२. सांख्ययोग ॐ
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- द्वितीयोऽध्याय: सांख्ययोग ॐ
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन: ॥
करुणा से परिपूर्ण है, शोकाकुल है पार्थ ।
मधुसूदन समझा रहे, कर सतत् शास्त्रार्थ ॥2-1॥
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श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीतिंकरमर्जुन॥
क्यों आया अज्ञान तुम्हें, असमय सारी बात।
लोक ना परलोक बने, पार्थ अपयशी रात ॥2-2॥
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क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यत्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥
पार्थ नपुंसक मतबनो, उचित नहीं पहचान।
दुर्बलताबिल्कुल नहीं, गांडीवतेरी शान॥2-3॥
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अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभि: प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥
पूजनीय सब हैंखड़े,भीष्मपितामह द्रोण।
हेमधुसूदनयह बता,बाण चले किसकोण॥2-4॥
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गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥
मांगूँखाऊँठीकहै,गुरुमारनापाप।
भोगऐसे ठीक नहीं,गुरुहत्याकाशाप॥2-5॥
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न चैतद्विद्म: कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेऽवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा:॥
क्याअच्छायहपतानहीं,हम जीतेंयातात।
प्राणहरणभ्राताकरूँ,जीवनजैसेरात॥2-6॥
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कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥
दुर्बलता के बंधन में, भूला मेरा काम।
शरणागत मैं आपका, पथ दिखलाओ श्याम॥2-7॥
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न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् ।
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥
मिट पायेगा ना कभी,मेरेमनकाशोक।
चाहेयहधरतीमिले,यासमस्तपरलोक॥2-8॥
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संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परन्तप ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥
कृष्णसेअर्जुनकहे,ठीकनही संग्राम।
बैठगयेरथमेंपुन:,अपनीचुप्पीथाम॥2-9॥
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तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच:॥
हे राजन!गोविंदकहे,मोहित धर मुस्कान।
शोकाकुल अर्जुनसुने,मध्यसैन्य भगवान॥2-10॥
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श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:॥
बातें करताज्ञानकी,करे व्यर्थका शोक।
शोक न ज्ञानीजनकरें, जिये मरे यह लोक ॥2-11 ॥
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न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा: ।
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम् ॥
काल नहीं ऐसाकभी, हमना थे इस लोक।
कालनहींहोगा कभी,नहीं लोक परलोक ॥2-12॥
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देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
भूतजवानीबालपन, नवजीवन सबपाय।
धीरवीरसोचेनहीं,क्यों तू शोक मनाय॥2-13॥
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मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
सर्दीगर्मी सुखवदु:ख, सहने की है बात।
संग इन्द्रियों के विषय,हैअनित्यहालात॥2-14॥
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यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
ज्ञानी विचलित हो नहीं,सुखदुखसभी समान।
चाहत जो वशमें करे,मिलेमोक्षसम्मान॥2-15॥
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नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि द़ृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥
आयुनहींअसत्यकी,सत्य सनातन काल।
ज्ञानीजन तो समझ गए,जीवनमायाजाल॥2-16॥
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अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
नाश न कोई कर सके,व्यापक जो चहुँ ओर।
अविनाशी यह आत्मा,चले न जिस पर ज़ोर॥2-17॥
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अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण: ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥
अजरअमरजीवात्मा,नाशवान यहदेह ।
अर्जुन जन्मे मरेनहीं, रखो युद्ध से नेह॥2-18॥
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य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥
मरा समझना–मारना,दोऊआधेज्ञान।
मरतीहैनामारती,अमर आत्माजान॥2-19॥
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न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय: ।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
नित्य सनातन आत्मा, नहीं देह के साथ ।
मरती ना ये जन्मती, कभी समय के हाथ ॥2-20॥
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वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥
जाने जो यह आत्मा, नाशरहित और नित्य ।
मरवाने या मारने, नहीं करेगा कृत्य ॥2-21॥
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वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्यति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
बदल पुराने वस्त्रको,लेते नया चढ़ाय।
वैसेहीजीवात्मा,नईदेह पाजाय॥2-22॥
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नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥
मार सके ना शस्त्र जिसे, जला सके ना आग।
जल गीला ना करसके, वायु करेना भाग॥2-23॥
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अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥
गले जलेना आत्मा, और टूट नापाय ।
नित्य सनातन है सभी, अचल व स्थिर कहलाय ॥2-24॥
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अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥
व्यक्त नहीं होती कभी,होता नहीं विकार।
ऐसी है जब आत्मा,शोक करे बेकार ॥2-25॥
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अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाली नैवं शोचितुमर्हसि ॥
किन्तु कहे तू आत्मा, फिरे लोक परलोक।
तो भी महाबली सुनो, उचितनहीं यह शोक॥2-26॥
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जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
जीना मरना तयसदा,सतत लोक परलोक ।
बच पाना संभवनहीं, अनुचित तेरा शोक॥2-27॥
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अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥
प्रगट नहीं प्रारंभ में, नहीं मृत्यु के बाद ।
प्रगट मध्य में ही रहे, फिर क्यों शोक – विवाद ॥2-28॥
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आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।
आश्चर्यवच्चौनमन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥
कोई अचरज से लखे, करे आत्म की बात।
या फिर अचरज से सुने, समझ न पाये जात॥2-29॥
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देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥
पार्थ अमर यह आत्मा, रहती सबके देह।
तुझे नहीं अधिकार ये, करे शोक संदेह ॥2-30॥
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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्माद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
सउचित यह संकोच नहीं, भय न धर्म अनुसार।
धर्मयुद्ध में जबलड़े, होक्षत्रिय उद्धार॥2-31॥
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यद़ृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीद़ृशम् ॥
हे पार्थ!अवसर यही, खुला स्वर्ग का द्वार।
भाग्यवान क्षत्रिय वही, मिले युद्ध काभार॥2-32॥
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अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि ।
तत: स्वधर्मं कीतिर्ं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
छोड़ेगा जोयुद्धतू, खुले पाप के द्वार।
छोड़ स्वधर्म न यश मिले, जीवन का यह सार॥2-33॥
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अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥
होनिन्दा इतिहासमें,अपयशबारंबार।
मृत्युसे भी बदतरहै, बदनामी का भार॥2-34॥
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भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥
छोड़ युद्ध जो भागता, लोग कहें डरपोक।
कायर कहें महारथी, बिगड़ें दोनों लोक ॥2-35॥
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अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता:।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दु:खतरं नु किम्॥
क्षमता पर शंका करें, बोल वचन के तीर।
व्यंग्य बाण तुझ पर चले, घाव करें गंभीर॥2-36॥
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हतो वा प्राप्स्यसि स्वगर्ं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
मरणगति से स्वर्ग मिले,विजय मिली तो राज ।
कौन्तेय! तू होखड़ा, कर रण का आग़ाज़ ॥2-37॥
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सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
हार–जीत, सुख–दुख रहे, लाभो–हानि समान।
भाव रहित जो युद्ध लड़े,मिले पुण्य का मान॥2-38॥
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एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
पार्थ! जो अबतक सुना, सांख्ययोग का बोध।
कर्मयोग से काम लो, मिटे मोक्ष अवरोध ॥2-39॥
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नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
कर्मयोग के मायने, नहीं हानि या नाश।
थोड़ा भी जो कर्म करे, मुक्त हो भय विश्वास॥2-40॥
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व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥
लक्ष्य कभी भटके नहीं, धर्म न छोड़े साथ।
नर में नहीं विवेक जिस, नियति छोड़े हाथ॥2-41॥
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यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥
लिपटा है जोभोग में, कर्म फलों की आस ।
स्वर्ग गमन के मोह में,वेद वाक् का दास॥2-42॥
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कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥
फँसा काम के जाल में, पुनर्जन्म का फेर।
अर्जुन ऐसे जातक में, है लालच अति ढेर ॥2-43॥
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भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥
यहीं भटकता मन कहीं, लिपटा भोग विलास ।
सम्भव नहींसमाधि हो, होय बुद्धि का नास॥2-44॥
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त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥
तीनगुणों काफेर है, वेदविषय का ज्ञान।
रागद्वेषको छोड़के, अर्जुन सत्को जान॥2-45॥
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यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: ॥
बाढ़जोआयेयहाँ, सरवर का क्या काम।
परमब्रह्मकाबोध हो, नहींवेद का नाम॥2-46॥
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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
फल पर तेरा वश नहीं, कर्मों पर अधिकार।
फल की आशा हो नहीं, ना अकर्म आचार॥2-47॥
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योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
नहीं धनंजय लिप्त न हो, मन की समता साध ।
सफल विफल जो भी रहे, कर कर्तव्य अबाध ॥2-48॥
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दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा:फलहेतव:॥
बुद्धि योग से धनंजय,बुरे कर्म को त्याग ।
बुद्ध शरण की कामना, कृपण करे अनुराग ॥2-49॥
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बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥
कर्म करे समभाव जो, पाप–पुण्य तज जाय।
कर्म कुशलता सेकरें, जीव मुक्त हो पाय ॥2-50
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कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता:पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥
भक्तिभाव से कर्म करे, ज्ञानी फल को त्याग ।
जन्म चक्र से मुक्त रहे, मिलता मोक्ष सुभाग ॥2-51॥
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यदा ते मोहकलिलं बुद्धिवर्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥
मोह जाल के जंगल से, बुद्धि लगेगी पार ।
यात्राएँ सन्यास की, सुनाहुईं बेकार ॥2-52॥
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श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
सुन अज्ञान से हो परे, हो मन निश्चित स्थान ।
ईश्वर में बुद्धि रहे, मिले योग तू जान ॥2-53॥
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अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥
स्थितप्रज्ञ है आदमी, भाषा क्या भगवान ।
जो स्थिर कैसे बोलता, किसविध से पहचान ॥2-54॥
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श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥
कामनाएँ त्याग दे, समता मन कहलाय।
आत्मज्ञान पहचान ले,स्थिरबुद्धि कहलाय॥2-55॥
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दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते
दुखी नहीं दुख कर सके, सुख का ना हो भान ।
राग क्रोध भय ना रहे, स्थिर बुद्धि हो जान ॥2-56॥
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य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
मोह नहीं बाँधे जिसे, है शुभ अशुभ समान ।
नहीं खुशी ना द्वेष हो, स्थिर बुद्धि हो जान॥2-57॥
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यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश: ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
कछुआ ज्यों भीतर छुपे, हो विषयों से दूर ।
अंकुश जो मन पे रखे, स्थिर है बुद्धि ज़रूर ॥2-58॥
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विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं द़ृष्टा निवर्तते ॥
रहे विषय जो दूर जो, पाले प्रत्याहार ।
रस जाने पर त्याग दे, होवे बेड़ा पार ॥2-59॥
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यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:॥
सदा प्रभावी इन्द्रियाँ, विचलित रहे विवेक।
अर्जुन हार न मानना, करना यत्न अनेक॥2-60॥
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तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
जो मुझमें तल्लीन हो, मन पर अंकुश होय ।
वश में रख के इंद्रियाँ, स्थिर बुद्धि वह होय॥2-61॥
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ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
जो भौतिक चिंतन करे, आसक्ति हिय होय।
राग जगाती कामना, काम क्रोध को बोय॥2-62॥
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क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
क्रोध मोह को जन्म दे, चेतन मारा जाय ।
चित्त नाश बुद्धि हरता,पौरुष ही गिर जाय ॥2-63॥
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रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥
राग द्वेष से मुक्त हो, हों इंद्रियाँ अधीन।
आत्मा को वश में रखे, रहे वही स्वाधीन ॥2-64॥
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प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते ॥
कृपा प्रभु की जब मिले, भागें सब दुख दूर।
मानवस्थिरबुद्धि बने, खुशियाँ रहेंन दूर ॥2-65॥
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नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम् ॥
संयत बुद्धि की कमी, शांति कभी ना होय ।
जो शांति की हो कमी, आनंदित क्या होय॥2-66॥
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इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
वायु बहाकर ले चले, जल संग बहती नाव।
वैसेइन्द्रिय ले चले,आसक्ति संग भाव॥2-67॥
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तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश: ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
हे अर्जुन! उसकी समझ,स्थिर बुद्धि का राज ।
रहे नियंत्रित इंद्रियाँ,विषयबन्द आवाज़ ॥2-68॥
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या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥
सोते हैं सब लोग जब, ज्ञानी करते गात ।
अगर जागते लोग सब, ज्ञानी समझेरात ॥2-69॥
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आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
विचलितनासागरहुआ, नदियाँमिलेंहज़ार।
बनीशांतबुद्धिरहे,इच्छाउठेअपार ॥2-70॥
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विहाय कामान्य: सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति ॥
कामनाएँ जो तज दे,तजे अहं और मोह ।
उसको हीशांति मिले, आनंदित आरोह॥2-71॥
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एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥
पाये जो यह दिव्यदशा, नहीं मोह का ध्यान ।
परमानंद उसकोमिले,मिलें अंत निर्वान॥2-72॥
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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुन संवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्याय: ॥
॥ ॐ ॐ ॐ ॥