३.संघसूत्र
संघो गुणसंघाओ, संघो य विमोचओ य कम्माणं ।
दंसण–णाण–चरित्ते, संघायंतो हवे संघो ॥1॥
संघो गुणसंघातः, संघश्च विमोचकश्च कर्मणाम् ।
दर्शनज्ञानचरित्राणि, संघातयन् भवेत् संघः॥1॥
संघ कर्म को काटता, संघ गुणों के साथ ।
ज्ञान चरित दर्शन रहे, संघ समन्वय हाथ ॥1.3.1.25॥
गुणों का समूह संघ है। संघ कर्मों को काटने में मदद करता है। संघ दर्शन, ज्ञान और चारित्र (त्रिरत्न या रत्नत्रय या तीन रत्न) का समन्वय करता है।
The order of saints is accumulation of virtues: a religious order emancipates people from the Karmas and coordinates together Right Faith, Right Knowledge and Right Conduct. (25)
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रयणत्तयमेव गणं, गच्छं गमणस्स मोक्खमग्गस्स ।
संघो गण–संघादो, समयो खलु णिम्मलो अप्पा ॥2॥
रत्नत्रयमेव गणः गच्छः गमनस्य मोक्षमार्गस्य ।
संघो गुणसंघातः, समयः खलु निर्मलः आत्मा॥2॥
तीन रत्न ही ‘गण’ कहे, ‘गच्छ’ मोक्ष पथ चाल।
संघ मेल गण से करे, शुद्ध आत्मा काल ॥1.3.2.26॥
तीन रत्न (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) ही ‘गण’ है। मोक्ष मार्ग में चलना ही ‘गच्छ’ है। गण का समूह ही संघ है। निर्मल आत्मा ही समय है।
“Gana” is constituted by three Jewels (i.e. Right Faith, Right Knowledge and Right conduct), what leads to the path of leads to the path of Salvation constitutes a gaccha: the accumulation of virtues is Sangha and a pure soul is “Samaya”. (26)
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आसासे वीसासो, सीयघरसमो य होइ मा भााहि ।
अम्मापितिसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं ॥3॥
आश्वासः विश्वासः शीतगृहसमश्च भवति मा भैषीः ।
अम्बापितृसमानः, संघः शरणं तु सर्वेषाम् ॥3॥
आश्वासन विश्वास मिले, शीतल घर सा जान ।
माँ–पिता सा पाकर संघ, मिलता शरण समान ॥1.3.3.27॥
संघ आश्वासन व विश्वास देता है। शीतल छाया देता है। माता-पिता सा लगता है। शरण देता है इसलिये संघ से मत डरो।
Don’t fear order of Sangha. The Sangha grants assurance, evokes confidence and gives peace like a cold chamber. It is affectionate like the parents and affords shelter to all living beings. (27)
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नाणस्स होइ भागी, थिर–यरओ दंसणे चरित्ते य ।
धन्ना आव–कहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥4॥
ज्ञानस्य भवति भागी, स्थिरतरको दर्शने चरित्रे च ।
धन्याः गुरुकुलवासं, यावत्कथया न मुञ्चन्ति ॥4॥
दर्शन ज्ञान चरित्र में, स्थिर भाग्य बलवान ।
धन्य होय गुरुकुल बसे, जीवन भर सम्मान ॥1.3.4.28॥
संघ स्थित साधु ज्ञान, दर्शन व चारित्र का अधिकारी है। वो धन्य है जो जीवन भर गुरुकुल नही छोड़ते।
Blessed are those who reside life-long in Gurukul as they acquire knowledge and specially attain stability in faith and conduct. (28)
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जस्स गुरुम्मि न भत्ती, न य बहुमाणो न गउरवं न भयं ।
न वि लज्जा न वि नेहो, गुरुकुलवासेण किं तस्स? ॥5॥
यस्य गुरौ न भक्तिः, न च बहहुमानः न गौरवं न भयम् ।
नावि लज्जा नाषि स्नेहः गुरुकुलवासेन कि तस्य ?॥5॥
गुरु भक्ति सम्मान नहीं, गौरव–भय ना पास ।
ना ही लज्जा नेह नहीं, क्यूँ कर गुरुकुल वास ॥1.3.5.29॥
जिसमें गुरु के प्रति भक्ति, सम्मान, गौरव, भय, लज्जा व स्नेह नहीं है उसे गुरुकुल में रहने का कोई अर्थ नहीं है।
What is the sense, in staying in Gurukul for him who does not have a sense of devotion, sense of pride, reverence, regard and affection for the teacher. (29)
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कम्म–रय–जलोह विणिग्गयस्स, सुय–रयण–दीह–नालस्स ।
पंच–महव्वय–थिर–कण्णियस्स, गुण–केसरालस्स ॥6॥
सावग–जण–महुयर–परिवुडस्स, जिण–सूर–तेय–बुद्धस्स ।
संघ–पउमस्स भद्दं, समण–गण–सहस्स–पत्तस्स ॥7॥
कर्मरजजलीघविनिर्गतस्य, श्रुतरत्नदीर्घनालस्य ।
पञ्चमहाव्रतस्थिरकर्णिकस्य, गुणकेसरवतः ॥6॥
श्रावकजन–मधुकर–परिवृतस्य, जिनसूर्यतेजोबुद्धस्य ।
संघपद्मस्य भद्रं श्रमणगणसहस्रपत्रस्य ॥7॥
ज्ञान रत्न का पथ बड़ा, संघ है कमल समान ।
पंचमहाव्रत कर्णि स्थिर, गुण केसर सा जान ॥1.3.6.30॥
श्रावक ज्यूँ मधुकर रहे, सूर्य तेज जिन ज्ञान ।
श्रमणगण सहस्रपत्र हैं, संघ कमल कल्याण ॥1.3.7.31॥
संघ कमल की तरह अलिप्त है। ज्ञान व आगम ही संघ का मूल है। पाँच महाव्रत उसे स्थिर रखते है व उत्तर गुण उसे खुशबू देते हैं। इसलिये श्रावक व श्राविका भँवरे की तरह संघ को घेरे रहते है। संघ जिनेश्वरदेव के सूर्य की तरह प्रकाश से प्रकाशित होता है। ऐसे संघ का कल्याण हो।
The order of saints (Sangha) is like a lotus flower. May the lotus like Sangha prosper which keeps itself aloof from the Karmicdirt just as a lotus keeps itself away from the mud and water. Knowledge is the long stalk of this lotus; five great vows form its stalk (karnika) and Extra vows (uttar-gna) its saffron (kesar). this saffron is always surrounded by large black bees (Bhramaras) called layman (Sravakas). As the lotus blossoms on account of the sunrays, similarly the Sangha grows on account of the precepts of Jina. (30-31)
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