान धर्म विज्ञान का, ब्राह्मण रखता भाव ॥18-42॥
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शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥
युद्ध वीरता दक्षता, धीरज ना डर भाव ।
दानवीर नेता बने, क्षत्रिय यही स्वभाव॥18-43॥
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कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥
गौ रक्षा खेती धंधा, वैश्य कर्म के भाव।
काम जो सेवा का करे, वो ही श्ाुद्र स्वभाव॥18-44॥
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स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥
अपने अपने करम से, सिद्धि पात नर जात।
सिद्धि मिले स्वकर्म से, सुन मुझसे यह बात॥18-45॥
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यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यचर्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
जो उद्भव सब जीव का, फैला जो हर ओर।
पूजा कर स्व कर्म की, मिले सिद्धि नर ठौर॥18-46॥
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
श्रेष्ठ स्वधर्म अपूर्ण भी, पूर्ण रहे पर काम।
करिये कर्म स्वभाव से, हो न पाप का नाम ॥18-47॥
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सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥
अर्जुन कर्म न त्यागिये, चाहे उसमें दाग।
दोष रहे हर काम में, धुँआ ढँकता आग॥18-48॥
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असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह:।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥
राग नहीं संयम सही, रहे न इच्छा नाम।
परम सिद्धि उसको मिले, सन्यासी सा काम॥18-49॥
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सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥
सिद्धि मिले तो ब्रह्म मिले, मुझसे तू यह जान ।
सार मैं तुझसे कहूँ, परम यही है ज्ञान ॥18-50॥
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बुद्ध्या विशुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
शुद्ध बुद्धि व धैर्य से, ख़ुद पर संयम होय।
शब्द, विषय का त्याग करे, रागद्वेष को खोय॥18-51॥
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विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस:।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:॥
भोज अल्प एकांत हो, वश मन वचन व काय।
ध्यान योग पर नित्य रहे, वैरागी मन पाय॥18-52॥
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अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
काम क्रोध बल दर्प नहीं, वस्तु अहं का त्याग ।
शांत रहे, मैं कुछ नहीं, मिले ब्रह्म का भाग॥18-53॥
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ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
ब्रह्म मिले आनंद मिले, ना इच्छा ना शोक।
भाव सभी पर सम रहे, मिले परम मम् लोक॥18-54॥
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भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
हो भक्ति तो जान मुझे, मेरा सत्य स्वरूप।
सत्य मेरा जो जान ले, आन मिले मम् रूप॥18-55॥
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सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय: ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
काम सभी करते रहे, रख कर मेरा ध्यान ।
मम प्रसाद मिलता रहे, धाम मिले मम् जान ॥18-56॥
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चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर: ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव ॥
चेतन मन से कर्म करो, रख कर मेरा ध्यान ।
योगबुद्धि मुझमें रखो, सदा करो मम् ध्यान॥18-57॥
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मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥
मिट जाये बाधा सभी, जब मुझमें हो ध्यान ।
अहंकार में रहे अगर, नष्ट सभी हो ज्ञान ॥18-58॥
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यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥
माने झूठे अहं को, जो डाले हथियार।
मिथ्या हो संकल्प सभी, ना कुदरत के यार॥18-59॥
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स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥
अर्जुन बँधे स्वभाव से, लड़ना तेरा काम।
किया मोहवश जो नही, फिर भी ना आराम॥18-60॥
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ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥
ईश्वर है सब जीव में, अर्जुन मन में वास।
हर जीवन में है वही, यन्त्र चलित हर श्वास ॥18-61॥
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तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
जाता जो उसकी शरण, भारत भाव समान ।
प्रभु शांति देते परम, परम बनाये स्थान॥18-62॥
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इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥
बता दिया मैंने तुझे, परम गूढ़ यह ज्ञान।
पूर्ण रूप चिंतन करो, फिर लो तुम संज्ञान॥18-63॥
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सर्वगुह्यतमं भूय: शृणु मे परमं वच:।
इष्टोऽसि मे द़ृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥
गूढ़ बात तुम पुन: सुनो, परम वचन यह मान।
तुम मेरे प्रियतम सखा, अपना हित पहचान॥18-64॥
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मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
कर चिंतन मम् भक्त बनो, नमन करो हर बार।
आना मेरे पास है, वचन करो स्वीकार ॥18-65॥
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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
सब धर्मों को त्याग के, शरण रहो मम् पास।
मै पापों से मुक्त करूँ, मुझ पर हो विश्वास॥18-66॥
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इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥
ग्ाूढ़ ज्ञान उसको कभी, जाकर नहीं बताय ।
एकनिष्ठ ना संयमी, ना भक्ति पथ जाय॥18-67॥
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य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:॥
भक्तों को अवगत करे, परम गूढ़ यह बात।
मुझ में आ कर वह मिले, परम भक्त की जात॥18-68॥
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न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: ।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि ॥
उससे ज्यादा हो नहीं, प्रियतम मेरा दास ।
न होगा जो नहीं हुआ, उससे ज्यादा ख़ास ॥18-69॥
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अध्येष्यते च य इमं धर्म्य संवादमावयो:।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति:॥
पाठ रहे संवाद के, बड़े धर्म की बात।
ज्ञान यज्ञ भक्ति मेरी, मानो मेरी बात ॥18-70॥
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श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नर: ।
सोऽपि मुक्त: शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥
भक्ति सुनें जो द्वेषरहित, वे जन ऐसा जान।
मुक्त मिले शुभ लोक में, पुनीत आत्म जन मान॥18-71॥
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कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसंमोह: प्रनष्टस्ते धनंजय ॥
पार्थ क्या तुमने सुना, चेतन मन व ध्यान।
दूर हुआ अर्जुन कहो, मोह और अज्ञान॥18-72॥
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अर्जुन उवाच
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव ॥
मोह दूर, बुद्धि मिली, आप कृपा भगवान।
द़ृढ़ हूँ मैं संशय नहीं, आज्ञा तेरी मान ॥18-73॥
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संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन:।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्॥
वासुदेव हे अर्जुन भी, आत्मा मान महान।
सुनकर अद्भुत बात यह, रोमांचित मन जान॥18-74॥
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व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम् ॥
व्यासजी की कृपा हुई, सुना गूढ़ यह ज्ञान ।
योगेश्वर श्रीकृष्ण से, सीधा उतरा ज्ञान॥18-75॥
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राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् ।
केशवार्जुनयो: पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु:॥
करता राजन याद जब, वह अद्भुत संवाद ।
गदगद होता हर्ष से, केशव अर्जुन वाद॥18-76॥
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तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:।
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुन: पुन:॥
याद रूप अद्भुत करूँ, हरि का वह आकार।
विस्मित् मैं राजन हुआ, पुलकित बारंबार॥18-77॥
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यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिधर्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
योगेश्वर श्रीकृष्ण जहाँ, वहीं धनुर्धर दास।
शक्ति विजय ऐश्वर्य वहाँ, यह मेरा विश्वास॥18-78॥
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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्याय: ॥
॥ ॐ ॐ ॐ ॥