३५. द्रव्यसूत्र
धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजन्तवो ।
एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ॥1॥
धर्मोऽधर्म आकाशं, कालः पुद्गला जन्तवः।
एष लोक इति प्रज्ञप्तः, जिनैर्वरदर्शिभिः ॥1॥
धर्म अधर्म काल पुद्गल, जीव ज्ञप्त आकाश।
छह द्रव्यात्मक लोक यह, जिनशासन विश्वास ॥3.35.1.624॥
जिनवर ने लोक को धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव इस प्रकार छह द्रव्यात्मक कहा है। चलायमान इस विश्व के उस एकमेव गुरु अनेकान्तवाद को प्रणाम करता हूँ।
The supreme visioned Jinas have described the universe to be constituted of six substances viz. Dharma (medium of motion), Adharma (medium of rest), Akasa (space), kala (time), Pudgala (matter) and Jiva (soul). (624)
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आगास–काल–पुग्गल–धम्मा–धम्मेसु णत्थि जीवगुणा ।
तेसिं अचेदणत्तं, भणिदं जीवस्स चेदणदा ॥2॥
आकाशकालजीवा, धर्माधमेषु न सन्ति जीवगुणाः ।
तेषामचेतनत्वं, भणितं जीवस्य चेतनता ॥2॥
धर्म अधर्म काल पुद्गल, गुण आकाश न जीव ।
चेतन में गुण जीव हों, बाकी रहे अजीव ॥3.35.2.625॥
धर्म अधर्म काल पुद्गल और आकाश द्रव्यों में जीव के गुण नही होते इसलिये उन्हें अजीव कहा गया है। जीव का गुण चेतनता है।
The substances, Akasa, kala, Pudgala, Dharma and Adharma, do not possess the attributes of the Jiva (i.e. devoid of life) and they therefore have been called Ajivas (non-living). The attribute of Jiva is conscious. (626)
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आगास–काल–जीवा धम्मा–धम्मा य मुत्ति–परिहीणा ।
मुत्तं पुग्गल–दव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु ॥3॥
आकाशकालजीवा, धर्माधर्मों च मूर्तिपरिहीनाः ।
मूर्त्तं पुद्गलद्रव्यं, जीवः खलु चेतनस्तेष ॥3॥
धर्म अधर्म जीव नभ, द्रव्य अमूर्तिक काल।
पुद्गल मूर्तिक द्रव्य है, चेतन जीव कमाल ॥3.35.3.626॥
आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य अमूर्तिक है। पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है। इन सबने केवल जीव द्रव्य ही चेतन है।
Aksa, Kala, Jiva, Dharma and Adharma are incorporeal, where as Pudgala (matter) is corporeal. Ofthese, only the soulsubstance is conscious. (626)
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ण भवो भंगविहीणो, भंगो वा णत्थि संभव–विहीणो ।
उप्पादो वि य भंगो, ण विणा धोव्वेण अत्थेण ॥4॥
जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण ये सेसा ।
पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु ॥4॥
क्रियाशील जीव पुद्गल, शेष द्रव्य ना चाल ।
पुद्गल चलते जीव से, पुद्गल साधन काल ॥3.35.4.627॥
जीव और पुद्गलय ये दो द्रव्य सक्रिय है। शेष सब द्रव्य निष्क्रिय है। जीव के सक्रिय होने का बाह्य साधन कर्म नोकर्मरूप पुद्गल है और पुद्गल के सक्रिय होने का बाह्य साधन कालद्रव्य है।
The Jiva (soul), the Pudgala (matter), these two substances are active, while the rest are inactive. The external cause of the activity of soul is Karmic matter and of the activity of matter is the substance kala (time). (627)
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धम्मो अहम्मो आगासं, दव्वं इक्किक्कमाहियं ।
अणंताणि य दव्वाणि, कालो पुग्गल जंतवो ॥5॥
धर्मोऽधर्म आकाशं, द्रव्यमेकैकमाख्यातम् ।
अनन्तानि च द्रव्याणि, कालः (समयाः) पुद्गल जन्तवः ॥5॥
धर्म अधर्म आकाश भी, इक–इक जगत विशाल।
अनंत काल जग में बसे, जीवन पुद्गल काल ॥3.35.5.628॥
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं। काल, पुद्गल और जीव अनंत-अनंत है।
Dharma, Adharma and Akasa are singular in number, Kala, Pudgala and Jiva-these three are infinite in number. (628)
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धम्माधम्मे य दोऽवेए, लोगमित्ता वियाहिया ।
लोगालोगे च आगासे, समए समयखेत्तिए ॥6॥
धर्माऽधर्मो च द्वायेतौ, लोकमात्रौ व्याख्यातौ ।
लोकेऽलोके चाकाशः, समयः समयक्षेत्रिकः ॥6॥
धर्म अधर्म ही लोक में, नभ है लोक अलोक।
जीव लोक में काल बसे, काल रहे जन लोक॥3.35.6.629॥
धर्म और अधर्म ये दोनों ही द्रव्य लोक प्रमाण है। आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। काल केवल समयक्षेत्र और मनुष्यक्षेत्र में ही है।
Dharma and Adharmaboth these substances have their extension throughout the universe, while Akasa (space) pervades the universe and beyond the universe. Kala pervades only the time region. (629)
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अण्णोण्णं पविसंता दिंता ओगास–मण्णमण्णस्स ।
मेलंता विय णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति ॥7॥
अन्योऽन्यं प्रविशन्तः, ददत्यवकाशमन्येऽन्यस्य ।
मिलन्तोऽपि च नित्यं, स्वकं स्वभावं न विजहति ॥7॥
द्रव्य सभी अवकाश दे, इक दूजे में जाय ।
रहे परस्पर नित्य ही, गुण छोड़ नहीं पाय ॥3.35.7.630॥
ये सब द्रव्य परस्पर में प्रविष्ट है। एक द्रव्य दूसरे को अवकाश देते हुए स्थित है। ये इसी प्रकार अनादिकाल से मिले हुए हैं किन्तु अपना अपना स्वभाव नही छोड़ते।
These six substances (dravyas) are coextensive in the same space and accommodate one-another, they are mixed up with one another from the time infinite. However, they maintain their
identity without loosing their respective nature. (630)
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धम्मत्थिाय–मरसं अवण्ण–गंधं असद्द–मप्फासं ।
लोगोगाढं पुट्ठं, पिहुल–मसंखादिय–पदेसं ॥8॥
धर्मास्त्किायोऽरसो–ऽवर्णगन्धोऽशब्दोऽस्पर्शः ।
लोकावगाढः स्पृष्टः, पृथुलरोऽसंख्यातिक प्रदेशः ॥8॥
स्पर्श रूप रस गंध नहीं, शब्द न धर्म स्वभाव।
असंख्यप्रदेशी लोक में, खण्ड न व्याप्त प्रभाव ॥3.35.8.631॥
धर्मास्तिकाय रस, रूप, स्पर्श, गन्ध और शब्दरहित है। समस्त लोकाकाश में व्याप्त है, अखण्ड विशाल और असंख्यातप्रदेशी है।
Dharmastikaya is devoid of the attributes like taste, colour, smell, sound and touch. It pervades universe, it is independent, huge and has innumerable pradesas, i.e., spacepoints. (631)
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उदयं जह मच्छाणं गमणा–णुग्गहयरं हवदि लोए।
तह जीव–पुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि ॥9॥
उदकं यथा मत्स्यानां, गमनानुग्रहकरां भवति लोके।
तथा जीवपुद्गलानां, धर्म द्रव्यं विजानीहि॥9॥
गमन करे मछली जहाँ, होती जल की बात ।
धर्म द्रव्य में तैरते, जीव पुद्गल दिन रात ॥3.35.9.632॥
जैसे इस लोक में जल मछलियों के गमन में सहायक होता है वैसे ही धर्मद्रव्य जीवों तथा पुद्गल के गमन में सहायक सा निर्मित होता है।
Just as water is helpful in the movement of fishes so is the Dharma in the movement of souls and matter. (632)
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ण य गच्छादि धम्मत्थी, गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स।
हवदि गती स प्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च ॥10॥
न च गच्छति धर्मास्तिकायः, गमनं न करोत्यन्यद्रव्येस्य।
भवति गतेः स प्रसरो, जीवानां पुद्गलानां च ॥10॥
धर्म होता स्थिर सदा, उदासीन हर हाल ।
जीव पुद्गल चले फिरे, नहीं धर्म की चाल ॥3.35.10.633॥
धर्मस्तिकाय न तो गमन करता है न अन्य द्रव्यों को गमन कराता है । वह तो जीवों और पुद्गल की गति में उदासीन कारण है। यही धर्मास्तिकाय का लक्षण है।
Dharmastikaya does not move itself nor cause other things to move; but it is an all pervading medium of motion for the living and non-living bodies. (633)
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जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं।
ठिदि–किरिया–जुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥11॥
यथा भवति धर्मद्रव्यं, तथा तद् जानीहि द्रव्यमधर्माख्यम्।
स्थितिक्रियायुक्तानां, कारणभूतं तु पृथिवीव ॥11॥
जैसे होता धर्म द्रव्य, द्रव्य अधर्म भी जान ।
क्रियावान की जो स्थिति, स्थित करें ज्यू स्थान ॥3.35.11.634॥
धर्मद्रव्य की तरह ही अधर्मद्रव्य है। परन्तु यह है कि यह स्थितिरूप क्रिया से युक्त जीवों और पुद्गलों की स्थिति में पृथ्वी की तरह निमित्त बनता है।
Know that just as Dharma is substance, so is the Adharma. It is helpful in bringing about the rest of the Jivas and Pudgalas capable of being static. (634)
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चेयणरहियममुत्तं, अवगाहणलक्खणं च सव्वगयं।
लोयालोयविभेयं, तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं॥12॥
चेतनारहितममूर्तं, अवगाहनलक्षणं च सर्वगतम्।
लोकालोकद्विभेदं, तद् नभोद्रव्यं जिनोद्दिष्टम्।12॥
अमूर्त व्यापक चित्त नहीं, द्रव्य गगन अवगाह ।
भेद लोक अलोक रहे, जिनदृष्टि नभ राह ॥3.35.12.635॥
जिनेन्द्र देव ने आकाशद्रव्य को अचेतन, अमूर्त, व्यापक और अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है।
The substance space is devoid of consciousness, is incorporeal, accommodating and allpervading. It is of two types one is lokakasa i.e., (space within the universe) and Alokakasa i.e., space beyond the universe. (635)
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जीवा जीव चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए।
अजीव–देस–मागासे, अलोए से वियाहिए॥13॥
जीवाश्चैवाजीवाश्च, एष लोको व्याख्यातः।
अजीवेश आकाशः, अलोकः स व्याख्यातः ॥13॥
जीव अजीव बसे जहाँ, होता है वो लोक ।
नभ है मात्र अजीव यहाँ, कहते उसे अलोक ॥3.35.13.636॥
यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है। जहाँ अजीव का भाग केवल एक आकाश पाया जाता है उसे अलोक कहते हैं।
It is explained that the loka, i.e., universe consists of living and non-living substances, whereas Aloka consista of only a part of one non-living substance i.e., (space) (636)
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पास–रस–गंध–वण्ण–व्वदिरित्तो अगुरुलहुग–संजुत्तो ।
वट्ट–लक्खण–कलियं, काल–सरवं इमं होदि ॥14॥
स्पर्शरसगन्धवर्णव्यतिरिक्तम् अगुरुलघुकसंयुक्तम् ।
वर्तनलक्षणकलितं कालस्वरूपम् इदं भवति ॥14॥
स्पर्शरूप रस गन्ध नहीं, अलघु गुण अगुरु स्वभाव ।
वर्तना लक्षण सदा, काल द्रव्य का भाव ॥3.35.14.637॥
स्पर्श, गन्ध, रस और रूप से रहित, अगुरु-लघु गुण से युक्त तथा वर्तना लक्षणवाला काल द्रव्य कहा गया है।
The substance time is devoid of attributes like touch, taste, smell and colour and properties like heaviness and lightness. It is characterized by mutation. (637)
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जीवाण पुग्गलाणं हुवंति परियट्टणाइ विविहाइं।
एदाणं पज्जाया, वट्टंते, मुक्ख–काल–आधारे ॥15॥
जीवानां पुद्गलानां भवन्ति परिवर्तनानि विविधानि।
एतेषां पर्याया वर्तन्ते मुख्यकालआधारे ॥15॥
सतत परिमणशील हो, जीव व पुद्गल द्रव्य ।
परिणमन का आधारभूत, निश्चय काल द्रव्य ॥3.35.15.638॥
जीवों और पुद्गलो में नित्य होनेवाले अनेक प्रकार के परिवर्तन या पर्याय मुख्यतः कालद्रव्य के आधार से होते हैं। अर्थात उसके परिणमन में कालद्रव्य निमित्त होता है। इसी को आगम में निश्चयकाल कहा गया है।
The multiple mutations and various modes of the soul and matter are mainly due to time substance. (638)
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समयावलि–उस्सासा, पाणा थोवा य आदिया मेदा ।
ववहार–काल–णामा, णिद्दिट्टा वीयराएहिं ॥16॥
समयआवलिउच्छ्वासाः प्राणाः स्तोकाश्च आदिका भेदाः ।
व्यवहारकालनामानः निर्दिष्टा वीतरागैः ॥16॥
समय आवलि प्राण कहो, साँस स्तोक है भेद ।
सभी काल व्यवहार यह, वीतराग का वेद ॥3.35.16.639॥
वीतराग ने बताया है कि व्यवहारकाल समय, आवलि, उच्छवास, प्राण स्तोक आदि रूपात्मक है।
From practical view-point the time is meansured by diverse units like avali (closing and opening of eye-lids) Ucchvasa (time taken in an exhalation), Prana (taken in one respiration) and stoka (second). It is asserted by the Jinas. (639)
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अणुखंधवियप्पेण दु, पोग्गलवण्णं हवेइ दुवियप्पं।
खंधा हु छप्पयारा, परमाणु चेव दुवियप्पो ॥17॥
अणुस्कन्ध विकल्पेन तु, पुद्गलद्रव्यं भवति द्विविकल्पम्।
स्कन्धाः खलु षट्प्रकाराः, परमाणुश्चैव द्विविकल्पः ॥17॥
अणु स्कन्ध है दो यही, पुद्गल के परकार ।
परमाणु के दो विकल्प, स्कन्ध षष्ठ आकार ॥3.35.17.640॥
अणु और स्कन्ध के रूप में पुद्गल द्रव्य दो प्रकार का है। स्कन्ध छह प्रकार का है और परमाणु दो प्रकार का है। कारण परमाणु और कार्य परमाणु।
The substance matter is of two kinds-in the form of an atom (paramanu) and in the form of molecules. Molecules are of six kinds, while the atoms are of two kinds. (640)
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अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं च सुहूमथूलं च।
सुहुमं अइसुहुमं इदि, धरादियं होदि छब्भेयं ॥18॥
अतिस्थूलस्थूलाः स्थूलाः, स्थलसूक्ष्माश्च सूक्ष्मस्थूलाश्च।
सूक्ष्मा अतिसूक्ष्मा इति, धरादयो भवन्ति षड्भेदाः ॥18॥
अति–सूक्ष्म, विशाल अति, सूक्ष्म–बड़ा प्रकार ।
सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म भी, स्कन्ध है छह विचार ॥3.35.18.641॥
स्कन्ध पुद्गल के छह प्रकार-अतिस्थूल, स्थूल, स्थूल-सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म। पृथ्वी आदि इसके छह उदाहरण हैं ।
Gross-gross, gross, gross-fine, fine-gross, fine and fine-fine, these are the six kinds of the aggregate matter (skandha Pudgal). The earth etc. are its six examples. (641)
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पुढवी जलं च छाया, चउ–रिंदिय–विसय–कम्म–परमाणु।
छव्विह– भेयं भणिंयं, पोग्गल–दव्वं जिणवरेहिं ॥19॥
पृथिवी जलं च छाया, चतुरिन्द्रियविषय–कर्मपरमाणवः।
षड्विधभेदं भणितं, पुद्गलद्रव्यं जिनवरैः ॥19॥
पृथ्वी, जल, छाया, इंद्रिय, परमाणु कर्म प्रकार ।
छह विकल्प जिनवर कहे, स्कन्ध द्रव्य विचार ॥3.35.19.642॥
पृथ्वी-अतिस्थूल, जल-स्थूल, छाया प्रकाश आदि नेत्र इन्द्रिय विषय-स्थूलसूक्ष्म, रस गंध स्पर्श आदि शेष इन्द्रिय विषय सूक्ष्मस्थूल, कार्मण स्कन्ध-सूक्ष्म तथा परमाणु-अतिसूक्ष्म का उदाहरण है।
The earth, the water, the shadow, the objects of four senses, (except sight), the Karmic matter and the atoms, these are the six different forms of matter. (642)
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अंतादि–मज्झ–हीणं, अपदेसं इंदिएहिं ण हु गेज्झ।
जं तव्व अविभत्तं, तं परमाणुं कहंति जिणा ॥20॥
अन्त्यादिमध्यहीनम् अप्रदेशम् इन्द्रियैर्न खलु ग्रह्यम्।
यद् द्रव्यम् अविभक्तम् तं परमाणु कथयन्ति जिनाः ॥20॥
आदि मध्य औ अन्त रहित, इक प्रदेश अविभाग ।
ग्रहण इन्द्रियाँ करें नहीं, ना परमाणु ॥3.35.20.643॥
जो आदि, मध्य और अन्त से रहित है, जो केवल एक प्रदेश है, जिसे इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नही किया जा सकता वह विभागविहीन द्रव्य परमाणु है।
The substance of the particle of matter (paramanu dravya) is without beginning, without middle and without end; it has hot only one space unit (pradesh) neither their space units nor more than two. It is not perceivable by sense organs. It is indivisible. (643)
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वण्ण–रस–गंध–फासे, पूरण–गलणाइ सव्व–कालम्हि।
खंदं पि व कुणमाणा, परमाणु पुग्गला तम्हा ॥21॥
वर्णरसगन्धस्पर्शे पूरणगलनानि सर्वकाले।
स्कन्धा इव कुर्वन्तः परमाणवः पुद्गलाः तस्मात् ॥21॥
रस स्पर्श गंध पूरण गलन, होते रहते काल ।
स्कंध सहित परमाणु भी, पुद्गल है हर हाल ॥3.35.21.644॥
जिसमें पूरण गलन की क्रिया होती है अर्थात जो टूटता जुड़ता रहता है वह पुद्गल है। स्कन्ध की भाँति परमाणु के भी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणों में सदा पूरण-गलन क्रिया होती रहती है इसलिये परमाणु भी पुद्गल है।
The particles of matter unite and disunite like molecules of matter, the particles of matter have touch, taste, smell and colour. Hence are also matter. (644)
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पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हुए जीविदो पुव्वं ।
सो जीवो पाणा पुण बल–मिंदिय–माउ–उस्सासो ॥22॥
प्राणैश्चतुर्भिजीवति, जीविष्यति यः खलु जीवितः पूर्व।
स जीवः, प्राणाः, पुनर्बलमिन्द्रिमायु रुच्छ्वासः ॥22॥
जीयेगा, जीता, जिया, चार प्राण है पास।
बल, इन्द्रिय आयु रहे, जीव द्रव्य उच्छवास ॥3.35.22.645॥
जो चार प्राणों में वर्तमान में जीता है, भविष्य में जीयेगा और अतीत में जिया है वह जीवद्रव्य है। प्राण चार है। बल, इन्द्रिय, आयु और उच्छ्वास
That which has lived in past, is living at present; and shall live in future, with four vitalities is the substance of soul the vitalities are of four kinds; 1. Power of body; 2. Sense organs; 3. Age; and 4. Respiration (645)
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अणुगुरुदेहपमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा।
असुगुहदो ववहारा, णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥23॥
अणुगुरुदेहप्रमाणः, उपसंहारप्रसर्प्पतः चेतयिता।
असमवहतः व्यवहारात्, निश्चयनयतः असंख्यदेशो वा ॥23॥
देह सा आकार धरे, बड़ा व छोटा वेश ।
व्यवहार नय असम रखे, निश्चय असंख्य प्रदेश ॥3.35.23.646॥
व्यवहारनय के हिसाब से जीव अपने शरीर के बराबर आकार का होता है लेकिन निश्चयनय अनुसार जीव असंख्यात प्रदेशी है।
From practical point of view, the (impure) soul is coextensive of its body excepting the cases when it is in the state of “samudghata”, when it utilises its capacity to enlarge or shorten from Real point of view the soul has innumerable space points. (646)
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जह पउम–राय–रयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं।
तह देही देहत्थो, सदेह–मत्तं पभासयदि ॥24॥
यथा पद्मरागरत्नं, क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरम् ।
तथा देही देहस्थः, स्वदेहमात्रं प्रभासयति ॥24॥
पद्मरागमणि की प्रभा, प्रभासिव बात ।
बसे जीव बस देह में, बाहर नहीं बिसात॥3.35.24.647॥
जैसे पद्मरागमणि दूध में डाल देने पर अपनी प्रभा से दूध को प्रभासित करती है- दुग्धपात्र के बाहर किसी को नही, वैसे ही जीव शरीर में रहकर अपने शरीरमात्र को प्रभासित करता है अन्य किसी बाह्य पदार्थ को नही।
Just as a ruby thrown into milk illuminates the whole milk only, so also an embodied soul illuminates its own body only. (647)
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आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्पमाण–मुद्दिट्ठं।
णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥25॥
आत्मा ज्ञानप्रमाणः, ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम्।
ज्ञेयं लोकालोकं, तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम् ॥25॥
आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण ।
ज्ञेय लोकालोक है, सर्वव्यापि यह ज्ञान ॥3.35.25.648॥
व्यवहारनय से जीव शरीरव्यापी है लेकिन वह ज्ञान-प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है तथा ज्ञेय लोक-अलोक है अतः ज्ञान सर्वव्यापी है। ज्ञान प्रमाण आत्मा होने से आत्मा भी सर्वव्यापी है।
(Thus from practical stand point, the (impure) soul is coextensive of the body; (but) the soul is coextensive of knowledge Jnan; Jnan/knowledge being coextensive of the knowable (Jneya); and the knowable (jneya) being coextensive of the universe (Lok) and nonuniverse (Alok) knowledge becomes (is proved to be) all pervasive (Sarva-vyapi) the soul being coextensive of knowledge is all pervasive (Sarvavyapi). (648)
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जीवा संसारत्था, णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा।
उवओग–लक्खणा वि य, देहादेह–प्पवीचारा ॥26॥
जीवाः संसारस्था, निर्वाताः, चेतनात्मका द्विविधाः ।
उपयोगलक्षणा अपि च, देहादेहप्रवीचाराः ॥26॥
जीव है संसारी विमुक्त, दोनों चेतन भाव ।
देह नहीं या देह हो, पर उपयोग स्वभाव ॥3.35.26.649॥
जीव दो प्रकार के है- संसारी और मुक्त। दोनों ही चेतना स्वभाव वाले है और उपयोग लक्षणवाले है। संसारी जीव शरीरी होते हैं और मुक्तजीव अशरीरी।
The souls are of two kinds: 1. Mundane (or impure) souls; and 2. Pure and perfect (Liberated) souls. Consciousness constitutes the nature of both kinds of souls both have the characteristic of attentiveness/attention (upayog). The mundane (impure) souls are embodied and pure souls are bodiless. (649)
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पुढवि–जल–तेय–वाऊ–वणप्फदी विविह–थावरेइंदी।
बिगि–तिग–चदु–पंचक्खा, तसजीवा होंति संखादी ॥27॥
पृथिवीजलतेजोवायु–वनस्पतयः विविधस्थावरैकेन्द्रियाः।
द्विकत्रिकचतुपञ्चाक्षाः, त्रसजीवाः भवन्ति शड्खादयः ॥27॥
जल अग्नि वायु वनस्पति भू, एक इन्द्रिय जीव ।
द्वि त्रि चतु पंचेन्द्रिय, त्रस शंखादि सजीव ॥3.35.27.650॥
संसारी जीव भी त्रस और स्थावर दो प्रकार के है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये सब एकेन्द्रिय और स्थावर जीव है। शंख, पिपीलिका (चीटी), भ्रमर तथा मनुष्य-पशु आदि क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरन्द्रिय व पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं।
The mundane souls are of two kinds: 1. One sensed immobile animate beings (Sthavar); and 2. Many sensed animate beings (tris). The earth bodied (Prithvi kayek), water bodied (Jalkayik) fire bodied (Tejkayik) air bodied (Vanaspati-kayik) are all one sensed immobile impure souls (Sthavar-Jiva) conch shell(Shankh), ant/termite (pripilika) black bee (Bhramar) and animals or men (manusya/pashu) etc. are respectively twosensed three sensed four sensed and five sensed (i.e. manysensed) impure souls (trisa-jiva). (650)
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