७.मिथ्यात्वसूत्र
हा! जग मोयिमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं ।
भोमे भवकंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि ॥1॥
हा! यथा मोहतमतिना, सुगतिमार्गमजानता।
भीमे भवकान्तारे, सुचिरं भ्रान्तं भयंकरे॥1॥
मोह मति से बँधा हुआ, सुगति पंथ अंजान ।
भव के वन चिरकाल फँस, रही भटकती जान ॥1.7.1.67॥
मुझे खेद है कि सुगति का पथ अनजान होने के कारण मैं मोह मति से बँधा हुआ भयंकर भव-वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।
Oh: what a pity? Due to my ignorance, I have not been able to know the part leading to spiritual progress so, I have been roaming about in the intense and dangerous forest of universe
(Bava-vana). (68)
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मिच्छत्तं वेदन्तो जीवो, विवरीय–दंसणो होदि।
ण य धम्मं रोचिदि हु, मुहरं पि रसं जहा जरिदो ॥2॥
मिथ्यात्वं वेदयन, जीवो, विपरीतदर्शनो भवति।
न च धर्म रोचते हि, मधुरं रसं यथा ज्वरितः॥2॥
ग्रसित हो मिथ्यालाप से, दृष्टि उलट विचार ।
धर्म लगे रुचिकर नहीं, मधु रस लगे बुखार ॥1.7.2.68॥
जो जीव मिथ्यात्व से ग्रसित होता है उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। उसे धर्म रुचिकर नही लगता जैसे बुखार में मीठा रस रुचिकर नही लगता है।
The Drist/Vision of the imperfect soul, which is in the clutchesof wrong-faith, becomes perverted. It does not like Dharma (Right-Conduct) in the manner, in which a man, suffering from fever, does not like even sweet juice. (68)
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मिच्छत–परिणदप्पा तिव्व–कसाएण सुट्ठु आविट्ठो ।
जीव देहं एक्कं मण्रंतो होदि बहिरप्पा ॥3॥
मिथ्यात्वपरिणतात्मा, तीव्रकषायेण सुष्ठु आविष्टः ।
जीव देहमेकं, मन्यमानः भवति बहिरात्मा ॥3॥
रहे आवरण झूठ का, कटुता रहे प्रभाव ।
देह–जीव इक आत्मा, बहिरात्म का भाव ॥1.7.3.69॥
मिथ्या दृष्टि से ग्रसित जीव शरीर व आत्मा को एक ही मानता है वह बहिरात्मा है।
A perverted soul, who remains completely in the grip of passions or intense moral impurities and due to this consider soul and body as one. Such a soul is an external soul (Bahiratma). (69)
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जो हजवायं न कुणइ, मिच्छादिट्ठी तओ हु को अन्ना ।
वड्ढ इ य मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ॥4॥
यो यथावादं न करोति, मिथ्यादृष्टिः ततः खलु कः अन्यः ।
वर्धते च मिथ्यात्वं, परस्य शंकां जनयमानः ॥4॥
भ्रमित कौन उससे बड़ा, तत्व ज्ञान ना चाल ।
बढ़ा रहा मिथ्यात्व को, कर शंकित बदहाल ॥1.7.4.70॥
उससे बड़ा भ्रमित कौन है जो तत्त्व विचार के अनुसार नही चलता है। वह दूसरों को शंकाशील बनाकर अपने मिथ्यात्व को बढ़ाता रहता है।
Could there be a person with greater wrong faith than the one who does not lead his life according to the precepts of Jina? He develops wrong beliefs by creating doubt in others (about the right path of Jina). (70)
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