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Nectar Of Wisdom

कविताएँ

कविता अज्ञात की यात्रा है और वही  इसका सब कुछ है। कविता रेडियम की खदान की तरह है जिसमें एक ग्राम के लिए एक साल लगता है केवल एक शब्द के लिए हज़ारों टन शब्द खनिज फैलाना पड़ता है।

अभिमन्यु ‘अनत’ (मॉरीशस) जिस यात्रा का उल्लेख करते हैं, उसकी अंतर्यात्रा विविध पड़ावों से होकर अनुभूतियों को कविता तक पहुँचाती है। जीवन जगत की अश्रुत ध्वनियों को लपक लेती है। बनाती है मिश्रित रंगों का कोलाज। तीसरी आँख से अभिमंत्रित स्वरों को मर्म तक ले चलती है।

कविता कोश में ‘सायास’ शब्द नहीं  होता। मन की शान्त झील में विद्युत आवेशित क्षण तरंगे उठाते हैं। जल काँपता है। जल में उतरा हुआ आसमान लरजता है। कम्पन में निहित सौंदर्य कविता में साकार होता है।

(गीली माटी से साभार)

 

– इंदिरा किसलय

(लेखिका/कवयित्री)

मो. 9371023625

 

वो गुजरा ज़माना!

बहुत याद आता है, वो गुज़रा ज़माना

 

कंचे की गोलियाँ, गिल्ली को गुमाना

पतंग की डोरियाँ, काटना कटवाना

अम्मा की लोरियाँ, छत पर सो जाना

बहुत याद आता, वो गुज़रा ज़माना

 

पापा की मार, मम्मी का खाना

टीचर की थप्पड़, दोस्तों में खो जाना

स्कूल के नाम पर थियेटर चले जाना

बहुत याद आता, वो गुज़रा ज़माना

 

बहनों से झगड़ा, भाई को सताना

आमरस से रोटी, मिठाई चुराना

होम वर्क न करना, ना पढ़ना पढ़ाना

बहुत याद आता, वो गुज़रा ज़माना

 

बहुत याद आता है, वो गुज़रा ज़माना

 

कौन कहता?

कौन कहता

फ़र्क़्र नहीं पड़ता!

खो गई गलियाँ बचपन की

कंचो की और

गेंद रबड़ की

वो गंदी नालियाँ

यारों की गालियाँ

कभी पतंग की डोर

कभी पुलिस चोर

ना फ्यूचर की चिंता

ना लगता कभी बोर

कौन कहता

फ़र्क़्र नहीं पड़ता !

 

पढ़ने में मन नहीं लगना

हर पल हो खेलना

मम्मी की डाँट

और पापा की मार

और उसमें छुपा

ढेर सारा प्यार

माँ का पीछे-पीछे भागना

पास होने की नहीं संभावना

भाई बहन को सताना

बीत गया वो ज़माना

कौन कहता

फ़र्क़्र नही पड़ता !

 

आने लगी समझ थोड़ी

नहीं पढ़े तो समस्या बड़ी

मिलेगी नही नौकरी

चढ़ ना पायेंगे घोड़ी

छोड़े खेल, की पढ़ाई

कभी छत पर कभी रज़ाई

छूटा बचपन राते काली

ना होली ना दीवाली

कभी दोस्तों के घर

होती चाय की प्याली

कौन कहता

फ़र्क़्र नही पड़ता !

 

छूटे दोस्त छूटी पढ़ाई

कालेज भी छूटा

नौकरी पाई

नया काम नये साथी

काम लगे जैसे हाथी

खाता बही क़्रलम दवात

आंकड़ो की बात

केसियो का साथ

घर वाले कहे

थाम ले हाथ

कौन कहता

फ़र्क़्र नही पड़ता !

 

जानेमन मिली

ज़िंदगी चली

बेटा मिला

बेटी मिली

स्कूटर पर चार

सिनेमा घर से प्यार

कभी हल्दीराम

कभी सब्ज़ी की दुकान

कभी पत्नी से झिक झिक

कभी बच्चों की पिकनिक

यादें रह गई

मस्ती छूट गई

कौन कहता

फ़र्क़्र नही पड़ता !

 

अंतिम लक्ष्य !

मन

कभी बूढ़ा क्यों नही होता

तमन्नायें

खामोश क्यों नही होती

तेल ख़त्म होने को है

तन-दीपक का

फिर भी इच्छायें

क्यों नही मरती

ढूँढता हूँ जवाब

इन सवालों का

बुद्धि हार जाती है

मन के आगे

मानो

ग़ुब्बारे सा हो गया हूँ

एक तरफ़ दबाता हूँ

दूसरी तरफ़

फूल जाता हूँ

कब अंत होगा

अनगिनत इच्छाओं का

शायद

चिता ही

अंतिम लक्ष्य हो।

 

आत्म चिंतन

ना पद चाहूँ

ना पदक

ना चाहूँ

मान सम्मान।

ना सुख में कोई

सुख मिले,

ना दुख में

पीड़ा भान।

राग किसी से

रखूँ नहीं,

द्वेष का

न हो नाम।

चित्र पटल

चलता रहे,

हो अंतर्मन

में ध्यान।

हो विलय

मैं की महिमा,

मिले आत्म

अमृत ज्ञान॥

 

मेरी कीमत

मैं वो

हीरा हूँ

जिसे अक्सर

पत्थर समझ के

ठुकरा देते हैं लोग,

जब खाते है

ठोकरें ज़माने की

मेरी क़्रीमत

समझते हैं लोग।

 

गालों की लाली

घटाएँ ये काली

होंठ मधु की प्याली

मदहोश कर देते है

तन को

मन को

सारे जीवन को।

 

 

कहाँ खो गई !

कहाँ खो गईं तुम

जन्म दिया

कार्तिकेय और

गणेश को

मार दिया

महिषासुर को

शक्ति की

प्रतीक तुम

हे दुर्गा

इस युग में

कहाँ खो गई तुम।

 

पद्मा कमला

या चंचला

अनेक नामों से

जाना तुझे

पूजा करता

हर कोई …

रावण ने भी

माना तुझे

तेरे बिना

निर्धन सभी

हर कोई चाहे

पाना तुझे

विष्णु की

पत्नी बनी

हे लक्ष्मी

इस युग में

कहाँ खो गई तुम।

 

सब वेदों की

जननी तुम

कला संगीत को

धारण किया

ज्ञान गंगा

तुमसे निकली

ब्रह्मा जी का

वरण किया

हे सरस्वती

इस युग में

कहाँ खो गई तुम।

 

विजयालक्ष्मी पंडित हो

या हो

सावित्री फुले

किट्टुर हो या

कमला देवी

सुचेता कृपलानी

कैसे भूलें

मत भूलो

अपनी गरिमा

चाहे यह युग बदले

क़्रलम उठाकर

जता दिया है

तुमसे न कोई है पहले

दबने मत दो

अपने मान को

तुम हो नही

अबला नारी

हे जगत जननी

इस युग में

कहाँ खो गई तुम।

 

 

जिंदगी दौड़ रही…

क्यूँ लगता है मुझे

कि ज़िंदगी दौड़ रही हैं

कल ही की तो बात है

एक नन्हा सा अंश

हमारी ख़ुशियाँ बनकर

प्राची की गोद में आया

कैलेंडर कहता है

भ्रम में मत रह

पाँच साल हो गये

क्यूँ लगता है मुझे

कि ज़िंदगी दौड़ रही हैं।

 

बच्चों का विवाह

एक बड़ी ज़िम्मेदारी

सालों की योजना

वर्षों की उमंग

उमड़ता उत्साह

परिवार के संग

और उसके बाद

पंछी उड़ गये

हर दिन इंतज़ार

तरसता प्यार

आठ साल गुज़र गये

क्यूँ लगता है मुझे

कि ज़िंदगी दौड़ रही हैं।

 

पापा का प्यार

जैसे वृक्ष की छाया

ज़िद में आकर

मुझे सी.ए. बनाया

त्यागा हर सुख

हमारे सुख के लिये

बस यही संतोष

अंत समय में

कुछ वर्ष साथ

गुज़ार पाये

समाज के काम में

जीवन लगाये

चल दिये छोड़ कर

मोक्ष की ओर

क्यूँ लगता है मुझे

कि ज़िंदगी दौड़ रही है।

 

कुछ पढ़ नहीं पाई

पर समझ

हर बात की

कोई दुख

हिला न पाया

जितना था

जैसा भी था

काम चलाया

ग़लत बात

न की

न करने दी

न कभी अनुमोदन किया

न लोभ

न लालच

न द्वेष

न ईर्ष्या

मेरी बाईजी (माँ)

बड़ी अनोखी

हम सबको

चलना सिखाया

आज लाठी का

सहारा

क्यूँ लगता है मुझे

कि ज़िंदगी दौड़ रही है।

 

सब कुछ छोड़

मेरे घर आई

और सबको

अपना बनाया

ज़िम्मेदारी को

ख़ूब निभाया

जाने कहा

खो गई हँसी

मैं कुछ खास

हँसा न पाया

क्यूँ लगता है मुझे

कि ज़िंदगी दौड़ रही है।

 

आपाधापी

भाग-दौड़ में

गुज़र गई

जाने जिंदगी कहाँ

फिसल गई

दाँत थे तो

चनें नहीं

अब चनें है तो

दाँत नहीं

क्यूँ लगता है मुझे

कि ज़िंदगी दौड़ रही है।

 

 

 

कभी-कभी

थक जाता हूँ कभी कभी

सबको मनाते-मनाते

समझ नहीं पाता क्या दूँ और

समय, साधन तन या मन

कुछ भी तो नहीं रखता

किसी से छुपा के।

थक जाता हूँ कभी कभी

नाटक करते-करते।

अहंकार मेरा मित्र नहीं

लेकिन छोड़ नहीं पाता

अपना स्वाभिमान,

चाहता हूँ सब ख़ुश रहे,

लेकिन समझ नहीं पाता

कैसे दूँ सबको आनंद तमाम ।

थक जाता हूँ कभी कभी

नाटक करते-करते।

कई मर्तबा लगता ऐसे

नहीं चाहिये मुझे कोई

जी लूँ तन्हाइयों मे

और सुकून से मर पाऊँ …

दौलत शोहरत की अहमियत क्या

जब रिश्ते बेमानी हो जाये।

थक जाता हूँ कभी कभी

नाटक करते करते।

 

 

हम एक !

फ़ितरत है

दिल की

जुड़ना

और

टूट के बिखर जाना

और

फिर से जुड़ जाना

आदत है ख़्यालों की

सुख-दुख देना

आना

और चले जान।

लेकिन

जब जुड़ जाय

रूह से रूह

रह नही जाती

अहमियत

दिल दिमाग़ की

सोच विचार की

और हो जाते हैं

हम एक।

 

 

 

तुम

ख्वाबों में तुम

ख़यालों में तुम

मेरे हर

सवालों में तुम ।

 

आँखों में तुम

बाहों में तुम

मेरी हर

साँसों में तुम ।

 

बातों में तुम

रातों में तुम

मेरी हर

कविता में तुम ।

 

पास हो

चाहे दूर रहो

मेरे हर एक

कण-कण में तुम ।

 

 

कहाँ गई ?

कहाँ गई मेरी मम्मी

आज सुबह

जब खुली

मेरी आँख

बिस्तर ख़ाली था

तुम नहीं थी पास ।

मुझे विश्वास था

तुम किचन में

मेरे लिए टिफ़िन

बना रही होगी

कुछ ख़ास ।

 

एक कोने में

पापा बैठे थे उदास

मुझे लगा शायद

आज दुकान का है अवकाश ।

मैंने सोचा जल्दी

हो जाओ तैयार

नहीं तो स्कूल में

पड़ेगी बहुत मार ।

घर में सन्नाटा

कुछ लगा मुझे अजीब

चलो ढूँढते हैं

मम्मी को कहीं क़्ररीब ।

सब जगह ढूँढा

नहीं मिली कहीं

दादी को पूछा

कहाँ है मेरी माँ

हमेशा चहचहाने वाली

दादी की आँखों में

तैर रहा था पानी

मुझे याद आ गई

उदास मेरी नानी

मैं सोच में पड़ गई

ऐसी सिचुएशन में

कहाँ गई मेरी मम्मी ।

 

जब कहीं ना दिखी मम्मी

तो याद आई बड़ी मम्मी

पर उनकी भी चुप्पी

और भीगी आँखे

बता ना पाई

कहाँ गई मेरी मम्मी ।

 

भागी भागी गई

बड़े पापा के पास

सवाल बस वही था

कहाँ गई मेरी मम्मी ।

उदास चेहेरे से

निकली भारी आवाज़

बेटा मत ढूँढों मम्मी को

कुछ दिनों के लिए

वो गई हैं ईश्वर के पास ।

 

कुछ समझी

कुछ ना समझी

मन में बस एक ही सवाल

जब हैं सब आसपास

कहाँ खो गई मेरी मम्मी

जो मेरी सबसे

ज़्यादा है ख़ास ।

 

सर झुका के

आँखे बन्द करके

हाथ जोड़ के

ऊपर वाले से

एक ही है दरख्वास्त

आप का काम हो जाय तो

जल्द से जल्द

मेरी माँ को वापस

भेज दो मेरे पास ।

 

 

एक मलाल !

मैं समझ ना सका और

तुम समझा नहीं पाई ।

 

तुम्हारी पसंद

तुम्हारी नापसंद,

मैं समझ ना सका और

तुम समझा नहीं पाई ।

 

तुम्हें कैसे प्यार करुँ

तुम्हें कैसे चाहूँ,

मैं समझ ना सका और

तुम समझा नहीं पाई ।

 

तुम्हारी भावनाएँ

मैं कब आहत करता हूँ,

मैं समझ ना सका और

तुम समझा नहीं पाई ।

 

तुम्हारी ख़ामोशी,

तुम्हारी मूक आवाज़,

मैं समझ ना सका और

तुम समझा नहीं पाई ।

 

तुम्हारी आँखों में

पिघलते आँसू,

मैं समझ ना सका और

तुम समझा नहीं पाई ।

 

तुम्हारी ख़्वाहिशें

तुम्हारे सपनें,

मैं समझ ना सका और

तुम समझा नहीं पाई ।

 

जब समझ आया

तो देर हो गई,

ना पसंद रही

ना नापसंद

ना ख़्वाहिशें

ना सपने

ना आँसू

ना शब्द

बस एक मला़़ल़

और ज़िंदगी

गुज़र गई ।

 

 

 

मैं प्रकृति !

नदी ने समंदर से कहा

मैं इठलाई

बलखाई

मदमस्त लहराई

जिस रुप में भी आई

हर वक़्त हर घड़ी

बाँहें फैलाए

स्वागत में

खड़ा है तू ।

 

प्रकृति ने पुरुष से कहा

मैं सकुचाई

शरमाई

हर घड़ी की

तेरी अगुवाई

फिर मैंने

ये सज़ा क्यूँ पाई

हर वक़्त हर घड़ी

मुझे मारने पे

तुला है तू ।

 

धरती ने सूरज से कहा

मैं गरमाई

कभी घबराई

कभी लावा बनके

आँख दिखाई

चाहे कैसी भी हो

सूरत लेके आई

अपनी आँख तरेर

मुझे सबक सिखाते

खड़ा है तू

 

प्रकृति ने पुरुष से कहा

खाना दिया

पानी दिया

सोना दिया

चाँदी दिया

जो माँगा

जो चाहा दिया

फिर मैंने

ये सज़ा क्यूँ पाई

हर वक़्त हर घड़ी

मुझे रौंदने पे

तुला है तू ।

 

मुश्किल है !

सीख ना पाया

मैं

आँखो को पढ़ना

कठिन है

मेरे लिये

मौन को

समझना

मुश्किल है

इन इशारों को

बूझना

इस दिल की

बातों पर

नहीं है

भरोसा

पर

मुश्किल है

इस दिल को

समझाना

 

कुछ रिश्ते !

हर गाँव

का नाम

होता है

हर गली की

पहचान

होती है

लेकिन

कुछ रिश्ते

ऐसे है

जिनका

कोई नाम

नहीं होता।

 

कुछ जन्म

से होते हैं

और कुछ को

समाज जोड़

देता है

लेकिन

कुछ रिश्तों की

डोर नहीं होती।

 

कुछ रिश्तों में

वात्सल्य बसता है

कुछ में स्नेह

और कुछ

में प्यार

पर कुछ

रिश्तों का

आधार ही नहीं

 

कुछ रिश्तों

में हँसी

बसती है

ओर कुछ में

दर्द

पर कुछ

में मौन

उम्र भर।

 

ना जाने

कौन सा

रिश्ता

तुझसे जोडूँ

समझ मेरी

बौनी हो जाती

तुझ तक

पहुँच कर।

 

चंचल मन की !

नहीं बनना मुझे मोती

धागा ही रहने दो,

बिखरे हुए मोतियों को

माला में पिरोने दो।

 

नहीं बनना मुझे क़्रलम

स्याही ही रहने दो,

बिखरी हुई भावनाओं को

शब्दों में संजोने दो।

 

नहीं बनना मुझे फूल

ख़ुशबू ही रहने दो,

टूटे हुए सपनों को

फिर से महकने दो।

 

नहीं बनना मुझे आँखें,

आँसू ही रहने दो,

चंचल मन की भावुकता में

अविरल बह जाने दो।

 

 

कभी ना छूटे

नहीं चाहिये मुझे

एवरेस्ट की

ऊँचाईयाँ,

जहाँ

न ज़िंदगी है

ना जीवन।

नहीं चाहिये

वो सूनापन

जहाँ

न बंदगी है

ना मानव मन।

नहीं चाहिये

वो वीरानियाँ

जहाँ

न चिड़िया है

ना उपवन।

नहीं चाहिये

वो दूरियाँ

न तुम हो

ना तुम्हारा

अपनापन।

रहने दो

मेरे पाँव

ज़मीं पर

हाथों में रहने दो

अपना हाथ

संग चलती रहो

इस जीवन में

कभी ना

छूटे

तुम्हारा साथ।

 

सोचो !

सब कुछ है व्याप्त

उसी से होगा प्राप्त

उसे ही समझो पर्याप्त

नहीं तो हो जाएगा समाप्त।

 

मुझे यह बता !

कोई उधार दे तो

वापस चुका दूँ

कोई उपकार करे तो

उपकार कर दूँ

कोई सुख दे तो

ख़ुशियाँ बाँट दूँ

कोई प्यार दे तो

मै प्यार दे दूँ

लेकिन मेरे रब

मुझे यह बता

जो मेरी जिंदगी में

आशीर्वाद बन कर आये तो

इज़्ज़त के सिवा

क्या दूँ …!

 

मंजुर नहीं !

किसी की निगाहों में चढ़ ना पाऊँ

इसका मुझे गिला नहीं,

किसी की आँखो से गिर जाऊँ

यह मुझे मंज़ूर नहीं।

 

इंतज़ार

खिड़की पर

नज़र टिकाये

करते थे इंतज़ार

डाकिये का

शायद उनका

पैग़ाम ले आये,

अब ऑनलाइन

रहना पड़ता है

वाट्सएप पर

कहीं बिना पोस्ट किये

चले न जाय।

 

संभालो !

अनमोल बनने की चाहत नहीं

ख़्वाहिश बस इतनी सी है

कि कोई मुझे अपना

ख़ास बना ले।

हम अनमोल तो नहीं

पर आँख से गिरे आँसू की तरह

ख़ास ज़रूर हैं

संभालो नहीं तो

गिर कर बिखर जायेंगे।

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