२.जिनशासनसूत्र
जं संल्लीणा जीवा तरिंत संसार–सायर–मणंतं ।
तं सव्व–जीव–सरणं णंदउ जिण –सासणं सुइरं ॥1॥
यद् आलीना जीवाः तरन्ति संसारसागरमनन्तम् ।
तत् सर्वजीवशरणं, नन्दतु जिनशासनं सुचिरम्॥1॥
लीन हो कर पार करे, सागर जगत विशाल ।
शरण मिले सब जीव को, जिनशासन चिरकाल ॥1.2.1.17॥
जिस में लीन होकर जीव अनंत सागर को पार कर जाते हैं तथा जो समस्त जीवों को शरण देता है वह जिनशासन चिरकाल तक समृद्ध रहे।
May the teachings of Jina which enable all souls to cross over the endless ocean of mundane existence and which afford protection to all living beings, flourish for ever. (17)
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जिण–वयण–मोसह–मिणं विसय–सुह–विरयेण्ं अमिदभूयं ।
जर–मरण–वाहि–हरणं, खय–करणं सव्व–दुक्खाणं ॥2॥
जिनवचनमौषधमिदं, विषयसुखविरेचनम्–अमृतभूतम् ।
जरामरणव्याधिहरणं, क्षयकरणं सर्वदुःखानाम्॥2॥
विषयशुद्धि जिनवचन करे, औषध सुधा समान ।
जन्म–मरण से मुक्ति मिले, सब दुख हरता मान॥1.2.2.18॥
ये जिनवचन विषयसुख के विरेचक (बाहर निकालने वाले) हैं, अमृतोपम औषधि हैं, जन्म-मरण व्याधि से मुक्ति देनेवाले तथा सब दुखों को हरने वाले हैं।
Oh the Conqueror of all attachments: Oh, the teacher of universe: Oh the blessed one: through your grace may I develop detachment to the world, continue to follow the path of liberation. (22)
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अरहंत–भाषित अर्थ है, गणधर ग्रंथित ज्ञान।
भक्तिभर शिरोनति करूं, सागर है श्रुतज्ञान ॥3॥
अरहंतभासियत्थं, गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं।
पणमामि भत्तिजुत्तो, सदणाणमहोदहिं सिरसा॥3॥
भाषित है अरहंत अर्थ, ग्रंथ ले गणधर ज्ञान ।
भक्त शीश करता नमन, सागर है श्रुतज्ञान॥1.2.3.19॥
मै उस सागर से गहरे ज्ञान को श्रुतज्ञान भक्तिपूर्वक नमन करता हूँ जो अरिहंतो ने कहा व गणधरो ने शब्दबद्ध किया।
bow down my head with devotion to the vast ocean of scriptural knowledge preached by the Arhats and properly composed in the form of scriptures by the Ganadharas (group leaders of ascetic order).(19)
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तस्स मुहग्गद–वयणं, पुव्वा–वर–दोस–विरहियं सुद्धं ।
आगम– मिदि परिकहियं, तेणदु कहिया हवंति तच्चत्था ॥4॥
तस्य मुखोद्गतवचनं, पूर्वापरदोषविरहितं शुद्धम्।
‘आगम’ इति परिकथितं, तेन तु कथिता भवन्ति तथ्यार्थाः॥4॥
मुख से वचनामृत झरे, दोषरहित सुविचार ।
आगम इनको जानिये, सत्य तथ्य का सार॥1.2.4.20॥
जो अरिहंतों के मुख से वाणी निकली वो सत्य है, पूर्वापर दोषरहित और शुद्ध है। उसे आगम कहते है।
That which has come from the mouth of the Arhats is pure and completely free from contradictions is called the agama or the Scripture and what is recorded in the Scriptures is truth. (20)
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जिणवयणे अणुरता गुरुवयणं जे करंति भावेण।
असंबल असंकिलट्ठा ते होंति परित संसारा ॥5॥
जिनवचनेऽनुरक्ताः, जिनवचनं ये करन्ति भावेन।
अमला असंक्लिष्टाः, ते भवन्ति परीतसंसारिणः॥5॥
जिनवचनों को पालते, ग्रहण करें जो सार।
स्वच्छ निर्मल बन तरते, भवसागर से पार ॥1.2.5.21॥
जो जिनवचनों में अनुरक्त हैं और उनका भावसहित पालन करते है, असंक्लिष्ट परिणाम वाले वे जल्द ही जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।
Those who are fully devoted to the preachings of the Arhats and practise them with sincerity shall attain purity and freedom from miseries and shortly get liberated from the ycle of birth and death. (21)
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जय वीयराय! जयगुरु! होउ मम तुह पभावओ भयवं!
भवणिव्वेओ मग्गाणुसारि या इट्ठफलसिद्धि॥6॥
जय वीतराग! जगद्गुरो! भवतु मम तव प्रभावतो भगवन्!
भवनिर्वेदः मार्गानुसारिता इष्टफलसिद्धिः॥6॥
जगद् गुरु, वीतराग हे, मैं मोहित भगवान।
विरक्त हो पथ मोक्ष मिले, इष्टफलित सह ज्ञान॥1.2.6.22॥
हे वीतराग ! हे जगत के गुरु! भगवन् आपके प्रभाव से मुझे इस संसार से विरक्ति हो और मार्गानुसारी मुक्ति मिले।
Oh the Conqueror of all attachments: Oh, the teacher of universe: Oh the blessed one: through your grace may I develop detachment to the world, continue to follow the path of liberation. (22)
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ससमय–परसमविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो।
गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेउं॥7॥
स्वसमय–परसमयवित्, गम्भीर– दीप्तिमान् शिवः सोमः।
गुणशतकलितः युक्तः, प्रवचनसारं परिकथयितुम्॥7॥
स्वसमय ज्ञाता रहे, शिव, सोम गुण भंडार।
दीप्तिमान निर्ग्रन्थ को, प्रवचन का अधिकार॥1.2.7.23॥
निग्रर्न्थ प्रवचन देने का अधिकारी वही है जो स्वसमय व परसमय का ज्ञाता है, गम्भीर है, दीप्तिमान है, कल्याणकारी है, सौम्य है और सैंकड़ो गुणों से भरा है।
He alone is entitled to propagate the essence of the teachings of the possession-less saints) (Nirgranthas), who is well-versed in pure souls and impure-souls; who is deep, brilliant benevolent and modest and has hundreds of other virtues. (23)
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जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो।
तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं॥8॥
यदिच्छसि आत्मतः, यच्च नेच्छसि आत्मतः।
तदिच्छ परस्यापि च, एतावत्कं जिनशासनम्॥8॥
चाहत जो अपने लिये, दूजे की भी चाह।
खुद सा जानो ओर को, जिनशासन की राह॥1.2.8.24॥
जिनशासन का उपदेश यही है कि जो आप अपने लिये चाहते हैं वो ही दूसरों के लिये चाहे और जो आप अपने लिये नहीं चाहते वो दूसरों के लिये भी न चाहे।
The teaching of Jina (Tirthankars) is that What you desire for yourself desire for others too, what you do not desire for yourself do not desire for others too. (24)
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