Nectar Of Wisdom

सृजन बिंब के शैशवकाल से ही अपनी सृजन यात्रा को हमारे साथ जोड़ते हुये मानवीय संवेदनाओं से गहरे तक जुड़े हुए आदरणीय हेमंत लोढ़ा जी भगवत गीता – रूप कविता व अष्टावक्र महागीता के दोहा रूपांतरण के साथ ही साहित्यिक समूहों  ‘‘हाइकु-ताँका प्रवाह’’ और ‘‘छंद-बद्घ : लय बद्घ’’ के माध्यम से बखूबी अभिव्यक्त होते आये हैं।

उनकी इतनी सारी कोमल कही-अनकही अभिव्यक्तियों को एक स्थान पर लाने का प्रयास ही उनका अगला सृजन पड़ाव है जिनमें उनकी कविताओं, हाइकु, ताँका व दोहों की जुगलबंदी है।

सतत धर्म के सार तत्वों को सरल दोहों में प्रस्तुत करने के प्रयासों के बीच हेमंत जी की ये कही-अनकही सृजन बिंब के माध्यम से आप तक पहुँच रही है।

आशा और विश्वास है कि उनकी इस कृति को भी आपका यथोचित स्नेह मिलेगा…

– अविनाश बागड़े

– रीमा दीवान चड्ढा

 

 

हाशिये पर…

श्री हेमंत लोढ़ा सुलझे हुए परिपक्व इंसान होने के साथ-साथ अनुभवी व्यवसायी और कविता के मर्म को समझने वाले प्रब्ाुद्ध कवि हैं। इसके पूर्व भी इनकी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत पुस्तक में इन्होंने  दोहे के चमत्कार दिखाए हैं। दरअसल दोहा एक ऐसी काव्य विधा है जो  लुप्त होने की कगार पर है । सृजन बिंब के सहयोग से हेमंत लोढ़ा जैसे कवि इस विधा को जीवित रखे हुए हैं । नागपुर क्षेत्र में दोहे पर बहुत कार्य हो रहा है… दोहा संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं और इसमें सृजन बिंब प्रकाशन के हमारे अनुज अविनाश बागड़े और श्रीमती रीमा चड्ढा का विशेष योगदान है।

दोहे को लुप्त होती विधा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि काव्य की कई विधाएं धीरे-धीरे इस तरह हमसे दूर हो गई हैं कि हममें से कइयों को आज उनके नाम और स्वरूप का भी ज्ञान नहीं है। एक समय था जब दोहा अपनी लोकप्रियता की चरम सीमा पर था पर धीरे-धीरे इसकी उपयोगिता कम होती चली गई। मंचों पर दोहों को वह स्थान  नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। काफी पहले से पत्र-पत्रिकाओं तथा संचार के अन्य माध्यमों में दोहे ने अपनी उपस्थिति खोनी शुरू कर दी है और भविष्य में यह निश्चित रूप से  गायब हो जायेगा यदि हेमंत लोढा जैसे कवि तथा सृजन बिंब जैसे प्रकाशन संस्थान  इसके समर्थन में खड़े नहीं होंगे। दोहा  मानवता की भाषा बोलता है। मानव जीवन तथा समाज के हर अंग से संबंधित कोई भी बात ऐसी नहीं है जिसे लोढ़ा जी ने अपने दोहों में स्थान न दिया हो। इसके साथ ही लोढ़ा जी ने ग़ज़लनुमा दोहे लिखकर एक चकित करने वाला अनूठा प्रयोग किया जिसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे हैं।

साथ ही जापानी विधा हाइकु-ताँका पर हेमंत जी की सशक्त पकड़ दिखाई देती है। अपनी कविताओं में अपने मन के भाव सहज रूप से हेमंत जी ने अभिव्यक्त किये हैं। एक ही पुस्तक में दोहे, हाइकु-ताँका व कविताओं का सुंदर संगम हमें कही-अनकही में देखने मिलेगा।

मुझे विश्वास है कि लोढ़ा जी की यह पुस्तक निश्चित ही साहित्य जगत में बहुत पसंद की जाएगी।

मैं उन्हें शुभकामनाएँ देता हूँ और साथ ही बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ सृजन बिंब के अविनाश और रीमा को जिन्होंने इतनी अच्छी पुस्तक प्रकाशित कर साहित्य प्रेमियों को उपकृत किया है।

– डॉ सागर खादीवाला

वरिष्ठ साहित्यकार

मोबा. 9422848484

 

मंतव्य

अगर मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो अहसास होता है कि मन कविमय शुरु से ही रहा। हमारे ज़माने मे प्रेम पत्र लिखने का चलन था और मैने प्रभा को सगाई होने के बाद जब भी पत्र लिखा, कुछ छोटी कविताएँ मन के उद्गार के रुप मे हमेशा लिखता था। आज भी उसने वो प्रेम पत्र संभाल के रखे हैं। हिंदी मीडियम मे पढ़ाई होने के कारण व राजस्थान से जुड़े होने से हिंदी भाषा से हमेशा नाता रहा है।

५-६ वर्ष पूर्व एक हाइकु पुस्तक के विमोचन में जाने का अवसर मिला और मेरी भी रुचि हाइकु लिखने में जागृत हुई। फिर अविनाश जी से मुलाक़्रात हुई और हमने हाइकु व छंदबद्ध व्हाट्सएप ग्रुप शुरु किया तो दोहे लिखने की कला भी आ गई। श्रीमद्भगवदगीता, अष्टावक्र महागीता व समणसुत्तं का रुपांतरण दोहों में करते हुए कभी-कभी हाइकु, कविता व दोहे भी लिख लेता हूँ।

दोहों में विदुषी सुधा राठौर जी ने संशोधन करने में मनोयोग से जो कार्य किया है उन्हें धन्यवाद करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है।

कही-अनकही उन्हीं सब कविताओं, हाइकु व दोहों का संग्रह है। आशा है आप लोगों को पसंद आएगा।

– हेमंत लोढ़ा

 

जीवन संगिनी

प्रभा लोढ़ा

को

सम्मानार्थ समर्पित…

 

‘‘गागर में सागर’’ भरने का उदाहरण देना हो तो जानकार लोग ‘दोहे’ का नाम लेते है। कमाल का मात्रिक छंद है ये। तेरह-ग्यारह, तेरह-ग्यारह मात्राओं वाला यह छंद अपनी दो पंक्तियों में जीवन-दर्शन उंडेल देता है। छान्दस रचना होने के कारण पढ़ने और सुनने वाले को सहज रूप से याद भी रह जाती है। आज अगर कबीर, तुलसी और रहीम के दोहे स्मृति-पटल पर अंकित हैं, तो इसका यही एक कारण है कि वे न केवल सहज-सरल हैं, वरन उनमें हमारे मर्म को छूने की ताकत भी है। शताब्दियाँ बीत गई, कितने राजे-महाराजे मर-खप गए, लेकिन सच्चे कवियों ने जो दोहे-चौपाइयाँ रचीं, वे हमारे जीवन के मन्त्र बन गए। आज भी जब हम परेशानियों में होते हैं या किसी को समझाने की कोशिश करते हैं तो हमारे पास चंद दोहे होते हैं, जो बड़े सटीक बैठते हैं।

दोहा शक्तिशाली छंद है। यह कालजयी हो सकता हैं। बशर्ते वैसी साधना भी हो। मेरा मानना है कि कबीर, तुलसी और रहीम जैसे कवि एक बार ही पैदा होते है, लेकिन हम उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। बेशक यह हो सकता है, कि हम उनके स्तर तक पहुँच ही न पायें मगर उस दिशा में साधना तो की ही जा सकती है। यही बड़ी बात है।

(अविनाश दोहावली से साभार)

– गिरीश पंकज

संपादक ‘सद्भावना दर्पण’

 

पहला  क़्रदम  बढ़ाइये, चलना  मील  हज़ार    ।

रुको  कभी ना राह  में, जय – जय  बारंबार   ॥1॥

 

असली  नेता  है  वही,  ले  जो गलती मान   ।

और  सफलता  के  लिए, दे सबको सम्मान    ॥2॥

 

नहीं  रखा तुमने अगर,  लालच से मन  दूर    ।

अवसर  जायेंगे  सदा,   चिड़िया  जैसे  फूर    ॥3॥

 

पाना है तुमको अगर,  प्यार व यश सम्मान    ।

दोनों   हाथ   लुटाइये,  प्रेम  सहज  ये दान   ॥4॥

 

वादों  से  होता   नहीं,   कर्मों   का  संचार   ।

अगर सफलता चाहिये, कर लो काम  हज़ार     ॥5॥

 

क्या भविष्य के गर्भ में,  छिपा न जाने कोय   ।

रखिये तीर संभाल के,  कभी  ज़रूरत  होय    ॥6॥

 

जो तरकश में बाण हो,  साहस का हो  भान    ।

मिट जातीं सब मुश्किलें,  हो अगर  रामबाण    ॥7॥

 

कौन रोक दु:ख को सके, किसकी रहे कमान    ।

सहना हम जो सीख  लें,  जीवन हो  आसान   ॥8॥

 

सम्मानित होते नहीं, आप  ज्ञान  गुण जान ।

व्यवहारिकता  ज्ञान  की,  दिलवाती  सम्मान   ॥9॥

 

मन  में जो विश्वास  हो, रहे  खुदा भी  साथ    ।

घाटी का फिर क्या कहें,  चढ़ना  अपने  हाथ   ॥10॥

 

अंधकार  से  जो  हमें, हाथ  पकड़ ले  जाय   ।

चाहे  जीव  अजीव  हो,  वही  गुरु कहलाय ॥11।

 

निम्बोड़ी  सा  धैर्य  है, कड़वा  इक अहसास    ।

साध्य इसे जो कर सके, जीवन घुले मिठास ॥12॥

 

निंदा  करनी  हो   अगर,   सोचें   बारम्बार   ।

करें  प्रशंसा  वक़्त  पर, मत  कतराना  यार   ॥13॥

 

कहाँ  गई  बुद्धि  तेरी, कहाँ  खो  गया  ज्ञान   ।

मोह  वस्तुओं  का  करे, हरे  जीव  के  प्राण  ॥14॥

 

दुखी समझ मुझको सभी, हमदर्दी  दिखलाय    ।

मगर ख्ाुशी उनके कभी,  गले उतर  ना पाय ॥15॥

 

पड़े – पड़े   लगने  लगे,  लोहे  में  भी  जंग  ।

अगर योग भी ना किया,  लकड़ी होगी  संग    ॥16॥

 

गुस्सा  कभी  न कीजिए,  होगा ख़ाक तमाम ।

कारण से  घातक  रहे, सदा  क्रोध  परिणाम   ॥17॥

 

मिथ्या  फैली  इस   तरह,  जैसे  मायाजाल   ।

चेहरों पर चेहरे चढ़े,  सच  का  पड़ा  अकाल   ॥18॥

 

जब भी देखू  पेड़  को,   मन  माने  आभार    ।

वृक्षारोपण  जो   करूँ,   उतरेगा   ये   भार   ॥19॥

 

पता  उसी  से  पूछिए,  जो  मंज़िल हो आय   ।

अज्ञानी को  पूछ  के,  मोक्ष कभी  ना  पाय   ॥20॥

 

लगे धरा को प्यास जब,  नभ अमृत बरसाय    ।

तकलीफों  के  नाम  पे, तू  क्यों  आड़े आय   ॥21॥

 

हमको तुम पर  नाज़ है, सेना  वीर – जवान    ।

भले साथ  तन से  नहीं,  मन से है  सम्मान  ॥22॥

 

मन वचन और कर्म में, न्याय सत्य का वास    ।

बढ़े साख और मित्रता,  सकल जैन विश्वास     ॥23॥

 

चाहत सुख-आनंद  की, रखिए सरल स्वभाव     ।

सादा जीवन  जो  जिये,  देते  हैं  सब  भाव   ॥24॥

 

रंग, रूप औ धैर्य  की, अलग – अलग पहचान   ।

अनेकता   में     एकता,   ऐसा   हिंदुस्तान  ॥25॥

 

माफ़ी की महिमा  बड़ी,  रहे  गलतियाँ  बाद   ।

जो तोड़ा  विश्वास  तो,  माफ़ी  रहे  न  याद  ॥26॥

 

पूजन  पाहन का किया, जगत  हुआ  पाषाण   ।

कंकर  से जो प्रीत की,  संकट  में  हो  प्राण   ॥27॥

 

हर पल अमृत मान के,  करिए  शब्द  प्रयोग   ।

मौन  से  बेहतर  तभी,  शब्दों  का  उपयोग   ॥28॥

 

पढ़ना  हमको  इस तरह,  जीना अनंत काल    ।

जीना  भी  ऐसे  हमें, पल में  मृत्यु  अकाल   ॥29॥

 

अगर  सफलता  चाहिए,  छोड़  बहाने   यार   ।

कर्म और आलस्य में,  कभी न  होगा  प्यार   ॥30॥

 

विजय-रथी  बढ़ता रहे,  युद्घ  कर  रहे आप   ।

लड़ना  अपने  आप से, दुश्मन  भी  हैं  आप   ॥31।

 

अगर  सफलता  चाहिए, करिए सतत प्रयास    ।

चींटी  सा चलते  रहें, कभी  न  छोड़े   आस   ॥32॥

 

जो  सेवन  तुलसी  करे,  तन  पाए  आराम   ।

शुद्ध सुधा तुलसी  बने,  मन  धारे  श्री  राम    ॥33॥

 

कड़वे अनुभव ही मिलें,  फिसले अगर जुबान ।

सीमाओं  में  शब्द  हों,   बनी  रहे  मुस्कान  ॥34॥

 

अर्थ  मिले  जब मौन  को, पाए शब्द विराम   ।

लोक वासना से निकल, मन भाये  श्री  राम    ॥35॥

 

अज्ञानी  के शब्द से,  हुआ  सत्य  का  नाश   ।

ऐसे  वचनों  पर  कभी,  करें  नहीं  विश्वास   ॥36॥

 

माखन  दिखे  न  दूध  में, बूदन बीच छुपाय    ।

ऐसे ही हरि नाम भी,  कण-कण रहत समाय    ॥37॥

 

कथा  सफलता  की  सदा,  देती  है  उपदेश   ।

असफलता भी  काम की,  इसमें भी  सन्देश   ॥38॥

 

शब्दों की महिमा बड़ी,  सुर-लय  से  संगीत    ।

सुर  बिगड़े  जो  आपके,  डूबी  सबकी  प्रीत   ॥39॥

 

ज्ञानी  की  संगत  रहे, मिले  सदा  ही सीख   ।

जो संगत हो मूढ़ की, भीख मिले  ना  सीख    ॥40॥

 

मिल जाये पारस तुझे,  पल में कनक बनाय    ।

सतग्ाुरु ऐसा खोजिए,  पारस  तू  बन  जाय ॥41

 

खुली जगत में आँख जो, मिला कोष अनमोल ।

रहो  समर्पित  कर्म  में,  बजे नाम के  ढोल   ॥42॥

 

कहती देह  पुकार के, समय  मुझे  दो  आज   ।

जब  आयेंगे  रोग   तो,   आऊँ  तेरे   काज  ॥43॥

 

हीरा  उसे  न  बेचिए,  जो  ना समझे  मोल   ।

छोड़ो उनका साथ जो,  बुद्धि सके  ना  तोल    ॥44॥

 

एक  झूठ से  आपके,  लगे सत्य  पर  प्रश्न    ।

साथ  न  छोड़ें  सत्य का, जीवन  होगा जश्न  ॥45॥

 

तज  मत अपने काज को, जारी  रहे  प्रयास   ।

चलें निरन्तर जो अगर, रहे विजय की आस     ॥46॥

 

चले सत्य के मार्ग जो,  सतगुरु वो बन जाय ।

जो सतगुरु के साथ है,  भव  से वो तर जाय     ॥47॥

 

रहे  चपल  जो  सोच में, रखते  चित्त  सचेत  ।

वाणी पर अंकुश रखे,  तो  फल  भगवन देत   ॥48॥

 

दो और दो पाँच बने,  मिलकर कर  लें काम   ।

आपस  में  झगड़े  अगर, लग  जायेंगे  दाम   ॥49॥

 

खुशियों के  कारण  कई, नई नहीं यह बात ।

बिन  कारण हम खुश रहें, उत्तम मानव जात     ॥50॥

 

सोच  नियंत्रण  में  रखें, व्यक्ति  बने  विशेष  ।

बुद्धि बिना लगाम रहे, बचे न कुछ भी  शेष  ॥51॥

 

बदलेंगे  कल  मानिए,    भाषा  देश  समाज  ।

दूरद़ृष्टि  रखकर  सदा,   कर्म  करेंगे  आज   ॥52॥

 

मालिक वही  भविष्य का, सपने  बुने हज़ार ।

रहे  इरादे  ठोस   तो,   जय  हो   बारम्बार  ॥53॥

 

खुशियाँ  घर  में भर गए, आँगन आप पधार ।

ॠद्घि-सिद्घि  द्वारे   खड़ी,  आदर  पालनहार ॥54॥

 

क्षमा  वीरस्य  भूषणम,  क्षमा  वीर की शान     ।

पर्यूषण  के  पर्व  पे,   करिये  क्षमा  निधान  ॥55॥

 

अन्तरमन  को  जो सुने, बढ़े क़्रदम के साथ    ।

नतमस्त  सद्बुद्धि हो,  लगे  सफलता  हाथ    ॥56॥

 

तन  मन  बुद्धि से  बँधे, रिश्ते  बने  अनेक   ।

परम  आत्मा  से  जुड़े,  बिरला  कोई   एक     ॥57॥

 

भेद  नहीं  है  प्राण  में,  जीवों  में दिखलाय   ।

काट  किसी  की देह को, कैसे तू सुख  पाय    ॥58॥

 

रामानंद  मिले  जिसे,   वो कबिरा  हो जाय   ।

तब  अविनाशी  रुप  ही,  दोहा  बने  सुहाय   ॥59॥

 

खुली खिड़कियाँ बुद्धि की,  जो  रखते श्रीमान ।

नई  निराली  सोच  को,  रस्ता  दे  भगवान   ॥60॥

 

आज  कहे  मिथ्या  वचन, करें  हमें मजबूर ।

बने  पिरामिड  झूठ के,   अपने  भागें  दूर     ॥61॥

 

पथ को रौशन कर सके, गुरु ज्ञान की ज्योत ।

पर मंजिल की प्राप्ति को, खुद ही चलना होत ॥62॥

 

मन की  पहुँच असीम है,  शक्तिवान है ज्ञान   ।

कायनात  को  खींच ले, सपनों  में  हो जान   ॥63॥

 

जो  तेरे  अधिकार  में,  दाता  कर  दे  दान  ।

तेरी  हद  से  है परे, विधि  का  सदा विधान  ॥64॥

 

नहीं  प्रगति  हासिल  हमें, राहें  जो  आसान   ।

करती हैं कठिनाइयाँ,  हर  विकास  गतिमान   ॥65॥

 

सूरज जो  सम्मान दे, लौ  को  अपना  मान   ।

हो विभोर  मन  भाव सब, जीवन हो वरदान    ॥66॥

 

तन  से  पत्थर हो  भले,  कहलाता भगवान    ।

मन  से  जो  पत्थर बने, फिर भी वो  इंसान   ॥67॥

 

रहना  हो  आनंद से,  मन को  समझो तात   ।

अंतर्मन  को जान लो,  शांति  मिले  पर्याप्त   ॥68॥

 

मानवता  एकात्म  की, मुखर  होय हर हाल    ।

अंत्योदय  से  ही  बढ़े,   कहते    दीनदयाल  ॥69॥

 

तरल रहूँ जल की तरह,  अपना  लूँ हर पात्र    ।

तज्ाूँ धर्म  अपना  नहीं, रहूँ मैं  मानव  मात्र    ॥70॥

 

निज  क्षमता  सन्देह  से,  बढ़े  भावना हीन   ।

सपन  सदा  साकार  हो, रहें काम में  लीन    ॥71॥

 

पाना  जो  सम्मान  हो, पहल  कीजिये आप   ।

दोगे   अपना   प्यार  तो,   फैलेगा  परताप   ॥72॥

 

घ्ाुन  जैसे  खा  जाएँगे, मोह  माया  व  द्वेष    ।

प्रेम  दवाई  दो  मिला, कुछ  न  रहेगा  शेष   ॥73॥

 

दुश्मन सम्मुख नत रहें,  अवसर किया  प्रदान  ।

दुश्मन के बिन है नहीं,  कभी  जीत की शान   ॥74॥

 

दु:ख  पहाड़  लगने  लगे, पर्वत  लगे  तनाव   ।

जल  तल  पर  रखिए उसे,  तैरे  जैसे  नाव   ॥75॥

 

कृषक रोज  मरते रहें,  अनशन करें  जवान    ।

बापू   तेरे   देश   में,   नेता   अब   हैवान ॥76॥

 

भूख प्यास सब भूल कर, कठिन चढ़ाई  पार ।

प्राणों की चिंता  नहीं,  फिर  भी  है  तैय्यार   ॥77॥

 

राज़  सफलता का यही,  अभी करो शुरुआत ।

पग  आगे  बढ़ते  रहें, दिन  देखो  ना  रात   ॥78॥

 

जो  अपनाना  हो नया, त्याग भूत को  आज     ।

पतझड़  के  आग़ोश में, सावन  का  आग़ाज़   ॥79॥

 

मिट   जाती   है  दूरियाँ,  इंसानों  के  बीच  ।

शब्द  ज़रूरी  हैं  नहीं,  मुस्कानों  को  सींच   ॥80॥

 

बिना  रुके  चलता रहे,  बिना  अहं  आवाज़   ।

सूरज से कुछ  सीख  ले,  उम्दा  जीवन-राज़   ॥81॥

 

समय तभी आराम का, समय नहीं जब पास    ।

मिलता तन-मन बुद्धि को, अपना-अपना ग्रास     ॥82॥

 

रचनात्मक  ही  कर्म में, मन और बुद्धि होय     ।

ऐसे यज्ञों का फलित,  सचमुच अद्भुत  होय  ॥83॥

 

अगर प्यास हो ज्ञान की, मिले ज्ञान चहुँ ओर   ।

कविता हो या  हो  कथा, लेखन  करे विभोर    ॥84॥

 

दो   बातें   अपनाइये,  दोनों   बड़ी   महान  ।

कारज़  अपने  जानिये, छिड़को सब पे  जान   ॥85॥

 

दो   बातें   अपनाइये,  दोनों   बड़ी   महान  ।

बुरा कभी  ना  देखना,  दो न बुरे पे  कान  ॥86॥

 

दो   बातें   अपनाइये,  दोनों   बड़ी   महान  ।

फल  की  आशा छोड़ के, करे  कर्म   इंसान   ॥87॥

 

दो  बातें   अपनाइये,   दोनों   बड़ी   महान  ।

माफ़ी  दे  दो  भूल को, निर्धन  को दो दान ॥88॥

 

दो  बातें   अपनाइयें,   दोनों   बड़ी   महान  ।

मात-पिता  को  मान  दो,  बच्चों को दो ज्ञान  ॥89॥

 

दो   बातें   अपनाइये,   दोनों   बड़ी  महान  ।

गुरु समझ हर जीव में, कण-कण में भगवान ॥90॥

 

दो   बातें   अपनाइये,   दोनों   बड़ी  महान  ।

निर्बल  को  सहयोग दो, बल को दो सम्मान    ॥91॥

 

किसने समझा भाग्य का, जटिल हिसाब-किताब  ।

लगे  रहो  सत्कर्म  में,   देना  ‘उसे’  जवाब ॥92॥

 

लेकर छाया  भाग्य की, मूरख-मति कहलाय     ।

अच्छे  कर्मों  से  सदा, भाग्यवान  बन  जाय  ॥93॥

 

गम  की करें नुमाइशें,  होता  सदा  मज़ाक    ।

कुछ  को  आता है मज़ा, बाकी समझे खाक    ॥94॥

 

दुखी नहीं दु:ख कर सके, सुख का भी ना भान  ।

ऐसे  जातक को नरक, लगता स्वर्ग  समान    ॥95॥

 

ना जादा ना कम  कहीं, सबके पास  समान    ।

करे  समय  उपयोग जो, बनता वही  महान    ॥96॥

 

ना ना करके  काम में,  मत डालो  व्यवधान   ।

मुख पर  ताले  डाल लो, होता  कर्म  प्रधान   ॥97॥

 

मन जब भी मन्दिर बने, भटके कहीं न और    ।

अन्तर्मन में  झाँक  ले,  ईश्वर  का  है  ठौर  ॥98॥

 

चिंतन  कर के सोच ले, सब कुछ अपने हाथ    ।

कर्म आपके  आज के,  कल  को होंगे  साथ   ॥99॥

 

विडम्बना  कैसी   हुई,  माँग  रहे   विश्वास   ।

वार मुझे  जीवन  दिया,  तुम हो मेरी  आस   ॥100॥

 

मैं  ही  अर्जुन – केशवा,  कौरव-पाण्डु   जान     ।

गीता,  महाभारत  हूँ,  मुझे कर्म फल  मान    ॥101॥

 

भीतर  ही  शैतान   है,  भीतर  है   भगवान  ।

मगर  प्रेम  जिससे करें, वो ही रखता ध्यान    ॥102॥

 

वस्तु-मोह व्यक्तित्व का, बस  अपना आकार    ।

जो देखू बिन राग के, सब कुछ  बिन आकार    ॥103॥

 

शब्द-शब्द  जब तौल के,  बाहर निकलें  तात   ।

जनता समझे  लोक में,  ज्ञानी  उसकी जात   ॥104॥

 

खुशियाँ जीवन  में  भरे, दीपों  का  त्योहार ।

हो  आपस  में प्रेम  भी, दुख का  हो  संहार   ॥105॥

 

गीत छंद कविता, ग़ज़ल, बन जब मिलते मीत  ।

अद्भुत यह  संगम सदा,  ज्ञान और संगीत  ॥106॥

 

उठे नहीं पहला  क़्रदम,  लगे  असंभव  काम   ।

शुरू करें  अंताक्षरी, लेकर  प्रभु का  नाम   ॥107॥

 

पत्थर  मारा  पेड़  को,  देता  फल   टपकाय  ।

जो समझे  इस बात को,  बुद्ध वही बन पाय     ॥108॥

 

बिन चरित्र के  योग्यता, प्राण  विहीन  शरीर   ।

साथी  उत्तम  है  वही,  जहाँ  सत्य  है  पीर  ॥109॥

 

सुख-दुख  तो  आते रहें, समझें एक  समान    ।

ऐसे  ही  मन  में  रहें, खुशियाँ  सीना  तान     ॥110॥

 

अमर  नहीं  कोई  हुआ, आती  जीवन शाम    ।

काम  करे  निष्काम तो,  सदा  रहेगा  नाम   ॥111॥

 

सुख की ज्योत जलाइये, हो खुशियाँ चहुँ ओर ।

सच्ची  सेवा  है  यही,  नाचे  मन  का  मोर  ॥112॥

 

भय से कुछ हासिल  नहीं, हो आशा-विश्वास    ।

अगर  सफलता चाहिए,  रख  उम्मीदें  पास    ॥113॥

 

जब सह, ईश व अनु मिले, हो सहिष्णु निर्माण ।

बाहर से हम  हैं अलग,  भीतर एक ही प्राण    ॥114॥

 

ज्ञान  बढ़े  ना  बोल से, भूल  बोल का ज्ञान     ।

वो  जन  ही पंडित बने, खुले रखे  जो  कान     ॥115॥

 

रखे काम से काम जो,   उसके सब हों काम    ।

नहीं काम की कामना,  काम रहित हो काम    ॥116॥

 

कलयुग के इस दौर में,  कौन  है  बुद्धिमान     ।

ज्ञानार्जन  जो कर रहें, खोले  आँख व  कान   ॥117॥

 

वर्ण  वर्ग  जाति  धरम,  हो  कैसा  भी  भेद  ।

प्रेम  बसे  मन  में  यदि,  नहीं  रहेगा  ख़ेद   ॥118॥

 

चोट  लिखो जो रेत पे, जल्दी से  मिट  जाय   ।

पत्थर पे लिख दो अगर, कभी न मिटने पाय    ॥119॥

 

‘अच्छा’  जब सम्भव लगे,  रोको नहीं प्रयास  ।

चाहे फल हो ठीक भी,  ‘उत्तम’  की हो आस  ॥120॥

 

ज्ञान उतरता शास्त्र  में,  शास्त्र  पुस्तक रुप    ।

किंडल अब पुस्तक हुई,  ये भी ज्ञान  स्वरूप    ॥121॥

 

उम्मीदें  दुनिया  करे, जब  तुम  से  श्रीमान   ।

खुद को आभारी समझ,   जग से  पाया मान     ॥122॥

 

जगत  भरोसा  ना  करे, ना खुद पे विश्वास ।

जगत विजय जो चाहिए,  रखो आत्मविश्वास    ॥123॥

 

हाथ  मेरे  आयु  नहीं,  निर्णय  ले  भगवान   ।

उत्तम  मानव  बन  सकूँ, बना  रहे  सम्मान  ॥124॥

 

शब्द  निरर्थक  हों अगर, करें न ज्ञानी  व्यर्थ   ।

मितव्ययता हो शब्द में,  बनता  वही   समर्थ  ॥125॥

 

जहाँ  जीतना लक्ष्य  है,  करते  रहते  काम    ।

कर्म अगर वश  में नहीं, उनका काम तमाम    ॥126॥

 

आप  कदाचित  हों सही,  सही आपकी  बात   ।

इसका मतलब यह नहीं, ग़लत और की बात    ॥127॥

 

नहीं  ज़रूरी  नाम हो, करने से  कुछ  काम    ।

काम  ज़रूरी  है  मगर,  तभी  बनेगा  नाम   ॥128॥

 

सपन मान कर लक्ष्य को, क़्रदम उठे उस ओर   ।

मंज़िल  होगी  आपकी,  करिए  कर्म  कठोर   ॥129॥

 

चारदिवारी   में  सदा,  रखो  धर्म  को  कैद   ।

हिन्दू-मुस्लिम  सिक्ख  का, रहे न बाहर भेद    ॥130॥

 

होती    झूठे  मीत  की,  परछाई   आभास    ।

साथी  तब तक ही रहें, जब तक पड़े प्रकाश     ॥131॥

 

ख़ुशी मिले  उस काम में,  जग ना माने हार ।

अगर सफलता मिल गई, चमत्कार  के  पार    ॥132॥

 

तम को करती दूर ज्यों, नन्हीं सी इक ज्योत   ।

भय रहता त्यों दूर ही,  ज्ञान  संग  जो  होत   ॥133॥

 

सद्गुण जल से लीजिये, जिसका ना आकार ।

पात्र   कैसा  भी   मिले,  अपना ले  संसार   ॥134॥

 

मन मिला हर  जीव को, मिले  ढेर से  भाव   ।

पर  मुद्रा  इंसान की, जग  पर  करे  प्रभाव   ॥135॥

 

भाषा  है हर जीव की, लिपि मानव का ज्ञान    ।

पशु मानव में  फर्क  यह,  इसने दी  पहचान   ॥136॥

 

भाषा  है हर जीव की, लिपि मनुज का ज्ञान    ।

मुख-मुद्रा  इंसान  की, जग  में  दे  पहचान   ॥137॥

 

प्रतिक्रिया सब ही करें, करें  अकारण  काज     ।

कर्म  करे  निष्काम जो, समझे  वो ही  राज   ॥138॥

 

पत्ता   रहता   पेड़   पे,   देता   ठंडी  छाँव  ।

क़्रदमों  में  जब वो  गिरे, नहीं अहं का भाव    ॥139॥

 

कब कैसे औ क्यूँ कहाँ, कौन  करे क्या काम    ।

जो  सोचे  हर  बात को, उसका  होगा  नाम   ॥140॥

 

मुश्किल  है  करना खड़ी, एक सफल मीनार    ।

जब  तक  गारे में नहीं, असफलता  के  हार   ॥141।

 

ना  छोटा  ना  है  बड़ा,  तेरा  कहीं   मकान  ।

तेरे  मन   की   कल्पना,  तेरा  झूठा ज्ञान    ॥142॥

 

कड़वे  शब्दों  का  करें, उसी समय  उपयोग    ।

जब भी  मीठे  शब्द का,  धीमा  पड़े  प्रयोग   ॥143॥

 

असर करे  शुभकामना,  दे अमृत  का काम ।

व्याप्त कहीं विष हो अगर, करता काम तमाम   ॥144॥

 

चिल्लाओगे  क्रोध  में,  समझेंगे  यह   लोग   ।

नहीं  नियंत्रण  सोच पे, है इसको  यह  रोग    ॥145॥

 

रखना  सच्चे  मित्र  का, एक  अनोखा  राग   ।

निभे  तभी  यह  मित्रता, करें अहं का त्याग   ॥146॥

 

तिमिर  बड़ा  घनघोर है, तल हो या आकाश    ।

गुरु अविनाशी जब  मिलें, फैले जगत प्रकाश ॥147॥

 

चलने  के  पहले  हमें, मंज़िल  का  हो ज्ञान     ।

लक्ष्यहीन  हो  सोच तो, होय  कर्म  अपमान    ॥148॥

 

दोनों आँखे बंद कर,  कर लो शिव का ध्यान   ।

तीजी जब खुल जायगी, होय आत्म का ज्ञान  ॥149॥

 

सुन्दर  वह  मुस्कान  है, आए  जब  हो हार      ।

मुस्काता  मुख  देख कर, हार  मानती  हार     ॥150॥

 

सुंदर  या  बदशक्ल हो, ख़ुशबू हो  या  बास      ।

नाद शंख, भौंके  कहीं,  फर्क पड़े  ना ख़ास       ॥151॥

 

माँ, बहना, पत्नी,  सखा,  चाहें सब सम्मान   ।

प्रेम  उन्हें  सादर  करें,  तभी   बढ़ेगा  मान       ॥152॥

 

वशीभूत मन-बुद्धि के, कहना  उसका  मान  ।

इंद्रिय वश जो मन रहे,  सुनना  मत श्रीमान   ॥153॥

 

जो  मितभाषी  मितव्ययी,  बन जाते हैं मीत ।

मितभोगी जब है बने, समझो  जग पर जीत  ॥154॥

 

अपना  दूजा  कौन  है,  भान  नहीं हो  पाय       ।

मिले परम आनन्द तब, अन्तर जब मिट जाय ॥155॥

 

चींटी  हो  या शेर हो, सब  में  मीत  समाय       ।

मिले परम आनन्द तब, अन्तर जब मिट जाय  ॥156॥

 

राजा  हो या  रंक  हो, सभी गले लग जाय        ।

मिले परम आनन्द तब, अन्तर जब मिट जाय ॥157॥

 

रात  रहे  या  दिन  रहे,  चन्दा-सूरज  भाय      ।

मिले परम आनन्द तब, अन्तर जब मिट जाय  ॥158॥

 

मीठा तीखा सम लगे, स्वाद  एक  ही  आय     ।

मिले परम आनन्द तब, अन्तर जब मिट जाय ॥159॥

 

राग-द्वेष  बचते  नहीं,  मन समग्र  हो  जाय  ।

मिले परम आनन्द तब, अन्तर जब मिट जाय  ॥160॥

 

सुख-दुख क्या समझूँ नहीं,  दोनों एक उपाय ।

मिले परम आनन्द तब, अन्तर जब मिट जाय ॥161॥

 

लोग  कहे  मैं  जानता,  मैं  ना  जानूँ आप        ।

हम  सब  भ्रम में ही रहे,  मिथ्या  वार्तालाप     ॥162॥

 

उचित दिशा आशा उचित, जगमग मन के दीप            ।

अपना आज न खोइये,  आस ख़ुशी की सीप   ॥163॥

 

त्यागो मत उत्साह को,  मिले  कभी जो हार   ।

ना हीं  उछलो  जोश में, ताली  मिले  हज़ार     ॥164॥

 

लक्ष्य  कभी  भटके  नहीं, धर्म  न छोड़े साथ   ।

नर में नहीं विवेक  जिस, नियति  छोड़े  हाथ  ॥165॥

 

राग द्वेष  का  हो हवन,  पनपे दिल में प्यार   ।

रंग  संग  खुशियाँ  मिले,  होली का त्यौहार     ॥166॥

 

फड़के  सारी  इन्द्रियाँ,   तेरा  हुआ  ख़याल      ।

मिलो मुझे हर जन्म में, बिछड़ो किसी न काल  ॥167॥

 

मन  छूने  का  है  करे,  होती  जब तू पास   ।

आलिंगन में  लूँ  तुझे, रह  ना  जाए  आस   ॥168॥

 

खुशबू  तेरी  पास  में,  महके  फूल  गुलाब        ।

चढ़े नशा इस ज़हन ज्यों,  मादक  तरल शराब  ॥169॥

 

पाने  को  तेरी  झलक,  अँखियाँ  देखे  बाट     ।

तुम जब  आओ सामने, दूजे मन  को  काट    ॥170॥

 

आहट  तेरी  कान  में,   लगती  है  झंकार         ।

शब्द  निकलते  होंठ से, मन को मिले क़्ररार   ॥171॥

 

चित्रों की ताक़्रत  बड़ी,  कह दे  शब्द  हज़ार     ।

शब्द  जाल  बुनते  बड़े, कहते  चित्र  विचार    ॥172॥

 

वादा  करता मैं यही,  फ़िकर न करना यार      ।

जब तक  मेरी  साँस है,  होगा  मेरा  प्यार        ॥173॥

 

तुम से हैं  रिश्ते कई, तुम हो  अनुपम  यार      ।

जब  चाहे भाई  बनो,  कभी पुत्र  का  प्यार       ॥174॥

 

सफ़र-ज़िंदगी में मिले, तुम हो अद्भुत  यार       ।

सच्चे मन  इंसान  हो, बना  रहे  यह  प्यार       ॥175॥

 

देखा  सपना साथ  ही,  शुरू  किया  व्यापार    ।

चलते-चलते  बन  गये,  सुख-दुख  भागीदार   ॥176॥

 

फल की  चिंता हो नहीं,  कभी कर्म ना भाय   ।

ज्ञान  कर्म  में लीन हो,  महावीर  बन जाय   ॥177॥

 

लालच ईर्ष्या से बचे,  सीमित  हो यदि  आय  ।

दान  पुण्य  करता रहे,  महावीर  बन  जाय    ॥178॥

 

स्त्री का जो आदर करे,  संयम गुण अपनाय   ।

इन्द्रियां  वश में  रखे,  महावीर  बन   जाय    ॥179॥

 

चोरी  का  सोचे  नहीं, अस्तेय  को  अपनाय   ।

लोभ  पराये  का नहीं,  महावीर  बन  जाय     ॥180॥

 

चले  सत्य  के  मार्ग पे, त्यागे सभी  कसाय    ।

मिथ्या  ना  बोले  कभी, महावीर  बन  जाय    ॥181॥

 

हार-जीत,  सुख-दुख रहे, लाभो-हानि समान ।

भाव रहित जो युद्ध लड़े, मिले पुण्य का मान   ॥182॥

 

चले  अहिंसा मार्ग पे, कभी  न  जीव सताय   ।

प्रेम  करे  हर  जीव को, महावीर  बन जाय    ॥183॥

 

बने  चित्र  सत-रंग से,  सात  सुरों  से  गीत  ।

ढाई  अक्षर  प्रेम  के,   जीवन  का  संगीत     ॥184॥

 

लक्ष्मी,  दुर्गा,  शारदा, जो हो मन में  ध्यान    ।

समय भले ही हो कठिन, मन से हम बलवान ॥185॥

 

हुई  उपेक्षा  हर  समय, रही  अपेक्षा  साथ    ।

संयम-मूरत  भी तुम ही, बना रहे  यह साथ  ॥186॥

 

सुख-दुख  तो आते  रहे, दिया  हमेशा  साथ    ।

कल का है किसको पता, रहे  आपका  साथ    ॥187॥

 

लो  मैं आज नहीं रहा,   सुन  मेरी  आवाज़      ।

इस कविता में हैं लिखे,  सफल जीव के राज   ॥188॥

 

जाने  क्या  कुछ सोच कर, दिया आपने हाथ  ।

स़िर्फ  तमन्ना अब  यही,  रहे  आपका साथ   ॥189॥

 

उत्तम  वाणी  के  लिये,  सोच उच्चतम  होय   ।

भाग्य  उत्तम  चाहिये, बीज तो   उत्तम  बोय  ॥190॥

 

फल  मीठा  है  सब्र का, मन करता ये जाप      ।

वश में कर ले सोच को, धीरज मिलता  आप  ॥191॥

 

साथी  ऐसे  ढूँढ  लो,  जिसे  कर्म  से  प्यार       ।

धरा हिले  या  आसमां, माने  कभी  न  हार      ॥192॥

 

करो  नहीं  आलोचना, और  न  हो  आरोप       ।

असफलता को फल समझ, व्यक्ति पर मत थोप    ॥193॥

 

निश्चय में  द़ृढ़ता रखे,  करते  सतत  प्रयास   ।

पथ को वो त्यागे नहीं, लक्ष्य न जब तक पास  ॥194॥

 

विनिमय करो विचार का, रोको वाद – विवाद  ।

हर हल  चर्चा से  मिले,  तर्क  बिगाड़े  स्वाद    ॥195॥

 

मत सोचो मैं मर गया, सब के दिल में आज   ।

मुझे मिले संस्कार  जो, बन  जाओ  हमराज  ॥196॥

 

जो वश में रह ना सके,  ऐसी  जीभ  कटार  ।

बुद्धिमान संयम करे,  करे  न  बढ़कर  वार  ॥197॥

 

पागल  और  फ़क़्रीर  ये, दोनों  एक  समान  ।

साधक  बुद्धि  से  परे,   मूढ़  न  बुझे ज्ञान ॥198॥

 

मन अपना सागर सरिस, लहरों  सा  आवेश   ।

करम  करोगे  मूढ़  सा,   शून्य  रहेगा  शेष    ॥199॥

 

निर्देशन  आवश्यक  है,  पथ  करना हो पार   ।

ऊँचा  उठना  हो  जिसे,  नक़्शे  में  ना  सार   ॥200॥

 

अर्जुन खुद  को मानकर,  केशव भाव समान  ।

गीता  को  तब जो पढ़े, गूढ़  अर्थ  तू  जान      ॥201॥

 

पानी  मित्र   बचाइये,   पानी  सबकी  जान     ।

पानी  उतरे  जीव  से,   मिट  जाए  पहचान     ॥202॥

 

प्रतिभाएँ  छुपती  नहीं,  हो जो सतत  प्रयास   ।

महिमा  सारा जग करे,  गौरव  होता  ख़ास     ॥203॥

 

जन्म न बैरी  ले  कभी,  करते हम  निर्माण     ।

दुश्मन  नहीं   बनाइये,  संकट  घिरते    प्राण   ॥204॥

 

बचपन  पे  है  वश  नहीं, छूट  हाथ से जाय      ।

छीन  नहीं  मुझसे सके, मुझे  बचपना  भाय   ॥205॥

 

चलना  आवश्यक  सदा, रखनी  है जो आस   ।

बैठे  तो   कुचले  गये,  पथ  हो चाहे  ख़ास        ॥206॥

 

आशा  उत्तम  की रखो, जब भी करना काम  ।

सर्वनाश के  वक्त भी,  रखना मन को  थाम   ॥207॥

 

मम्मी अनपढ़ थीं मेरी, लेकिन समझ अपार  ।

प्रेम  करो हर जीव से,  उनका यही  विचार      ॥208॥

 

नारी महिमा भूल कर,  पग-पग पे  अपमान   ।

लक्ष्मी  दुर्गा  शारदा,  रूठे  यह  सब   जान       ॥209॥

 

सदा  अहं  को  सींचते,  बढ़  जाता  आकार      ।

खेती  करिये  ज्ञान   की,   अहंकार  बेकार       ॥210॥

 

पक्की धुन, मेहनत कड़ी,  मिले कई सम्मान    ।

अंत  काल  तक थे रहे,  पापी  कर्म  प्रधान       ॥211॥

 

ज्ञान बहुत  है लोक में, पुस्तक  नहीं  समाय   ।

बाइबिल या  कुरान  हो,  गीता  बाँध न पाय    ॥212॥

 

अच्छे  दिन  का लक्ष्य है,  काम नहीं आसान  ।

बुरे  दिनों को रोकना,  पहला  पग  तू  मान      ॥213॥

 

सन्त  सुरक्षा  मांगते!  युग  कैसा  यह आय    ।

जो भय को ना तज सके, सन्त नही कहलाय ॥214॥

 

पीपल हो या नीम  हो,  रखना सब का मान     ।

अगर हुई नाराज़  माँ,  नहीं   बचेगी   जान       ॥215॥

 

व्यक्ति नया जो भी मिले, गुरुजन उसको मान  ।

चाह  सीखने की अगर,  व्यक्ति हरेक महान      ॥216॥

 

कचरा बाहर  का   मिटे,  झाड़ू   फेरे  कोय        ।

शुद्धिकरण मन बुद्धि का, स्वच्छ ये भारत होय  ॥217॥

 

करम  करे  निष्काम तो,  बन जाती है बात     ।

छोड़े  ना  कर्तव्य  को,   मेरे  घर  की  बात     ॥218॥

 

चलती  चर्चा  ज्ञान की, नहीं  धरम  की रात    ।

सभी  समस्या  हल करे, मेरे  घर  की  बात    ॥219॥

 

प्रेम रूप कण-कण बसे, प्रिय लगता हर पात  ।

बहे  प्यार  की  गंग  में,  मेरे  घर  की बात     ॥220॥

 

इस  शतरंज  के  खेल में, पैदल हो या ताज     ।

अंतकाल  जब  आय  तो,  पेटी  एक इलाज     ॥221॥

 

तम को जो समझा नहीं, ज्योति समझ ना पाय ।

समझे जो अज्ञात  को,  ज्ञात समझ में आय      ॥222॥

 

कितने  आये  चल  दिये,  है सबका सम्मान    ।

शक्ति  हमारी  प्रेम  है,  भारत  सदा  महान     ॥223॥

 

बुद्धि तलक जो ना रुके, करे  आत्म पहचान   ।

होड़ न पश्चिम की करे,  भारत  सदा  महान   ॥224॥

 

जहाँ  ज्ञान  गंगा बहे,  वैश्विक गुरु  पहचान    ।

वेद  और  गीता  जहाँ,  भारत  सदा  महान      ॥225॥

 

सब धर्मों का  वास है, यहाँ  धर्म  सम  जान     ।

प्रेम  धागे   से   बँधा,  भारत  सदा  महान        ॥226॥

 

संख्या  का  दर्शन दिया, मिली शून्य-पहचान  ।

नाप  लिया ब्रह्माण्ड को, भारत  सदा  महान   ॥227॥

 

क्षमता  बादल  की  नहीं,  बाँधे  सूरज  डोर   ।

दुख की  बदरी क्या करे, सुख  है चारों ओर  ॥228॥

 

राजा हो  या  रंक  हो,  गये  मोक्ष के धाम   ।

समझो हर इक भोर के,  जीवन की हो शाम ॥229॥

 

पशु  भूखा  रहता  नहीं, पैसा  रखे  न पास  ।

भरे पेट  मनु  का नहीं,  भरे  तिजोरी ख़ास   ॥230॥

 

हार, हार पर डाल के,  अतिथि का दो  प्यार    ।

दिन ज़्यादा   ठहरे  नहीं,  जीत  बने  दीवार     ॥231॥

 

बिन  माँगे देना  नहीं, नमक नसीहत  कोय    ।

लोग लगाये ज़ख़्म पे,  साथ  ब्याज  के तोय   ॥232॥

 

जैसे   को  तैसा  मिले,  बैर  रहे  या  प्रीत           ।

जो  बोये  वो ही कटे,  जीवन  की  यह रीत       ॥233॥

 

पैसा  हो  या  हो  समय,  देते  रहना   दान         ।

जीवन  में   बहते  रहे,  ये  इनकी  पहचान        ॥234॥

 

अणु  हो  या परमाणु  हो, सब में मेरा  वास      ।

मुझ  में  है बसते सभी, मैं  ही  अणु  प्रवास      ॥235॥

 

मित्र  मन  तारक  बनें, ज्यों  जल तारे नाव     ।

कलयुग में दुर्लभ मिले, मिले न  छोड़ो  पाव   ॥236॥

 

विष अमृत का भाग  है,  मिले साथ ही साथ   ।

दोनों का सम्मान कर,  लग  जाये जब  हाथ   ॥237॥

 

रोज  करे  जो  प्रार्थना,   देता  कृपानिधान      ।

अपना लालच छोड़  के, औरों  पर  दे ध्यान     ॥238॥

 

इच्छाएं  अपनी  रखें,  लिखकर  अपने पास   ।

मुहर  लगे  कानून  की,   पारदर्शिता  खास      ॥239॥

 

जीवन की उपलब्धियाँ,  घर भी एक  मक़्राम ।

रखिये अंतिम साँस तक, बस अपने ही नाम  ॥240॥

 

जीवन की इस दौड़  में,  ग्राहक  सुबहो-शाम   ।

अधिक दिया जो आस से,  बन जाएगा काम  ॥241॥

 

कर्म  है  अपने  हाथ में, फल के देव  अनेक      ।

फल मिलते उपयोग हो, मालिक सबका एक ॥242॥

 

कर्म  सदा  करते  रहो, मिल  जाएगा  ठाठ       ॥

पापा  जाते  काम  पे,  यही  फ़र्ज़  का पाठ        ॥243॥

 

धर्म  स्वयं का जानकर,  करो लक्ष्य निर्माण  ।

अगर सफलता चाहिये,   झोंको  अपने  प्राण  ॥244॥

 

रिश्तों में परिपक्वता,   आपस   में  विश्वास   ।

छोटी-छोटी  बात  को,  कभी  न डालें  घास     ॥245॥

 

जीवन  की  पूंजी  बड़ी,  रहे  मित्र जो ख़ास      ।

सच्चे  साथी  तब  बने,  अहंकार  जब  नाश    ॥246॥

 

बच्चों  को  जो  नेह  दो, नहीं  जताओ  यार      ।

आशा  देगी  यातना,   मिट   जाएगा  प्यार     ॥247॥

 

जीवन  में  शिक्षा  सदा, बच्चों  के   संस्कार    ।

अनुशासन व प्यार  का,  रहे  संतुलन  यार      ॥248॥

 

भ्रात-बहन  रिश्ता  सदा,   उसका  आशीर्वाद  ।

लाभ  न  हानि  देखिये, करे न वाद – विवाद    ॥249॥

 

सदा  समर्पण  भाव  हो, परिणय माँगे त्याग  ।

समझो तुम, बदलो नहीं,  मीठा  जीवन  राग  ॥250॥

 

नहीं  उतरता ऋण  कभी, सेवा  करो  हज़ार     ।

प्रभु  समझ  माँ-बाप को, भक्ति करो अपार   ॥251॥

 

प्रेम  जीव  का  मूल है, माँ  से  जानी  बात        ।

प्यार करो हर जीव से,  ख़ुशी मिले दिन रात  ॥252॥

 

नहीं छोर है सृष्टि  का, क्या अपना  आकार    ।

अहंकार किस बात का,  चलो अहं  को मार     ॥253॥

 

मित्र  बने  दुश्मन  घटे,  आये जब मुस्कान    ।

हंस कर सबसे बोलिये,  रखिये  सबका मान   ॥254॥

 

लोभ लालच करो नहीं,  करो क्रोध का त्याग  ।

दुश्मन है ये सब  बड़े,  घर-घर  लगती आग     ॥255॥

 

सदुपयोगी  है  समय,  क़्रीमत  है  अनमोल     ।

सबके पास  समान ये,  करिये  इसका मोल    ॥256॥

 

बीत गया बस में नहीं,  नहीं काल  का भान     ।

वर्तमान  जीते  चलो,  निकले  कब  ये जान    ॥257॥

 

सुख-दुख  तो  आते रहे, मत  घबराना  यार     ।

आशा  कभी  न  छोड़ना,  होती  नैय्या  पार     ॥258॥

 

धन, बल हो या नाम हो, जीवन का यह सार   ।

खुशियाँ जीवन  में  मिले, बाकी  सब बेकार    ॥259॥

 

जल सेवन नियमित रहे, दिन में बीस गिलास  ।

आगत  को जल दीजिये,  बाकी रहे न प्यास   ॥260॥

 

भोजन ज्यादा मत करो,  ख़ाली हो कुछ  पेट  ।

रोज़ा  हो  उपवास  हो,  शुद्ध  वस्तु  हो भेंट        ॥261॥

 

रोगरहित  काया  रहे,  पहली  है  यह  बात        ।

खेलकूद  करते  रहो,  योग  करो  दिन-रात     ॥262॥

 

साठ  बरस  का मैं हुआ, पाठ  सीख के साठ     ।

सोचा  तुम  से  बाँट  लू, जीवन की ये  गांठ      ॥263॥

 

धन, बल, बुद्धि साथ रहे, जीवन में  हो  शान   ।

जीवन साधन हो सरल, मत ईश्वर-सा  मान  ॥264॥

 

क्षत्रिय  का मैं वीर्य लिये,  वैश्य रूप धनवान   ।

सेवारत  मैं  शूद्र  सा,  सूरज  मुझको  मान      ॥265॥

 

ग्ाुरु माना हर एक को, ज्ञान मिला चहुँ ओर   ।

शिष्य बना जब तक रहा, नहीं ज्ञान का छोर  ॥266॥

 

डिग्री  बस  पहचान है, सब कुछ उसे न मान   ।

ज्ञान  सूरज की  तरह,  जन्मों  की  है  शान     ॥267॥

 

मौक़्रा  पढ़ने  का मिला, ले ली  बाज़ी  जीत     ।

मेहनतकश  है  लड़कियाँ, बनी पुस्तकें  मीत ॥268॥

 

ना महत्त्व  इस बात का, तू कहता क्या बात  ।

कैसे और कहाँ कही, तय  करती  कुछ जात    ॥269॥

 

क्रोध अगर है मित्र तो, दुश्मन का क्या काम  ।

रिश्ते हो या  काम  हो,  होता  काम  तमाम      ॥270॥

 

शब्द अलग भाषा अलग,  भाव भंगिमा  एक  ।

सुख दुख लगता एक सा, जग में जीव अनेक ॥271॥

 

निर्णायक  तुम क्यूँ बनो, ना हो तुम भगवान  ।

जो जैसा  अपना बने,  सब में इक सी जान      ॥272॥

 

नग्न सत्य   ही  है भला, मत  करिये श्रृंगार     ।

जोड़   घटाना   सत्य  का,  यानी  भ्रष्टाचार     ॥273॥

 

मौसम में  वो दम  नहीं, बदल सके जो हाल    ।

मुस्कानें  चिपकी  रहें, काल  चले  हर  चाल    ॥274॥

 

तन मन को चंगा करे, नियमित करना योग  ।

होय  मित्रता  योग  से,  कभी न  लागे रोग       ॥275॥

 

सपने  सच   होंगे   तभी,  पाएँगे  वो  जान        ।

भय  को  डालो क़्रब्र में,  ऱाह  बने   आसान       ॥276॥

 

रहे   खड़े   तूफ़ान  में,  टूटोगे   तुम   यार          ।

उड़  जाओगे साथ  यदि,  घट  जाएगा  भार     ॥277॥

 

पूजा  ऐसी मत करो,  भय व लोभ  हो साथ     ।

परहित  ही  मन में रहे, जोड़  प्रभु  को हाथ      ॥278॥

 

सफल रहे हर काम में, मन में  रहता  जोश     ।

बल के साथ  दबाव में,  मिट  जाते  हैं  होश     ॥279॥

 

करे  इश्क़्र  जो देह से, जाय  देह  के  साथ         ।

मन से मन का इश्क़्र हो,  सदा हाथ में हाथ      ॥280॥

 

तमगे  मारे  कोख  में,  हमने   कई  हज़ार        ।

मित्र  बचा लो  बेटियाँ,  सिंधु  साक्षी झंकार    ॥281॥

 

हाथी  सूअर  से  लड़े,  हाथी  का  अपमान        ।

कूटनीति  तो  यह  कहे, चल  तू सीना तान     ॥282॥

 

रहे अस्त या हो उदय,  कौन  सका  पहचान    ।

धरती  के हैं  ये जनक,  अलग-अलग पहचान  ॥283॥

 

गुल  होती  कड़वाहटें,  हो  जाती  जब  प्रीत      ।

सकल भूल को भूलकर, बन  जाओ मनमीत   ॥284॥

 

भूख मिटे  या ना मिटे, करना  नहीं  बखान      ।

जीना  ऐसा  सीख  लो,  देश पे  हो  क़्रुर्बान        ॥285॥

 

काला कभी न राखिए,  तन मन धन का पाथ  ।

दुख देगा इस लोक में,  दे परलोक  न साथ     ॥286॥

 

परेशान है  आम-जन,  फिर  भी  है  तैयार       ।

ना कोई  भी  बच सके,   इंतज़ार  में   सार        ॥287॥

 

बूँद  जानती  है  सदा,  सागर   मेरा   धाम        ।

कोशिश  वो  करती  रहे, आवे जग के काम     ॥288॥

 

है मालूम   पतंग  को,  कटना  है  हर हाल         ।

छूना  चाहे  आसमाँ,  डोरी  संग   है   चाल        ॥289॥

 

पेड़ जानता  है   सदा,  फल  ना  मेरा  पान        ।

मगर  ताज़गी  के  लिये,  देता  अपनी जान    ॥290॥

 

रिश्तों की क्या  पूछिये, दिल की है वो  जान     ।

उनके बिन  मिलती नहीं,  मानव की पहचान   ॥291॥

 

कृतज्ञता  की भावना,  हर पल  रखिये ध्यान  ।

धन्यवाद   करते   रहें,  बढ़ता  है   सम्मान      ॥292॥

 

भिन्न – भिन्न है पत्तियाँ, भाँति – भाँति के फूल  ।

चौरासी लख  योनियाँ,  भिन्न  वृत्तियाँ  मूल      ॥293॥

 

जल तो बहती धार है,  स्वच्छ हो अपने आप  ।

दूषित  करना  छोड़  दे,  नहीं  लगेगा   पाप      ॥294॥

 

सोच समझ कर देख लूँ,  मंथन  हो  आधार    ।

कलमबद्घ   से  पूर्व   ही,  चिंतन  बारम्बार    ॥295॥

 

आँखें  चमके  प्यार  से,  होंठों  पे  मुस्कान      ।

जीवन में ख़ुशियाँ रहे,  रिश्तों  में  हो  शान      ॥296॥

 

महापुरुष  का  साथ हो, जीवन  में हो आस      ।

कमल पत्र पे बूँद  ज्यों,  मोती  का  आभास     ॥297॥

 

माँगे  से  मिलती  नहीं, ना  ही बढ़ती  शान      ।

काम  अनोखा  कीजिये,  बने  वही  पहचान    ॥298॥

 

धर्मनिष्ठ  पत्नी  मिली,  भाई – बहन संसार  ।

प्राची  और  प्रतीक  से,  जीवन  का  उद्घार    ॥299॥

 

फल  पक जाए फिर गिरे,  सबसे उत्तम होय ।

फल  को  भी पीड़ा नहीं,  ना  डंठल ही रोय        ॥300॥

 

सुख  चाहो  तो  सुख मिले, दुख चाहो संताप  ।

जैसी  जिसकी  कामना,  ईश्वर  का  परताप   ॥301॥

 

उद्यम  कर, सिद्धी  मिले, मात्र  चाह ना पाय ।

मृग जाये ना  सिंह-मुख, कर्म करे फल भाय   ॥302॥

 

जूठा  खाना  छोड़ना,  भोजन  का  अपमान    ।

थाली  धोकर  पीजिये,  ईश्वर  का  सम्मान   ॥303॥

 

क्षय  नहीं  होता  कभी,  लो अक्षर का ज्ञान        ।

पढ़ लिख कर बढ़ती समझ, जीवन की पहचान  ॥304॥

 

ख़ुशियाँ  बाँटे  से  बढ़े, दुख  बाँटे  कम होय        ।

इस जीवन में फल मिले, बीज जिस तरह बोय   ॥305॥

 

अपना  धर्म  निभाइये, सकल  गर्व के साथ    ।

प्रेम कर्म का मेल हो,  मिले  प्रभु  का  हाथ       ॥306॥

 

मधुर रहे  बोली  अगर,  मन  में  हो  ईमान      ।

जग जन सब वश में रहे, मिलता है सम्मान   ॥307॥

 

हिंदी  भाषा  है  गहन,  शब्द – शब्द  विज्ञान    ।

संस्कृत की अनुजा यही,  छुपा है गहरा ज्ञान  ॥308॥

 

भाव सदा आसक्ति का, सकल दुखों का मूल ।

चाहत  हो  जो मुक्ति की,  बदलो इसे समूल   ॥309॥

 

अंधकार  चहुँ  ओर  है,  ज्ञानी  करे  प्रकाश      ।

पढ़ा-लिखा ही गिर पड़े, सकल समाज विनाश  ॥310॥

 

देखे जब हर साँस को,  चेतन  मन हो ध्यान   ।

शांत चित्त तन-मन  भये,  जीवन  बने महान  ॥311॥

 

पितृ गये सब मोक्ष को, कर अपने सब काम   ।

हम उलझे  अब काम में,  जीवन ना आराम    ॥312॥

 

ज्ञानी  ऐसा  जीव  है,  जो  जैसा  है   मान         ।

चार  तरह  के  जीव ये, करे  जगत  उत्थान     ॥313॥

 

जोड़ – घटाने  में  रहे, वो  गणितज्ञ  कमाल     ।

हर पल  करता हो नया,  कलाकार की ताल     ॥314॥

 

चार  लोग से जग बना, जाने  विधिवत  चार  ।

करता  अणु  की खोज जो, बने ॠषि संसार    ॥315॥

 

तत्व  वही  है  जान  ले,  है  उपयोग  हज़ार       ।

दिखे न महिमा तत्व की, दिखता महज़ प्रसार   ॥316॥

 

जो हो  ख़ुशबू  आप  में,  फैलेगी  चहुँ  ओर       ।

धर्म – कर्म  प्रेरित करें,  नहीं ख्याति का छोर  ॥317॥

 

पलकों  में  आँसू  बसे, निर्मल जल का वास    ।

जैसी  मन  की  भावना,  आँसू  केवल  खरे      ॥318॥

 

काग  बिना कोयल नहीं, हर  पक्षी का मान     ।

भला-बुरा  अपनाइये,  कर   गहरी  पहचान     ॥319॥

 

गंगा  को  माता  कहा, सागर  पिता समान      ।

मैला  जो  उनको   करें,  हो  कपूत  संतान        ॥320॥

 

सेवा  के  प्रतिबिम्ब  है,   मानवता  अवतार    ।

छंदबद्ध  सब  को नमन,  प्यार करें स्वीकार   ॥321॥

 

धरम – युद्घ से  जूझते,  रंक  रहे  या  शाह     ।

साम दाम व दंड  भेद,  कृष्णार्र्जुन  की  राह   ॥322॥

 

अर्थ  हीन, स्व-अर्थ जहाँ, परम-अर्थ भरमाय                ।

स्व अर्थ बिन व्यर्थ सब,  अर्थ  अनर्थ  सहाय ॥323॥

 

उगता सूरज  देखिए, फिर ना  आँख  मिलाय ।

बाल्यावस्था साथ हो,  शिखर  चढ़े  खो जाय ॥324॥

 

जीवन जीने की कला, इक  सूरज  समझाय   ।

दिन भर जो बाँटे चमक,  रात  चाँद चमकाय ॥325॥

 

कविता लेखन का नशा,  फिर  क्यूँ चखे शराब  ।

ख़्यालों में हर  पल रहें, छलके  छंद   शबाब     ॥326॥

 

अहंकार  मन  में  रहे, नहीं  दया  का  भाव       ।

अहं  समंदर  को  रहे,  बहे न काग़ज़  नाव        ॥327॥

 

पार्थ  तू  माटी  नहीं,  ना  तन  अपना मान      ।

जड़ में फूंके जान जो, वो शक्ति वही पहचान ॥328॥

 

माटी  माँ  का रूप  है, बीज  पिता का मान       ।

दोनों  के  आशीष   से,  जीव  चढ़े  परवान        ॥329॥

 

बाढ़  जो  आये  यहाँ,  सरवर का क्या काम      ।

परम  ब्रह्म  का बोध  हो, नहीं  वेद का नाम    ॥330॥

 

फल  पर तेरा वश  नहीं, कर्मों पर अधिकार    ।

फल की  आशा  हो नहीं,  ना अकर्म आचार     ॥331॥

 

मोह  जाल  के जंगल से, बुद्धि  लगेगी पार       ।

यात्राएँ  सन्यास  की,   सुना   हुईं   बेकार         ॥332॥

 

जो  भौतिक चिंतन करे, आसक्ति हिय  होय ।

राग  जगाती  कामना, काम क्रोध  को बोय     ॥333॥

 

क्रोध  मोह  को  जन्म दे, चेतन  मारा जाय     ।

चित्त नाश बुद्धि  हरता, पौरुष ही  गिर जाय  ॥334॥

 

जीना मरना तय  सदा,  सतत लोक परलोक  ।

बच  पाना  संभव  नहीं, अनुचित  तेरा शोक   ॥335॥

 

नाश न कोई कर सके,  व्यापक जो चहुँ ओर   ।

अविनाशी यह आत्मा,  चले न जिस पर ज़ोर  ॥336॥

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