६.कर्मसूत्र
जो जेण पगारेणं, भावो णियओ तमन्नहा जो तु ।
मन्नति करेति वदति व, विप्परियासो भवे एसो ॥1॥
यो येन प्रकारेण, भावः नियतः तम् अन्यथा यस्तु।
मन्यते करोति वदति वा, विपर्यासो भवेद् एषः॥1॥
नियत मानिये अन्यथा, स्थित जैसा हो भाव ।
करे मान विपरीत सदा, अच्छा नहीं स्वभाव ॥1.6.1.56॥
जो भाव जिस प्रकार से नियत है, उसे अन्य रूप से मानना, कहना या करना विपरीत बुद्धि है।
If a thing is possessed of a certain definite form, then to consider it otherwise, to act as if it were otherwise, or to describe as otherwise is adverse knowledge. (56)
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जं जं समयं जीवो आविसइ जेण जेण भावेण।
सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंध कम्मं ॥2॥
यं यंसमयं जीवः, आविशति येन येन भावेन।
सः तस्मिन् समये, शुभाशुभं बध्नाति कर्म॥2॥
जब जब उठते जीव में, जैसे जैसे भाव ।
तब तब बँधते कर्म के, अच्छे–बुरे प्रभाव ॥1.6.2.57॥
जिस समय जीव जैसे जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसे ही अच्छे-बुरे कर्म का बंध करता है।
Whenever a soul experiences this or that mental state at that very time it gets bound by a corresponding good or bad karmas. (57)
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कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु ।
दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मट्टियं ॥3॥
कायेन वचसा मत्तः, वित्ते गृद्धश्च स्त्रीषु ।
द्विधा मलं संचिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम् ॥3॥
तन–वचन तन्मय करता, धन–औरत का राग।
मल करम संचय कर ज्यूँ, रेत मले शिशुनाग ॥1.6.3.58॥
तन और वचनों में मत्त होकर धन और नारी में राग रखता है, वह उसी प्रकार से कर्म मल का संचय करता है जैसे शिशु नाग मुख और शरीर दोनों से मिट्टी का संचय करता है।
Whoever is careless about his physical activities and speech and greedy of wealth and woman. accumulates Karmic dirt of attachment and aversion just as an infant snake (earth warm) accumulates mud by both way (i.e., internally and externally). (58)
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न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्त–वग्गा न सुया न बंधवा ।
एक्को सयं पच्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ॥4॥
नतस्य विभजन्ते ज्ञातयः, न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः ।
एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखं, कर्तारमेवानुयाति कर्म ॥4॥
मित्र, पुत्र और बंधु भी, बाँट सके ना भाग ।
दुख अनुभव ख़ुद ही करे, कर्त्ता करम अनुराग ॥1.6.4.59॥
मित्र, पुत्र और बंधु उसका दुख नहीं बाँट सकते। जीव स्वयं अकेला दुख का अनुभव करता है क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है।
The sons, borthers, friends and athe caste-men can not share his misery. He has to suffer himself all alone. (It is so because karma pursue the doer (Karta). (59)
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कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होंति।
रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइस परव्वसो तत्तो ॥5॥
कर्म चिन्वन्ति स्ववशाः, तस्योदये तु परवशा भवन्ति ।
वृक्षामारोहति स्ववशः, विगलति स परवशः ततः ॥5॥
स्वकीय वश करना करम, परवश सब पश्चात् ।
चढ़े वृक्ष स्वेच्छा सदा, गिरे नहीं वश तात् ॥1.6.5.60।।
कर्म करना स्व वश हैलेकिन भोगते समय उसके अधीन हो जाता है जैसे वृक्ष पर स्वेच्छा से चढ़ तो जाता है लेकिन गिरते समय परवश हो जाता है।
Just as a person is frree while climbing a tree but once he starts falling then he has no power to control it similarly a living being is free in accumulating the Karmas but once accumuled it is beyond his power to control their fruits. (60)
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कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाइं कहिंचित कम्माई ।
कत्थइ धणिओ, बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं ॥6॥
कर्मवशाः खलु जीवाः, जीववशानि कुत्रचित् कम ।
कुत्रचित् धनिकः बलवान्, धारणिकः कुत्रचित् बलवान ॥6॥4
कहीं कर्म वश जीव है, करम जीव वश मान ।
धन दाता बलवान है, देते ऋणि बलवान ॥1.6.6.61॥
कही जीव कर्म के अधीन होता है तो कही कर्म जीव के अधीन होता है जैसे ऋण देते समय धनी बलवान होता है लेकिन लौटाते समय ऋणी बलवान हो जाता है॥
Some time, the Jiva is dependent upon karmas; at others karmas are dependent upon the Jiva. At the time of issuing a loan, the power vests in the creditor; whereas, at the time of repayment, the power vests in the debtor. (61)
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कम्मत्तणेण एक्कं, दव्वं भावो त्ति होदि दुविहं तु ।
पोग्गल–पिंडो दव्वं, तस्सत्ती भाव–कम्मं तु ॥7॥
कर्मत्वेन एकं, द्रव्यं भाव इति भवति द्विविधं तु ।
पुद्गलपिण्डो द्रव्यं, तच्छक्तिः भावकर्म तु ॥7॥
करम एक, पर भाग दो, द्रव्य–भाव विचार ।
पुद्गलपिण्ड द्रव्य करम, कर्म ये भाव विकार ॥1.6.7.62॥
सामान्य रूप से कर्म एक है पर द्रव्य व भाव उसके दो भाग हैं।कर्म पुद्गल का पिण्ड द्रव्य कर्म हैं, पर उसके निमित्त से जीव में होने वाले राग द्वेष विकार भाव कर्म हैं।
Karma as such is of one type but it is divided also as, dravyakarma (objective) and bhavakarma (sujective). The dravyakarma is a mass of physical particles and the inherent capacity of it is bhavakarma (and this capaicty is originated from the attachment and aversion of the self). (62)
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जो इंदियादिविजई, भवीय उवओगमप्पगं झादि ।
कम्मेहिं सो ण रंजदि, किह तं पाणा अणुचरंति ॥8॥
य इन्द्रियादिविजयी, भूर्त्वोपयोगमात्मकं ध्यायति।
कर्मभिः स न रज्यते, कस्मात् तं प्राणा अनुचरन्ति ॥8॥
इन्द्रियजित् मेें ध्यान कर, आत्मा का उपयोग।
कर्म से बँधता नहीं, पुनर्जनम नहीं रोग ॥1.6.8.63॥
जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ज्ञान दर्शन से आत्मा का ध्यान करता है वह कर्मों से नही बँधता । उसे नया जन्म धारण नही करना पड़ता।
He who has gained victory over his senses and meditates on the very nature of soul is not bound by Karmas; Hence how can the material vitalities (Pondgalic-Prana) follow such goal? (such soul gets freedom from transmigration). (63)
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नाणस्सावरणिज्जं, दंणावरणं तहा ।
वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य ॥9॥
नामकम्मं च गोयंच, अंतरायं तहेव य ।
एवमयाइ कम्माइं, अट्ठे उ समासओ ॥10॥
ज्ञानस्यावरणीयं, दर्शनावरणं तथा॥
वेदनीयं तथा मोहम्, आयुःकर्म तथैव च ॥9॥
नामकर्म च गोत्रं, अन्तरायं तथैव च।
एवमेतानि कर्माणि, अष्टैव तु समागतः ॥10॥
ज्ञानावरणीय कर्म है, कर्म भी दर्शन जान ।
मोह वेदना में बँधे, आयुकर्म पहचान ॥1.6.9.64॥
नामकर्म व गोत्र भी, कर्मान्तराय समान ।
आठ तरह के कर्म है, ऐसा ले लो ज्ञान ॥1.6.10.65॥
संक्षेप में आठ कर्म इस प्रकार है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय।
Feling (1) jnanavaraniya (knowledge obscuring), (2) Darsanavaraniaya (Apprehension obscuring), (3) Vedaniya (feeling producing), (4) Mohaniya (causing delusion), (5) Ayu (determining the life-span), (6) Nama (physique-determining) and (8) Antaraya (obcuring the power of self). (64-65)
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पड–पडिहार–सि–मज्ज–हडि–चिंत्त–कुलाल–भंउगारीणं ।
जह एएसिं भावा, कम्माण वि जाण तह भावा ॥11॥
पट प्रतिहारासि–मद्य, हडि–चित्र–कुलाल–भाण्डागारिणाम् ।
यथा एतेषां भावाः, कर्मणाम् अपि जाीहि तथा भावान् ॥11॥
पट, प्रहरी, तलवार सह, सुरा हलि चित्रकार।
भंडारी व कुम्हार में, आठ कर्म प्रतिकार ॥1.6.11.66॥
इन कर्मों का स्वभाव परदा, द्वारपाल, तलवार, मदिरा, हलि, चित्रकार, कुम्भकार तथा भण्डारी के स्वभाव की तरह है।
The nature of (the above mentioned) Karmas is respectively like (that of) (1) Curtain; (2) doorkeeper; (3) sword; (4) Wine; (5) Kath (Hali); (6) painter (7) Pot-maker; and (8) Store-keeper. (66)
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