३७. अनेकान्तसूत्र
जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा ण णिव्वउइ ।
तस्स भुवणेक्कागुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स॥1॥
येन विना लोकस्य अपि व्यवहारः सर्वथा न निर्वहति।
तस्मै भुवनैकगुरवे नमः अनेकान्तवादाय ॥1॥
जिसके बिना न चल सके, यहाँ लोक व्यवहार ।
नमन विश्व गुरु को करे, अनेकान्त विचार ॥4.37.1.660॥
जिसके बिना लोक का व्यवहार बिलकुल नही चल सकता विश्व के उस एकमेव गुरु अनेकान्तवाद को प्रणाम करता हूँ।
Without whom, even the worldly affairs can not be carried out, I bow to that Anekantavada (nonabsolutism), the only preceptor of the world. (660)
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गुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा ।
लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ॥2॥
गुणानामाश्रयो द्रव्यं, एकद्रव्यांश्रिता गुाणः ।
लक्षणं पर्यवाणां तु, उभयोराश्रिता भवन्ति ॥2॥
एक द्रव्य गुण आश्रय, द्रव्य ही गुण आधार ।
पर्यायी लक्षण समझ, द्रव्य गुणों का सार ॥4.37.2.661॥
द्रव्य गुणों का आधार है। जो एक द्रव्य के आश्रय रहते हैं वे गुण हैं। पर्यायों का लक्षण द्रव्य या गुण दोनों के आश्रित रहना है।
The substance (Dravya) is the resort or abode (Asraya) or base (Adhar) of attributes (Guna) those which take shelter in a substance are attributes. The characteristic of mode (Paryaya) is its dependence upon substance and attributes. (661)
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दव्वं पज्जवविउयं, दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि ।
उप्पाय–ट्ठिइ–भंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं ॥3॥
द्रव्यं पर्यवावियुतं, द्रव्यवियुक्ताश्च पर्यवाः न सन्ति ।
उत्पादस्थितिभङ्गाः, हन्त द्रव्यलक्षणमेतत् ॥3॥
द्रव्य नहीं पर्याय बिन, बिना द्रव्य पर्याय।
उत्पन्न स्थित नाश हो, द्रव्य है ये समझाय ॥4.37.3.662॥
पर्याय के बिना गुण नहीं और द्रव्य के बिना पर्याय नहीं। उत्पाद, स्थिति और व्यय द्रव्य का लक्षण है। अर्थात द्रव्य उसे कहते हैं जिसमें ये तीनों घटित होते रहते हैं।
There is no substance without the modes, nor are the modes without are the modes without substance. The characteristics of substance are origination, permanence and destruction. (662)
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ण भवो भंगविहीणो, भंगो वा णत्थि संभव–विहीणो ।
उप्पादो वि य भंगो, ण विणा धोव्वेण अत्थेण ॥4॥
जीवाः पुद्गलकायाः, सह सक्रिया भवन्ति न च शेषाः।
पुद्गलकरणाः जीवाः, स्कन्धाः खलु कालकरणास्तु ॥4॥
व्यय बिना उत्पाद नहीं, उत्पाद बिन व्यय सार ।
व्यय हो या उत्पाद रहे, बिना स्थिति–आधार ॥4.37.4.663॥
उत्पाद व्यय के बिना नही होता और व्यय उत्पाद के बिना नही होता। इसी प्रकार उत्पाद और व्यय दोनों स्थायी ध्रौव्यअर्थ के बिना नही होते।
There is no origination without destruction, no destruction without origination, while neither origination nor destruction is possible without a permanent substance. (663)
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उप्पाद–ट्ठिदि–भंगा, विज्जंते पज्जएसु पज्जाया ।
दव्वं हि संति णियंद, तमहा दव्वं हवदि सव्वं ॥5॥
उत्पादस्थितिभङ्गा, विद्यन्ते पर्यायेषु पर्यायाः ।
द्रव्यं हि सन्ति नियतं, तस्माद् द्रव्यं भवति सर्वम् ॥5॥
पर्यायों में होता है उत्पाद व्यय घ्रौव्य।
पर्याय–समूह द्रव्य वहीं, उत्पाद–व्यय घ्रौव्य ॥4.37.5.664॥
उत्पाद, व्यय और स्थिति ये तीनों द्रव्य में नहीं होते अपितु द्रव्य की नित्य परिवर्तनशील पर्यायों में होते है। परन्तु पर्यायों का समूह द्रव्य है। अतः सब द्रव्य ही है।
The origination, permanence and destruction belong to the modes (and not to the substance, but since modes are definitely of the form of a substance, everything whatsoever is the form of a substance. (664)
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समवेदं खलु दव्वं, संभव–ठिदि–णास–सण्णिदट्ठेहिं ।
एकम्मि चेव समये, तमहा दव्वं खु तत्तिदयं ॥6॥
समवेतं खलु द्रव्यं, सम्भवस्थितिनाशसंज्ञितार्थेः।
एकस्मिन् चैव समये, तस्माद्द्रव्यं खलु तत् त्रितयम् ॥6॥
एक समय ही द्रव्य में, सभी रहे समवेत।
उत्पाद, व्यय और घ्रौव्य, द्रव्य सो तीन समेत॥4.37.6.665॥
द्रव्य एक ही समय में उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य नामक अर्थों के साथ समवेत एकमेक है। इसलिये तीनों वास्तव में द्रव्य है।
Since at one and the same moment the substance is subject to three states, viz. origination, permanence and destruction-these three states verily constitute a substance. (665)
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पाडुब्भवदि य अण्णो, पज्जाआ पज्जआ वयदि अण्णो ।
दव्वस्सं तं पि दव्वं, णेवट्ठं णेव उपपण्णं ॥7॥
प्रादुर्भवति चान्यः, पर्यायः पर्यायो व्ययते अन्यः ।
द्रव्यस्य तदपि द्रव्यं, नैव प्रनष्टं नैव उत्पन्नम् ॥7॥
नव पर्याय उत्पन्न हो, पूर्व पर्याय नष्ट ।
द्रव्य फिर भी द्रव्य है, न उत्पन्न न नष्ट ॥4.37.7.666॥
द्रव्य की अन्य पर्याय उत्पन्न होती है और कोई अन्य पर्याय नष्ट हो जाती है फिर भी द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। द्रव्य के रुप में सदा नित्य रहता है।
The mode of a substance which emerges is one and that which vanishes is other than it, while the substance neither emerges, not vanishes. (666)
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पुरिसम्मि पुरसिसद्दो, जम्माई–मरणकाल–पज्जंतो ।
तस्स उ बालाईया, पज्जवयोगा बहुवियप्पा ॥8॥
पुरुषे पुरुषशब्दो, जन्मादि–मरणकालपर्यन्तः ।
तस्य तु बालादिकाः, पयायोग्या बहुविकल्पाः ॥8॥
रहे जन्म से मरण तक, एक पुरुष पर्याय, ।
उसी में उपजे विनशे, शिशु आदिक पर्याय ॥4.37.8.667॥
पुरुष में पुरुष शब्द का व्यवहार जन्म से लेकर मरण तक होता हैपरन्तु इसी बीच बचपन बुढ़ापा आदि अनेक प्रकार की पर्याय उत्पन्न होकर नष्ट होती जाती हैं।
The individual remains the same person from his birth till the time of death, though he assumes the various states of childhood etc. (667)
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तम्हा वत्थूणं चिय, जो सरिसो पज्जवो स सामन्नं।
जो विसरिसो विसेसो, स मओऽणत्थंतरं तत्तो ॥9॥
तस्मद् वस्तूनामेव, यः सदृशः पर्यवः स सामान्यम्।
यो विसदृशो विशेषः, स मतोऽनर्थान्तरं ततः ॥9॥
सदृश्य पर्याय समान है, वह सामान्य कहाय ।
विसदृश पर्याय विशेष, वस्तु से अभिन्न कहाय ॥4.37.9.668॥
वस्तुओं की सदृश पर्याय है दीर्घकाल तक बनी रहने वाली समान पर्याय है वही सामान्य हैऔर उनकी जो विसदृश पर्याय है वह विशेष है। ये दोनों सामान्य तथा विशेष उस वस्तु से अभिन्न है।
All the modes of the things which are common to all of them are universal, while those which are not, are particular but both belong to the same. (668)
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सामण्णं अह विसेसे, दव्वे णाणं हवेइ अविरोहो।
सहइ तं सम्मत्त, तं तस्स विवरीयं॥10॥
सामान्यमथ विशेषः, द्रव्ये ज्ञानं भवत्यविरोधः।
साधयति तत्सम्यक्त्वं, नहि पुनस्तत्तस्य विपरीतम् ॥10॥
सामान्य विशेष सदा, सहित द्रव्य का ज्ञान ।
सम्यकत्व साधक का, नहीं विरोधी ज्ञान ॥4.37.10.669॥
सामान्य तथा विशेष इन दोनों धर्मों से युक्त द्रव्य में होने वाला विरोधरहित ज्ञान ही सम्यकत्व का साधक होता है। उसमें विपरीत अर्थात् विरोधयुक्त ज्ञान साधक नही होता।
The cognitions of a substance are universal and particular and are uncontradicted. This is the right cognition whereas the contrary to it is not. (669)
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पिउ–पुत्त–णत्तु–भव्वय–भाऊणं, एग–पुरिस–संबंधो।
ण य सो एगस्स पिय त्ति सेसयाणं पिया होइ ॥11॥
पितृ–पुत्र–नातृ–भव्यक–भ्रातॄणाम् एक पुरुषसम्बन्धः।
न च स एकस्य पिता इति शेषकाणां पिता भवति ॥11॥
पुत्र पौत्र भाई पिता, नाते पुरुष हजार ।
हो जब वह इक का पिता, सबका पिता न यार ॥4.37.11.670॥
एक ही पुरुष में पिता, पुत्र, भांजे, भाई आदि अनेक सम्बन्ध होते हैं। एक का पिता होने से सबका पिता नही होता। यही स्थिति सब वस्तुओं की है।
One and the same person assumes the relationship of father, son, grandson, nephew and brother, but he is the father of one whose he is and not of the rest (so is the case with all the things). (670)
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सवियप्प–णिव्वियप्पं इय पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं।
सवियप्पमेव वाव णिच्छएणस णिच्छिओ समए ॥12॥
सविकल्प–निर्विकल्पम् इति पुरुषं यो भणेद् अविकल्पम्।
सविकल्पमेव वा निश्चयेन न स निश्चितः समये ।12॥
निर्विकल्प–सविकल्प में, है ना कोई भेद ।
इक जाने दूजा नहीं, मति स्थिर होत न वेद ॥4.37.12.671॥
निर्विकल्प सविकल्प उभयरूप पुरुष को जो केवल निर्विकल्प अथवा सविकल्प (एक ही) कहता हैउसकी मति निश्चय ही शास्त्र में स्थित नही है।
A person is certainly possessed of alternative relationships and also assumes single relationship. But one exclusively ascribes to this person either the former or the latter relationship, is certainly not well versed in the scriptures. (671)
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अन्नोन्नाणुगयाणं, ‘इमं व तंव’ त्ति विभयणमजुत्तं।
जह दुद्ध–पाणियाणं, जावंत विससपज्जाया॥13॥
अन्योन्यानुगतयोः ‘इदं वा तद् वा’ इति विभजनमयुक्तम्।
यथा दुग्ध–पानीययोः यावन्तः विशेषपर्यायाः ॥13॥
द्रव्य में एकमेक हो रहे, परस्पर विरोधी धर्म ।
दूधपानी ज्यों मिले, विभक्त न होय धर्म ॥4.37.13.672॥
दूध और पानी की तरह अनेक विरोधी धर्मों द्वारा परस्पर घुलेमिले पदार्थ में यह धर्म और वह धर्म का विभाग करना उचित नही। जितनी विशेष पर्याय हो उतना ही अविभाग समझना चाहिये।
The particular qualities (of a substance) are mixed together just like milk and water, so it is not justifiable “to exclusively distinguish them as `this’ or `that’ quality. (672)
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संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू, विभज्जवायं च वियागरेज्जा ।
भासादुगं धम्म–समुट्टितेहिं, वियागरेज्जा समया सुपण्णे ॥14॥
शमितःचाऽशमितभावो भिक्षुः विभज्यवादं च व्यागुणीवान् ।
भाषाद्विकंं च सम्यक् समुत्थितैःव्यागृणीयात् समतया सुप्रज्ञः ॥14॥
शंकित साधु या रहित, स्याद् वाद व्यवहार ।
समभाव ना भेद रहे, ज्ञान करे प्रचार॥4.37.14.673॥
सूत्र और अर्थ के विषय में शंकारहित साधु गर्वरहित होकर स्याद्वादमय वचन का व्यवहार करे। धर्माचरण में प्रवृत्त साधुओं के साथ विचरण करते हुए सत्यभाषा तथा अनुभय (जो न सत्य है और न असत्य) भाषा का व्यवहार करे। धनी या निर्धन का भेद न करके समभावपूर्वक धर्म कथा कहेे।
A monk, who ii doubtful about the meaning of a verse, should adopt without any pride the relative point of view in his interpretation. A wise monk, while dealing with other monks
following the right path in their practice of religion, should preach with equanimity in a truthful and unequivocal language.
(673)
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