३६. सृष्टिसूत्र
लोगो अकिट्टिमो खलु, अणाइ–णिहणो सहाव–णिव्वत्तो ।
जीवा–जीवहि फुडो, सव्वा–गासा–वयवो पीच्चो ॥1॥
लोकः अकृत्रिमः खलु, अनादिनिधनः स्वभावनिर्वृत्तः।
जीवाजीवैः स्पृष्टः, सर्वाकाशावयवः नित्यः ॥1॥
अकृत्रिम अनादिनिधन, स्वभाव निर्मित भाव ।
जीव अजीव व्याप्त रहे, नभ का एक प्रभाव ॥3.36.1.651॥
यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभाव से ही निर्मित है, जीव व अजीव द्रव्यों से व्याप्त है, सम्पूर्ण आकाश का ही एक भाग है तथा नित्य है।
Actually, the universe is natural (Akritrim/uncreated); beginning less and endless(Anadinidhan); generated of its own nature; full of souls and non souls and everlasting (Nitya). It forms/constitutes only a part of the wholespace. (651)
****************************************
अपदेसो परमाणु, पदेसमेत्तो य सय–मसद्दो जो ।
णिद्धो वा लुक्खो वा, दुपदेसादित्त–मणुहवदि ॥2॥
अप्रदेशः परमाणुः, प्रदेशमात्रश्च स्वयमशब्दो यः ।
स्निग्धो वा रूक्षो वा, द्विप्रदेशादित्वमनुभवति ॥2॥
एक प्रदेशी परम अणु, शब्द रूप ना भाव ।
स्निग्ध और गुण रुक्ष से, स्कन्ध रूप प्रभाव ॥3.36.2.652॥
पुद्गल परमाणु एक प्रदेशी है व शब्दरूप नही है। परमाणु में स्निग्ध व रुक्ष स्पर्श का ऐसा गुण है कि एक परमाणु दूसरे परमाणु से बँधने या जुड़ने पर दो प्रदेशों आदि स्कन्ध का रूप धारण कर लेता है।
An atom is unextended. Due to its being unextended, it is devoid of sound, and it is either smooth or rough, i.e., with positive or negative charges. When the atoms are conjoined. they become subject to experience. (652)
****************************************
दुपदेसादी खंधा, सुहुमा वा बादरा ससंठाणा ।
पढवि–जल–तेऊ–वाऊ, सगपरिणामेहिं जायंते ॥3॥
द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः, सूक्ष्मा वा बादराः ससंस्थानाः।
पृथिवीजलतेजोवायवः, स्वकपरिणामैजयिन्ते ॥3॥
द्विप्रदेशी सूक्ष्म सभीे, स्थूल स्कंध आकार ।
भूजल वायु अग्नि रूप, बदले कई प्रकार ॥3.36.3.653॥
द्विप्रदेशी आदि सारे सूक्ष्म और स्थूल स्कन्ध अपने परिणमन के द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के रूप में अनेक आकारवाले बन जाते है।
The molecules constitut ed by two or more atoms (and having two or more spacepoints) one either subtle or gross, onepossessed of specific configuration, and in accordance with the transformation undergone by them, they assume the form of earth, water, fire or air. (653)
****************************************
ओणाढ–गाढ–णिचिदो, पुग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो ।
सुहुमेहिं बादरेहिं य अप्पाउग्गेहिं जोग्गेहिं ॥4॥
अवगाढगाढनिचितः, पुद्गलकायैः सर्वतो लोकः।
सूक्ष्मैबदिरैश्चा–प्रायोग्यैर्योग्यैः ॥4॥
भरता प्रचुर प्रमाण में, पुद्गल से यह लोक ।
कुछ परिवर्तन योग्य कर्म, कुछ परिवर्तन रोक ॥3.36.4.654॥
यह लोक सब ओर से इन सूक्ष्म स्थूल पुद्गलों से ठसाठस भरा हुआ है। उनमें से कुछ पुद्गल कर्मरूप से परिणमन के योग्य होते है और कुछ अयोग्य होते है।
The universe is fully occupied by these subtle as well as gross molecules. Some of them are capable of being transformed into the karmic particles while others are not. (654)
****************************************
कम्मत्तण–पाओग्गा, खंधा जीवस्स परिणई पप्पा ।
गच्छंति कम्मभावं, ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥5॥
कर्मत्वप्रायोग्याः, स्कन्धा जीवस्य परिणतिं प्राप्य ।
गच्छन्ति कर्मभावं, न हि ते जीवेन परिणमिताः ॥5॥
योग्य पुद्गल कर्म में, बदले पाकर जीव।
जीव न परिवर्तन करे, कर्म अधीन अजीव ॥2.36.5.655॥
कर्मरूप से परिणमित होने के योग्य पुद्गल, जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर स्वयं ही करम को प्राप्त हो जाते हैं। जीव स्वयं उन्हें कर्म के रुप में परिणमित नही करता।
The molecules are capable of being transformed into Karma as a result of the thought activity of the Jiva, yet this transformation is not caused by Jiva itself. (655)
****************************************
भावेण जेण जीवो, पेच्छदि जाणादि आगदं विसये ।
रज्जदि तेणेव पुणो, बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो ॥6॥
भावेन येन जीवः, प्रेक्षते जानात्यागतं विषये ।
रज्यति तनैव पुन–र्बध्यते कर्मेत्युपदेशः ॥6॥
देखे जाने विषय को, जिस भाव से जीव।
रागद्वेष उनमें करें, बांध कर्म सदीव ॥3.36.6.656॥
जीव अपने राग या द्वेषरूप जिस भाव से संपृक्त होकर इन्द्रियों के विषयों के रूप में ग्रहण किये गये पदार्थों को जानता-देखता है, उन्हीं से उपरक्त होता है और उसी उपरागवश नवीन कर्मों का बंधन करता है।
The (impure) soul perceives and knows the objects, received by him in the form of sense subjects, with the thought action of certain attachment and aversion. The said soul is attached associated with such thought actions; and as a consequence thereof, it (Soul) is bound with fresh karmas. (656)
****************************************
सव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छद्दिसागयं ।
सव्वेसु वि पएसेसु, सव्वं सव्वेण बद्धगं ॥7॥
सर्वजीवानां कर्म तु, संग्रहे षड्दिशागतम् ।
सर्वेष्वपि प्रदेशेषु, सर्वं सर्वेण बद्धकम् ॥7॥
जीव संग्रहित कर्म सब, छहों दिशा में स्थान।
व्याप्त सभी प्रदेश में, जीव बद्ध है जान ॥3.36.7.657॥
सभी जीवों के लिये संग्रह (बद्ध) करने के योग्य कर्म-पुद्गल छहों दिशाओं में सभी आकाशप्रदेशों में विद्यमान है। वे सभी कर्म-पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ बद्ध होते हैं।
The particles of karmic matter (karma pudgala), which are capable of binding all souls, exist in all the space units of all the six directions. All those particles of karmic matter, get associated/bound with all the space units of the soul. (657)
****************************************
तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं ।
कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छई उ परं भवं ॥8॥
तेनापि यत् कृतं कर्म, सुखं वा यदि वा दुःखम् ।
कर्मणा तेन संयुक्तः, गच्छति तु परं भवम् ॥8॥
जीव के जैसे कर्म हो, सुख दुख वैसे पाय।
कर्म संग ही भ्रमण करे, परभव वैसा जाय ॥3.36.8.658॥
व्यक्ति सुख-दुख रूप या भाशुभरुप जो भी कर्म करता है वह अपने उन कर्मो के साथ ही पराभव में जाता है।
An (impure) soul incarnates along with all the karmas, that one is bound with whether they be good of bad and pleasure bearing or pain bearing. (658)
****************************************
ते ते कम्मत्तगदा, पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स ।
संजायंते देहा, देहंतर–संकमं पप्पा ॥9॥
ते ते कर्मत्वगताः, पुद्गलकायाः पुनरपि जीवस्य।
संजायन्ते देहाः देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ॥9॥
कर्मों के अनुसार ही, जीव देह को पाय ।
नया देह बंधन नये, भ्रमण निरन्तर जाय ॥3.36.9.659॥
इस प्रकार कर्मों के रुप में परिणत वे पुद्गल-पिण्ड देह से देहान्तर को प्राप्त होते रहते हैं। अर्थात पूर्वबद्ध कर्मानुसार नया शरीर बनता है और नया शरीर पाकर नवीन कर्म का बंध होता है। इस तरह जीव निरन्तर विविध योनियों में परिभ्रमण करता रहता है।
In this manner those material formations (Pudgala-pindas), converted into karmas, are transferred from one body to another (In other words the new body is formed as a consequence of past earned karmas and fresh (new) karmas are further associated/bound with new body. This is how an (impure) soul continues to roam about in various “yonis”). (659)
****************************************