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Nectar Of Wisdom

हाइकु-ताँका

‘हाइकु’ अब किसी प्रकार अपरिचित विधा नहीं रह गयी है। ‘हाइकु’ जापानी पद्य शैली की एक अक्षरिक छन्द प्रणाली है, जो त्रिपदी, सारगर्भित, गुणात्मक, गरिमायुक्त, विराट सत्य की सांकेतिक अभिव्यक्ति है जिसमें बिम्ब स्पष्ट हो एवं ध्वन्यात्मकता, अनाभूत्यात्मकता, लयात्मकता आदि काव्यगुणों के साथ-साथ संप्रेषणीयता पूर्ण काव्य रचना है। यह आशु कविता भी मानी जा सकती है। यह एक चरम क्षण की कविता है जिसमें काव्य के सभी गुणों की अपेक्षा की जा सकती है। हिन्दी हाइकु की पृष्ठभूमि नि:संदेह जापानी काव्य से जुड़ी है। जापानी काव्य की पृष्ठभूमि की चर्चा करें तो सर्वप्रथम चतुर्थ शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी तक की जापानी काव्य रचनाओं का प्रथम संकलन ‘मान्योशु’ में प्राप्त होता है। बाशो पूर्व की हाइकु कविताएँ ‘हाइकु’ के नाम से नहीं बल्कि ‘होक्कु’ के नाम से जानी जाती थी जो ताँका की प्रारंभिक तीन पंक्तियाँ होती हैं। इस ‘हाइकु’ विधा को काव्य विधा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान करने वाले कवि ‘मात्सुओ बाशो’ ही है। ‘हाइकु’ अब विश्व कविता बन चुकी है। इसकी लोकप्रियता दिनों दिन बढ़ती चली जा रही है। हाइकु काव्य सृजन व प्रकाशन एक आंदोलन बन चुका है।

(हाइकु की सुगंध से साभार)

– प्रदीप कुमार दाश ‘दीपक’

संपादक ‘हाइकु मंजुषा’

 

जो आप देंगे

उधार हैं मुझ पे

वापस दूँगी

 

क्षमा याचना

विनती है आपसे

क्षमा बाँटना

 

जब सुख में

याद करें मुझको

दुख हो ही क्यों

 

कमियाँ हैं सौ

अपने आप को चाहूँ

तुझे क्यूँ नही

 

ख़ामोशी भली

तुम्हारी कटुता से

आहत हूँ मैं

 

चाह है मुझे

रिश्ता निभ जायेगा

तुम जो चाहो

 

भू, जल, आग

पवन न आकाश

तू तत्व नहीं

 

मेरा अमृत

मिटा नहीं सकता

तेरे विष को

 

खोद ले मुझे

इंतज़ार करना

गाड़ूँगी तुझे

 

अज्ञानता है

व्यर्थ कुछ भी नहीं

ज्ञान को बढ़ा

 

पसंद मुझे,

बारिश में भीगना

बड़ा क्यूँ हुआ

 

अपना लिया

छू कर मन मेरा

कहाँ थी तुम

 

तू भी हैं ख़ुश

संयोग हुआ ऐसा

मैं भी हूँ ख़ुश

 

देने के लिये

जियो सारी ज़िंदगी

लेते सब हैं

 

बनो चुम्बक

मंत्रमुग्ध हो जाए

दुनिया सारी

 

अब से तुम

जियो अपनी तरह

मैं तो जी लूँगा

 

आइना हूँ मैं

ख़ुद को ही पाओगी

जब देखोगी

 

आग को देखा

उसकी तपन में

तुम को पाया

 

फूलों को देखा

नशीली महक में

तुम को पाया

 

चाँद को देखा

शीतल चाँदनी में

तुम को पाया

 

पानी में देखा

अपने चेहरे में

तुम को पाया

 

ना मैं हूँ खुदा

इंसान बन जाए

ना तू है खुदा

 

पन्ने लिखे जो

पसीने की स्याही से

वो सिकंदर

 

ख़ुदगर्ज हूँ

भला कर ना सका

बुरा भी नहीं

 

न जन्म कुछ

आँख का झपकना

ना मृत्यु कुछ

 

जी हर पल

ये आँख क्यूँ हो नम

कल हो ना हो

 

भटक नहीं

पथ कर्म अडिग

है कर्म योग

 

वार्तालाप हो

कभी भी आपस में

हाइकु में हो

 

बातों मे सार

हाइकु का प्रचार

बढ़ता प्यार

 

 

ना मेरा वक़्त

किसी का सगा नहीं

ना तेरा वक़्त

 

नशा कोई भी

तकलीफ़ करेगा

हो किसी को भी

 

जो हम में है

वो बात ना तुम में

ना मुझ में है

 

ईश्वर तू है

सबके भीतर में

हर में तू है

 

देखो नीयत

आत्मा के आइने में

हो ख़ैरियत

 

मजबूत थी

डोर कच्चे धागे की

मोहब्बत थी

 

प्रेरणा आप

मेरे आदर्श रहे

अनंत काल

 

चाँद ओझल

आशा भरी किरणें

सूर्य निकला

 

माँ का आशीष

हमेशा है हाज़िर

ना कोई फ़ीस

 

प्रात: नमन

जीवन में सुमन

खिले आपके

 

सुख-दुख में

आप सबका साथ

धूप-छाँव मे

 

आत्मा अटल

जन्म मृत्यु से परे

कभी ना मरे

 

सुख व दुख

सिक्के के दो पहलू

भाग्य अपना

 

संभाल लूँ मैं

सामने करे वार

पीठ छलनी

 

कर्मो का हल

सफल या विफल

चलते रहो

 

ना उड़े कभी

पहुँचे लक्ष्य तक

प्राण पखेरु

 

आज का प्रण

सम्मान स्नेह प्रेम

स्त्री को अर्पण

 

बुद्ध शरण

दलितों का उद्धार

भीम चरण

 

हम है हम

कैसा है ये वहम

मेरा अहम

 

पत्थर पूजे

उसमें प्राण फूंके

क्यों हो पत्थर

 

है सर्वभौम

प्रेम ज्ञान व कर्म

है मूलमंत्र

 

सूर्योदय है

देखने का भ्रम है

सूर्यास्त भी है

 

भटके सब

फिर गुरु है कौन

असमंजस

 

उच्च विचार

उत्तम हो उच्चार

शुभ आचार

 

मन ही गुरु

जलाओ ऐसी ज्योत

केवल ज्ञान

 

सक्षम जिसे

प्रकृति ले परीक्षा

ये ही जीवन

 

कोख में जानी

अपनी पहचान

माँ तू महान

 

कम कमाना

निरंतर कमाना

यश कमाना

 

बादल चीर

थोड़ा है इंतज़ार

निकले नीर

 

सुनो चीत्कार

रोये है ये धरती

मानव जाग

 

है हर वक़्त

प्रतिक्षा भविष्य की

आज भी जी लो

 

प्रेम करुणा

परम्परा हमारी

भक्ति अहिंसा

 

दूध है हम

जो आये घुल जाये

शक्कर तुम

 

अष्टांग योग

यम से समाधी का

करे प्रयोग

 

छत टपके

किसान हाथ जोड़े

बरसो प्रभु

 

आई विपदा

वर्षा आँसू का पर्दा

लो दुख छुप

 

पेट में बंदा

चेहरा भी ना देखा

माँ प्रेम अंधा

 

आँख का पानी

गिरने मत देना

आँखो से पानी

 

जो दिल में हैं

आँखो मे तू क्यूँ झाँके

जुंबा पे भी है

 

आँखो में देखूँ

डर ख़ुद डरता

डर मरता

 

जन्नत क्यों

गुनहगार सब

बता ए रब

 

ज़र्रा या इंसा

खुदा की है नेमत

ख़फ़ा हो मत

 

तन या मन

चिकित्सक नमन

स्वस्थ करते

 

सेवा कर्तव्य

डाक्टर हो या सीए

किया किजिए

 

जड़ की छोड़ो

नींव की कौन सोचे

माँ भी भुला दे

 

खुदा के बंदे

आसान है डगर

खुदा से डर

 

शक्ति है एक

चलाती है सबको

नाम अनेक

 

समय चक्र

अभिमान न कर

भाग्य का खेल

 

सूरज जैसे

कैसे बनाये रखूँ

अतिउत्साह

 

बूँदों की लय

जब बीज से मिले

अंकुर फूटे

 

आएगी आँधी

विचारों का मंथन

इंतज़ार है

 

समन्वय है

चुप्पी और आँखों में

दिल समझे

 

उत्साह सदा

उदासी यदा-कदा

ख़ुशियाँ ज़्यादा

 

क्षितिज भ्रम

नभ से घिरी धरा

बाँहों में भरा

 

काम ही काम

कमाल के कलाम

तुम्हें सलाम

 

गुरु जला दे

ज्ञान मय दीपक

अज्ञान भागे

 

गूगल गुरु

अलादीन चिराग़

हर जवाब

 

मौन का अर्थ

जानेंगे जब हम

शब्द हों व्यर्थ

 

रक्षा का वादा

कच्चा धागा जो बांधा

प्रेम बंधन

 

बप्पा मोरिया

स्वागत है आपका

लवकर या

 

बाप्पा मोर्या रे

हर घर पधारे

ख़ुशियाँ भरे

 

रचनाएँ है

चाय की चुस्कियाँ है

और क्या चाहूँ

 

ज्ञान गंगा है

अजर अमर है

अविनाशी है

 

हाँ हाँ हाँ हाँ हाँ

जैसा तुम समझो

ना ना ना ना ना

 

प्यार नहीं है

रिस-रिस के चले

ये कैसे रिश्ते

 

साल जाने दो

छोड़ो ना कभी साथ

थाम लो हाथ

 

मैं ही मैं बसा

मैं में शहर फँसा

गाँव में मैं था

 

प्रेम का रस

जब डालो सेवा में

सब सरस

 

स्वस्थ रहना

नैसर्गिक सौंदर्य

तन व मन

 

है बीती रात

जन्मी ढेर आशायें

हो सुप्रभात

 

नमन करूँ

तन मन चेतना

समर्पित हूँ

 

मन में सूर्य

हमेशा हो दर्शन

हर्षित मन

 

नया सवेरा

हो रोज नई आशा

भागे निराशा

 

ख़ुशी आसान

हो दूसरों से ज़्यादा

यह मुश्किल

 

सागर बनो

लहरें रहे अशांत

है ख़ुद शांत

 

दे प्राण सूर्य

ये सब है देवता

दे जल चंद्र

 

अंधेरा नष्ट

चुनाव है अपना

श्रेष्ठ या भ्रष्ट

 

सूरज पिता

चंदा मामा, भू माता

सह कुटुंब

 

है धन्यवाद

जो अब तक मिला

या नहीं मिला

 

हो मितभोगी

मितभाषी मितवा

मीत वो योगी

 

बुद्ध चमके

महावीर चमके

सोना भी फीका

 

मानव कर्म

है बादल भ्रमित

हुआ अहित

 

अपना राग

अपनी डफ़ली है

अपना ढोल

 

सितारा मैं भी

ईर्ष्या क्यों करनी

सितारा तू भी

 

सबकी सुनो

आप मन की करो

दिल की सुनो

 

प्रज्ञासूर्य है

प्रकाश ही प्रकाश

नये बुद्ध हैं

 

हो सब काम

आदर्श के प्रतीक

मन में राम

 

सागर जल

सारा विष पीजाये

अमृत फल

 

झरना जल

नयन लुभावन

सबका मन

 

नाली का जल

गंदगी अपना ले

सुंदर कल

 

कुएँ का जल

सब गाँव बसाये

समाज पाये

 

ताल का जल

सब प्यास बुझाये

सुधारे कल

 

नदी का जल

सतत है बहता

भाग्य बनाता

 

गंगोत्री जल

स्वच्छ और निर्मल

जीव सफल

 

ज्ञान बहता

जैसे जल की धारा

प्रेम हमारा

 

न टप-टप

कहाँ खो गये तुम

न कल-कल

 

है विलासिता

हो साप्ताहिक स्नान

पीते हैं आँसू

 

चहचहाना

मै भाषा नहीं जाना

प्यास या ख़ुशी

 

अपवित्रता

धरती पे दमन

सूर्य अगन

 

करो प्रार्थना

मिटे ग़ैर वेदना

हर सुबह

 

मैं हूँ भ्रमित

चलूँ सूर्य की चाल

या जल धार

 

माँ वसुंधरा

सदा रहेगी साथ

नतमस्तक

 

अमर नहीं

भाषा भी होती बूढ़ी

विचार वही

 

हरे का मूल्य

पतझड़ में छुपा

खोजने चला

 

रिश्ते है पानी

तारे मन का तार

शुद्ध हो प्यार

 

प्रभु सिखा दे

मुझे सबकी वाणी

दर्द तो बाँटू

 

नहीं दिखते

मछली जब रोये

जल में आँसू

 

समझूँ नहीं

पक्षी का दुख दर्द

पंख फैलाये

 

नहीं जानता

पेड़ का कराहना

फल जो टूटे

 

पिता प्रेरणा

कर्मठता का पाठ

मिलता है ठाठ

 

बीज से फल

जिया मरा व जिया

जीव सफल

 

चिड़ी या चिड़ा

चहचहाहट है

भोर मीठी है

 

अमरीकन

खोया अपनापन

सब अकेले

 

कहीं है रवि

धरती का आनन्द

कहीं है चाँद

 

है रात गई

नई किरण आस

है बात गई

 

है विडम्बना

थी विद्या की जननी

हूँ सरस्वती

 

है विडम्बना

थी वैभव की रानी

हूँ स़िर्फ लक्ष्मी

 

तुम में स्वर्ग

ना भागो, मत बनो

कस्तूरी मृग

 

हरसिंगार

रंग रूप खूशबू

सबका प्यार

 

हो असंभव

जब प्रयत्न नहीं

सब संभव

 

हो मनमानी

नेता जब अज्ञानी

जनता भोगे

 

रावण हारा

अहंकार भस्म हो

जीत राम की

 

रावण हारा

मानवता समझे

जीत राम की

 

रावण हारा

अन्याय करे नहीं

जीत राम की

 

रावण हारा

स्वार्थ समझे नही

जीत राम की

 

रावण हारा

जले चिता ईर्ष्या की

जीत राम की

 

रावण हारा

दफन घमंड हो

जीत राम की

 

रावण हारा

लोभ का नाम नही

जीत राम की

 

रावण हारा

मोह जब रहे ना

जीत राम की

 

रावण हारा

विनाश हो क्रोध का

जीत राम की

 

रावण हारा

मिटे जब वासना

जीत राम की

 

ज्ञान उड़ान

आत्मा से परमात्मा

मोक्ष की ओर

 

बहती रहूँ

मस्त हूँ मद नहीं

लक्ष्य अटल

 

ज्ञान दिवस

ये बसंत पंचमी

आओ मनाये।

 

होली आई रे

बरसे प्रेम रंग

मीठा बोलो रे।

 

है विडम्बना

बहती सीधी मीठी

मंज़िल खारी

 

मैं जग बिन्दु

है शून्य चारों ओर

अहं ब्रह्मास्मी

 

म्यान न देख

तलवार परख

ज्ञान जनक

 

विषय भोग

है विष की तरह

बंधन बड़ा

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